सोमवार, 28 दिसंबर 2020

राजा राव रामबक्श सिंह जी डोडियाखेड़ा उन्नाव

#क्रांतिनायक_राजाराव_रामबख्शसिंह

वह 17 दिसम्बर 1859 का दिन था,जब क्रांतिकारी राजा की मुश्के जंजीरों से पग बेड़ियों से जकड़े हुए थे। अंग्रेज जज हेमिल्टन जॉर्ज कचहरी में आया तो सब खड़े हुए किन्तु वह अभियुक्त गजभर सीने को और चौड़ाकर एक पग जमीन तो एक पग ब्रेंच पर सिंहमुद्रा की यथास्थिति से रत्तीभर भी न बदला और नाममात्र दिखावे दण्ड व्यबस्था ने अभियुक्त को "हैंग टिल डेथ!" की सजा बोल दी ।
वह कोई फांसीघर नही था जँहा मृत्युदण्ड हेतु फांसी दी जाए,वह तो आम आबादी के मध्य गंगा तीर खड़ा एक वृक्ष था जँहा ब्रितानी से बगावत करने बालो मन मे भय व्याप्त करने हेतु फांसी दी जा रही थी ।

चेहरे पर नकाब नही डाला गया,जल्लाद ने फंदा डाला और दूसरा छोर खींचा की मोटी बत्त का फंदा टूट गया ..!
पुनः फंदा बना प्रक्रिया दोहराई गयी किन्तु पुनः फंदा टूट गया ..!!
फांसी पाने बाले सिंह व्यक्ति ने एक निश्छल मुस्कान लेते हुए अंगड़ाई ली ओर गले मे पड़ी हुई रुद्राक्ष माला उतारते हुए कहा ..."है माँ गंगे अब मुझे अपनी स्नेही अंक  में बुला लो,में तैयार हूं !"
फांसी फंदा प्रक्रिया पूनः दोहराई गयी और एक छोर खिंचा गया एक माँ भारती का सपूत अपने आत्मोत्सर्ग उपरांत घण्टो वृक्ष ओर फांसी पर लटका रहा ।
असिस्टेंड कमिश्नर सी के क्रेमलिन की उपस्थिति में यह फांसी हुई थी व वह खुद हतप्रभ हुआ जब दो बार फांसी का फंदा टूट गया था, अंततः उसने करीब एक घण्टे तक राव जी लटकाये रखा और जब पूर्ण सन्तुष्ट हो गया तब मृत्युप्रमाण पत्र जारी कर लिखा ..'आज दिसम्बर 28 1859 राजा राव रामबक्श सिंह को जब तक फांसी पर लटकाया की वह मृत नही हो गए !'

यह कहानी है बैसबारा के अमर बलिदानी राजा राव रामबक्श सिंह जी की जो 1857 की क्रांति यज्ञ में आहूत हुए तमाम बागियों की तरह अंग्रेजो के काल बने थे। 
बैसवारा के क्रांतिकारी राव राम बख्श सिंह को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। उन्हें एक घंटे तक फांसी पर लटकाने का आदेश हुआ था। 17 दिसंबर 1858 को फांसी पर लटकाने के आदेश के एक साल 11 दिन बाद 28 दिसंबर 1859 को राव साहब को उसी जगह पर फांसी दी गई, जहां उन्होंने अंग्रेजों को मारा था।

दरअसल 29 जून 1857 को राव राम बख्श सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारी जान बचाने के लिए डिल्लेश्वर मंदिर में घुसे थे। परिस्थिति ऐसी बनी कि 12 अंग्रेज जिंदा जला दिए गए। इसमें जनरल डीलाफौस समेत आठ की मौत हो गई थी। इसी के बाद राव साहब को फांसी की सजा सुनाई गई थी। किवदंती है कि राव साहब को फांसी देते वक्त दो बार फंदा टूट गया। इस पर राव साहब ने गले में पड़ी भोले शंकर के नाम की माला खुद से अलग की। तब जाकर अंग्रेज उन्हें फांसी दे पाए थे। राव साहब की इच्छा पर फांसी के दिन ही बक्सर के लंबरदार देशराज सिंह को उनका शव सौंप दिया गया।

महंत शोभन सरकार के स्वप्न ओर तात्कालिक शाशको के द्वारा पुरातत्व विभाग द्वारा गढे हुए स्वर्ण खजाने की दिलचस्प चर्चा में आये ढोढ़ीयाखेड़ा गढ़ दिसम्बर2016 की आम चर्चाओ में चर्चित रह चुका है,यह त्रिलोकचंदी बैसो वंश का किला है जिसके विषय मे कहाबत है कि यह किला तिलिसम से भरा है व यंहा सोने का अकूत खजाना छिपा है ।

डौंडियाखेड़ा को प्राचीनकाल में द्रोणिक्षेत्र या द्रोणिखेर भी कहा जाता था। अंग्रेजों ने अंतिम राजा राव रामबख्श सिंह को फांसी देने के बाद इस किले पर हमला करके तहस नहस कर दिया। बाद में टूटे फूटे किले को एक दूसरे बैंस राजा दिग्विजय सिंह (मुरारमऊ ) को सौंप दिया। यह किला उन्नाव जिले से 33 मील दूर दक्षिण पूर्व में है, जो 50 फुट उंचे विशाल टीले पर बना था। पश्चिम की ओर गंगा नदी की धारा टीले को छूती बहती है। किले का मुख्य द्वार पूर्व की ओर था। किले की सामने से लंबाई लगभग 385 फुट थी और पीछे का हिस्सा इससे कुछ और अधिक चौड़ा था !

1857 की क्रांति के अमर नायक राजा राव रामबक्श सिंह,तात्या टोपे,राणा बेनीमाधव सिंह,रानी लक्ष्मी बाई,कुँअर सिंह आउबा,राजा निम्बा सिंह तंवर,कुँअर सिंह इत्यादि जैसे वह युग युगांतर के योद्धा है जिनमे कुछ  जनमानस को स्मरण है ओर कुछ विस्मृत ..!

राजा राव रामबक्श सिंह जी के बलिदान दिवस पर कोटिस नमन है ।🙏

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 जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र

शनिवार, 26 दिसंबर 2020

इतिहास

---भारत का अंतिम जौहर/शाका---

  -------घासेड़ा का युद्ध------

---25 राजपूतो ने किया 25 हजार मुगल-जाट फौज का मुकाबला---

भारत का अंतिम जौहर/शाका हरियाणा की धरती पर हुआ जिसमे 25 राजपूतो ने 25 हजार सैनिकों की मुगल-जाट संयुक्त फौज का मुकाबला करते हुए 1500 जाट-मुगलो को मार गिराया। 

गुड़गाव में प्रतिहार राजपूत वंश की शाखा राघव वंश के राजपूत निवास करते हैं। इन्ही में ढाना गांव के हाथी सिंह(हठी सिंह)राजपूत औरंगजेब के समय बड़े बागी हुआ करते थे। मेवात से लेकर दिल्ली तक मुगल शासन उनकी बगावत से परेशान था। इससे निबटने के लिए मुगल प्रशासन ने उनसे संधि करना बेहतर समझा और एक मेव लुटेरे सांवलिया की गर्दन काट के लाने के इनाम के बदले हठी सिंह को मेवात के घासेड़ा में नूह मालब समेत 12 गांव की जागीर देने की पेशकश की। हठी सिंह के पुत्र राव बहादुर सिंह राघव बेहद वीर और योग्य हुए जिन्होंने अपनी जागीर का विस्तार घासेड़ा के अलावा, कोटला, सोहना और इन्दोर परगनो तक कर लिया जिनसे जनश्रुतियो के अनुसार करीब 52 लाख का राजस्व प्राप्त होता था। अपनी योग्यता के बल पर वो कोल(अलीगढ़) के फौजदार भी बन गए। 

वही भरतपुर के जाट सूरजमल की मुगल वजीर सफदरजंग से दोस्ती जगजाहिर थी। सूरजमल वजीर सफदरजंग के साथ मुगल बादशाह के दरबार में पेश हुआ जहाँ उसे बादशाह से 'कुंवर बहादुर राजेन्द्र' और उसके पिता बदन सिंह को 'राजा महेन्द्र' की उपाधि प्राप्त हुई। सूरजमल को वजीर की अनुशंसा पर बादशाह से मथुरा की फौजदारी और खालसा जमीन पर शाही जागीर प्राप्त हुई। 

इसी समय सूरजमल और वजीर सफदरजंग में राजपूत राव बहादुर सिंह राघव को सबक सिखाने को लेकर मंत्रणा हुई। दोनो ही राव बहादुर सिंह राघव के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंतित थे। वजीर सफदरजंग मराठो के खिलाफ मोर्चे में बहादुर सिंह राघव द्वारा साथ ना देने के कारण उनसे शत्रुता रखता था और सूरजमल मेवात और ब्रज क्षेत्र में बहादुर सिंह राघव की बढ़ती ताकत को ईर्ष्या से देखता था। 

परिणामस्वरूप मुगल वजीर सफदरजंग ने शाही फरमान निकलवा कर सूरजमल को राव बहादुर सिंह पर हमला कर उन्हें मारने या गिरफ्तार करने का आदेश देकर दिल्ली से बड़ी फौज देकर रवाना किया। सूरजमल भारी फौज लेकर कोल(अलीगढ़) पहुँचा और वहां कब्जा कर लिया। सूरजमल का बेटा जवाहर सिंह भी भरतपुर से बड़ी जाट फौज लेकर आ मिला। उस समय राव बहादुर सिंह कुछ साथियों के साथ जमुना के खादर में शिकार खेलने गए थे। सूरजमल ने षडयंत्र के तहत राव बहादुर सिंह को पुरानी मित्रता के नाम पर संधि के बहाने अपने शिविर में बुलाया। बहादुर सिंह मित्रता के भरोसे पर सिर्फ 4 सहयोगियों के साथ सूरजमल के शिविर में गए। वहां सूरजमल ने राव बहादुर सिंह से उनकी प्रसिद्ध तलवार को देखने की इच्छा जाहिर की। सूरजमल ने तलवार लेकर अपने सहयोगीयो को पकड़ा दी। बहादुर सिंह को सूरजमल की मंशा पर संदेह हुआ और उन्होंने वहां से निकलना ठीक समझा। 

राव बहादुर सिंह वहां से किसी तरह निकल के अपनी पैतृक जागीर घासेड़ा में आए और गढ़ी(छोटा किला) में मोर्चाबंदी कर ली। उनके साथ उनके परिवार के 24 पुरूष और अन्य महिलाएं एवं बच्चे थे। मुगल सेनापति सूरजमल के पास 20 हजार जाट और मुगलो की सेना थी, साथ में मुगल वजीर सफदरजंग 5 हजार मुगल सेना और दर्जनों तोप लेकर उससे आ मिला और उन्होंने घासेड़ा की गढ़ी को घेर लिया। उत्तर की दिशा से सफदरजंग के साथ जवाहर सिंह, दक्षिण की दिशा से बक्शी मोहन राम, सुल्तान और वीर नारायण, रिज़र्व फौज का नेतृव बालू राम जाट को दिया और सूरजमल खुद ने 5 हजार सैनिक और तोपो को लेकर अपने मामा सुखराम और मीर मुहम्मद पनाह के साथ पूर्वी दिशा में मोर्चाबंदी की। 

3 महीने तक विशाल मुगल-जाट फौज मात्र 25 राजपूतो द्वारा रक्षित गढ़ी(छोटे किले) को घेर कर हमला करती रही लेकिन तब भी सूरजमल की विशाल सेना गढ़ी में घुस नही पाई। इस बीच राव बहादुर सिंह के भाई जालिम सिंह और पुत्र अजीत सिंह घायल हो गए। युद्ध को इतना लंबा खिंचते देख सूरजमल ने संधि का प्रस्ताव भेजा जिसकी शर्तो को राव बहादुर सिंह राघव ने मानने से इनकार कर दिया। इसी बीच जालिम सिंह की मृत्यु हो गई। कुछ दिन बाद सूरजमल ने दोबारा संधि प्रस्ताव भेजा लेकिन हठी राव बहादुर सिंह ने दोबारा इसे ठुकरा दिया। 

17 अप्रैल 1753 की रात को सूरजमल ने चारो तरफ से भीषण हमला करने का आदेश दिया, अगले दिन भीषण गोलाबारी और लड़ाई में मीर मुहम्मद पनाह समेत 1500 मुगल-जाट सैनिक मारे गए लेकिन तब भी मुगल फौज गढ़ी(किले) में नही घुस पाई। इसके बाद राव बहादुर सिंह ने शाका-जौहर करने का निश्चय किया। उनके परिवार की महिलाओं ने बारूद में आग लगाकर खुद को उड़ा लिया। राव बहादुर सिंह अपने पुत्र अजीत सिंह और 24 अन्य परिवारजनों और सहयोगियों के साथ शाका करने के लिए गढ़ी से बाहर निकले और बहादुरी के साथ आखिरी दम तक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। यह मंजर देख कर मुगल-जाट फौज का दिल दहल गया। मुगल सेनापति सूरजमल ने घासेड़ा पर कब्जा जरूर कर लिया लेकिन वहां उसे राख के अलावा कुछ भी प्राप्त नही हुआ। 

सूरजमल का दरबारी कवि सूदन इस युद्ध का चश्मदीद था और उसने सूरजमल की जीवनी सुजान चरित में राव बहादुर सिंह और उनके सहयोगी राजपूतो की बहादुरी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। यह भारतीय इतिहास का आखरी प्रमुख जौहर/शाका माना जाता है। इतिहास में ऐसे उदाहरण भी शायद ही कही हो जहाँ 25 लोगो ने अपने से हजार गुना बड़ी, सुसज्जित, हर तरीके से ताकतवर एवं सुविधा सम्पन्न फौज का एक छोटे से किले में कई महीनों तक मुकाबला किया और मात्र 25 लोगो ने 1500 लोगो को मार गिराया हो। सूरजमल और उसके मुगल सहयोगियों को ये अंदाजा बिलकुल भी नही था कि राव बहादुर सिंह और उनके अन्य राजपूत सहयोगी अपने आत्मसम्मान और इज्जत की रक्षा के लिए इस हद तक जा सकते हैं। 18वी सदी के संक्रमण काल में जब अव्यवस्था का फायदा उठाकर अनेक लूटेरे वर्ग उत्तर भारत की राजनीति में उभर आए थे और राजनीती बहादुरी और स्वाभिमान के बजाए लूट और धोखे के इर्द गिर्द सिमट गई थी, पुरानी स्वाभिमानी, इज्जतदार और बहादुर वर्ग इस लूट, फरेब और भ्रष्टाचार के तंत्र में किनारे हो चुकी थे, ऐसे समय राव बहादुर सिंह के नेतृत्व में मुट्ठीभर राजपूतो ने राजपुत्रो की शताब्दियों पुरानी आत्मबलिदान की परंपरा का प्रदर्शन कर उस समय की राजनीति में हलचल पैदा करने का काम किया। 

संदर्भ- 
          1. सुजान चरित, सूदन
          2. तारीख ए अहमदशाही
          3. गुड़गांव गज़ेटियर
          4. दी फॉल ऑफ मुगल एम्पायर, जे एन सरकार

साभार पुष्पेंद्र राणा जी 

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

आचार्य श्रेष्ठ श्री त्रिलोचननाथ तिवारी जी की कृति

जिस स्थान पर कभी भी 

ह वर्ण दिखे न!

एक क्षण ठहरो और विचार करो!

ह वर्ण स्वयं में पूर्ण है और शिव-वाच्य है।

हंकार का अर्थ शिवाकार! 
शिव-स्वरूप!
अतः अहं, अ हं का अर्थ है 
जो शिव से वियुक्त है।

और जब तक कोई शिव से वियुक्त है तभी तक उसका स्व जीवित है।

अतः तन्त्र कुण्डलिनी शक्ति को 
अहं शक्ति कहता है। क्योंकि वह मूलाधार में शिव से वियुक्त पड़ी है।

अतः 
अहंकार शब्द का अर्थ है शिव-वियुक्त शिवा!

जब यह अहं जागृत होता है तो कुण्डलिनी जाग्रत होती है और फिर शिव की ओर, शुभ की ओर उन्मुख होती है।

तन्त्र कुण्डलिनी को भुजंगिनी कहता है। सर्पिणी की तरह होती है। कुटिल रेखा पर चलायमान, फुफकारती, डंसने को तत्पर!

कौन है जिसको अहं नहीं?

जिसका अहं नष्ट हुआ वह शिव सायुज्य प्राप्त कर चुका! 

किन्तु तब वह या तो 

सो हं

हुआ

या

फिर हं सः!

सोहं - वही है शिव!
हंसः - शिव है वही!!

स शक्ति वाच्य है। 

अतः जो अहं से इन्कार करता है वह

या तो जीवित नहीं, या फिर पाखण्डी है।

उसको कुछ काम आ पड़ा होगा!
वरना झुक कर मिला नहीं होता!!

अपना अहं छिपाने वाला स्वार्थी होता है।

अहं का दूसरा अर्थ है शक्ति! शिव-शक्ति! अर्थात् स!
अर्थात् शक्ति!
अर्थात् शिव से अलग छिटकी पड़ी
मूलाधार में साढ़े तीन फेरों में सिकुड़ी साक्षात शिवानी!

और घमण्ड?

पहले तो घ को समझो!

घकारं चञ्चलापाङ्गि ! चतुष्कोणात्मकं सदा।
पञ्चदेवमयं वर्णमरुणादित्यसन्निभम् ॥
निर्गुणं त्रिगुणोपेतं सदा त्रिगुणसंयुतम् ।
सर्व्वगं सर्व्वदं शान्तं घकारं प्रणमाम्यहम् ॥

सृष्टिरूपा वामरेखा किञ्चिदाकुञ्चिता ततः।
कुण्डलीरूपमास्थाय ततोऽधोगत्य दक्षतः॥
अत ऊर्द्ध्वं गता रेखा शम्भुर्नारायणस्तयोः।
ब्रह्मस्वरूपिणी देवि ! 
मात्राशक्तिः प्रकीर्त्तिता॥

मालतीपुष्पवर्णाभां षड्भुजां रक्तलोचनाम् ।
शुक्लाम्बरपरीधानां शुक्लमाल्यविभूषिताम्॥
सदा स्मेरमुखीं रम्यां लोचनत्रयराजिताम् ।
एवं ध्यात्वा घकारन्तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत्॥

निर्गुंणं त्रिगुणोपेतं सदा त्रिगोलसंयुतम् ।
सर्व्वगं सर्व्वदा शान्तं घकारं प्रणमाम्यहम्॥

ऐसे घ का जो मण्ड है, घ को उबालने पर गाढ़ा सा तैरता,

वह घमण्ड है!

छड यार!

अरण्ये रोदनं वृथा!

ए भिया! ब्लॉक करो न!

मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

अजब शौकीन दशयु

#शौकीन_बागी/दस्यु/डकैत

"शौख बड़ी चीज है..!"
किसी उत्पातन की यह चन्द पंक्तिया जैसे ढाई आखर की इश्किया भावनाओ सम्पूर्ण मूर्तिरूप देती हुई सी प्रतीत होती है।शौख और शोखी जब   कहि जाकर संगम करती है तब कहि जाकर एक  शोखिया किबदन्ति बनती है,जैसे प्रशिद्ध अभिनेता स्व. राजकुमार हर किसी को अपनी रील और रियल जिंदगी में "जानी" बोलकर सम्बोधित किया करते थे ...जबकि उनके कुत्ते का नाम जानी था !
कुछ ऐसा ही अजीबो-गरीब किस्सा हमारे बीहड़ के पूर्व दस्युओं का था,अपनी-अपनी पसंद की सनक और वह भी इतनी आश्चर्यपूर्ण की विश्वास ही न हो...किन्तु यह एक ऐसा सत्य है जो कंही बीहड़ो में गुम हो गया अथवा बीहड़ो में ही दफन है ।

ददुआ मानसिंह राठौर-
आजादी से पहले ओर आजादी के बाद का एक ऐसा बागी जिसके नाम कितने अंलकार है और मन्दिर में किसी देव नही बागी सम्राट को देवता की तरह पूजा जाता है.कहते है कि इन्हें विवाहों में भात(मामेलापक्ष की रश्म) भरने का बड़ा शौख था जो इनके जीवन मे भक्त नरसी की नोट नक़ी देख लगा था और अपने पूरे बीहडी जीवन हजारो भात भरे व लड़कियों के कन्यादान लिए ।

माधो सिंह भदौरिया -
एक ऐसा बीहड़ी किरदार जिसका जीवन ही सेकड़ो किरदारो का रोल अदा करते हुए निकला एक सैनिक, डॉक्टर,मास्टर ओर जादूगर के करतब दिखाने बाला बागी रीयल दुनिया से रिल दुनिया मे भी अपना किरदार खुद बना। इसके साथ ही इन्हें गाना-गीत बजाने सुनने का शोख था ,माधोसिंह के गैंग प्रायः लोकगीत ओर फिल्मी गीत अपहरण करके लाये लोगो से सुनते थे व उन्हें इनाम स्वरूप रुपये भी दिया करते थे। एक वाकये अनुसार 50 हजार मोटी रकम की पकड़ का गीत सुनकर 1100 पुरुष्कार देकर उन्हें ऐसे ही छोड़ दिया था ।कहते है कि माधो आंखों पर पट्टी बांध मिर्च को गोली फोड़ दिया करते थे ।

मोहर सिंह-मलखान सिंह-
बीहड़ी अपराध इतिहास में इन्हें 2M बोला जाता  है इन्होंने भी रियल  से रील दुनिया तक का सफर तय किया,पर इन्हें शोख था 3 राजपुताना रेजिमेंट की तरह बड़ी बड़ी रोबीली मुछे रखने का..लोग कहते है कि इनकी मुच्चो में रोज पौआ -पौआ घी लगा करता था !रमेश सिकरवार,हरिसिंह,टुंडा आदि भी मुच्छड़ दशयु थे ।

छिद्दा-माखन-
डायलोगों की दुनिया के जीवंत किरदार छिद्दा-माखन ममेरे-फुफेरे भाई थे और बचपन सहपाठी के साथ जीवन के साथी भी थे ...यह बचपन परस्पर प्रशन्नता की कुशलक्षेम "साहिब सलाम" बोलकर लिया करते थे।इनदोनो को दो जिस्म एक जान ओर अपनी सेकेंडो में लांगुरिया लोकगीत बनाने की अद्भुत शोख थी ..कहते है कि माखन महाभारत का पूरा विवरण इन लोकेगीतो में गा दिया करता था तो छिद्दा के बगेर वह कभी गा नही पाते थे ..असल मे माखन की मौत छिद्दा को जब पता चली जब "साहिब सलाम" का प्रतिउत्तर नही मिला था !

मध्यप्रदेश में चंबल के बीहड़ों में पनपने वाले दस्यु गिरोह के कई सरगना अपने अजीबोगरीब शौक के कारण दंत कथाओं के पात्रों की तरह हमेशा चर्चित रहे हैं।इनमें से कुछ दस्यु गिरोह शिवपुरी जिले के जंगलों में सक्रिय रहे हैं। आजादी के पूर्व कुख्यात दस्यु सरगना टुन्डा अपने साथियों के साथ एक आकर्षक जलप्रपात पर रहता था इसलिए यह स्थान उसके नाम से 'टुन्डा भरखा खो' के नाम से जाना जाने लगा। शिवपुरी के पास घने जंगल में स्थित यह स्थल अब प्रसिद्ध पर्यटक स्थल बन गया है।

पचास से साठ के दशक में भी शिवपुरी के जंगलों में कुख्यात डाकू सरदार अमृतलाल अपने गिरोह के साथ सक्रिय रहा... अमृतलाल ने लोगों का अपहरण करके उनसे फिरौती वसूलने की शुरुआत की थी जो आज के डकैत गिरोह भी कर रहे हैं।इसे अजीव तरह लोगो वेवकूफ बनाने का शोख था..ओर यह वहसी तरीके महिलाओ के कान फाड़कर कुंडल खींचने सायको शौकीन था।डाकू सरदार अमृतलाल के बारे में क्षेत्र के बुजुर्गों में चर्चा रहती है कि वह एक से सवा लाख रुपए की फिरौती उस समय भी लेने की सनक से ग्रसित था, जबकि उस जमाने में यह बहुत ही बडी रकम होती थी।

हरीसिंह को लोंगों की नाक काटने की सनक थी। जब वह किसी से भिड़ता तो सबसे पहले उसकी नाक काटने से नहीं चूकता था।उसने कई नागरिकों व ठसक बाले लोगो साथ-साथ पुलिस बालो की भी नाक पर हाथ साफ  किया था ।

कालांतर में यहाँ के जंगलों में दयाराम, रामबाबू गडरिया, हजरत रावत, कमल सिंह जैसे खूँखार दस्यु गिरोह सक्रिय हो गए, जिनमें सबसे ज्यादा खतरनाक इनामी एवं चर्चित दयाराम रामबाबू गडरिया गिरोह था।
रामबाबू और दयाराम को देशी घी खाने और अपहृतों को खिलाने का शौक था। वे घी के इतने दीवाने थे कि अपनी बंदूकों की सफाई भी तेल की जगह घी से किया करते थे..!
इस गिरोह में रामबाबू सबसे ज्यादा क्रोधी और सनकी था। जब किसी अपहृत की फिरौती समय पर नहीं पहुँच पाती तो यह उसे गोली मारने को सबसे ज्यादा उतावला रहता था।
दयाराम और रामबाबू के बारे में कहा जाता है कि उन्हें एक हजार एवं पाँच सौ रुपए के नोटों और सोने के आभूषण से लगाव था और वे अपने साथ हमेशा बड़ी राशि रखते थे ...।

#चम्बल_सिंह_अबलोकन

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जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

शनिवार, 21 नवंबर 2020

बाबू कथा (व्यंग)

अजी!भारत रहा होगा कभी कृषि प्रधान देश, आजकल तो बाबू प्रधान देश है।सोसलमीडिया से मैनस्ट्रीम मीडिया तक और संसद,पान की दुकान से लेकर पैनड्राइव की दुनिया तक मे बस बाबूओ का जिक्र ही मिलेगा।
कोई भी न्यूज हो जब तक कोई परकटि न्यूज बाली बाबू न प्रकट करे ...वह कपोल कल्पित झूठ बनकर रह जाती है !
बुद्धुबक्स के बाबू ही आजकल हमको अपडेट रखते है कि लड़को के कब पिम्पल निकलने पर कोनसा गोवर घिसना है और कब किस मौषम में कोनसे पाने से भुभडे के नट-बोल्ट टाइट करके 'थाना बाले तोतले बाबू' को पटाना है? फिर चाहे घर के अड़ियल 'लट्ठ बाले बाबू' के द्वारा  दिनरात पिलने पर 61-62 दिन वैधबाबू का कोर्स ही क्यों न करना पड़े। पर तोतले बाबू को 'माताबाबू' की पूजा का अधिकार दिलाना है ।

आज का भारत देख मुझे नही लगता कि लोगो को प्रेम जैसा कुछ होता होगा बल्कि प्रतीत होता है कि सबको 'संक्रमित बाबू रोग' हो गया है और अंततः उस बाबू की याद आ जाती है जो विभिन्न सरकारी दफ्तरों में इंग्लिश पीकर मिलता है और सबकी फाइलें 'अपनी इंग्लिस' के चक्कर मे मण्डप बाली सालियों की तरह छिपाते रहता है ।जैसे 'जूता छिपाई' (सॉरी..!फाइल छिपाई) की रश्म का नैग मिला वह मोदी जी की तरह 'सीना छप्पन' करते हुए आपकी फाइल नई-दुल्हन की सुहागसेज मुह दिखाई की तरह पेस कर देगा ।
अगर मुझ जैसे निपट गंवार से पूछ लें कि, "कभी बाबुओ के चक्कर में पड़े हो?"

तो में कंहूँगा- की भाई बाबुओ से भाजपा बचाये ओर राहुल गांगी को राष्ट्रीय युवा बनाये पर कभी इन तोतले,चोर,परकटे,बाबूओ के चक्कर मे एक बार सबको घुमाए!

बाबुओं का चक्कर जब इस मृत्युलोक में पड़ता है तो मानव जीवन-मृत्यु के तमाम चक्कर भूल सिर्फ और सिर्फ 'बाबू माया' के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता है।जन्म लेते ही जब थोड़ी समझ आती है तो घर मे प्रथमतः दर्शन होते है 'जूता बाले बाबू+जी के(सम्मान के साथ 'जी')यह एक इकलौते बाबू होते है जो आप-हम सबको अपने जूता के जोर पर सही राह दिखाते है,पर हमें शोशल मीडिया के इनबॉक्स बाले बाबुओ के चक्कर मे अपना कल्याण दिखने लगता है और ऐन मौके पर हमें वह बाबू बुलाकर अपनी वारात के स्वागत में बुत बनाकर खड़ा कर देते है। बाकी रही-सही कसर 'डीजे बाबू' ....."तू पसन्द है किसी ओर की" बजाकर पूरा कर देते है ।

इस बाबुमय विश्व मे सबसे घातक होते है बैंक बाले बाबू..!
पैसे निकालो तो ...
"विड्रॉल में एक जगह और सिग्नेचर...अबे शब्दो मे अमाउंट की स्पेलिंग सही कर!" इत्यादि की इस तरह घुड़की देते है जैसे ग्राहक खुद के पैसे नही 'केशियर बाबू' की किडनी विड्रॉल में लिख दी हो !
"बुधवार को आना पासबुक अपडेट कराने, अभी प्रिंटर मशीन की मौसी नाराज है !"
(जबकि बेचारा ग्राहक पिछले 25 बुधवारो से लगातार प्रिंटर की मौसी जी को बार-बार मना रहा होता है)
मनीजर बाबू का तो कहना ही क्या ...पूरे दिन लंच करके  अपने छौना बाबू को के नखरे जो लेने है !

सबसे क्रोधाग्नि बाले होते है घर मे विधिवत 'माताबाबू' की पूजा करके सांसारिक ढंग से लाये हुए 'घूंघट बाले बाबू'! यह बाबू जब जीवन मे प्रवेश करते है लौंडो के जीवन मे हच के टॉवर लग जाते है। दिन में भगा-भगा के नही सोने देते और रात में बर्फ से ठंडे पाँव लगाकर नही जीने देते है। मटर छिलने से पँखो पर गीला कपड़ा लगवाते है और जब इनका मन हो तो 'लठ्बाले बाबू जी' के सामने रोकर बेमतलब बोनस में गजक सी कुटबा देते है !

है महादेव जी!विनय है कि तमाम तरह के बाबुओ से बचाये रखे किन्तु 'माताबाबू बाले 'ठीकरी बाबू' ओर 'पनाह बाले बाबू(जी) से सबकी बनाए रखे !

नॉट-: किसी के पास तोतला बाबू हो तो हमे समर्पित कर सकते है!
अथः सिरी बाबू कथाय प्रथमः अध्याय: नमो नमः

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शनिवार, 14 नवंबर 2020

रंगोली के रंग


          ★ कहानी★

एकाएक चेहरे पर आयी श्वेत-श्याम अलका को हटाने  के लिए उन्होनो पास रखी बाल्टी में हाथ धोये ही थे की कहि से आकर एक बिल्ली ने उनकी बनाई रंगोली के रंगों  को बिखेर दिया। वह मुस्काई ओर बड़े ही भाव से बोल पड़ी...
"क्यों री मौसी...अब सासु माँ-ननदी सब गए जमाने के किस्से क्या बने तुम आकर उनकी याद दिलाने लगी !"

वह अकेली ही रहती थी किन्तु उस गांव का हरेक घर उनका परिवार था,वह आज से करीब 5 दशक पहले एक  17वर्षीय किशोरी बधु के रूप में आई थी। ऐसा क्या नही था जो उनकी वरात में न गया हो किन्तु उस वरात का किरीटमणि नही था ।
वह दूर थे अपनी कर्तव्यनिष्ठा के प्रति समर्पित 65 के युद्ध मे दुश्मन से लोहा लेते हुए, सेकड़ो दुश्मनो के काल बने हुए....मोर्चे-मोर्चे पर जैसे उन्ही का युद्ध कौशल कुलाचे भर रहा था ।

इधर वरायत की अगवानी पर तोरण मारा जा रहा था तो उधर वह बंकर पे बंकर मार रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था जैसे कुँअर रणवीर आज अपने नाम को प्रदर्शित कर रहे हो .....उधर मण्डप में बैठी दुलहिन पास रखी फैंटा-कटार में प्रियतम प्रतिबिम्ब की कल्पनाओ में सँजो रही थी। विधि-विधान से पाणिग्रहण तो हुआ परन्तु रश्मो में बंधी नवविवाहिता को प्रियतम दरश न हुए ...!!

नवविवाहिता की अगवानी हुई पूरी हवेली में जैसे उत्सव था वही विवाहिता की मनमंदिर हवेली सजकर भी श्रंगार रहित थी...रिक्तता थी। उस अद्वतीय सौंदर्य को अपलक निहारने बाली दो आंखों की जो रण में जिसे निहारती वह  ओहदा शीघ्र ही रिक्त हो जाता और एकाएक ग्रेनेड आकर समीप ही गिरा की वह हिरन की तरह पहाड़ी से लुडककर गिरता-गिरता पड़ोसी के आंगन में जा फसा ।

विवाह की चौथी होने को थी कि दनदनाते कदमो से सेना का दस्ता आया और उनकी एकमात्र पहचान विशेष हेलमेट के साथ अपनी करून ध्वनि बजा श्रद्धांजलि दे ...अपने पीछे छोड़ एक लकड़ी का बक्सा जिसपर बड़े  शब्दो मे लिखा था 'सूबेदार रणवीर सिंह' !
घर मे करुंनक्रदन पसरा था तो नवविवाहिता मात्र मौन थी और सबसे बोल रही थी ...

"मुझसे बगेर पूछे कुँअर जी कहि नही जा सकते ,इस लोहे के टोप से क्या उनकी वीरगति मान लू !"

"में अपनी अंतिम सांस तक प्रतीक्षा करूँगी ओर वह भी सुहागन रहकर !!"

लोगो ने समझा कि सम्भवतः गहरा आघात लगा है पर नवविवाहिता अडिग थी,वह अपने प्रण न हटी ओर आज  भी लगभग आधा सैकड़ा आयु उपरांत माथे टिकुली मांग सिंदूर अनवरत सजता ।
कुछ समय बड़ो ने विरोध किया पर समय के साथ सबके लिए यह आम बात हो गयी ।

प्रणीता कंवर नाम था उनका....नाम जैसी ही अडिग। एक दम शांति और सुंदरता के जैसे समस्त अलंकार एकसाथ आकर रुक गए हो....रणवीर और प्रणीता के पाणिग्रहण माध्यम बने अश्व पर हर कोई सवार नही हो पाता था ,सिवाय प्रणीता के पिता पर कुँअर रणजीत ने खेल-खेल में अश्व को अपना मुरीद क्या किया उनके विवाह की वेदी के जैसे पहले मन्त्र बन गए ।

संन 65 युद्ध से लापता हुए कुँअर का कोई पता न चला और प्रणीता के इरादे दृण होते रहे ....समय अपनी गति से चलता रहा अब वह हर किसी के लिए सम्मान की जैसी मूर्ति थी। हवेली त्याग खपरैल की कुटी ओर एक स्यामा गाय के साथ दिनभर भजन। बच्चो को पढ़ाना,गांव भर के लोगो के दुख बाटना ही दिनचर्या थी ।

अभी दस दिन पूर्व ही तो उन्होंने अपने वैवाहिक अथवा प्रतीक्षित समय के 40 वे करवाचौथ को बगेर अन्न-जल के पूर्ण किया था और आज एक बिल्ली बार-बार उनकी रंगोली को बिखरा देती थी ।

"यह बिल्ली भी मेरा बार-बार काम बिगाड़ रही है जैसे किसी जन्म की दुश्मन हो!"

प्रणीता बड़बड़ा ही रही थी कि ......

"देवी सुनिए!"
"यशवीर सिंह जी की हवेली किधर है ?"

एक लगभग 60 वर्षीय प्रोढ़ किन्तु आभामय तेजश्वी चेहरे पर उनकी नजर पड़ते ही न जाने क्यों एक हुक सी उठी पर वह न चाहते हुए भी अपने स्वसुर का नाम सुनकर उन्होंने सिर पर अपनी पियरी साड़ी का पल्लू लेते हुए दवे स्वर में पूछ लिया ....!

"जी! उनकी हवेली में अब कोई नही है ,में उनके लड़के जो युद्ध मे लापता हो गए है उनकी पत्नी हु, कहिये आपकी की क्या सेवा कर सकती हूँ !"

प्रतिउत्तर सुन रणवीर की आंखों से अश्रु वह निकले और सजल नेत्रो से देखने की देरी थी कि ....अर्द्धस्वरूपा साक्षात हो गयी ।

"है नाथ !"
"युगों बाद आज बापीसी का ध्यान आया !"
बोलकर अचेत होगयी 

पड़ोस बाले एकत्रित हुए कुछ एकाध वयोवृद्ध बुजुर्गो ने पहिचाना तो गांवभर में ढोल तांसे बज उठे और प्रणीता के प्राणनाथ सहित पूरे गांव ने खण्डहर होती हवेली को दुलहिन की तरह दीपो से सजाकर इस चमत्कारिक वापिसी पर आनन्द गीत गाये !

आज दसको बाद अटारी पर रोनक थी जैसे युगों की प्रतीक्षा उपरांत पपीहे को स्वाति नक्षत्र का जल और जल को सुष्क हुए उपवन की चाह मूर्तिरूप हो उठी हो ।
दूर सघन में कोई संगीत प्रेमी मधुर स्वर में बांसुरी से आल्हादित हो रहा था तो प्रणीता कंवर का सुहाग आज पुनः नवेली दुल्हन की तरह सजा था .......!

प्रणीता कंवर की रंगोली दूर अंतरिक्ष मे रंग बिरंगी उल्कावृष्टि बनकर प्रणीता कंवर एवम कुँअर रणवीर के परिणय की साक्षी बन रही थी ।

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दीपोत्सव की बधाईया 🏜️🎡☀️⭐️🌟🌞🌞

       -जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
          चम्बल मुरैना मप्र

रविवार, 8 नवंबर 2020

बगल बाली सीट

 वह वांयी पंक्ति चौथी सीट थी जिसपर लड़का बैठे-बैठे प्रतीक्षा में अपनी डायरी के पेजो को तल्लीन्नता से लगातार कुछ लिख रहा था। क्योंकि बस चलने में समय था और वाकी सवारियों से उसे कोई मतलब नही था ।
एकाएक एक 5 फिट लम्बा भीनी-भीनी महक का झोंका उसके समक्ष नमूदार हुआ और उसको पता भी न लगा..!

"आपके साथ बाली सीट पर कोई है सर...अगर नही है तो मुझे विंडो सीट चाहिए!"

उसके पूछने का लहजा कुछ ऐसा था कि लड़के ने मूक रहकर ,एक ओर हटते हुए मूक सहमति में बगल खिसकते हुए  उसे बैठने को....बगेर सिर ऊंचा किये  जगह देकर डायरी में ही गुम रहा !!

करीब 20 मिनट उपरांत लड़के ने एक उबासी लेते हुए पुस्त से सिर टिकाते हुए आंखे बंद कर ली ...।
एकाएक गाड़ी स्टार्ट हुई और गियर गुर्राहट ने झपकी में व्यधान कर दिया ।

बाजू बैठी लड़की पर उचटती नजर डालते हुए देखा तो वह ओषत कद से कुछ छोटी एक ओषत रंग बाली जिसने ब्लू जींस के साथ फ्रॉक नुमा जॉर्जेट के साथ दोनो कंधों पर वी शेप दुपट्टा डाल रखा था जिसे भी ही महीन चतुराई के साथ पिनो से स्टेपल कर रखा था और इस यूनिक शैली का पहनावा आकर्षक लगा ।

"सर मुझे कुछ खाने को लाना है ...!"
कहते हुए लड़की ने वैनिटी से 200 की नॉट हाथों में चमकाई ओर वाहर निकलने को उद्धृत दिखी....लड़का खड़ा होकर एक ओर हट गया और उसने पहली बार 'स्लो लुइस' इत्र की चिरपरिचित महक महसूस की, वह अपने सेलफोन में शोशल मीडिया कुरेदने लगा और पुनः निमग्न होकर कभी-कभी मुश्कुरा भी रहा था कि खिड़की तरफ सिर से ऊपर कंगन युक्त हाथों में लैयज के साथ बिकानू मिक्सचर औऱ एप्पल फीज बोतल दिखी .....

"सर पकड़िए....मुझे कुछ और लेना है!"

न चाहते हुए भी हाथ मे वह तमाम खाने का सामान था और प्रतीक्षा थी कब हाथ खाली हो जाये!

कुछ ही मिनट में एक 500 ग्राम मिठाई लिए लड़की मुस्कुराती आई और यथास्थान बैठ गयी ।

"सर आप भी लीजिये न मुझे अच्छा लगेगा कि अकेले नही खाना पड़ेगा,देखिए #आपके लिए  मिठाई भी लाई हुँ !"

लड़के भँवे विचारमुद्रा में सिकुड़ती गयी कि इसे कैसे पता है कि मुझे मीठा पसंद है !
उसने मुस्कुराते हुए धन्यवाद कहकर पल्ला तो झाड़ लिया पर " आपको मीठा पसंद है" बार-बार  मनमशतिष्क में नाद करता रहा ।

लड़का पुनः झपकी लेने के प्रयास में पुस्त से सिर टिकाकर कर बन्द आंखों से गन्तव्य की कल्पना में बिचरन करता रहा और .....

"में ठेंगी हु लेकिन इतनी भी नही की मुझे किसी हेल्प चाहिए...मेरे घर मे सब pg है सिर्फ में ही नही "
"इसका मतलब यह नही की तुम मुझ पे सिमपेथी दिखाओ, अपनी औकात में रहो .."
"यह मत समझो कि मैने तुम्हे खुद को नापती हुई नजरो नही देखा है...रज्जू की एनिवर्सरी पर तुम मुझे वॉच कर रहे थे और  ठेंगी कहकर मुझे हिरासमेन्ट कर रहे हो !"

लड़के ने उसके द्वारा 'ठेंगी' शब्द बोलने के साथ ही उसकी आंखों में सागर की लहरों के समान उमड़ती लहरों को स्पष्ट देखा और उसी स्थिति में आंखों की झिरी से उसके चेहरों पर क्रोध,कातरता के ज्वार-भाटे देखता रहा ।
करीब 15 फोन उसकी फ़ोनवार्ता में उसने लड़के के प्रति के आधुनिक शैली की गालिया भी सुनी और फोन कटने के बाद उसे फ़्फ़कते भी देखा ।

वाहन अपनी तफतार से पथ को निरतर पास करता जा रहा था ओर लड़की अपनी वेदना अथवा हीनता को अश्रुपात करके कम किये जा रही थी ।

"सॉरी !फ़ॉर डिस्टरविंग यू सर..।"
"आपने कुछ खाया नही ..टेंसन न लीजिये आपको लूटने का मेरा कोई प्लान नही है !"

लड़का हंस पडा ओर लड़की के अभिनय बाली झूठी मुस्कान का जबाब एक पीस पेड़े का उठाकर दिया ।
 
बाते चलती रही लड़की पूछती रही और लड़का सनझिप्त उत्तर देता रहा ...इसी बीच गन्तव्य आया और ...! लड़की बेहद खूबसूरत डायरी के साथ पेन बढाते हुए बोला !

"ऑटोग्राफ प्लीज...!"
लड़का कुछ कहता उससेपहले ही लड़की बोल उठी !

"आप जिस संजीदगी से रिस्ते उकेरते है न उतनी ही गम्भीरता से स्वम को मेंटेन भी करते है, मेने आपके कुल 5-6 आर्टिकल पढ़े है और आपकी इसी संजीदगी के साथ कलम ओर कर्म की समानता की फैन हो गयी ।"

"जितेंद्र सर! में रहती तो रीवा में हूं but आपको बस में देख आश्चर्य चकित थी और आपकी संजीदगी से आपके साथ बैठने खाने के कुछ पल मिले !"

"कभी रीवा आइये, में उधर ही रहती हूं !"

मेरी रास्ते भर की विचार गुत्थी उसने एक पल में सुलझा कर "आभार" बोलते हुए डायरी-पेन लिया और ....एक विनय,आदेश,आग्रह मुझे समझ नही आया क्या था कि वह स्वम को 'अ'सफल न लिखने की बोलकर अंकभर सिमट गई ।
मेरे पहले किसी लिए हस्ताक्षर करते हाथ कम्पित थे और उसका नाम कुछ अस्पष्ट था ..
'सुनिधि मानव एकाएक भेंट!"

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जितेन्द्र सिंह तौमर '५२से'
कानपुर उप्र .

रविवार, 18 अक्टूबर 2020

ऐतिहासिक गद्दार मीर जाफर

#गद्दारो_की_हवेली
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पढ़ते अथवा सोचते  ही रोंगटे खड़े हो जाते ही कि कहि कोई हमारे साथ ऐसा विश्वाशघाती तो नही जिसके रक्त से प्लाज्मा अलग हो गया हो! कंही कोई ऐसा तो नही जो स्वार्थ शिद्धि पूर्ण करने के लिए दुश्मन खेमे जा मिला हो !!कहीं कोई ऐसा तो नही जो मुस्कुराते हुए गले तो लगे किन्तु गला रेतने से पहले कुछ भी न सोचें !!!

जी हां!.....
बाग़ियों ,दस्युओं, चम्बल श्रंखला संस्करण में आपको चम्बल से काफी परिचित कराया, अब परिचय देता हूँ एक ऐसे द्रोही का जिसकी हवेली को 'रक्त हवेली' का बदनुमा नाम दाग मिला और जिसे भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा गद्दार बोला गया .....!जिसके दगा के कारण भारत को लगभग 200 वर्षो तक ब्रितानी हुकूमत की दासता झेलने पड़ी और 'सोने की चिड़िया' बोला जाने बाला महान दो सदियों तक लूटा जाता रहा ।

1733 में पैदा हुए नवाब सिराजुद्दोला की अपनी हत्या के समय महज़ 24 साल की उम्र थी।अपनी मौत से साल भर पहले ही अपने नाना की मौत के बाद, उन्होंने बंगाल की गद्दी संभाली थी! ये वही वक्त था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी उपमहाद्वीप में अपने कदम जमाने की कोशिश कर रही थी ।

सिराजुद्दौला को कम उम्र में नवाब बनाए जाने से उनके कई रिश्तेदार खफा थे....ख़ास तौर से उनकी खाला घसीटी बेग़म ! सिराजुद्दौला ने नवाब बनने के थोड़े ही समय बाद उन्हें क़ैद करवा दिया था!
सैना बढ़ते असमांजस्य के चलते  नवाब ने प्रायोगिक तौर पर बरसों से बंगाल के सेनापति रहे मीर जाफर की जगह मीर मदान को प्रमुखता दी......परिणाम वही 'सिल्हारे को सिल्हारे की जलन'..... इससे मीर जाफर नवाब से बुरी तरह खफ़ा हो गया ।

उन्ही दिनों फिरंगी अपने पाँव पसारने के लिए जगह तलाश रहे थे और उन्हें तलाश थी एक ऐसे भेदीये की जो उनकी राह के रोडा बनते नबाब की सुदृण व्यवस्था में सेंध लगा सके और उनकी तलाश शीघ्र ही अंसतुष्ट ओर सत्ता लालची मीर जाफर के रूप में पूर्ण हुई ।
एक गुप्त स्थान और मध्यस्थ के माध्यम से फिरंगी सेनापति क्लाइव -जाफर की गुप्त मंत्रणा हुई .....सड़यंत्रो की खाई खोदी गयी, अनुबंध हुआ और ब्रिटिश सेना ने आक्रमण कर दिया ।
नबाब की स्थिति चहुओर घिरे शिकार जेसी थी क्योंकि उत्तर से अब्दाली ओर पश्छिम से मराठो का अतिक्रमण पहले ही था....पूरी शक्ति से आकमण करना भी एक ओर से दुश्मन को   जीतने का खुला आमंत्रण था। प्रतिकार स्वरूप बंगाल के तीनों मोर्चे सम्भालती विशाल  फ़ौज की शक्ति प्रति मोर्चा एक  तिहाई से कम हो गयी ।
फ़ौज के एक हिस्से के साथ वो प्लासी पहुंचे.... मुर्शिदाबाद से कोई 27 मील दूर डेरा डाला गया... 23 जून को एक युद्ध में सिराजुद्दौला के विश्वासपात्र मीर मदान की मौत हो गई.... नवाब ने सलाह के लिए मीर जाफर को सन्देश भेजा.....और मीर जाफर ने सलाह दी कि युद्ध रोक दिया जाए. ....नवाब ने मीर जाफर की सलाह मानने की भारी  कर दी जिसकी परिणीति बंगाल और नबाब दोनो भूगतनी थी ।

युद्ध विराम कर दिया गया....!  नवाब कि फ़ौज वापस कैंप लौटने लगी..... मीर जाफर ने रॉबर्ट क्लाइव को स्थिति समझा दी...!
क्लाइव ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया, एकाएक  हुए अप्रत्याशित हमले से सिराज की सेना बौखला गई... तितर-बितर होकर बिखर गई....जब तक कुछ समझ पाते क्लाइव ने लड़ाई जीत ली।नवाब सिराजुद्दौला को भाग जाना पड़ा....!

मीर जाफर तुरन्त  अंग्रेज़ कमांडर से जाकर मिला ओर सहमति के अनुसार उसे बंगाल का नवाब बना दिया गया....दरअसल वह  नाम का नवाब था  सत्ता तो अंग्रेज़ों के हाथ लग चुकी थी।


प्लासी की लड़ाई से भागकर नवाब सिराजुद्दौला अधिक दिन आज़ाद नहीं रह सके,उन्हें पटना में मीर जाफर के सिपाहियों ने पकड़ लिया. ....मुर्शिदाबाद लाया गया. !
मीर जाफर के बेटे मीर कासिम  ने उन्हें जान से मारने का हुक्म दिया!! 2 जुलाई 1757 को उन्हें मीरजाफर की हवेली  में फांसी पर लटकाया गया. ...अगली सुबह, उनकी लाश को हाथी पर चढ़ाकर पूरे मुर्शिदाबाद शहर में परेड़ कराई गई....!!!!
कुछ समय ही मीरजाफर भी कठपुतली नबाब रहा ओर फिरंगियों उसी नीति के तहत जाफर के सेनापति पुत्र मीर कासिम द्वारा कलम कर दिया गया ,मीर कासिम नबाब तो बना किन्तु फिरंगी सत्ता के अधीन ओर भारत का एक क्षेत्र फिरंगियों के हाथ चला गया ।

मुर्शीदाबाद स्थिति मीरजाफर की हवेली को आज भी हराम अथवा हरामी के हवेली के रूप में बोला जाता है !
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यह आलेख लिखते चम्बल की एक लोकोक्ति स्मरण हो आयी..!

दगा किसी का सगा नही है ,नई मानो तो कर देखो!
जिन लोगो ने दगा किया है,जाकर उनके घर देखो!!
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बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

ठाकुर #गुलाब सिंह तोमर और बागी सपनावत

ठाकुर #गुलाब सिंह तोमर और बागी सपनावत
Rajputana Soch पेज

===ठाकुर गुलाब सिंह तोमर और बागी सपनावत===

साठा चौरासी का मुकीमपुर गढ़ी गाँव पिलखुवा के निकट अवस्थित है जो कि #तोमर राजपूतो का गाँव है। यहाँ के ठाकुर गुलाब सिंह तोमर बहुत बड़े जमींदार हुआ करते थे और उनका स्थानीय जनता में बहुत प्रभाव और मान सम्मान था। 1858 के विप्लव की शुरुआत के बाद क्षेत्र के राजपूत ग्रामीणों ने भी जमींदार गुलाब सिंह तोमर के नेतृत्व में बगावत कर दी। ठाकुर गुलाब सिंह ने ब्रितानियों को लगान न देने एवं क्रांतिकारियों का साथ देने का निश्चय किया। उन्होंने क्षेत्र वासियों को भी लगान न देने के लिए प्रेरित किया। मुकीमपुरगढ़ी में जमींदार ठाकुर गुलाब सिंह के नेतृत्व में राजपूतो की एक बैठक बुलायी गयी। इसमें सभी ने ठाकुर गुलाब सिंह से सहमत होते हुए ब्रिटिश सरकार को भू-राजस्व न देने की घोषणा की। इस प्रकार मुकीमपुर गढ़ी राजपूत क्रांतिकारियों का मजबूत गढ़ बन गया। जमींदार ठाकुर गुलाब सिंह ने निकटवर्ती क्षेत्र के गाँवों को भी क्रांति के लिए प्रोत्साहित किया। परिणामतः वहाँ भी क्रांतिकारी भावनाएं पनपने लगी और कुछ समय में वहाँ कानून व्यवस्था पूर्ण रूप से भंग हो गयी। ब्रितानियों से संघर्ष होने के पूर्वानुमान के कारण जमींदार गुलाब सिंह ने अपनी गढ़ी  (लखौरी ईटों की किलेनुमा हवेली ) में हथियार भी इकट्ठे करने शुरू कर दिये।

मुकीमपुर गढ़ी के विप्लव की सूचना जब अंग्रेज अधिकारियों तक पहुँची तो उन्होंने उसके दमन का निश्चय किया। ब्रितानियों ने गुलाब सिंह को क्रांतिकारियों का नेता घोषित किया और मुकीमपुर गढ़ी तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र में विप्लव भड़काने का आरोप भी उन पर लगाया गया। एक ब्रिटिश सैन्य टुकड़ी यहाँ विप्लव के दमन के लिए भेजी गयी। उसने मुकीमपुर गढ़ी को चारो ओर से घेर लिया। गुलाब सिंह की हवेली पर तोप से गोले बरसाये गये। मुकाबला असमान था लेकिन ठाकुर गुलाब सिंह जी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने ब्रितानियों का सामना किया परन्तु वे तोपों के सामने ज्यादा देर टिक न सके। ठाकुर गुलाब सिंह की गढ़ी को तोपों से खंडहर में परिवर्तित कर दिया। ठाकुर गुलाब सिंह और उनके कई सहयोगी वीरता पूर्वक लड़ते हुए वीरगती को प्राप्त हो गए। ब्रिटिश सेना को हवेली के अन्दर कुएँ से हथियार प्राप्त हुए जो उनका सामना करने के लिए जमींदार गुलाब सिंह एवं ग्रामीणों ने इकट्ठा किये थे। बाद में मुकीमपुर गढ़ी गाँव में आग लगा दी गयी। ब्रिटिश अधिकारी डनलप ने गुलाब सिंह की सम्पूर्ण जायदाद जब्त कर ली। आज भी ठाकुर गुलाब सिंह जी की हवेली के खंडहर 1857 की क्रांति के गवाह बने हुए हैं।
~~बागी गाँव सपनावत ~~
सपनावत साठा क्षेत्र के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण गाँव में से है जो गुलावठी के पास अवस्थित है। यह गहलोत(शिशोदिया) राजपूतो का गाँव है और बहादुरी और बगावती तेवरो के लिये हमेशा प्रसिद्ध रहा है। यहाँ के राजपूतो ने हमेशा की तरह 1857 के विप्लव में भी अपनी बहादुरी और देशभक्ति का परिचय दिया। साठा चौरासी में बह रही क्रांति की लहर से सपनावत भी अछूता नही रहा और गाँव ने बगावत कर दी। सपनावत के राजपूतो ने भी मुकीमपुरगढ़ी और पिलखुवा की तरह भू-राजस्व गाजियाबाद तहसील में जमा करने से इंकार कर दिया। इसके बाद सपनावत ने पूरी तरह अपने को स्वतंत्रता संग्राम में समर्पित कर दिया।
मशहूर क्रांतिकारी मालागढ के नवाब वलीदाद खाँ जिनपर मेरठ से लेकर अलीगढ तक बागियों की सरकार की जिम्मेदारी थी, को भी सपनावत के ग्रामीणों से अत्यधिक सहयोग मिला था। नवाब वलीदाद खाँ गाजियाबाद तथा लोनी का निरीक्षण करके सपनावत में भी रूके थे। यहाँ के ग्रामीणों से इनके नजदीकी सम्बन्ध थे। इसी कारण सपनावत के निवासियों ने क्रांति के समय नवाब वलीदाद खाँ की बहुत सहायता की।
सपनावत से कुछ दूर बाबूगढ़ में अंग्रेजी सेना की छावनी थी। गढ़मुक्तेश्वर से बाबूगढ़ आए बागी बरेली ब्रिगेड के क्रांतिकारी सैनिकों की सहायता के लिए यहाँ के अनेक नौजवान वहाँ पहुँच गये। बाबूगढ़ में क्रांतिकारियों ने अत्यधिक लूटपाट की और दुकानों में आग लगा दी।
1857 की क्रांति की असफलता के पश्चात् अनेक ग्रामों को क्रांतिकारियों का साथ देने या क्रांति में संलग्न होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने बागी घोषित कर दिया। उन गाँवों की जमीन-जायदाद छीन ली गई। इन बागी ग्रामों में सपनावत भी था। सपनावत गाँव को भी विप्लवकारी गतिविधियों में भाग लेने के कारण बागी घोषित कर दिया गया और यहाँ के किसानो की जमीने छीन ली गईं।इसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क्रांति में भाग लेने वाले राजपूतों,मुस्लिमो की जमीने अंग्रेजों के भक्त जाटों के नाम चढ़ा दी गयी.
इन वीर आत्माओ को हमारा नमन जिनकी बहादुरी और बलिदानो की वजह से आज हम स्वतंत्र हैँ_/\_

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

क्षत्रिय सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार

~~~ प्रतिहार राजपूत ~~~
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~~ सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार का जीवन परिचय ~~ 

मिहिर भोज परिहार जी का जन्म सम्राट रामभद्र परिहार की महारानी अप्पा देवी के द्वारा सूर्यदेव
की उपासना के प्रतिफल के रूप में हुआ माना जाता है। सम्राट मिहिर भोज के बारे में इतिहास की पुस्तकों के अलावा बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं से 885 ईस्वीं तक
49 साल तक राज किया। मिहिर भोज के
साम्राज्य का विस्तार आज के मुलतान से पश्चिम बंगाल तक ओर कश्मीर से कर्नाटक तक था। 
सम्राट मिहिर भोज बलवान, न्यायप्रिय और
धर्म रक्षक थे। मिहिर भोज शिव शक्ति के उपासक थे। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में भगवान शिव के प्रभास क्षेत्र में स्थित शिवालयों व पीठों का उल्लेख है। प्रतिहार साम्राज्य के काल में सोमनाथ को भारतवर्ष के प्रमुख तीर्थ स्थानों में माना जाता था। प्रभास क्षेत्र की प्रतिष्ठा काशी विश्वनाथ के समान थी। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में सम्राट मिहिर भोज के जीवन के बारे में विवरण मिलता है। मिहिर भोज के संबंध में कहा जाता है कि वे सोमनाथ के परम भक्त थे उनका विवाह भी सौराष्ट्र में ही हुआ
था। उन्होंने मलेच्छों से पृथ्वी की रक्षा की। 50
वर्ष तक राज्य करने के पश्चात वे अपने बेटे महेंद्रपाल को राज सिंहासन सौंपकर सन्यासवृति के लिए वन में चले गए थे।सम्राट मिहिर भोज का सिक्का जो की मुद्रा थी उसको सम्राट मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं में कन्नौज को देश की राजधानी बनाने पर चलाया था। सम्राट मिहिर भोज महान के सिक्के पर वाराह भगवान जिन्हें कि भगवान विष्णू के अवतार के तौर पर जाना जाता है। वाराह
भगवान ने हिरण्याक्ष राक्षस को मारकर पृथ्वी को पाताल से निकालकर उसकी रक्षा की थी।सम्राट मिहिर भोज का नाम आदिवाराह भी है। ऐसा होने के पीछे दो कारण हैं पहला जिस प्रकार वाराह भगवान ने पृथ्वी की रक्षा की थी और हिरण्याक्ष का वध किया था ठीक उसी प्रकार सम्राट भोज ने
मलेच्छों(मुगलो,अरबों)को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की। दूसरा कारण सम्राट का जन्म वाराह जयंती को हुआ था जो कि भादों महीने की शुक्ल पक्ष के द्वितीय दोज को होती है। सनातन धर्म के अनुसार इस दिन चंद्रमा का दर्शन करना बहुत शुभ फलदायक माना जाता है। इस दिन के 2 दिन बाद
महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी का उत्सव प्रारंभ
हो जाता है। जिन स्थानों पर प्रतिहारों, परिहारों, पडिहारों, इंदा, राघव, अन्य शाखाओं को सम्राट भोज के जन्मदिवस का पता है वे इस वाराह जयंती को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। जिन भाईयों को इसकी जानकारी नहीं है आप उन लोगों के
इसकी जानकारी दें और सम्राट मिहिर भोज का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाने की प्रथा चालू करें।
अरब यात्रियों ने किया सम्राट मिहिर भोज का यशोगान अरब यात्री सुलेमान ने अपनी पुस्तक
सिलसिलीउत तुआरीख 851 ईस्वीं में लिखी जब वह भारत भ्रमण पर आया था। सुलेमान सम्राट मिहिर भोज के बारे में लिखता है कि परिहार सम्राट
की बड़ी भारी सेना है। उसके समान किसी राजा के पास उतनी बड़ी सेना नहीं है। सुलेमान ने यह
भी लिखा है कि भारत में सम्राट मिहिर भोज से बड़ा इस्लाम का कोई शत्रू नहीं है। मिहिर भोज के पास ऊंटों, हाथियों और घुडसवारों की सर्वश्रेष्ठ सेना है। इसके राज्य में व्यापार, सोना चांदी के सिक्कों से होता है। यह भी कहा जाता है कि उसके राज्य में सोने और चांदी की खाने
भी हैं।यह राज्य भारतवर्ष का सबसे सुरक्षित क्षेत्र है। इसमें डाकू और चोरों का भय नहीं है। मिहिर भोज राज्य की सीमाएं दक्षिण में राष्ट्रकूटों के राज्य,पूर्व में बंगाल के पाल शासक और पश्चिम में
मुलतान के शासकों की सीमाओं को छूती है। शत्रू
उनकी क्रोध अग्नि में आने के उपरांत ठहर नहीं पाते थे। धर्मात्मा, साहित्यकार व विद्वान उनकी सभा में सम्मान पाते थे। उनके दरबार में राजशेखर
कवि ने कई प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की। कश्मीर
के राज्य कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राज तरंगणी में सम्राट मिहिर भोज का उल्लेख किया है। उनका विशाल साम्राज्य बहुत से राज्य मंडलों आदि में विभक्त था। उन पर अंकुश रखने के लिए
दंडनायक स्वयं सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते
थे। योग्य सामंतों के सुशासन के कारण समस्त साम्राज्य में पूर्ण शांति व्याप्त थी। सामंतों पर सम्राट का दंडनायकों द्वारा पूर्ण नियंत्रण था।
किसी की आज्ञा का उल्लंघन करने व सिर उठाने
की हिम्मत नहीं होती थी। उनके पूर्वज सम्राट नागभट्ट परिहार ने स्थाई सेना संगठित कर उसको नगद वेतन देने की जो प्रथा चलाई वह इस
समय में और भी पक्की हो गई और प्रतिहार परिहार राजपूत साम्राज्य की महान सेना खड़ी हो गई। यह भारतीय इतिहास का पहला उदाहरण है,
जब किसी सेना को नगद वेतन दिया जाता हो।

परिहार क्षत्रिय राजपूत राजवंश।।
जय मिहिर भोज जी।।
जय माँ भवानी।।
जय क्षात्र धर्म।।
Source: नागौद स्टेट।।

भारत कल आज और कल

कल से प्रारम्भ होते नवरात्र और कुवारों-कुंवारियों के चेहरों पर ४माह उपरांत लौटती चमक में छिपा भविष्यवाद का गहन चिंतन भी मतदान से बड़ा मुद्दा हो सकता हे किन्तु इस तरफ देखनी की किसी को क्या परवाह आन पड़ी ....?

आज भारत विश्व की सर्वाधिक तरुण अवस्थाबादी जनसख्या का देश हे किन्तु दुर्भाग्य से वह योग्यता अनुरूप पारिश्रमिक सृजन में असफल हे और कही न कही देश की रीढ़ कही जाने बाली तरुणाई ही अर्थव्यवस्था का बो केंद्र जो देश उन्नति-प्रोन्नति का आधार स्तम्भ होकर ही खोखले बादो से प्रति पञ्च वर्षीय सरकार बनाओ योजना के रक्त पिशाचों द्वारा ठगी का शिकार बनाई जाती रही हे ।

क्या देश का उर्जामयी युवा अपने भविष्य के प्रति सचेत नहीं हे ......?
क्या तरुणाई का आधार खोखला होकर रुग्ण हे ....?

क्यो युवा मात्र सोचो अथवा व्यसन के आधीन होकर अपना भविष्य और देश का आधार दोनों दुर्बल करने पर उतारू हो रहा हे ?

सम्भवतः किसी ने इस बिंदु की तरफ आकर्षित होना मुनासिव न समझा ,आखिर युवाओ में आकर्षण खोजने की किसी को क्यों आन पड़ी,जब राष्ट्रवाद चरम पर होता हे तो बेरोजगारी भी सर्वोच्य शिखर पर होती  हे न ....!

एक सर्वेक्षण अनुसार देश का एक बड़ा हिस्सा व्यसन के प्रति आकर्षित हो रहा हे और जिसमे मूल में छिपा हे उनको समुचित व्यवसाय की अनुपलब्धता से बढ़ती मनोविकारों की खिन्नता में मष्तिष्क को क्रतिम सुख देने की लत लगना।न तो देश के ठेके पर चलाने बाले संचालक-परिचालक इस तरफ ध्यान देते हे और ना ही इस धीमे जहर के व्यवसायी! क्योंकि इन बेरोजगारो के खाली होने पर ही उनको लाभ प्राप्त होगा जो राजनेतिक भी होता हे और व्यवसायिक भी ।

जब देस के बड़े वर्ग के पास समुचित आय के श्रोत होंगे तो क्या बो अपना बहुमूल्य समय इन खाजनेतिक दलो और व्यसन्न कारियों के लिए निकाल पाएगा .....!!

आज हर युवा-युवती निरन्तर भाग रहा हे.....सोचता हे आज का परिश्रम कल उसके लिए स्वर्णिम भविष्य की बुनियाद रखेगा किन्तु देश की अतुलनीय शक्ति का दुर्भाग्य यहां भी साथ नहीं छोड़ता कुछ अवसर वादी मतो के लिए युवाओ से मतभेद कर निपट अनपढो को रोजगार मुहैया करा देता हे। और मेधा तड़पती हे.....
 अपनी दुत्कार पर,क्रोधित होती हे....
 अपनी उपेक्षाओं पर और कलुषित मन से बड़ जाती हे नशो की तरफ फिर स्वम की नशो से जहर ही क्यों न सोखना पड़े ..!!
यह कुछ समय की मानसिक शून्यता अंततः उन्हें ले जाती है गहन अंधकार में ओर कोई जहर पान करता तो कोई फांसी झूलता है !

विगत-तत्समय और आगामी धूर्त ठेकेदारिया अगर इस देश में मन्दिर मस्जिद,जातियों  की धूर्त राजनीति  करने से बेहतर होता की समुचित श्रमण का प्रबन्ध करती तो कदाचित देश की मेधा यू न पलायन करती !

एक तरफ तो युवा को जाति-पाती मिटाने की  शिक्षा दी जाती रही वही दूसरी तरफ सभी वरीयताओं,मेधाओ,उपलब्धियों,शेक्षणिक मान्यताओ,पात्रताओ को परेह् रखकर सिर्फ  जातिप्रमाणपत्र मांगे जाते हे ।

आज भारत स्वम की मेधाओ की उपेक्षा करके विदेशो पर निर्भर हे क्योंकि हमारे ठेकेदारो ने सत्ता-भत्ता से आगे कुछ सोचा ही नहीं ।
इस देश में एक से बढ़कर गुणीजन विरक्त सा जीवन जी रहे और मुर्ख सत्ताधीसि के सर्वोच्य पर विराजमान हे।मेधाये राजनेतिक स्वार्थो के चलते व्यसनकारी हो रही हे और सर्वोच्य न्यायालय से नगग्ना युक्त संस्कृति हिरस्कारि आदेशो पर व्यक्ति स्वत्र्ता का मुल्लमा चढ़ाकर निषेधात्मक नियमन सुनाये  जाते हे ।

यथार्थ में भारत,भारत न हा फिरंगियो के द्वारा थोपा गया नग्न,उभनिष्ठ,बलपौरुष हींन सदैव सभ्यता का ढोंग ओढे हुए #इण्डिया ही रहा ।

हे आर्यावर्त! तुझे बैभवशाली भारत बनने में और कितने युग लगेंगे .....!
देश की रीढ़ दिग्भ्रमित है और उसे स्वम झुकाव तक नही पता।राजनीतिक गलियारे की वेहया वैश्या ने सारा देश वर्णसंकर करके पौरुष विहीन कर दिया क्या ?

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~जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'
  चम्बल मुरैना मप्र.

सोमवार, 28 सितंबर 2020

भगत सिंह जी

अमर वीरगति की प्रेरणापुंज और युवाओ के प्रेरणा स्त्रोत भगतसिंह,सुखदेव,राजगुरु,चन्द्रशेखर 'आजाद', रामप्रसाद 'बिस्मिल',असफाख,मंगलपांडे,राणा बेनीमाधव सिंह,बाबू कुँअर सिंह,महाबीर सिंह,दीक्षित जी जैसे महायोद्धाओं का कहि भी दस्ताबेजो में उल्लेख नही है। यह तो भारतीय जनता की भावना है कि उन्हें 'शहीद ए आजम,आजाद,पंडित बिस्मिल जैसी उपाधियों से अलंकृत किया जाता है ।

क्या कारण है कि आज भी भारत की राष्ट्रीय भाषा हिन्दी और  लिपि देवनागरी के साथ-साथ इन महाबीरो को प्रपत्रो में 'शहीद' का उद्बोधन नही मिला....?
अकबर ,शाहजंहा,हुमायु,टीपू की क्रूरता को महान बताने बाले   इस देश में हजारों,करोड़ो अन्तर्वाही कीड़े है और उन्हें विभिन्न राष्ट्रीय पारितोषिको से सम्मानित भी किया जाता रहा है ।

भारत मे जातिवाद खत्म करने की बात तो की जाती है पर चुनाव आते ही जाती और धर्म आधारित मतो का वर्गीकरण आखिर क्यों होता है ...क्यों कि देश से जुड़े आंतरिक तन्त्र में प्रतिभा नही प्रजाति देखना है ही लोकतंत्र है।

छोटूराम के नाम के साथ जुड़ी 'सर' उपाधि उस ब्रितानी चरण चुम्बन का प्रत्यक्ष प्रमाण है जो सिंधिया को 'वाइसराय' बनाती है। भले ही वीरगति प्राप्त क्रांतिकारियों को लोकतंत्र भूल जाये पर ब्रितानी सरकार के रीछ हमेशा से सर्वोपरि रखे गए ।

भारतरत्न,भारत विभूषण जैसे  पारितोषिक सम्मान आज लाई की तरह नङ्गे बॉलीबुड को बाटे जाते है और जो कुछ बच  जाए वह लेतो की खंडपीठ में बन्दरबाट कर लिए जाते है। पटेल के बुत हर जगह है किंतु 552 रियासतों के दानदाताओ का कहि नाम नही ...क्या यही भारत को ठेके पर हेंडल करने बालो की कृत्यगता ?
राष्ट्रीय खेल हॉकी ओर उसके जादूगर ध्यानचंद्र जी आज भी उपेक्षित है। क्योंकि उन्होंने हिटलर के समक्ष सीना तान कर बोला था.......'भारत का हूं और क्षत्रिय हूं सिक्को से स्वाभिमान नही तौला जा सकता है !"

पंडित गैंदालाल दीक्षित जी उम्रभर क्रांति की मशाल प्रज्वल्वित करके धन और आयुध उपलब्ध कराते रहे किन्तु आज देश मे 60 %को पता ही न होगा। तरकुली माता के अनन्य भक्त अंगरोजो की बलि चढाते रहे किन्तु उप्र से सटे मप्र,बिहार को भी पता नही होगा !

आईपीएल में बिकते क्रिकेटर ओर ऑनलाइन जुआ व मदिरा प्रचार करते क्रिकेटर ही अगर भारतरत्न है तो नङ्गे मानसिक वेश्यालय की दुनिया मे भारतरत्न खोजने की नीति कैसे प्रारम्भ हुई ....इन दलालो ने कोनसा तीर मारा है !

राष्ट्रीय बापू,राष्ट्रीय चाचा,राष्ट्रीय गुरु, जैसे सम्मान किस किधर परस्पर बटे वह हर कोई जानता है पर निर्पेक्षय की अति तो तब हुई थी, जब डा राजेन्द्र प्रसाद जी को सोमनाथ मंदिर जाने  से नेहरू ने रोका था !!

आज देश का बच्चा-बच्चा परिचित है कि जिन्होंने भारतभूमि को लहू से सींचा उनको उपेक्षित कर दिया गया है और हमे आजादी देने में 'असहयोग आंदोलन' का रट्टा लगाया गया। इतिहास की बात की जाए तो महान दूरदृष्टा ओर प्रजा बत्सल शाशक जयचन्द ओर मानसिंह को गद्दार प्रचारित किया किन्तु  माधव भट्ट,राघव चेतन,वातायन खत्री,आदि भेदियो पर मौन साधा गया ।


आज भगत सिंह जी को स्मरण करके उनको श्रद्धा सुमन अर्पित तो किये जायेंगे किन्तु उनको वलिदान को सर्वोचित उल्लेखनीय सम्मान दिलाने पर लेटे मौन साध लेंगे। असल मे यह जो लोकतंत्र है न सब बॉलीवुडिया सिल्वर स्क्रीन का ही वास्तविक रूप है जंहा वर्जित दृश्य भी अभिनय  प्रतिभा बनाकर परोसे जाते है। ओर देह दर्शन कराके संस्कृति सभ्यता के सभी बंध खोले जाते है ।

पूज्य भगत सिंह जी अच्छा हुआ लगभग दशक उपरांत भी आपका पुनर्जन्म नही हुआ क्योंकि यह देश तो कल फिरंगियों की शाश्कता का गुलाम था ....और आज हरामियों की मानसिकता का है ।

अमर शहीद भगत सिंह जी को एक भारतीय की तरफ से अश्रुपूरित श्रद्धा सुमन व नमन 🙏 

'इंकलाब जिन्दावाद' 💪
'वन्देमातरम' 
'जय भवानी'
---------------.
जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

बुधवार, 23 सितंबर 2020

तीर्थयात्रा (हास्य)

#भदेस_वार्ता
सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ 😂😂
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एक गाँव से कुछ बुजुर्ग एकबार तीर्थाटन को निकले ...विधीवत सबकी आरक्षित टिकिट थी और सबकी सीट्स संग-साथ बना रहने के लिए एक ही बोगी में क्रमानुसार नजदीक थी...
चलते-चलते सफर में चर्चाये आम होती हे और सहमति-असहमति,आलोचक-प्रशंशक दो समूह सदैव बनते आये हे,कुछ ऐसा ही वाक्या इधर भी था ।

रामआसरे-
" भैया तीरथ को तो जाय रहे हे पर बड़ी टेंसन में जान डरी हे,कुआ पे दो बीघा चरी और 6 बीघा कछवारि लगाई हे पर जा कदुआ घ्नसमा समवीरा की गैया कहु रोज न चरे!"
यह कहते हुए बुजुर्ग देवता ने धुंए से पीली हो चुकी  मुछो में अंतर्ध्यान हुए होठो के मध्य फटाफट करके 10 नम्बर ख़ेनि सरकाई ही थी की बपरिते बोल पड़े !

"अरे दद्दा जी बात तो एक और बेर कहो,जा सारे घ्नसमा ने सिग हार चराय डारो न तो लुगाई बाँध पाओ और न गैया...भोजाई उ तो दिनरात बाजार में जायके टिकिया-भल्ला में जड्ड देत रहे !"

यह कहते-कहते बपरीते ने बड़ी चुलबुली अदा में वांयी आँख झपकाई ई थी की गुस्से से तमतमाते 'घ्नसमा लाल' तेरही के मालपुआ के जेसे लाल हो उठे ।

"सुनि सारे बप्रीते तू तो सारे दोगला ई रहेगो जाकी बीड़ी पी लई बाकी की लुगाई बन जातु हे,और रही बात गैया की तो ऎसे ई चरेगी !"
"काहू के झाड़ .में दम होय तो गैया रोक के दिखाय .....मारे मुंडा के चाँद भोपाल न बनाई तो हमते उ को घनसमे कहेगो !!"

रमासरे को यह सुनते ही ततैया लग गयी और बपरीते को बगल में हटाके घनसमे के सामने आ बेठे और बोले ।

"काये रे घ्नसमा तेरी गैया काय हमाये खेत में  धसेगी?"
"भें कछु तेरे बाप को लगि गओ हे का, जो जा तरे ते बतरामन कर रहो हे !!"
"ज्यादा वाइसराय न बनि,मारे पनाह के चांद हाल खरोंच जागी!!!"

इतना सुनते ही घ्नसमे के टिकासरे में भूत झोलकिया लग गयी  ..
"सुनो ज्यादा चु चपर न करो अगर कछवारि होगी तो अब गैया जरूर चरेगी,तुम सिग हमाये झुनझुना झराय लियो और कराय दियो फांसी। तुमसे हमाये मुंडन में डरे रहे ..!"

रमासरे कुछ कहते उससे पहले ही बपरीता एक झोला उठा लाया और बड़ी जोर से बोल  उठा ...

"सुनो सिग अभाल ई तोर-तिया करे देत हे, जी हे गओ दद्दा को खेत और अब तुम अपनी गैया धसाय् के देखो अभाल ई भुभरो न फूटे तो कहियो !"

घ्नसमे भी ताव में आ गए और चारो तरफ नजर मारी लेकिन गाय का प्रतीक  जैसा कुछ न मिला तो बपरीते की जेब से गोविन्दबीड़ी का बण्डल निकाल कर गाय बना कर  रख दिया और छाती 56 इंच करते हुए बोल उठा ....

"लेयो तिहाये खेत मे गैया नई पुरो सांड घेर के ऐसे ई चरेगो,काट लियो हमाये कदुआ!"

फिर क्या ...बातो में बतबढ ओर तरण-तारणा आरम्भ हो गया ......दोनों तरफ मुंडा फटाफट खोपड़ियों पर बजने लगे। दोनों तत्वज्ञानी बड़ी श्रद्धा से परस्पर माँ-बहिनो को स्मरण कर रहे थे ।

ऊधम, हाय-पुकार,चिल्ल-पो सुनकर टीटी rpf बाले भी आये ओर तीनों को यह बोलकर झांसी उतार दिया कि ....तुम तीनो को तीर्थ जाने की नही संसद भवन जाने की आवश्यकता है जिसके लिए गाडी उल्टी तरफ जाएगी ...!

मामला रफा-दफा भी हो गया और मुरैना से नासिक जाने बाले यात्री झांसी में एक साथ बैठकर एक ही बीड़ी को पी रहे थे ...!किन्तु बपरीते अपने बीड़ी-बण्डल के पैसे दोनों लोगो से रोते हुए बसूल करना चाह रहे थे ।😀



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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

बुधवार, 9 सितंबर 2020

मुखाग्नि प्रेम की

हाथ मे ली हुई बीड़ी से सुट्टा खीचकर ढेर सारा धुंआ फिजाओ में छोड़ते रामआसरे चाचा कहि दूसरी दुनिया मे   गुम है !
अभी कल की ही तो बात है जब रामजानकी काकी का डोला लेकर आये थे, ओर आज काकी के सफेद होते बालो के साथ बढ़ती हुई झुर्रियों से  चेहरे भरे चेहरे पर उनका आकर्षण बिल्कुल भी खत्म नही हुआ था ।
सिर पर बंधे अंगोछे से पसीना मिश्रित आँशु जब-जब वह पोंछते है ,तब-तब उन्हें अपनी 'मुह पूछाई' रस्म स्मरण हो आती है और हृदय में उठते हुए दर्द में सहसा एक मुस्कुराहट आकर कहि गुम हो जाती है ।
लोगो के भारी कोलाहल के मध्य रामआसरे काका का मष्तिष्क व्यतीत में चला गया और बीते कल का चलचित्र  इतना स्पष्ट हुआ कि वह निश्चेत से होकर अपलक गुमनाम मुहब्बत में चले गए !


घुंघुरू बजाते बेलो के साथ एक किशोर हंकार-हंकार कर बैलों को उत्साहित कर रहा था कि पूरा 4 बीघा खेत जल्दी लग जाये तो गांव में जो रमैया आई है ...उसके साथ हंसी ठिठोली करेंगे और दोपहर भर सुस्ताएँगे पर उन्हें नही पता था कि रमैया आज घर चली जायेगी ।
भोली-गोपी भी अपने साथी के साथ दुगने जोश में चल रहे थे .....ओर 4 बीघा सितम से पहले जुत गया ।
जल्दी-जल्दी नारे बदल हल को खेत मे छोड़ रमसा काका घर पहुचे ओर चिल्लाए....

"ओ री रमैया जरा गुड़ के साथ पानी दे  दो बड़ी पियास लगी है !"

किन्तु न प्रतिउत्तर आया और नाही उम्मीद का मूर्तिरूप रमैया!
घर सूना था .....न वह खिलखिलाहट थी न वह चहल-पहल !
एक रमैया के जाते ही रमसा काका जैसे फुट-फुट कर रोने को आतुर थे ।

बात आई-गयी हुई और रमसा-रमैया की कहानी भी अतीत की परतों में कही दब गई ..!

कुछ वर्षों उपरांत रमसे का पाणिग्रहण हुआ और जब छिपते-छिपाते प्रथम भेंट को पहुंचे तो ....अवाक रह गए..!

दुल्हिन ने पाँव छूकर जब पहला शब्द बोला तो उसमें एक परिचित स्वर  सा लगा ...

" देखो जी पहले पहिचानिये फिर ही मुझे स्पर्श करना !"

परीक्षा की घड़ी ओर बालपन का स्नेह सजीब हो उठा ...कांपते होंठो से रमसा कह उठे

"रम....ममया ....रम ....रमैया..!"
ओर एक खिलखिलाहट से अटारी गूंज उठी


समय पंख लगाके उड़ता रहा .....किन्तु रमैया की गौद सुनी रही। जन्हा सुना वही दोनो दौड़े जाते ...हजार पत्थर पूज कर भी रमैया-रमसे  सन्तान सुख से वंचित थे!
 रमसे-रमैया की जोड़ी को लोग प्रातः देखना पसंद नही करने लगे ....कहते कि बांझ का मुह देखना निकृष्ठ होता है और लोग भूलके मिलते भी तो मुंह बनाकर जमीन पर ठुकथूका के चलते बनते ।

वंही रमैया ने अतिरिक्त बात्सल्य स्नेह को अपने रमसा ओर पालतू जांनंबरों को देना प्रारम्भ कर दिया ..
समय के साथ घर-जमीन सबका बंटबारा हुआ पर रमसे का दिल आज भी साझा था ....वह तो प्रेम का अशेष सागर था जो सदैव हिलोरों में रहता था ।
अपने खेतों की फसल ओर अपनी रमैया यही जीवन था !

कभी-कभी रमैया दुखी होती और रमसे के सिर को गोद का सिरहाना देकर कहती कि .....' अ जी तुम चाहते तो दूसरा विवाह कर सकते थे न,फिर क्यों सिर्फ मुझे ही निहारते रहे ?"

रमसे मोन रमैया की आंखों में निहारते हुए कहने लगे ....
"तूने क्यों इतने सम्बन्ध तोड़ सिर्फ मुझे ही साथी चुना !"

"साथी!"
रमैया सिर्फ इतना बोल पाई और हिचकियो के साथ हिलकारे ले उठी !

"तुम्हे याद नही होगा जब मे जिजी के साथ आई थी ,में ओर तुम दोनों खूब लड़ते थे !"
"....लेकिन तुमने उस दिन जान जोखिम में डालकर मुझे बचाया था।"

"याद है वह जंगली भेड़िये से तुम्हारा भिड़ना, मुझे परेह धकेल ...उसका निबाला बनने की आतुरता सिर्फ प्रेम में होती है !"

"वह निश्चल ,निःस्वार्थ प्रेम मेने तुम्हारे गज भर सीने के अंदर स्पंदित होते हृदय में स्पस्ट सुना था!"
"सुना था कि रक्त की हर वृन्द में सिर्फ रमैया बसति है फिर रमैया अपने प्रियतम मन से दूर कैसे रह सकती है ?"

"सुनो! जीवन मे कितने भी बदलाव आए पर में चाहूंगी कि में जब तन छोड़ू मेरा प्रियतम बस मुझे यू ही निहारे ..."
"उम्र का क्या है बालपन का प्रेम ,यौवन का समर्पण बना और प्रौढ़ आते-आते सहचर होने का प्रमाण भी !"

"में चाहूंगी कि में जब भी इस दुनिया को छोड़ू ,तुम मेरे सफेद बालों की लट से हमेशा मेरा चेहरा छुपने से बचाते रहो!"
"तुम कहते थे न!रमैया बालो की अलका से बड़ी जलन होती है जो मुझे तेरे दर्श के मध्य एक अवरोधक बनके बार-बार पूर्ण चन्द्र देखने से रोकती है !"
प्रेमभाव का सावन-भादो वर्ष पड़ा और रमैया के समर्पण का रमसे आभारी हो गया ।

"सुनो!"
'भगवान न करे कि कभी ऐसा समय आये में तुम्हे न पहिचान पाउ पर.....तुम मेरी पहिचान बने रहना !"
रमैया प्रेम चर्चा और रमसे प्रेम श्रोता बने उसकी गोद मे सिर रखे ही सो गए ...।


व्यतीत समय निकलता रहा और रमैया-रमसे का प्रेम प्रगाढ़ होता रहा किन्तु समय के प्रभाव से कोन बचा है......ओर एक दिन रमैया ऐसी गिरी की फिर उठ न पाई ....रीढ़ रमैया की क्षतिग्रस्त हुई थी और बाबले रमसे हो गए ...!!
बैलगाड़ी हांकते रमसे के शब्दों में हंकार नही थी और रेलगाड़ी की ध्वनि में उन्हें रमैया के नूपुर झनकते सुनाई दे रहे थे ..!

बड़े चिकित्सालय में रमैया के पास बैठे-बैठे रमसे काका बार उस अलका को पुनः रमैया के चेहरे पर देखने की लालसा में बैठे रहते की लट घूमे ओर वह उस लट को पुनः एक ओर कर पाए !


नजदीक बेड पर लेटा एक युवा यह रोज देखता ओर पूछता की .....
"बाबा क्यों आप इनके पास पूरा दिन-रात बेठे रहते हो ?"
'जबकि इनमे पहिचानना तो दूर कोई चेष्ठा भी शेष नही दिखती ...आप कुछ समय बाहर भी बैठ लिया कीजिये ...!"

रमसे...
"बेटा....यह मेरी वह सहचरी है जिसने मुझे  करोड़ो में पहिचाना था.....!"
"चलो ठीक आज मुझे नही जानती पर में तो इसे पिछले 6 दसको से जानता हूं न!"

"पता नही कब इसकी आंख खुले और में न होऊ तो इसको दर्द होगा क्योंकि हमने तो विवाह बाद भी साथ-साथ रहने के लाखों वादे किए थे !"

ओर अंतिम पिय दर्श को रमैया की आंखे गंगा-जमुना बन गयी ..।
वह जगी .....कांपते हाथ से रमसे का सिर अपने सीने पर  रख अपने अस्ताचल की राह को चली गयी ....!





श्मशान पर रमैया का पार्थिव शरीर रखा था ....रमेसर काका मुह से बीड़ी लगाए धुंआ उगल रहे थे ....!!
तमाम तैयारी उपरांत जब मुखाग्नि के लिए रमेसर काका को पुकारा वह पूर्व की तरह शांत थे ....
बुलाने पर जब न बोले तो हिलाने पर एक तरफ को लुढ़क गए ...
ओर मुंह से निकली बीड़ी की चिंगारी ने अंतिम धूम्र प्रकट किया .....देखते ही देखते ,रमेसर ओर रमैया की कहानी फिजाओ में घुलने लगी ...!!!!!!

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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

सोमवार, 7 सितंबर 2020

कथा-सरिता

===कथा सरिता===
बहुत पुराने समय की बात है।भारत वर्ष में  एक नृप का चक्रवर्ती शाशनथा, उनके कुलगुरु और कुलपुरोहित नीति और ज्ञान की बातें समझाते रहते थे। 
निरन्तर युद्ध में जीतने के बाद राजा का ध्वज अखण्ड भारत पर गर्व से लहराता जा रहा था ।
निरन्तर प्राप्त होती विजय श्री और बढ़ते शाशन क्षेत्र के प्रभुत्व ने राजन के मस्तिष्क में गर्व की भावना कब अभिमान में परिवर्तित हुई उनको स्वम अहसास न हुआ ।
एक बार राजा ने घमंड से चूर होकर कुलगुरु से कहा, 'गुरुदेव, आज  मैं अब चक्रवर्ती सम्राट हो गया हूं....
अब मैं हजारों-लाखों लोगों का रक्षक हूं....
 मेरे कंधों पर उन सब की जिम्मेदारी है।'
कुलगुरु समझ गए कि मेरे यजमान को सर्वसत्ताधीस  होने की अवभिव्यक्ति का घमंड हो गया है। यह घमंड उसकी संप्रभुताको हानि पहुंचा सकता है। इस घमंड को तोड़नेके लिए कुलगुरु ने एक उपाय सोचा...
जब एक दिन शाम को राजा और कुलगुरु भ्रमण कर रहे थे तभी राजा को एक बड़ा सा पत्थर दिखा। कुलगुरु ने उस पत्थर की ओर इशारा करते हुए कहा 'राजन! जरा इस पत्थर को तोड़ कर तो देखो।
'राजा ने अत्यंत नम्र भाव से अपने बल से वह पत्थर तोड़ डाला।
किन्तु यह क्या! 
पत्थर के बीच में बैठे एक जीवित मेंढक को एक पतंगा मुंह में दबाए देख कर राजा दंग रह गया।

कुलगुरु ने राजा से पूछा, 'पत्थर के बीच बैठे इस मेंढक को कौन हवा-पानी और खुराक दे रहा है? इसका पालक कौन है? कहीं इसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी तुम्हारे ही कंधों पर तो नहीं आ पड़ी है?'
राजा को अपने कुलगुरु के प्रश्न का आशय समझमें आ गया। वह इस घटना से पानी-पानी हो कर कुलगुरु के आगे नतमस्तक हो गया।
 तब कुलगुरुने कहा, 'चाहे वह तुम्हारे राज्य की प्रजा हो या दूसरे प्राणी, पालक तो सबका एक ही है- परमपिता परमेश्वर।हम-तुम भी उसी की प्रजा हैं, उसी की कृपा से हमें अन्न और जल प्राप्त होता है। एक शाशक के रूप में तुम उसी के कार्यों को अंजाम देते हो। इसीलिए हमारे भीतर पालनकर्ता होने का घमंड कभी नहीं आना चाहिए।'

#सारांश -: किसी भी कार्य के लिए हम सब मात्र निमित्त हे जिसका कर्ता स्वम को समझ सर्वश्रेठता का प्रदर्शन करना सबसे बड़ी भूल हे ।
क्योंकि धन्वन्तरि वैद्य को भी मृत्यु के समय औषधि प्राप्त न हुई थी ।

रविवार, 6 सितंबर 2020

सस्ती शायरी

किसी को सिर रख रोने के लिए एक कंधे की तलाश है,
कोई सेकड़ो कंधों में कांधा बनकर भी कांधे से उदास है!

किसी का सब्र छलकने  नही फुट फुट रोने को कयास है,
नित याद करता अपनो को किसी मेअपनो से खटास है!

अजनबियों का मेला है दिल कोई धंदा तो ग्राहक तलास है,
पल जोड़ स्वयं को लिखता हूं लोगो को स्वार्थ की आस है!

'असफल' जिंदगी के फलसफे इतने सस्ते नही मिलते है,
किसी इश्क में तन तो किसी को इश्क में धन की तलाश है!

तलाशे जिंदगी खत्म नही होगी खत्म ये सारा जन्हा होगा,
घमंड से उठे मष्तक एक दिन तेरा भी बाकी न निशां होगा !!!!

  

रविवार, 23 अगस्त 2020

क्षत्रियो की ८४ ओर इतिहास

--- राजपूतो में चौरासी की अवधारणा---

राजपूतो के बसापत का पैटर्न समझने के लिए ये पोस्ट जरूर पढ़ें। इससे पहले इस विषय पर कभी नही लिखा गया--

राजपूतो की ज्यादातर बसापत गांवो के समूह के रूप में मिलती हैं। 12 गांव, 24 गांव, 42 गांव, 60 गांव, 84 गांव आदि। इन्हें खाप कहा जाता है। ये राजपूतो में ही मिलती है या राजपूतो से गिरकर दूसरी जाती में गए वंशो में। दूसरी जातियों में भी सिर्फ उन्ही वंशो की एक गोत्र की खाप मिलती है जो राजपूतो से गिर कर उनमे शामिल हुए हैं। क्योंकि राजपूतो की ही बसापत सैनिक सेवा के बदले जागीर मिलने से होती थी। इसके अलावा खुद से भी किसी क्षेत्र को जीता जाता था लेकिन उसके बाद अपने से बड़ी ताकत से पट्टा अपने नाम लिखवाया जाता था जो कि गांवो के समूह के रूप में ही होता था। 

जागीर एक दो गांव की भी हो सकती थी लेकिन ज्यादातर कई गांवो की होती थी। अब जरूरी नही कि जितने गांवो की जागीर मिली है उन सभी गांवो में उन राजपूतो की बसापत हो। लेकिन समय के साथ आबादी बढ़ने से जागीर के अन्य गांवो में भी फैल जाते थे। बाद में खुद खेती भी करने लगे। 

राजपूतो की इन खापो में सबसे ज्यादा लोकप्रिय संख्या 84 की थी। 84 क्या है इसको जानना बहुत जरूरी है। भारतीय संस्कृति में संख्या 84 का बड़ा धार्मिक महत्व रहा है। इसे शुभ माना जाता रहा है। इसीलिए किसी चीज को दर्शाने में इस संख्या का बहुत इस्तेमाल किया जाता रहा है। जैसे महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थो की संख्या 84 बताई गई है। जरूरी नही की तीर्थो की संख्या सटीक 84 ही हो लेकिन पवित्र होने के कारण इस संख्या का सांकेतिक रूप में प्रयोग किया जाता है। इसी तरह मेरु पर्वत की ऊँचाई 84 हजार योजन बताई जाती है। ब्रज को 84 कोस में फैला बताया जाता है। प्रसिद्ध जोगियों की संख्या 84 बोली जाती है। जानवरो की प्रजातियों की संख्या 84 लाख बताई जाती हैं आदि आदि। 

इसी तरह जब इलाकाई डिवीज़न की बात की जाती थी तब भी 84 का बहुत उपयोग किया जाता था। एक परगने को 84 गांव के बराबर माना जाता था। हालांकि मध्यकाल में एक परगना 40 गांव का भी हो सकता था और 400 गांव का भी। राजपूतो को सबसे बड़ी जागीर जो मिलती थी वो ज्यादातर 84 गांव की ही होती थी। इनमे से कई 84 आज भी मौजूद हैं लेकिन जरूरी नही कि इनमे आज राजपूतो की संख्या पूरे 84 गांवो में हो। इसके अलावा 84 गांव पूरे ना होने या उससे कुछ ज्यादा होने पर भी 84 बोल दिया जाता था। कई बार एक पूरा परगना किसी एक वंश की जागीर में होने पर उसे 84 बोलना पसंद करते थे भले ही उसमे 84 गांव पूरे ना हो या उससे कुछ ज्यादा हों। ये 84 सांकेतिक ज्यादा होती थी।

इसी तरह 84 के चार गुना यानी की 360 और 360 के चार गुना 1440 संख्याओं को भी शुभ माना जाता है इसीलिए इनका भी राजपूतो के इलाकाई डिवीज़न में बहुत महत्व था। लेकिन 360 और 1440 ज्यादातर जागीर में नही मिलते थे। एक 'सरकार' जो आज के जिले की तरह होता था उसे 360 गांव के बराबर माना जाता था। हालांकि ये संख्या भी सांकेतिक ही होती थी। किसी वंश का शासन किसी बड़े हिस्से में हो जो लगभग सरकार के बराबर या आसपास हो तो उसे 360 गांव बोल दिया जाता था जैसे हरियाणा में मडाडों का राज्य था या रोहतक वाले परमारो का। अगर इससे कहीं ज्यादा बड़ा हो तो 1440 गांव बोल दिया जाता था। जैसे हरिद्वार, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर क्षेत्र में पुंडीरो का राज्य था। गौरतलब है कि 360 या 1440 अक्सर वहां होते थे जहां किसी वंश का पहले से ही बड़ा राज्य रहा हो और बड़ी ताकत के अधीन होने के बावजूद ये अर्धस्वतंत्र होते थे और अपने राज्य में खुद जागीर बांटते थे। और आज भी उसी तरह से इनकी आबादी मिलती है। 

उदाहरण के लिए हरियाणा के परमारो का राज दादरी से गोहाना और जींद से बहादुरगढ़ के क्षेत्र तक था। इसको 360 गांव की रियासत कह सकते हैं। ये इलाका जीतने के बाद परमार राजा ने अपने सेनापतियों या पुत्रो वगैरह को जागीरे बांटी होंगी। इसी तरह परमारो की इस क्षेत्र में 12, 24 या 32 गांवो की 3-4 या उससे ज्यादा खाप बनी। इन्ही जागीर के गांवो में परमार राजपूतो की आबादी का विस्तार हुआ। कुछ एकलौते गांव की जागीरे या भोम भी दी जाती थीं इसलिए स्वतंत्र गांव भी बसते थे। रियासत के बाकी गांवो में किसान जातीयो के लोग बसाकर परमार राजा उनसे खेती कराते। इन परमारो की राजधानी कलानौर थी। किसानों को बसाने के उपक्रम में किसानों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण किसान जाती के लोग जमीन के लिए 'भेंट' देने की भी पेशकश करते, तभी से कलानौर में कौला पूजा की शुरुआत हुई। किसानों को जहां खेती की जमीन मिलती वही बस जाते थे, किसी एक गोत्र के किसानो को खेती करने के लिए जागीर की तरह गांवो का पूरा समूह देने का कोई मतलब नही था इसलिए उनमे एक ही गांव में कई गोत्र के लोग मिलेंगे जो रिश्तेदारी में आकर नही बसे बल्कि एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से जमीनें मिलने पर बसे हैं। इसी तरह एक गोत्र की जगह कई गोत्र की खाप भी मिलेगी। हरियाणा में सुरक्षा कारणों से जाटो में अलग अलग गोत्र के किसानों के गांवो द्वारा मिलकर खाप बना लेने का चलन था इसलिए वहां जाटो में बहुगोत्रीय खाप भी मिलती हैं जैसे महम चौबीसी खाप। ये खाप कलानौर परमार रियासत की खालसाई जमीन पर खेती करने वालो की है जो इन्होंने 19वी सदी में ही बनाई है। इस खाप के जाट परमारो के मुजारे होते थे। इस खाप के बनने के बाद ही इन्होंने कौला पूजन के खिलाफ आंदोलन किया। 

इसीलिए हरियाणा और पश्चिम यूपी में जाट और गूजर जैसी जातियों में एकगोत्र कि खाप सिर्फ वो ही हैं जो राजपूतो से निकले हैं। जैसे पश्चिम यूपी में गूजरो में भाटी, कलस्यान, पवार, नागर आदि की ही खाप मिलती हैं जो अपने को राजपूतो से निकला बताते हैं। बाकी हूण, चेची,  कसाना आदि गोत्र के गूजर जो असली गूजर कहे जाते हैं वो बिखरे हुए ही मिलते हैं। 

राजपूतो के गांव वहीं बसते थे जहाँ उन्हें खुद सैनिक सेवा के बदले जागीर मिलती थी। जबकि कृषक या अन्य पेशों वाली जातियां कही भी किसी की भी जागीर में या 
खालसाई इलाको में बस सकती थीं जहाँ उन्हें खेती के लिए जमीन या उनके पारंपरिक पेशे से जुड़ा काम मिल जाए। पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब वगैरह में दिल्ली के करीब होने के कारण मुस्लिम शासन की स्थापना के बाद राजपूतो को कोई नई जागीरे नही मिली और जो पुरानी जागीरे या राज्य थे उनको भी धीरे धीरे तोड़ा जाता रहा इसलिए अपनी जागीरों में भी नए गांवो में राजपूतो का बसना बंद होता गया। इस कारण इन क्षेत्रों में एक तो पिछली कई सदियों में राजपूतो की आबादी का विस्तार बहुत कम हुआ। ऊपर से जागीरे टूटने और कमजोर होने के कारण कई खापो के अन्य जातियों में शामिल होने से संख्या पहले से कम भी होती गई। जबकि कृषक जाती होने के कारण जाट गूजर जैसी जातियों के लोग 20वी सदी तक नए इलाको और गांवो में बसते रहे, दूसरों की जागीरों में मुजारे के अलावा खालसाई जमीनों पर भी खेती करने के लिए बसते रहे। इसके अलावा राजपूतो से गिरी खाप भी इनमे शामिल होती रहीं। इस कारण इन क्षेत्रों में इनकी आबादी का बहुत विस्तार हुआ और इनके पिछली कुछ सदियों में ही बसे गांव बहुत मिलेंगे। दिल्ली में सल्तनत की राजधानी से लगता इलाका खालसा में होने के बावजूद इनकी वहां बहुत आबादी है। 

इस 360 की तरह ही मडाड और चौहानो की 360 थी। मडाडों के 360 गांव जो बोले जाते हैं उसका मतलब उनकी रियासत से था, मडाड राजपूतो की बसापत सभी 360 गांवो में नही थी। 

इसी तरह उत्तरी दोआब में पुंडीरो की रियासत 1440 गांव की बोली जाती थी जो आज के सहारनपुर, हरिद्वार, मुजफ्फरनगर और शामली जैसे 4 जिलों में फैली हुई थी। इसमे पुंडीरो के गांवो के कई समूह हैं जो पहले जागीर रही होंगी। 

लेकिन इसमे कोई एकरूपता नही होती थी। जैसे जाटू तंवरो के राज्य का क्षेत्रफल मडाडों या परमारो से ज्यादा नही था लेकिन वो अपने को 1440 बोलते थे। बाद में भाट जगाओ ने अज्ञानता के कारण अपने हिसाब से इन संख्याओं को परिभाषित करने का काम किया। जैसे किसी वंश की 360 बोली जाती है लेकिन वर्तमान में उस जगह सिर्फ 40-50 गांव में उस वंश की आबादी दिख रही है तो भाटो ने अपने मन से उस वंश की दूसरी जगह बसी खापो को जोड़ जाड़ के 360 गांव सिद्ध कर दिए। जैसे पश्चिम उत्तर प्रदेश में गहलोतो के कई जगा/भाट यहां पुराने जमाने से 360 गांव होने की बात जो जनश्रुतियों में लोकप्रिय थी, उसे सिद्ध करने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी खाप के गहलोतो के गांव के साथ नेपाल में गहलोत बताकर वहां के गांव तक की काल्पनिक संख्या जोड़ देते हैं। जबकि उन्हें नही पता कि हाथरस क्षेत्र में ही एक समय गहलोतो का बड़ा राज्य था जिस कारण 360 गांव होने की बात जनश्रुतियों में थी। 

इसी तरह सर्विस क्लास जातियों के भी आंतरिक संगठन में 84 और 360 गांवो पर चौधरी होते थे। उदाहरण के लिए एक विशेष क्षेत्र में बढ़ई जाती के 360 गांव बोले जाते थे जिनपर उनका मुखिया होता था जिसे चौधरी कहते थे। इसका मतलब ये नही कि वो 360 गांव के मालिक होते थे। बल्कि 360 गांव में रहने वाले बढ़ई जाती के लोगो का मुखिया होता था। लेकिन 360 भी सांकेतिक होता था। गांव इससे कहीं ज्यादा या कम हो सकते थे। 

राजपूतो में उत्तर भारत में निम्नलिखित चौरासी थीं----

(ये संपूर्ण लिस्ट नही है और ना ही परफेक्ट है। कई जगह पहले कुछ और मान्यता रही होगी और अब कुछ और। जैसे बुलंदशहर के बाछलो पर पहले 55 गांव की जागीर होती थी जो अंग्रेजो के समय खत्म हो गई और उस वक्त जिन 12 गांवो में बसापत थी उनमे ही उनकी आबादी रही आई इसलिए अब बारहा गांव की खाप बोली जाती है)

गाजियाबाद-हापुड़ में तोमरो की चौरासी।

हापुड़ के गढ़मुक्तेश्वर में ही चौरासी का आधा ब्यालसी भी थी तोमरो की। 

बुलंदशहर के खुर्जा में भाल सोलंकीयो की चौरासी।

बुलंदशहर के ही जेवर में छोकरो की चौरासी। 

बुलंदशहर के ही अनूपशहर और संभल के नरौली क्षेत्र में बडगूजरो(राघव) की चौरासी।

पुराने जमाने में गुड़गांव और मुजफ्फरनगर क्षेत्र में भी बडगूजरो(राघवो) की चौरासी बोली जाती थी। अब गुड़गांव में चौबीसी बोली जाती है जबकि मुजफ्फरनगर वाली के मुसलमान बन जाने की बात बोली जाती है लेकिन असल मे बालियान जाट जो बडगूजरो की देखा देखी अपने को अब रघुवंशी बोलते हैं उन्ही के लिए पुराने  समय मे जनश्रुतियों में बडगूजरो की चौरासी होना बोला गया है।  
 
बुढ़ाना क्षेत्र में कछवाहों की चौरासी। हालांकि पुराने जमाने में इनकी यहां 360 होने का जिक्र होता था। जिसका मतलब इनका कभी बड़ा राज्य रहा हो सकता है।

सहारनपुर के काठा क्षेत्र को पहले चौरासी बोला जाता था।

लोनी में चौहानो की चौरासी थी। 

अलीगढ़ के चंडौस क्षेत्र में चौहानो की चौरासी।

अलीगढ़-हाथरस क्षेत्र में पुंडीरो की चौरासी है।

कासगंज के सोरों क्षेत्र मे सोलंकियों की चौरासी।

इसी क्षेत्र में गौरहार की चौरासी।

मथुरा में तरकर की चौरासी। 

बदायूं के बिलसी क्षेत्र में जंघारा तोमरो की चौरासी।

मैनपुरी के किरावली में राठोड़ो की चौरासी।

आंवला में चौहानो की चौरासी है।

मिर्जापुर के कांतित में गहरवारों की चौरासी थी। 

प्रयागराज के मेजा क्षेत्र में भी गहरवारों की चौरासी है। 

कानपुर के शिवली में चंदेलों की चौरासी है।

एमपी के जबलपुर के पास बनाफ़रो की चौरासी है।

उन्नाव में बिसेन राजपूतो की चौरासी होती थी। 

मैनपुरी के बेवर क्षेत्र में बैस राजपूतो की चौरासी बोली जाती थी। 

जौनपुर में चंदेलों की चौरासी होती थी। 

गोखपुर के उनौला के पास पालिवार राजपूतो की चौरासी है।

बलिया के दोआबा में बिसेनो की चौरासी है। 

गाजीपुर के गहमर क्षेत्र और उससे लगते बिहार में सिकरवारो की चौरासी। 

सिकरवारों की चौरासी थी। 

एमपी के मुरैना में सिकरवारों की चौरासी है। 

भोपाल के पास चौहानो की चौरासी है।

रीवा के रामपुर में बघेलों की चौरासी। 

सीधी में चौहानो और सेंगरो की चौरासी। 

सुल्तानपुर-जौनपुर क्षेत्र में राजकुमारों के क्षेत्र को चौरासी कोस में फैला बोलते हैं। 

इसी तरह 360 की अगर बात करें तो हरियाणा और पंजाब में बड़े राज्य रहे हैं इसलिए वहां कई 360 मिलती हैं। 

जैसे उत्तरी हरियाणा में चौहानो की 360। लेकिन वहां अब बसे हुए गांवो के आधार पर दो 84 बोलने का चलन ज्यादा है। 

उससे नीचे मडाडों की 360

मडाडों के नीचे परमारो की 360

सिरसा में भट्टियों की भी 360 होती थी। 

पंजाब में वराह और तावनी राजपूतो की भी 360 बोली जाती थी। 

उनसे आगे घोडेवाहा के 360 गांव का राज बोला जाता था।

लुधियाना और जालंधर के आसपास मंज राजपूतो की 360 होती थी। 

हाथरस आगरा क्षेत्र मे अब गहलोत की 84 है लेकिन पहले 360 बोली जाती थी जिससे संकेत मिलता है कि पहले यहां इनका बड़ा राज्य था। 

मुरादाबाद के कठेरिया रामपुर में अपने 360 गांव बोलते हैं हालांकि कठेरियो का राज इससे कई गुना बड़े इलाके पर था, मुरादाबाद से लेकर शाहजहांपुर तक। इनके राज्य के लिए 1440 की सांकेतिक संख्या भी कम है। 

कानपुर में जो चंदेलों की 84 है उसको पहले 360 बोलते थे। 

गोंडा क्षेत्र में बिसेनो का 360 रहा है। 

वाराणसी-गाजीपुर के कटेहर क्षेत्र के रघुवंशियो की खाप को 360 बोला जाता था। 

बलिया जिले के प्रसिद्ध लखनेसर के सेंगरो के राज्य को 360 गांव का ही बोला जाता था। 

इसके बाद अगर 1440 की बात करें तो पुंडीरो के अलावा भिवानी हिसार में जाटू तंवरो के 1440 गांव बोले जाते थे। 

मुरैना क्षेत्र में भी तोमरो की खाप को 1440 बोला जाता है। 

अवध का बैसवाड़ा भी 1440 गांव का माना जाता है। 

उन्नाव का दिखितवाड़ा, राय बरेली के कान्हपुरिया, सुलतानपुर के बछगोती, सर्यूपार के कलहंस, सूर्यवंशी, श्रीनेत, उत्तरी अवध के चंद्रवंशी बाछल, हरदोई के सोमवंशी, आजमगढ़- अम्बेडकरनगर के पालिवारो के राज्य भी 360 या 1440 गांव का बोले जाते थे। 

लेखक- पुष्पेन्द्र राणा

संदर्भ- विभिन्न colonial रिकार्ड्स

नोट- इसमे सिर्फ मेरी जानकारी की और पढ़ने में जो आई सिर्फ उन्ही खापो का जिक्र किया है। इस तरह की और खापो के बारे में जानकारी हो तो बताए। धीरे धीरे उन्हें भी जोड़ दिया जाएगा। जागीर/खाप इससे अलग संख्या में भी होती है। 12, 24, 60, 87 आदि गांव की भी खाप होती हैं और इन्हें भी शुभ संख्या माना जाता है लेकिन 84 को सबसे शुभ माना जाता है क्योंकि इस संख्या का 7 और 12 दोनो से भाग होता है। ये भारतीय ज्योतिषशास्त्र का विषय है, में इसके डिटेल मे नही जाना चाहता। मेने 84 के बहाने से राजपूतो के सेटलेमेंट्स या उपनिवेशीकरण का पैटर्न समझाने की कोशिश की है क्योंकि में देखता था कि इस विषय मे लोगो को बहुत भ्रम हैं। (आज तक किसी academician ने भी इस विषय पर शोध नही किया और ना ही उन्हें ज्ञान) अगर फिर भी कोई डाउट हो तो पूछ सकते हैं। राजपूतो की बसापत सिर्फ इसी तरह होती थी ऐसा नही है लेकिन पुराने जमाने मे ये ही स्टैण्डर्ड प्रक्रिया थी।

आंखों का क्या

घर से दूर ट्यूबेल के तिबरिया पर बैठे ताऊ कहि शून्य में गुम है, वह लगातार बीड़ी के दीर्घ कस खींचते हुये फिजाओ में ढेर सारे धुंआ को छोड़ने के साथ ऐसा प्रतीत  होते है जैसे धुंये के साथ जीवन श्वांस भी छोड़ने का प्रयास कर रहे हो..!

प्रणाम दाऊ !

मेरे अभिवादन शब्दो ने जैसे उन्हें कल्पना लोक से यथार्त लोक में ला दिया और पपड़ी पड़े ओठो से शुष्क सी मुस्कान के साथ स्नेह प्रस्फुटित हो गया !

"जीते रहो लले....कैसे हो ?"

- दाऊ बैलों से होती खेती मेने भी देख ली है पर इतना याद नही....आपसे आग्रह है कि कुछ अपने पुराने समय बाले किस्से सुनाइये ....!

बातो ही बातो मेरा जिज्ञासु मष्तिष्क उन्हें कुरेदने लगा और वह अपने कर्तव्यों की आधार बने सिर से अंगोछा उतारते हुए पुनः कही बीते हुए बिचरण करने लगे ओर मुझे उनकी आंखों में चलचित्रित होते भावो की नमी स्पष्ट  महसूस हुई ..।

"यह जो 4 वर्षो से खड़ा ट्रेक्टर दिख रहा है न! मेने कभी नही सोचा था कि यह मेरी वृद्धता की तरह उपेक्षित हो जाएगा!"
"लाले!...मेने तो अपनी जवानी के समय एक बैलजोड़ी,जरार के मैला से खरीदी थी, उसे भी कभी नही  बेचा !"
"जब हम किसी भी सजीव-निर्जीव बस्तु,स्थान,अथवा उससे जुड़ी भावना में  लाभ-हानि देखने लगते है तो प्रेम का मूल बिलुप्त होकर सिर्फ और सिर्फ लाभ का भाव ही जीवित रह जाता है !"

अपनी यादों से जुड़ी भावनाओ में बिचरण करते हुए उन्होंने तनाव महसूस किया और ओठो से बीड़ी को जोड़ते हुए बीड़ी धुएं योग के साथ भावनाओ को दबाने के लिए लगातार कस खिंचने लगे !
एक सांस खींचते हुए पुनः बोल उठे ..…जैसे एक शून्य से दूसरे शून्य को जोड़कर योगफल शून्य ही खोज रहे हो !

"मेरा जमाना......जमाना ही नही भावों का अथाह सागर हुआ करता था!"
"आज की तरह पैसा भी नही था ,ओर इसके साथ-साथ उसका इतना महत्व भी नही था।"
"अलग-अलग कमरे भी नही थे....क्या हृदय भी अलग-अलग नही थे। एक को हल्का दर्द हुआ पूरा गांव साथ था....अब तो एक परिवार होकर भी अलग-अलग है !"
'यह जो ट्रेक्टर अपनी जरावस्था में निस्तेज से खड़ा है न...यह जब आया था ,मुझे बहुत बुरा लगा था ....क्योंकि  मेरे हाथ से मेरे हल की मूठ जो छीन रही थी !'

यह कहते-कहते दाऊ की आंखों में नमी तैर उठी और वह बुझी हुई बीड़ी को पुनः सुलगाकर उस तैरती नमी को शुष्क करने का असफल प्रयास करते थे !

'किन्तु इसके साथ भी होते उपेक्षित व्यवहार पर मुझे कष्ट  होता है। बेलो के बाद इससे प्रेम जो कर बैठा..."
"मेरे प्रेम की परिणीति देखिए ....यह भी बेचारा जब बेदम हुआ,इससे उड़ते रक्त सम्लित गाढे धुंये पर किसी ने ध्यान नही दिया और जब लोगो का स्वार्थ शिद्धि वाधित हो गया तो ....."
'इसे भी खड़ा छोड दिया ....साइलेंसर आज उल्टा जुडा है ,कल एयरक्लीनर किसी अस्थमा रोगी के फेफडो की कचड़े से भर चुका है !"
'चहुओर उगते झाड़ किसी वृद्ध की दाढ़ी जैसे प्रतीत होने लगे है। इसकी लिफ्ट जैसे जोड़ो के रोग से ग्रसित होकर अब बोझा नही उठा सकती !'
'इसकी हेडलाइट्स मेरी आंखो की तरह चश्मे से भी नही देख सकती न..!"

यह बोलते-बोलते दाऊ की लगभग शतक से दशक पूर्व बाली आंखों से एक-अश्रुधारा वह निकली और मेरा पूरा असितित्व तरल में बदलता प्रतीत हुआ। उन्होंने सिरहाने रखी डोलची से कुछ जल लिया और कुछ अंश शुश्क   हो चले कंठ में पहुचाये !
मेने उनके दर्द को स्पष्ट महसूस किया और बात बदलनी चाही किन्तु जब भाव का प्रवाह वेदना की गति से बहने लगे तब कोई भी अवरोध कुछ प्रभाव नही रखता है, ताऊ कहते चले में मष्तिष्क में लिखता चला ।

'यह ट्रेक्टर भी मेरी तरह चार बच्चों के आधिपत्य में है, चारो की साझाकरण ओर लाभकरन नीति में फंसा हुआ।"
"काश!किसी एक का होता तो यह इस तरह रुग्ण न होता....इसकी रगों में नया रक्त दौड़ता....पाचन का निस्कासन बादलों तक अपना रंग दिखाता ओर इसकी आंखों की रोशनी मे.......में भी अपनी अपनी माटी को पुनः हल की तरह सृजित होते देखता !"

'बेलो की मधुर घण्टियाँ सुने दसको के बीत गए किन्तु कभी-कभी इसकी मधुर 'पी-पी......पी-पी' में एक मल्हार ही गुनगुना लेता !"

उनका गला रुंध आया और अंततः सारा ठीकरा आधुनिकता पर फोड़ते हुए बोले ......
'चल जीतू एक काम कर इस फोन पर कोई सुरैया-शमसाद का पुराना गीत ही सुना दे !"

मेने उनकी उनकी पसंद का गीत ......"ले के पहला-पहला प्यार,भरके आंखों में फुहार"
लगा दिया और वह अपने दिनों को स्मरण करके साथ-साथ दोहराने लगे .......!
में बस उनके अनुभवी चेहरे इतनी शीघ्र बिलुप्त हुई कसक को खोजता रहा .....किन्तु वह आंखे पुनः न खुली जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी,आंखों का क्या .....वहउस दर्द को पान कर चुकी थी ,ओर ट्रेक्टर पर केन्ग्लिया पक्षियों का एक झुंड झगड़ रहा था ।


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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र

सत्यबोध

जैसा कि जनश्रुति है.....
 नागिन जब नाग के साथ रमणरत होती है तो वह नितांत निर्जन  को चुनती है ....अपने अंडजो को दुनिया देखने से पूर्व घेरकर ...स्वयं ही निगलने की प्रवृति में कितने बच्चों को मारकर खा जाती है..!

वही मादा बिच्छू अपने अंडों को हीयरे से लगाकर रखती है ...उन्हें सेह करने के साथ-साथ दोनो हाथो से निरन्तर लुढ़काते हुए,स्थानान्तरन करते हुए एक वृहद सुरक्षा के सिपाही की तरह से सुरक्षा प्रदान करती रहती है! 
स्वजाये अन्डजो के पोषण में वह जब तक कुछ भी नही खाती ....! वह सन्तानमोह में सब भूल बैठती है, उसे सन्तान मोह ओर सृजन अभिलाषा इतनी प्रवल होती है कि अन्डो से निकलते बच्चे उसे जब चुनने लगते है,तब वह भूख से परिचित होती है और जब तक कि  उसके बच्चे उससे तिल-तिल के मारते है !

वह पल प्रतिपल असहनीय दर्द को महसूस करती है और   भागती है ....जीवन रक्षा के लिए ....मर्मातक पीड़ा से बचने के लिए ! 
किन्तु सन्तानमोह में यह पीड़ा तो सहन करती है, स्वयं के  दर्द कारक बच्चों को स्वयं से प्रथक नही करती है। और अंततः उसी के जाए एक दिन उसको निढाल कर देते है ....वह सृजन करके स्वयं के विनाश का कारण स्वयं बनती है !

सर्पनी अंडे देकर उन्हें भूल जाती है, जैसे कोई कभी मोह था ही नही! उसने तो सर्प के साथ रमण सिर्फ भौतिक आवश्यकता पूर्ति और रति आकर्षण वश किया था .....प्रकृति ने उसे गर्भ (गर्व भी पढ़ सकते है,जिसका भाव अंत मे प्रकट होगा) दिया और सर्पिणी ने गर्भ को बोझ समझ उपेक्षित कर दिया ।

उसे तो पूर्वाग्रह हो गया उन अचेष्ठी अन्डो है कि उसे जनते हुए उसकी ऊपरी चमड़ी उधड़ गयी ....उसे असहनीय प्रसव वेदना सहनी पड़ी। उसने सृजन ओर बात्सल्य से जुडी प्रसव को बिपरीत दृश्टिकोण से परखा ..!
अंततः नियत समय पर आ गयी अपने अंशो को निगलने के लिए ,अन्डो की वृत्ताकार परिधि में उसने कुंडली लगाई और चटकते अण्ड आवरण पर शिकारी की निगाह रखी ......जो निकला और निकलते ही अपनी माँ से दूर भागा बच गया किन्तु जो निकल कर मातृपक्षीय मोह न त्याग सका ,वह माता द्वारा ही पुनः उदरस्थ कर लिया गया...!
यह कैसा सृजन ओर जनन था जिसमे पूर्वाग्रह ओर क्रोध में जननकर्ता द्वारा शैशव को क्षुदा शांति की भेंट चढ़ना पड़ा ?

मादा बिच्छू ओर  सर्पिणी यू तो दोनों के प्राकृतिक जनन व्यवहार सर्वदा बिपरीत है किंतु जब इसे #खाजनीति की  दृष्टि से तौला जाए तो बिच्छू वह क्षेत्र व समाज है जिसमे #लेता पैदा होता है और शैशव काल मे ही 'भौतिक शास्त्री-लेन्ज' की व्यंजना का सन्दर्भ बनता है !

जब वह बड़ा होकर सर्पिणी सदृश होता है तो सर्वप्रथम समाज,क्षेत्र,कर्त्तव्य,कर्म,धर्म से विमुख होकर उसी  से उदरपूर्ति कर लेता है ....जिसके सृजन ,पालन,पोषण का उत्तरदायित्व उसपर होता है .....!!!

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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र

तँवर वंश अभिवादन

#जय_गोपाल_जी_की
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चन्द्रवंश,भरतकुल-पाण्डव वंशी तोमर(तँवर) क्षत्रियो का अभिवादन क्यों है ..?
कभी-कभी कुछ अतिसामान्य से व्यवहारिक प्रश्न मष्तिष्क में आते तो है किंतु समुचित उत्तर जिव्हा में ओर भाव होते हुए भी चुप रह जाते है .....कारण है समुचित जानकारी और उससे कारण का ज्ञात न होना !

आज तँवरवंश के अविवादन पर कुछ शब्दो के माध्यम से चर्चा की जाए..।

महाभारत के युद्ध से पूर्व धर्मराज युधिष्ठिर के मातृपक्षीय बन्धु योगेश्वर श्रीकृष्ण जी जीवन ही इतनी लीलाओं का अथाह सागर रहा कि उनके अनन्त नाम रखे गए ....और गोवर्धन पर्वत तर्जनी पर धारण करने बाले लीलाधर देवराज इंद्र के द्वारा 'गोपाल' पुकारे गए।
योगेश्वर की बहिन योगमाया तँवर कुलदेवी तो योगेश्वर द्वतीय कुलदेव माने गए ...!
एक समय आया कि गुरुपुत्र अशश्वथामा ने द्रौपदी पुत्रो की नृशंस हत्या कर दी और जाकर ऋषि आश्रम में छुप गया। जब पाण्डव व योगेश्वर से सामना हुआ तो छिपकर सीखे गए 'बृह्मशीर्ष अमोघअस्त्र' का सन्धान किया ....जिसके प्रतिउत्तर में श्रीकृष्ण जी की सलाह पर पार्थ द्वारा भी उसी दिव्याश्त्र का सन्धान किया। अंतरिक्ष मे अंधेरा होने लगा ,दिगम्बर डिगने लगे...पृथ्वी कम्पित हो गयी और सृष्टि जैसे महाप्रलय के अंधकार में लुप्त होने लगी ....। दो महान दिवाश्त्रो के मध्य आये महर्षि द्वारा अर्जुन-अशश्वथामा को आदेशित किया गया कि इससे पूर्व महाप्रलय हो अपने अस्त्र बापस करलो ....अर्जुन को पूर्णसंचलन ज्ञान था और उन्होनो अस्त्र बापस कर किन्तु गुरुपुत्र को अर्द्धज्ञान था और उसने अपने पूर्वाग्रह के कारण पाण्डव वंश बीजनाश हेतु उत्तरा के गर्भ पर लक्षित कर दिया ।
गर्भ में पल रहे शिशु महात्मा परीक्षित का जीवन ओर भरतकुल वंश का असितित्व जब संकट में आया तो पुनः योगेश्वर अपनी योगमाया के साथ अपने अनन्य भक्त की रक्षा गर्भ में उस अस्त्र का कबच बन करते रहे ।

जब महात्मा परीक्षित का जन्म हुआ तो वह सबकी तरह रुदन करने की बजाय शुकासन लगाकर बेठ गए और सबपर अपनी परीक्षित दृष्टि से अवलोकन करने लगे ....किसी के अंक में जाने की जगह उन्ही निगाहे तलाश रही रही थी .....अपना चक्रधर....रक्षक मुरलीधर....अपना दैव गिरिधर गोपाल ! जैसे ही गोपाल का आगमन हुआ और वह दौड़कर चिपक गए गोपाल के  अंक में ....जय जय गोपाल गाने लगे ।

प्रथम कुल दैव महादेव हरिहर शंकर जी के बाद द्वितीय कुलदेव के रूप में गिरिधर गोपाल जी इतनी बार इस तन्वरकुल रक्षा की है कि महात्मा परीक्षित से ही सम्भवतः "जय गोपाल जी की" तंवरो का कुल अविवादन  प्रचलित हो गया और हम अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए अपार श्रद्धा में जय गोपाल जी की बोलते है ।

★जय गोपाल जी की ★

सन्दर्भ :-
 श्रीमदभागवत महापुराण,महाभारत,श्रीमद्भभागत विष्णु महापुराण,सबल सिंह चोहान कृत महाभारत

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प्रेम

परोक्षप्रेम,प्रत्यक्ष मोहभंग
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वह भी एक आम फेसबुकिया था....औरो की तरह रोज 8 से लेकर 20 घण्टे तक दिहाड़ी करने बाला। अपने अंक में समेटे था सेकड़ो झटके,अनगिनत भावनाये ओर युवामन की अशेष आशाओं में कही पुनः जीवन स्थापन के लिए नित्य प्रत्यनशील !
घर से दूर एकांत रहना और अवकाश बाले दिनों में भी टिफिन के साथ कोई किताब लेकर जंगलो,नदी सरोबरो के किनारे फक्कड़ जैसी प्रियता में वह इस दुनिया मे एक विचित्र से कम नही था। सधे शब्दो मे बोलना ओर माटी को शब्द देना जैसे उसे इसी फक्कड़पन का फल था ..!!

वह जब व्याकरणीय त्रुटियों के साथ माटी को शब्द देता तो लोग बलिहारी हुए जाते थे.....लोगो ने जब उसके विषय मे कल्पनाएं गढ़ी तो कल्पनाएं सदा की तरह स्थिति के विपरीत ही बनी....सदा इंसान परोक्ष में बसी कल्पनाओ में ठगा महसूस करता है,ओर जब पूर्वनियोजित धारणा से कही एक हजार गुना अधिक निम्न प्रत्यक्ष होता है! तो जो मानव आकर्षण होता है वह  कुछ अपवादों को छोड़ .....आकर्षण बिंदु से कही दूर भागता है ।
लोग उससे दूर भाग रहे थे और वह जीवन युद्ध मे भाग रहा था .....इधर-उधर,यत्र-तत्र, सर्वत्र! स्वम की प्राणवायु  खोजते हुए क्योंकि उसे आडम्बर पसंद नही थे और समय उसके साथ परिहास कर रहा था ...।
समय ने उसके साथ इतने परिहास किये की उसे उसपर होने बाले परिहास कही सूक्ष्म दिखते ओर वह नए-नए खुशियों के माध्यम में खुश था ।

उसके नीड़ में तृणों के अभाव थे किंतु वह पक्षियों के नीड़ सुरक्षित करके सुख अनुभूत करता था। वह औरो को अपना बनाकर उनकी उपलब्धियों में स्वम से जोड़ लेता था....वह नही जानता था कि "औरो के परितोष स्वम के घर मे नही सजते!"
यंहा तो अपना घर सजाने के लिए 'रद्दी पत्र' भी स्वम ही खरीदने पड़ते है। उसमें किसी से मोह नही लगाया क्यूकी  वह जिससे मोह करता था.....वह इस दुनिया मे तमाम कष्टों के विचरण का माध्यम बन जाता अथवा इस दुनिया से ही विचर जाता। कहि दूर अनन्त में अदृश्य धुंए की कुछ लकीरे उसे आज भी स्मरण है ....स्वम की असफलताओं के प्रतीक बनकर....अपनो से कही दूर रहने का संकेतक प्रतीक बनकर !

वह प्राकृतिक था....है और सदैव रहेगा! उसने न कल आकर्षण के आवरण ओढ़े थे ...न कभी आकर्षण बिंदु बने रहने की अपेक्षाएं की थी। वह तो नग्न तेग जैसा था ...दुधारा,निरीह,निष्ठुर...जिसके फल का स्पर्श सिर्फ घाव दे सकता है और हजारो घाव लिए वह लोगो को घावों से बचाते हुए इस दुनिया को अलविदा कर गया .....आकर्षण की अपेक्षाओं से रहित एक सिहाई का  सरोबर अंततः सुख गया !!!!

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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

गुप्तचरों की दुर्दशा

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कल की पोस्ट से कुछ स्वजन व्यथित थे , में यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि प्रेम में धोखा ,किसी के दबाव , या किसी के अपमान के कारण नही जा रहा , आप सबीके5 रहते हुए किसी की इतनी हिम्मत नही की मुझतक कोई आंच आये , बस फेसबुक से एक ऊबन होने लगती है , जबतक मुझे लगता है कि मैं इसे चला रहा तबतक सब ठीक होता है मैं यहाँ लिखता हूँ लेकिन जैसे ही पता लगता ज्म कि ये हमे चला रहा हम ठहरे मलंग चल पड़ते हैं झोला उठाकर , तो आज आखिरी लेख है तो एक विशेष लेख तो बनता है , इसको पढ़कर सोचना की एक गुमनाम योद्धा कैसे आपकी सुरक्षा दीवार तैयार करता है और मूवी के इतर उसकी वास्तविक जीवन की लड़ाई कैसी होती है ।।

हर देश में मौजूद विदेशी दूतावास सर्फ दूतवाश है नही जासूसों का भी अड्डा होते हैं, लेकिन यह पता होने के बावजूद सारे देश ऐसी जासूसी को स्वीकार करते हैं, लेकिन क्यों?

जासूसी की अंतरराष्ट्रीय दुनिया बड़ी स्याह और आम तौर पर गैरकानूनी है, लेकिन इसके बावजूद हर देश इसे स्वीकार करता है। बकिंघम यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सिक्योरिटी एंड इंटेलिजेंस स्ट्डीज के डायरेक्टर एंथनी ग्लीस इसे "जेंटलमैंस एग्रीमेंट" कहते हैं,यह कोई लिखित या आधिकारिक समझौता नहीं होता, बस "आप मुझ पर नजर रखें और मैं आप पर" वाली बात है।

 दूतावास हमेशा तथाकथित इंटेलिजेंस अफसरों को नियुक्त करते हैं, यह देशों के बीच एक गैरआक्रामक संधि सी है, जिसके तहत सरकारें आपसी फायदे के लिए एक दूसरे के मामलों पर आंखें मूंद लेती हैं।" अगर किसी देश को अपने जासूसों को विदेश भेजना है तो उसे विदेशी जासूसों को अपने देश में भी मंजूरी देनी होती है। अब यह जासूसों पर निर्भर करता है कि वह कितनी जानकारी किस ढंग से निकाल पाते हैं,यही वजह है कि दूसरे देशों में जासूसों को अक्सर डिप्लोमैट या कूटनीतिक अधिकारी के तौर पर नियुक्त किया जाता है, उन्हें डिप्लोमैटिक इम्युनिटी और एक खास किस्म की सुरक्षा भी दी जाती है, कूटनीतिक संबंधों को लेकर 1961 की वियना संधि में इन बातों का जिक्र है।।

बबहरखैर 
जासूसी के बारे में सोचा जाता है तो आम तौर पर दिमाग में सिनेमा का चरित्र जेम्स बांड उभरता है, लेकिन यह वैसा नहीं है,जब हम खुफिया कार्य के बारे में सोचते या बातचीत करते हैं तो हम सामान्य रूप से जेम्स बांड, बंदूक, लड़कियां, गिटार और ग्लैमर के बारे में सोचते हैं, लेकिन गुप्तचरी की दुनिया वैसी नहीं है , ये कैसी है यदि दिखा दिया जाए तो रूह कांप जाए , यह उन देशभक्तों का यथार्थ आर्तनाद है, जिन्होंने अपने देश के लिए पाकिस्तान, चीन ,रसिया, अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया ,अफगानिस्तान, ईरान जैसे देशों में जासूसी करते हुए जीवन खपा दिया, लेकिन आज अपने देश में दिहाड़ी मजदूर या उससे भी गलीज हालत में हैं, उन्हें कोई 'राष्ट्रभक्त' पूछता नहीं, 'राष्ट्रभक्त' सरकार को देशभक्त जासूस की कोई चिंता नहीं, अब संकेत में नहीं, सीधी बात पर आते हैं और एक ऐसे ही एजेंट की कहानी आप सबको बताते हैं (नाम और पहचान गुप्त रखी गयी है बाकी अक्षरसः सत्य है) दिल्ली में एक जो भारतीय खुफिया एजेंसी 'रिसर्च एंड अनालिसिस विंग' ('रॉ') के जासूस थे, उन्होंने अपने बेशकीमती 4 वर्ष पाकिस्तान के अलग-अलग इलाकों में सड़कों पर खोमचा घसीटते हुए, मुल्ला बन कर मस्जिद में नमाज पढ़ाते हुए, संवेदनशील सरकारी महकमों पर महीनों नजरें रखते हुए, पाकिस्तानी सेना द्वारा पोषित आतंकियों से दोस्ती गांठते हुए, जान की परवाह न कर वहां की सूचनाएं भारत भेजते हुए और आखिर में बर्बर यातनाओं के साथ जेल काटते हुए बिताए।

बड़ी मुश्किल से पाकिस्तान की जेल से छूट कर भारत पहुंचे 'रॉ' एजेंट (नाम पंडित जी रख लेते हैसंबोधन में आसानी होगी ) का जीवन अपने देश आकर और दुश्वार हो गया, 'रॉ' एजेंट पंडित जी उर्फ मोहम्मद इमरान।

पंडित जी की तरह ऐसे अनगिनत देशभक्त हैं, जिनका जीवन देश के लिए जासूसी करते हुए और जान को जोखिम में डालते हुए बीत गया। जब वे अपने वतन वापस लौटे तो अपना ही देश उन्हें भूल चुका था। सरकार को भी यह याद नहीं रहा कि भारत सरकार का प्रतिनिधि होने के नाते ही वह पाकिस्तान में प्रताड़नाएं झेल रहा था। कुलभूषण जाधव तो सुर्खियों में इसलिए रहे हैं कि उनसे सरकार का राजनीतिक-स्वार्थ सध रहा है।

यह सियासत क्या कुलभूषण के जिंदा रहने की गारंटी है? अगर गारंटी होती तो रवींद्र कौशिक, सरबजीत सिंह जैसे तमाम देशभक्त पाकिस्तान की जेलों में क्या सड़ कर मरते? फिर सरकार का उनसे क्या लेना-देना, जो देशभक्ति में खप चुके, पर आज भी जिंदा हैं! ऐसे खपे हुए देशभक्तों की लंबी फेहरिस्त है, जो अपनी बची हुई जिंदगी घसीट रहे हैं। इन्होंने देश की सेवा में खुद को मिटा दिया, पर सरकार ने उन्हें न नाम दिया न इनाम.  'रॉ' एजेंट पंडित जी का प्रकरण सुनकर केंद्रीय खुफिया एजेंसी के एक आला अधिकारी ने कहा कि मोदी सरकार बदलाव की बातें तो करती है, लेकिन विदेशों में काम कर रहे 'रॉ' एजेंट्स को स्थायी गुमनामी के अंधेरे सुरंग में धकेल देती है।

विदेशों में हर पल जान जोखिम में डाले काम कर रहे अपने ही जासूसों की हिफाजत और देश में रह रहे उनके परिवार के लिए आर्थिक संरक्षण का सरकार कोई उपाय नहीं करती। जबकि देश के अंदर काम करने वाले खुफिया अधिकारियों की बाकायदा सरकारी नौकरी होती है। वेतन और पेंशन उन्हें और उनके परिवार वालों को ठोस आर्थिक संरक्षण देता है। इसके ठीक विपरीत 'रॉ' के लिए जो एजेंट्स चुने जाते हैं, सरकार उनकी मूल पहचान ही मिटा देती है।

उनका मूल शिक्षा प्रमाणपत्र रख लेती है और किसी भी सरकारी या कानूनी दस्तावेज से उसका नाम हटा देती है। पंडित जी इसकी पुष्टि करते हैं। पंडित जी कहते हैं कि R. K. पुरम स्थित DPS कॉलेज से उन्होंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी और दिल्ली विश्वविद्यालय  से उन्होंने ग्रैजुएशन किया था। 'रॉ' के लिए चुने जाने के बाद उनसे स्कूल और कॉलेज के मूल प्रमाणपत्र ले लिए गए। जब वे 4 साल बाद अपने घर लौटे तो उनकी पूरी दुनिया बदल चुकी थी. उन्हें बताया गया कि सरकारी मुलाजिमों का एक दस्ता वर्षों पहले उनके घर से उनकी सारी तस्वीरें ले जा चुका था। राशनकार्ड से पंडित जी का नाम हट चुका था. सरकारी दस्तावेजों से पंडित जी का नाम 'डिलीट' किया जा चुका था.

भारत सरकार ऐसी घिसी-पिटी लीक पर क्यों चलती है? भारतीय खुफिया एजेंसी के अधिकारी ही यह सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि अमेरिका, चीन, इजराइल, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे कई देश अपने जासूसों की हद से आगे बढ़ कर हिफाजत करते हैं और उनके परिवारों का ख्याल रखते हैं. यहां तक कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई तक अपने एजेंटों को सुरक्षा कवच और आर्थिक संरक्षण देती है, लेकिन भारत सरकार इस पर ध्यान नहीं देती, क्योंकि सत्ता-सियासतदानों को इसमें वोट का फायदा नहीं दिखता।

वर्ष 2010 में 'रॉ' के टैलेंट हंट के जरिए चुने गए पंडित जी की अकेली आपबीती देश के युवकों को यह संदेश देने के लिए काफी है कि वे 'रॉ' जैसी खुफिया एजेंसी के लिए कभी काम नहीं करें। मेजर रवींद्र कौशिक से लेकर ऐसे तमाम 'रॉ' एजेंटों की बेमानी गुमनाम-शहादतों के उदाहरण भरे पड़े हैं। खुफिया एजेंसियों के अफसर ही यह कहते हैं कि पाकिस्तान या अन्य देशों में तैनात 'रॉ' एजेंट के प्रति आंखें मूंदने वाली सरकार भारत में रह रहे उनके परिवार वालों को लावारिस क्यों छोड़ देती है, यह बात समझ में नहीं आती। ऐसे में देश का कोई युवक 'रॉ' जैसी खुफिया एजेंसी के लिए काम करने के बारे में क्यों सोचे? पंडित जी को 'रॉ' के टैलेंट फाइंडर जीतेंद्रनाथ सिंह परिहार ने चुना था।

एक साल की ट्रेनिंग के बाद पंडित जी को जनवरी 2011 में भारत-पाकिस्तान सीमा पर मोहनपुर पोस्ट से 'लॉन्च' किया गया ,पंडित कजी के साथ एक गाइड भी था जो उन्हें पाकिस्तान के पल्लो गांव होते हुए बम्बावली-रावी-बेदियान नहर पार करा कर लाहौर ले गया और उन्हें वहां छोड़ कर चला गया. उसके बाद से दी का जासूसी करने का सारा रोमांच त्रासद-कथा में तब्दील होता चला गया,23 जनवरी 2014 को सिंध प्रांत के हैदराबाद शहर से गिरफ्तार किए जाने तक पंडित जी ने जासूसी के तमाम पापड़ बेले, खोमचे घसीटे, लाहौर, कराची, मुल्तान, हैदराबाद, पेशावर जैसे तमाम शहरों में आला सैन्य अफसरों से लेकर बड़े नेताओं की जासूसी की और दुबई, कुवैत, कतर, हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर जैसी जगहों पर बैठे 'रॉ' अफसरों के जरिए भारत तक सूचना पहुंचाई।

'रॉ' ने हैदराबाद के आमिर आलम के जरिए पंडित जी को अफगानिस्तान भी भेजा जहां जलालाबाद और कुनर में उन्हें अहले हदीस के चीफ शेख जमीलुर रहमान के साथ अटैच किया गया। वहां के सम्पर्कों के जरिए पंडित जी पेशावर में डेरा जमाए अरब मुजाहिदीन के सेंटर बैतुल अंसार पहुंच गए और जेहादी के रूप में ग्रुप में शामिल हो गए।  बैतुल अंसार पर ओसामा बिन लादेन और शेख अब्दुर्रहमान जैसे आतंकी सरगना पहुंचते थे और सेंटर को काफी धन देते थे। 23 जनवरी 2014 को पंडित जी को सिंध प्रांत के हैदराबाद से गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के बाद पंडित की यंत्रणा-यात्रा शुरू हुई, पहले उन्हें हैदराबाद में आईएसआई के लॉकअप में रखा गया फिर उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस की 302वीं बटालियन में शिफ्ट कर दिया गया, हैदराबाद से उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस की दूसरी कोर के कराची स्थित मुख्यालय भेजा गया।

पूछताछ के दौरान पंडित को बर्बर यातनाएं दी जाती रहीं. पिटाई के अलावा उन्हें सीधा बांध कर नौ-नौ घंटे खड़ा रखा जाता था और कई-कई रात सोने नहीं दिया जाता था, करीब एक साल तक उन्हें इसी तरह अलग-अलग फौजी ठिकानों पर टॉर्चर किया जाता रहा और पूछताछ होती रही। इस दरम्यान पंडित जी के हबीब बैंक के हैदराबाद और मुल्तान ब्रांच के अकाउंट भी जब्त कर लिए गए और उसमें जमा होने वाले धन के स्रोतों की गहराई से छानबीन की गई। 21 दिसम्बर को उन्हें कराची जेल शिफ्ट कर दिया गया। पांच महीने बाद जून पंडित जी पर पाकिस्तानी सेना की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ और उन्हें कराची जेल से 85वीं एसएंडटी कोर (सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट कोर) को हैंड-ओवर कर दिया गया.

इस दरम्यान पंडित जी को पाक सेना की 44वीं फ्रंटियर फोर्स (एफएफ) के क्वार्टर-गार्ड में बंद रखा गया, वर्ष 2015 में पंडित जी 21वीं आर्मर्ड ब्रिगेड के हवाले हुए और उन्हें 51-लांसर्स के क्वार्टर-गार्ड में शिफ्ट किया गया। इस बीच मेजर नसीम खान, मेजर सलीम खान, लेफ्टिनेंट कर्नल हमीदुल्ला खान और ब्रिगेडियर रुस्तम दारा की फौजी अदालतों में मुकदमा (कोर्ट मार्शल) चलता रहा। पंडित जी कहते हैं कि कोई कबूलदारी और सबूत न होने के कारण पाकिस्तान सेना ने उन्हें सिंध सरकार के सिविल प्रशासन के हवाले कर दिया।

सिंध सरकार ने वर्ष 2015 में ही पंडित जी को भारत वापस भेजने (रिपैट्रिएट करने) का आदेश दे दिया था, लेकिन वह 1 साल तक कानूनी चक्करों में फंसता-निकलता आखिरकार मार्च 2016 में तामील हो पाया, पंडित जी को 22 मार्च 2016 को बाघा बॉर्डर पर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के सुपुर्द कर दिया गया. 'रॉ' के मिशन पर पाकिस्तान में 4 वर्ष बिताने वाले पंडित जी 1  साल से अधिक समय तक जेल में बंद रहे, भारत लौटने पर भारत सरकार के एक नुमाइंदे ने उन्हें दो किश्तों में एक लाख 36 हजार रुपए दिए और उसके बाद फाइल क्लोज कर दी।

'रॉ' के लिए जासूसी करने के आरोप में पकड़े गए नौसेना कमांडर कुलभूषण जाधव का पहला मामला है जब केंद्र सरकार ने उनकी रिहाई के लिए पुरजोर तरीके से आवाज उठाई और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक गुहार लगाई, लेकिन इसके पहले मेजर रवींद्र कौशिक से लेकर सरबजीत सिंह और सरबजीत से लेकर तमाम नाम, अनाम और गुमनाम जासूसों की हिफाजत के लिए भारत सरकार ने आज तक कोई कदम नहीं उठाया। कुलभूषण जाधव का मसला ही अलग है।

उन्हें तो तालिबानों ने ईरान सीमा से अगवा किया और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथों बेच डाला। जर्मन राजनयिक गुंटर मुलैक अंतरराष्ट्रीय फोरम पर इसे उजागर कर चुके हैं। पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में बंद सरबजीत की रिहाई के मसले में भी सामाजिक-राजनीतिक शोर तो खूब मचा लेकिन भारत सरकार ने कोई कारगर दबाव नहीं बनाया। आखिरकार, दूसरे पाकिस्तानी कैदियों को उकसा कर कोट लखपत जेल में ही सरबजीत सिंह की हत्या करा दी गई।

पाकिस्तान में मिशन पूरा कर या जेल की सजा काट कर वापस लौटे कई 'रॉ' एजेंटों ने केंद्र सरकार से औपचारिक तौर पर आर्थिक संरक्षण देने की गुहार लगाई है, लेकिन उस पर कोई सुनवाई नहीं की गई। यहां तक कि भारत सरकार ने उन्हें सरकारी कर्मचारी मानने से ही इन्कार कर दिया। सरकार ने अपने पूर्व 'रॉ' एजेंटों को पहचाना ही नहीं। ऐसे ही 'रॉ' एजेंटों में गुरदासपुर के खैरा कलां गांव के रहने वाले करामत राही शामिल हैं, जिन्हें वर्ष 1980 में पाकिस्तान 'लॉन्च' किया गया था।

पहली बार वे अपना मिशन पूरा कर वापस लौट आए, लेकिन 'रॉ' ने उन्हें 1983 में फिर पाकिस्तान भेज दिया। इस बार 1988 में वे मीनार ए पाकिस्तान के नजदीक गिरफ्तार कर लिए गए। करामत 18 साल जेल काटने के बाद वर्ष 2005 में वापस लौट पाए। करामत की रिहाई भी पंजाब के उस समय भी मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह के हस्तक्षेप और अथक प्रयास से संभव हो पाई। देश वापस लौटने के बाद करामत ने 'रॉ' मुख्यालय से सम्पर्क साधा, लेकिन 'रॉ' मुख्यालय के आला अफसरों ने धमकी देकर करामत को खामोश कर दिया। भारत सरकार की इस आपराधिक अनदेखी के खिलाफ करामत ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली, लेकिन अदालत भी कहां 'नीचा' सुनती है!

इन मामलों में सम्बन्धित राज्य सरकारें भी 'रॉ' एजेंटों के प्रति आपराधिक उपेक्षा का ही भाव रखती हैं. 'रॉ' एजेंट कश्मीर सिंह का मामला अपवाद की तरह सामने आया जब 35 साल पाकिस्तानी जेल की सजा काट कर लौटने के बाद पंजाब सरकार ने उन्हें जमीन दी और मुआवजा दिया. वर्ष 1962 से लेकर 1966 तक कश्मीर सिंह सेना की नौकरी में थे. उसके बाद 'रॉ' ने उन्हें अपने काम के लिए चुना और पाकिस्तान 'लॉन्च' कर दिया. 1973 में वे पाकिस्तान में गिरफ्तार कर लिए गए. उन्हें पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में घुमाया जाता रहा और प्रताड़ित किया जाता रहा. 17 साल तक उन्हें एक एकांत सेल में बंद रखा गया. चार मार्च 2008 को वे रिहा होकर भारत आए, लेकिन इस लंबे अंतराल में कश्मीर सिंह जिंदगी से नहीं, पर उम्र से शहीद हो चुके थे.

गुरदास के डडवाईँ गांव के रहने वाले सुनील मसीह दो फरवरी 1999 को पाकिस्तान के शकरगढ़ में गिरफ्तार किए गए थे. आठ साल के भीषण अत्याचार के बाद वर्ष 2006 में वे अत्यंत गंभीर हालत में भारत वापस लौटे, लेकिन केंद्र सरकार ने उनके बारे में कोई ख्याल नहीं किया. उन्हीं के गांव डडवाईं के डैनियल उर्फ बहादुर भी पाकिस्तानी रेंजरों द्वारा 1993 में गिरफ्तार किए गए थे. चार साल की सजा काट कर वापस लौटे. अब पूर्व 'रॉ' एजेंट डैनियल रिक्शा चला कर अपना गुजारा करते हैं. पाकिस्तान की जेल में तकरीबन तीन दशक काटने के बाद छूट कर भारत आने वाले पूर्व 'रॉ' एजेंटों में सुरजीत सिंह का नाम भी शामिल है. 'रॉ' ने सुरजीत सिंह को वर्ष 1981 में पाकिस्तान 'लॉन्च' किया था. वे 1985 में गिरफ्तार किए गए और पाकिस्तान के खिलाफ जासूसी करने के आरोप में उन्हें फांसी की सजा दी गई. 1989 में उनकी सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई.

वर्ष 2012 में पाकिस्तान की कोट लखपत जेल से सजा काटने के बाद सुरजीत रिहा हुए. सुरजीत ने भी 'रॉ' के अधिकारियों से सम्पर्क साधा लेकिन नाकाम रहे. सुरजीत अपनी पत्नी को यह बोल कर पाकिस्तान गए थे कि वे जल्दी लौटेंगे लेकिन 1981 के गए हुए 2012 में वापस लौटे. जब लौटे तब वे 70 साल के हो चुके थे. भारत सरकार ने उनके वजूद को इन्कार कर दिया, जबकि वापस लौटने पर सुरजीत ने पूछा कि भारत सरकार ने उन्हें पाकिस्तान नहीं भेजा तो वे अपनी मर्जी से पाकिस्तान कैसे और क्यों चले गए? सुरजीत मिशन के दरम्यान 85 बार पाकिस्तान गए और आए.

पाकिस्तान में गिरफ्तार हो जाने के बाद भारतीय सेना की तरफ से उनके परिवार को हर महीने डेढ़ सौ रुपए दिए जाते थे. सुरजीत पूछते हैं कि अगर वे लावारिस ही थे तो सेना उनके घर पैसे क्यों भेज रही थी? सुरजीत ने भी न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट में शरण ले रखी है. गुरदासपुर जिले के डडवाईं गांव के ही रहने वाले सतपाल को वर्ष 1999 में पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था. तब भारत पाकिस्तान के बीच करगिल युद्ध चल रहा था.

पाकिस्तान में सतपाल को भीषण यातनाएं दी गईं. पाकिस्तान की जेल में ही वर्ष 2000 में उनकी मौत हो गई. विडंबना यह है कि पाकिस्तान सरकार ने सतपाल का पार्थिव शरीर भारत को सौंपने की पेशकश की तो भारत सरकार ने शव लेने तक से मना कर दिया. सतपाल का शव लाहौर अस्पताल के शवगृह में पड़ा रहा. पंजाब में स्थानीय स्तर पर काफी बावेला मचने के बाद सतपाल का शव मंगवाया जा सका. शव पर प्रताड़ना के गहरे घाव और चोट के निशान मौजूद थे. तब भी भारत सरकार को उनकी शहादत की कीमत समझ में नहीं आई. सतपाल के बेटे सुरेंदर पाल आज भी अपने पिता के लिए न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं. पंजाब सरकार ने सतपाल के बेटे सुरेंदर पाल को सरकारी नौकरी का आश्वासन भी दिया, लेकिन यह आश्वासन भी ढाक के तीन पात ही साबित हुआ.

विनोद साहनी को 1977 में पाकिस्तान भेजा गया था, लेकिन वे जल्दी ही पाकिस्तानी तंत्र के हाथों दबोच लिए गए. उन्हें 11 साल की सजा मिली. सजा काटने के बाद विनोद 1988 में वापस लौटे. 'रॉ' ने विनोद को सरकारी नौकरी देने और उनके परिवार को सुरक्षा प्रदान करने का आश्वासन दिया था, लेकिन लौटने के बाद 'रॉ' ने उन्हें पहचानने से भी इन्कार कर दिया. विनोद अब जम्मू में 'पूर्व जासूस' नामकी एक संस्था चलाते हैं और तमाम पूर्व जासूसों को जोड़ने का जतन करते रहते हैं.

रामराज ने 18 साल तक भारतीय खुफिया एजेंसी 'रॉ' की सेवा की. 18 सितम्बर 2004 को उन्हें पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया. करीब आठ साल जेल काटने के बाद रिहा हुए रामराज को भारत आने पर उसी खुफिया एजेंसी ने पहचानने से इन्कार कर दिया. ऐसा ही हाल गुरबक्श राम का भी हुआ. एक साल की ट्रेनिंग देकर उन्हें वर्ष 1988 को पाकिस्तान भेजा गया था. उनका मिशन पाकिस्तान की सैन्य युनिट के आयुध भंडार की जानकारियां हासिल करना था. मिशन पूरा कर वापस लौट रहे गुरबक्श को पाकिस्तानी सेना के गोपनीय दस्तावेजों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया.

उन्हें सियालकोट की गोरा जेल में रखा गया. 14 साल की सजा काट कर वर्ष 2006 में वापस अपने देश लौटे गुरबक्श को अब सरकार नहीं पहचानती. रामप्रकाश को प्रोफेशनल फोटोग्राफर के रूप में 'रॉ' ने वर्ष 1994 में पाकिस्तान में 'प्लांट' किया था. 13 जून 1997 को भारत वापस आते समय रामप्रकाश को गिरफ्तार कर लिया गया. सियालकोट की जेल में नजरबंद रख कर उनसे एक साल तक पूछताछ की जाती रही. वर्ष 1998 में उन्हें 10 साल की सजा सुनाई गई.

सजा काटने के बाद सात जुलाई 2008 को उन्हें भारत भेज दिया गया. सूरम सिंह तो 1974 में सीमा पार करते समय ही धर लिए गए थे. उनसे भी सियालकोट की गोरा जेल में चार महीने तक पूछताछ होती रही और 13 साल सात महीने पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में प्रताड़ित होने के बाद आखिरकार वे 1988 में रिहा होकर भारत आए. बलबीर सिंह को 1971 में पकिस्तान भेजा गया था. 1974 में बलबीर गिरफ्तार कर लिए गए और 12 साल की जेल की सजा काटने के बाद 1986 में भारत वापस लौटे. भारत आने के बाद उन्हें जब 'रॉ' से कोई मदद नहीं मिली तो उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया. दिल्ली हाईकोर्ट ने मुआवजा देने का आदेश दिया, लेकिन 'रॉ' ने हाईकोर्ट के आदेश पर भी कोई कार्रवाई नहीं की.

'रॉ' एजेंट देवुत को पाकिस्तान की जेल में इतना प्रताड़ित किया गया कि वे लकवाग्रस्त हो गए. देवुत को 1990 में पाकिस्तान भेजा गया था. जेल की सजा काटने के बाद वे 23 दिसम्बर 2006 को लकवाग्रस्त हालत में रिहा हुए. लकवाग्रस्त केंद्र सरकार ने भी उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया और उनकी पत्नी वीणा न्याय के लिए दरवाजे-दरवाजे सिर टकरा रही हैं और मत्था टेक रही हैं. 'रॉ' ने तिलकराज को भी पाकिस्तान 'लॉन्च' किया था, लेकिन उसका कोई पता ही नहीं चला.

'रॉ' ने भी पाकिस्तान में गुम हुए तिलकराज को खोजने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. तिलकराज के वयोवृद्ध पिता रामचंद्र आज भी अपने बेटे के वापस लौटने का इंतजार कर रहे हैं. 'रॉ' ने इसी तरह ओमप्रकाश को भी वर्ष 1988 में पाकिस्तान भेजा, लेकिन ओमप्रकाश का फिर कुछ पता नहीं चला. कुछ दस्तावेजों और कुछ कैदियों की खतो-किताबत से ओमप्रकाश के घर वालों को उनके पाकिस्तान की जेल में होने का सुराग मिला. इसे 'रॉ' को दिया भी गया, लेकिन 'रॉ' ने कोई रुचि नहीं ली. बाद में ओमप्रकाश ने अपने परिवार वालों को चिट्ठी भी लिखी. 14 जुलाई 2012 को लिखे गए ओमप्रकाश के पत्र के बारे में 'रॉ' को भी जानकारी दी गई, लेकिन सरकार ने इस मामले में कुछ नहीं किया. 'रॉ' एजेंट सुनील भी पाकिस्तान से अपने घर वालों को चिट्ठियां लिख रहे हैं, लेकिन उनकी कोई नहीं सुन रहा.

पाकिस्तानी की सेना में मेजर के ओहदे तक पहुंच गए मेजर नबी अहमद शाकिर उर्फ रवींद्र कौशिक भारत सरकार की बेजा नीतियों और खुफिया एजेंसी 'रॉ' की साजिश के कारण मारे गए. 'रॉ' के अधिकारियों ने सोचे-संमझे इरादे से इनायत मसीह नामके ऐसे 'बेवकूफ' एजेंट को पाकिस्तान भेजा जिसने वहां जाते ही रवींद्र कौशिक का भंडाफोड़ कर दिया. कर्नल रैंक पर तरक्की पाने जा रहे रवींद्र कौशिक उर्फ मेजर नबी अहमद शाकिर गिरफ्तार कर लिए गए.

'रॉ' के सूत्र कहते हैं कि पाकिस्तानी सेना में रवींद्र कौशिक को मिल रही तरक्की और भारत में मिल रही प्रशंसा (उन्हें ब्लैक टाइगर के खिताब से नवाजा गया था) से जले-भुने 'रॉ' अधिकारियों ने षडयंत्र करके कौशिक की हत्या करा दी. कौशिक को पाकिस्तान में भीषण यंत्रणाएं दी गईं. पाकिस्तान की जेल में ही उनकी बेहद दर्दनाक मौत हो गई. भारत सरकार ने कौशिक के परिवार को यह पुरस्कार दिया कि रवींद्र से जुड़े सभी रिकॉर्ड नष्ट कर दिए और चेतावनी दी कि रवींद्र के मामले में चुप्पी रखी जाए. रवींद्र ने जेल से अपने परिवार को कई चिट्ठियां लिखी थीं.

उन चिट्ठियों में उन पर ढाए जा रहे अत्याचारों का दुखद विवरण होता था. रवींद्र ने अपने विवश पिता से पूछा था कि क्या भारत जैसे देश में कुर्बानी देने वालों को यही सिला मिलता है? राजस्थान के रहने वाले रवींद्र कौशिक लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र थे, जब 'रॉ' के तत्कालीन निदेशक ने खुद उन्हें चुना था. 1965 और 1971 के युद्ध में मार खाए पाकिस्तान के अगले षडयंत्र का पता लगाने के लिए 'रॉ' ने कौशिक को पाकिस्तान भेजा.

कौशिक ने पाकिस्तान में पढ़ाई की. सेना का अफसर बना और तरक्की के पायदान चढ़ता गया. कौशिक की सूचनाएं भारतीय सुरक्षा बलों के लिए बेहद उपयोगी साबित होती रहीं और पाकिस्तान के सारे षडयंत्र नाकाम होते रहे. पहलगाम में भारतीय जवानों द्वारा 50 से अधिक पाक सैनिकों का मारा जाना रवींद्र की सूचना के कारण ही संभव हो पाया. कौशिक की सेवाओं को सम्मान देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें 'ब्लैक टाइगर' की उपाधि दी थी. लेकिन ऐसे सपूत को 'रॉ' ने ही साजिश करके पकड़वा दिया और अंततः उनकी दुखद मौत हो गई.

#विशेष - केंद्रीय खुफिया एजेंसी 'रिसर्च एंड अनालिसिस विंग' (रॉ) में भीषण अराजकता व्याप्त है. 'रॉ' की जिम्मेदारियां (अकाउंटिबिलिटी) कानूनी प्रक्रिया के तहत तय नहीं हैं. एकमात्र प्रधानमंत्री के प्रति उत्तरदायी होने के कारण 'रॉ' के अधिकारी इस विशेषाधिकार का बेजा इस्तेमाल करते हैं और विदेशी एजेंसियों से मनमाने तरीके से सम्पर्क साध कर फायदा उठाते रहते हैं. 'रॉ' के अधिकारियों कर्मचारियों के काम-काज के तौर तरीकों और धन खर्च करने पर अलग से कोई निगरानी नहीं रहती, न उसकी कोई ऑडिट ही होती है.

'रॉ' के अधिकारियों की बार-बार होने वाली विदेश यात्राओं का भी कोई हिसाब नहीं लिया जाता. कौन ले इसका हिसाब? प्रधानमंत्री या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार छोड़ कर कोई अन्य अधिकारी 'रॉ' से कुछ पूछने या जलाब-तलब करने की हिमाकत नहीं कर सकता. 'रॉ' के अधिकारी अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड और यूरोपीय देशों में बेतहाशा आते-जाते रहते हैं. लेकिन दक्षिण एशिया, मध्य-पूर्व और अफ्रीकी देशों में उनकी आमद-रफ्त काफी कम होती है. जबकि इन देशों में 'रॉ' के अधिकारियों का काम ज्यादा है.

'रॉ' के अधिकारी युवकों को फंसा कर पाकिस्तान जैसे देशों में भेजते हैं और उन्हें मरने के लिए लावारिस छोड़ देते हैं. प्रधानमंत्री भी 'रॉ' से यह नहीं पूछते कि अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे आलीशान देशों में 'रॉ' अधिकारियों की पोस्टिंग अधिक क्यों की जाती है और पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका या अन्य दक्षिण एशियाई देशों या मध्य पूर्व के देशों में जरूरत से भी कम तैनाती क्यों है? इन देशों में 'रॉ' का कोई अधिकारी जाना नहीं चाहता. लेकिन इस अराजकता के बारे में कोई पूछताछ नहीं होती. 'रॉ' में सामान्य स्तर के कर्मचारियों की होने वाली नियुक्तियों की कोई पारदर्शी प्रक्रिया नहीं है.

कोई निगरानी नहीं है. 'रॉ' के कर्मचारियों का सर्वेक्षण करें तो अधिकारियों के नाते-रिश्तेदारों की वहां भीड़ जमा है. सब अधिकारी अपने-अपने रिश्तेदारों के संरक्षण में लगे रहते हैं. तबादलों और तैनातियों पर अफसरों के हित हावी हैं. यही वजह है कि जिस खुफिया एजेंसी को सबसे अधिक पेशेवर (प्रोफेशनल) होना चाहिए था, वह सबसे अधिक लचर साबित हो रही है.
'रॉ' में सीआईए वह कुछ अन्य विदेशी खुफिया एजेंसियों की घुसपैठ भी गंभीर चिंता का विषय है.

'रॉ' के डायरेक्टर तक सीआईए के लिए जासूसी करने के आरोप में जेल की हवा खा चुके हैं. इसी तरह एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जिसे आईबी का निदेशक बनाया जा रहा था, उसके बारे में पता चला कि वह दिल्ली में तैनात महिला सीआईए अधिकारी हेदी अगस्ट के लिए काम कर रहा था. तब उसे नौकरी से जबरन रिटायर किया गया. भेद खुला कि सीआईए ही उस आईपीएस अधिकारी को आईबी का निदेशक बनाने के लिए परोक्ष रूप से लॉबिंग कर रही थी. 'रॉ' में गद्दारों की लंबी कतार लगी है. 'रॉ' के दक्षिण-पूर्वी एशिया मसलों के प्रभारी व संयुक्त सचिव स्तर के आला अफसर मेजर रविंदर सिंह का सीआईए के लिए काम करना और सीआईए की साजिश से फरार हो जाना भारत सरकार को पहले ही काफी शर्मिंदा कर चुका है.

रविंदर सिंह जिस समय 'रॉ' के कवर में सीआईए के लिए क्रॉस-एजेंट के बतौर काम कर रहा था, उस समय भी केंद्र में भाजपा की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. वर्ष 2004 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार आने के बाद रविंदर सिंह भारत छोड़ कर भाग गया. अराजकता का चरम यह है कि उसकी फरारी के दो साल बाद नवम्बर 2006 में 'रॉ' ने एफआईआर दर्ज करने की जहमत उठाई.

मेजर रविंदर सिंह की फरारी का रहस्य ढूंढ़ने में 'रॉ' को आधिकारिक तौर पर आजतक कोई सुराग नहीं मिल पाया. जबकि 'रॉ' के ही अफसर अमर भूषण ने बाद में यह रहस्य खोला कि मेजर रविंदर सिंह और उसकी पत्नी परमिंदर कौर सात मई 2004 को राजपाल प्रसाद शर्मा और दीपा कुमारी शर्मा के छद्म नामों से फरार हो गए थे. उनकी फरारी के लिए सीआईए ने सात अप्रैल 2004 को इन छद्म नामों से अमेरिकी पासपोर्ट जारी कराया था.

इसमें रविंदर सिंह को राजपाल शर्मा के नाम से दिए गए अमेरिकी पासपोर्ट का नंबर 017384251 था. सीआईए की मदद से दोनों पहले नेपालगंज गए और वहां से काठमांडू पहुंचे. काठमांडू में अमेरिकी दूतावास में तैनात फर्स्ट सेक्रेटरी डेविड वास्ला ने उन्हें बाकायदा रिसीव किया. काठमांडू के त्रिभुवन हवाई अड्डे से दोनों ने ऑस्ट्रेलियन एयरलाइंस की फ्लाइट (5032) पकड़ी और वाशिंगटन पहुंचे, जहां डल्स इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर सीआईए एजेंट पैट्रिक बर्न्स ने दोनों की अगवानी की उन्हें मैरीलैंड पहुंचाया.

मैरीलैंड के एकांत आवास में रहते हुए ही फर्जी नामों से उन्हें अमेरिका के नागरिक होने के दस्तावेज दिए गए, उसके बाद से वे गायब हैं. पीएमओ ने रविंदर सिंह के बारे में पता लगाने के लिए 'रॉ' से बार-बार कहा लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला, जबकि 'रॉ' प्रधानमंत्री के तहत ही आता है. इस मसले में 'रॉ' ने कई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के निर्देशों को भी ठेंगे पर रखा. रविंदर सिंह प्रकरण खुलने पर 'रॉ' के कई अन्य अधिकारियों की भी पोल खुल जाएगी, इस वजह से 'रॉ' ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया.

विदेशी एजेंसियों के लिए क्रॉस एजेंसी करने और अपने देश से गद्दारी करने वाले ऐसे कई 'रॉ' अधिकारी हैं, जो पकड़े जाने के डर से या प्रलोभन से देश छोड़ कर भाग गए. मेजर रविंदर सिंह जैसे गद्दार अकेले नहीं हैं. 'रॉ' के संस्थापक रहे रामनाथ काव का खास सिकंदर लाल मलिक जब अमेरिका में तैनात था तो वहीं से लापता हो गया. सिकंदर लाल मलिक का आज तक पता नहीं चला. मलिक को 'रॉ' के कई खुफिया प्लान की जानकारी थी.

बांग्लादेश को मुक्त कराने की रणनीति की फाइल सिकंदर लाल मलिक के पास ही थी, जिसे उसने अमेरिका को लीक कर दिया था. मलिक की उस कार्रवाई को विदेश मामलों के विशेषज्ञ एक तरह की तख्ता पलट की कोशिश बताते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने अपनी बुद्धिमानी और कूटनीतिक सझ-बूझ से काबू कर लिया.

मंगोलिया के उलान बटोर और फिर इरान के खुर्रमशहर में तैनात रहे 'रॉ' अधिकारी अशोक साठे ने तो अपने देश के साथ निकृष्टता की इंतिहा ही कर दी. साठे ने खुर्रमशहर स्थित 'रॉ' के दफ्तर को ही फूंक डाला और सारे महत्वपूर्ण और संवेदनशील दस्तावेज आग के हवाले कर अमेरिका भाग गया. विदेश मंत्रालय को जानकारी है कि साठे कैलिफोर्निया में रहता है, लेकिन 'रॉ' उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया. 'रॉ' के सीनियर फील्ड अफसर एमएस सहगल का नाम भी 'रॉ' के भगेड़ुओं में अव्वल है.

लंदन में तैनाती के समय ही सहगल वहां से फरार हो गया. टोकियो में भारतीय दूतावास में तैनात 'रॉ' अफसर एनवाई भास्कर सीआईए के लिए क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. वहीं से वह फरार हो गया. काठमांडू में सीनियर फील्ड अफसर के रूप में तैनात 'रॉ' अधिकारी बीआर बच्चर को एक खास ऑपरेशन के सिलसिले में लंदन भेजा गया, लेकिन वह वहीं से लापता हो गया. बच्चर भी क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. 'रॉ' मुख्यालय में पाकिस्तान डेस्क पर अंडर सेक्रेटरी के रूप में तैनात मेजर आरएस सोनी भी मेजर रविंदर सिंह की तरह पहले सेना में था, बाद में 'रॉ' में आ गया.

मेजर सोनी कनाडा भाग गया. 'रॉ' में व्याप्त अराजकता का हाल यह है कि मेजर सोनी की फरारी के बाद भी कई महीनों तक लगातार उसके अकाउंट में उसका वेतन जाता रहा. इस्लामाबाद, बैंगकॉक, कनाडा में 'रॉ' के लिए तैनात आईपीएस अधिकारी शमशेर सिंह भी भाग कर कनाडा चला गया. इसी तरह 'रॉ' अफसर आर वाधवा भी लंदन से फरार हो गया. केवी उन्नीकृष्णन और माधुरी गुप्ता जैसे उंगलियों पर गिने जाने वाले 'रॉ' अधिकारी हैं, जिन्हें क्रॉस एजेंसी या कहें दूसरे देश के लिए जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सका.

पाकिस्तान के भारतीय उच्चायोग में आईएफएस ग्रुप-बी अफसर के पद पर तैनात माधुरी गुप्ता पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी के साथ मिल कर भारत के ही खिलाफ जासूसी करती हुई पकड़ी गई थी. माधुरी गुप्ता को 23 अप्रैल 2010 को गिरफ्तार किया गया था. इसी तरह अर्सा पहले 'रॉ' के अफसर केवी उन्नीकृष्णन को भी गिरफ्तार किया गया था. पकड़े जाने वाले 'रॉ' अफसरों की तादाद कम है, जबकि दूसरे देशों की खुफिया एजेंसी की साठगांठ से देश छोड़ कर भाग जाने वाले 'रॉ' अफसरों की संख्या कहीं अधिक है.

 'जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से हम सब मर-मर के जीते हैं, वो सुबह कभी तो आएगी..! 

अलविदा 🙏🙏

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...