----------------------- #गुमनाम -------------------
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कल की पोस्ट से कुछ स्वजन व्यथित थे , में यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि प्रेम में धोखा ,किसी के दबाव , या किसी के अपमान के कारण नही जा रहा , आप सबीके5 रहते हुए किसी की इतनी हिम्मत नही की मुझतक कोई आंच आये , बस फेसबुक से एक ऊबन होने लगती है , जबतक मुझे लगता है कि मैं इसे चला रहा तबतक सब ठीक होता है मैं यहाँ लिखता हूँ लेकिन जैसे ही पता लगता ज्म कि ये हमे चला रहा हम ठहरे मलंग चल पड़ते हैं झोला उठाकर , तो आज आखिरी लेख है तो एक विशेष लेख तो बनता है , इसको पढ़कर सोचना की एक गुमनाम योद्धा कैसे आपकी सुरक्षा दीवार तैयार करता है और मूवी के इतर उसकी वास्तविक जीवन की लड़ाई कैसी होती है ।।
हर देश में मौजूद विदेशी दूतावास सर्फ दूतवाश है नही जासूसों का भी अड्डा होते हैं, लेकिन यह पता होने के बावजूद सारे देश ऐसी जासूसी को स्वीकार करते हैं, लेकिन क्यों?
जासूसी की अंतरराष्ट्रीय दुनिया बड़ी स्याह और आम तौर पर गैरकानूनी है, लेकिन इसके बावजूद हर देश इसे स्वीकार करता है। बकिंघम यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सिक्योरिटी एंड इंटेलिजेंस स्ट्डीज के डायरेक्टर एंथनी ग्लीस इसे "जेंटलमैंस एग्रीमेंट" कहते हैं,यह कोई लिखित या आधिकारिक समझौता नहीं होता, बस "आप मुझ पर नजर रखें और मैं आप पर" वाली बात है।
दूतावास हमेशा तथाकथित इंटेलिजेंस अफसरों को नियुक्त करते हैं, यह देशों के बीच एक गैरआक्रामक संधि सी है, जिसके तहत सरकारें आपसी फायदे के लिए एक दूसरे के मामलों पर आंखें मूंद लेती हैं।" अगर किसी देश को अपने जासूसों को विदेश भेजना है तो उसे विदेशी जासूसों को अपने देश में भी मंजूरी देनी होती है। अब यह जासूसों पर निर्भर करता है कि वह कितनी जानकारी किस ढंग से निकाल पाते हैं,यही वजह है कि दूसरे देशों में जासूसों को अक्सर डिप्लोमैट या कूटनीतिक अधिकारी के तौर पर नियुक्त किया जाता है, उन्हें डिप्लोमैटिक इम्युनिटी और एक खास किस्म की सुरक्षा भी दी जाती है, कूटनीतिक संबंधों को लेकर 1961 की वियना संधि में इन बातों का जिक्र है।।
बबहरखैर
जासूसी के बारे में सोचा जाता है तो आम तौर पर दिमाग में सिनेमा का चरित्र जेम्स बांड उभरता है, लेकिन यह वैसा नहीं है,जब हम खुफिया कार्य के बारे में सोचते या बातचीत करते हैं तो हम सामान्य रूप से जेम्स बांड, बंदूक, लड़कियां, गिटार और ग्लैमर के बारे में सोचते हैं, लेकिन गुप्तचरी की दुनिया वैसी नहीं है , ये कैसी है यदि दिखा दिया जाए तो रूह कांप जाए , यह उन देशभक्तों का यथार्थ आर्तनाद है, जिन्होंने अपने देश के लिए पाकिस्तान, चीन ,रसिया, अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया ,अफगानिस्तान, ईरान जैसे देशों में जासूसी करते हुए जीवन खपा दिया, लेकिन आज अपने देश में दिहाड़ी मजदूर या उससे भी गलीज हालत में हैं, उन्हें कोई 'राष्ट्रभक्त' पूछता नहीं, 'राष्ट्रभक्त' सरकार को देशभक्त जासूस की कोई चिंता नहीं, अब संकेत में नहीं, सीधी बात पर आते हैं और एक ऐसे ही एजेंट की कहानी आप सबको बताते हैं (नाम और पहचान गुप्त रखी गयी है बाकी अक्षरसः सत्य है) दिल्ली में एक जो भारतीय खुफिया एजेंसी 'रिसर्च एंड अनालिसिस विंग' ('रॉ') के जासूस थे, उन्होंने अपने बेशकीमती 4 वर्ष पाकिस्तान के अलग-अलग इलाकों में सड़कों पर खोमचा घसीटते हुए, मुल्ला बन कर मस्जिद में नमाज पढ़ाते हुए, संवेदनशील सरकारी महकमों पर महीनों नजरें रखते हुए, पाकिस्तानी सेना द्वारा पोषित आतंकियों से दोस्ती गांठते हुए, जान की परवाह न कर वहां की सूचनाएं भारत भेजते हुए और आखिर में बर्बर यातनाओं के साथ जेल काटते हुए बिताए।
बड़ी मुश्किल से पाकिस्तान की जेल से छूट कर भारत पहुंचे 'रॉ' एजेंट (नाम पंडित जी रख लेते हैसंबोधन में आसानी होगी ) का जीवन अपने देश आकर और दुश्वार हो गया, 'रॉ' एजेंट पंडित जी उर्फ मोहम्मद इमरान।
पंडित जी की तरह ऐसे अनगिनत देशभक्त हैं, जिनका जीवन देश के लिए जासूसी करते हुए और जान को जोखिम में डालते हुए बीत गया। जब वे अपने वतन वापस लौटे तो अपना ही देश उन्हें भूल चुका था। सरकार को भी यह याद नहीं रहा कि भारत सरकार का प्रतिनिधि होने के नाते ही वह पाकिस्तान में प्रताड़नाएं झेल रहा था। कुलभूषण जाधव तो सुर्खियों में इसलिए रहे हैं कि उनसे सरकार का राजनीतिक-स्वार्थ सध रहा है।
यह सियासत क्या कुलभूषण के जिंदा रहने की गारंटी है? अगर गारंटी होती तो रवींद्र कौशिक, सरबजीत सिंह जैसे तमाम देशभक्त पाकिस्तान की जेलों में क्या सड़ कर मरते? फिर सरकार का उनसे क्या लेना-देना, जो देशभक्ति में खप चुके, पर आज भी जिंदा हैं! ऐसे खपे हुए देशभक्तों की लंबी फेहरिस्त है, जो अपनी बची हुई जिंदगी घसीट रहे हैं। इन्होंने देश की सेवा में खुद को मिटा दिया, पर सरकार ने उन्हें न नाम दिया न इनाम. 'रॉ' एजेंट पंडित जी का प्रकरण सुनकर केंद्रीय खुफिया एजेंसी के एक आला अधिकारी ने कहा कि मोदी सरकार बदलाव की बातें तो करती है, लेकिन विदेशों में काम कर रहे 'रॉ' एजेंट्स को स्थायी गुमनामी के अंधेरे सुरंग में धकेल देती है।
विदेशों में हर पल जान जोखिम में डाले काम कर रहे अपने ही जासूसों की हिफाजत और देश में रह रहे उनके परिवार के लिए आर्थिक संरक्षण का सरकार कोई उपाय नहीं करती। जबकि देश के अंदर काम करने वाले खुफिया अधिकारियों की बाकायदा सरकारी नौकरी होती है। वेतन और पेंशन उन्हें और उनके परिवार वालों को ठोस आर्थिक संरक्षण देता है। इसके ठीक विपरीत 'रॉ' के लिए जो एजेंट्स चुने जाते हैं, सरकार उनकी मूल पहचान ही मिटा देती है।
उनका मूल शिक्षा प्रमाणपत्र रख लेती है और किसी भी सरकारी या कानूनी दस्तावेज से उसका नाम हटा देती है। पंडित जी इसकी पुष्टि करते हैं। पंडित जी कहते हैं कि R. K. पुरम स्थित DPS कॉलेज से उन्होंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी और दिल्ली विश्वविद्यालय से उन्होंने ग्रैजुएशन किया था। 'रॉ' के लिए चुने जाने के बाद उनसे स्कूल और कॉलेज के मूल प्रमाणपत्र ले लिए गए। जब वे 4 साल बाद अपने घर लौटे तो उनकी पूरी दुनिया बदल चुकी थी. उन्हें बताया गया कि सरकारी मुलाजिमों का एक दस्ता वर्षों पहले उनके घर से उनकी सारी तस्वीरें ले जा चुका था। राशनकार्ड से पंडित जी का नाम हट चुका था. सरकारी दस्तावेजों से पंडित जी का नाम 'डिलीट' किया जा चुका था.
भारत सरकार ऐसी घिसी-पिटी लीक पर क्यों चलती है? भारतीय खुफिया एजेंसी के अधिकारी ही यह सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि अमेरिका, चीन, इजराइल, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे कई देश अपने जासूसों की हद से आगे बढ़ कर हिफाजत करते हैं और उनके परिवारों का ख्याल रखते हैं. यहां तक कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई तक अपने एजेंटों को सुरक्षा कवच और आर्थिक संरक्षण देती है, लेकिन भारत सरकार इस पर ध्यान नहीं देती, क्योंकि सत्ता-सियासतदानों को इसमें वोट का फायदा नहीं दिखता।
वर्ष 2010 में 'रॉ' के टैलेंट हंट के जरिए चुने गए पंडित जी की अकेली आपबीती देश के युवकों को यह संदेश देने के लिए काफी है कि वे 'रॉ' जैसी खुफिया एजेंसी के लिए कभी काम नहीं करें। मेजर रवींद्र कौशिक से लेकर ऐसे तमाम 'रॉ' एजेंटों की बेमानी गुमनाम-शहादतों के उदाहरण भरे पड़े हैं। खुफिया एजेंसियों के अफसर ही यह कहते हैं कि पाकिस्तान या अन्य देशों में तैनात 'रॉ' एजेंट के प्रति आंखें मूंदने वाली सरकार भारत में रह रहे उनके परिवार वालों को लावारिस क्यों छोड़ देती है, यह बात समझ में नहीं आती। ऐसे में देश का कोई युवक 'रॉ' जैसी खुफिया एजेंसी के लिए काम करने के बारे में क्यों सोचे? पंडित जी को 'रॉ' के टैलेंट फाइंडर जीतेंद्रनाथ सिंह परिहार ने चुना था।
एक साल की ट्रेनिंग के बाद पंडित जी को जनवरी 2011 में भारत-पाकिस्तान सीमा पर मोहनपुर पोस्ट से 'लॉन्च' किया गया ,पंडित कजी के साथ एक गाइड भी था जो उन्हें पाकिस्तान के पल्लो गांव होते हुए बम्बावली-रावी-बेदियान नहर पार करा कर लाहौर ले गया और उन्हें वहां छोड़ कर चला गया. उसके बाद से दी का जासूसी करने का सारा रोमांच त्रासद-कथा में तब्दील होता चला गया,23 जनवरी 2014 को सिंध प्रांत के हैदराबाद शहर से गिरफ्तार किए जाने तक पंडित जी ने जासूसी के तमाम पापड़ बेले, खोमचे घसीटे, लाहौर, कराची, मुल्तान, हैदराबाद, पेशावर जैसे तमाम शहरों में आला सैन्य अफसरों से लेकर बड़े नेताओं की जासूसी की और दुबई, कुवैत, कतर, हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर जैसी जगहों पर बैठे 'रॉ' अफसरों के जरिए भारत तक सूचना पहुंचाई।
'रॉ' ने हैदराबाद के आमिर आलम के जरिए पंडित जी को अफगानिस्तान भी भेजा जहां जलालाबाद और कुनर में उन्हें अहले हदीस के चीफ शेख जमीलुर रहमान के साथ अटैच किया गया। वहां के सम्पर्कों के जरिए पंडित जी पेशावर में डेरा जमाए अरब मुजाहिदीन के सेंटर बैतुल अंसार पहुंच गए और जेहादी के रूप में ग्रुप में शामिल हो गए। बैतुल अंसार पर ओसामा बिन लादेन और शेख अब्दुर्रहमान जैसे आतंकी सरगना पहुंचते थे और सेंटर को काफी धन देते थे। 23 जनवरी 2014 को पंडित जी को सिंध प्रांत के हैदराबाद से गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के बाद पंडित की यंत्रणा-यात्रा शुरू हुई, पहले उन्हें हैदराबाद में आईएसआई के लॉकअप में रखा गया फिर उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस की 302वीं बटालियन में शिफ्ट कर दिया गया, हैदराबाद से उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस की दूसरी कोर के कराची स्थित मुख्यालय भेजा गया।
पूछताछ के दौरान पंडित को बर्बर यातनाएं दी जाती रहीं. पिटाई के अलावा उन्हें सीधा बांध कर नौ-नौ घंटे खड़ा रखा जाता था और कई-कई रात सोने नहीं दिया जाता था, करीब एक साल तक उन्हें इसी तरह अलग-अलग फौजी ठिकानों पर टॉर्चर किया जाता रहा और पूछताछ होती रही। इस दरम्यान पंडित जी के हबीब बैंक के हैदराबाद और मुल्तान ब्रांच के अकाउंट भी जब्त कर लिए गए और उसमें जमा होने वाले धन के स्रोतों की गहराई से छानबीन की गई। 21 दिसम्बर को उन्हें कराची जेल शिफ्ट कर दिया गया। पांच महीने बाद जून पंडित जी पर पाकिस्तानी सेना की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ और उन्हें कराची जेल से 85वीं एसएंडटी कोर (सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट कोर) को हैंड-ओवर कर दिया गया.
इस दरम्यान पंडित जी को पाक सेना की 44वीं फ्रंटियर फोर्स (एफएफ) के क्वार्टर-गार्ड में बंद रखा गया, वर्ष 2015 में पंडित जी 21वीं आर्मर्ड ब्रिगेड के हवाले हुए और उन्हें 51-लांसर्स के क्वार्टर-गार्ड में शिफ्ट किया गया। इस बीच मेजर नसीम खान, मेजर सलीम खान, लेफ्टिनेंट कर्नल हमीदुल्ला खान और ब्रिगेडियर रुस्तम दारा की फौजी अदालतों में मुकदमा (कोर्ट मार्शल) चलता रहा। पंडित जी कहते हैं कि कोई कबूलदारी और सबूत न होने के कारण पाकिस्तान सेना ने उन्हें सिंध सरकार के सिविल प्रशासन के हवाले कर दिया।
सिंध सरकार ने वर्ष 2015 में ही पंडित जी को भारत वापस भेजने (रिपैट्रिएट करने) का आदेश दे दिया था, लेकिन वह 1 साल तक कानूनी चक्करों में फंसता-निकलता आखिरकार मार्च 2016 में तामील हो पाया, पंडित जी को 22 मार्च 2016 को बाघा बॉर्डर पर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के सुपुर्द कर दिया गया. 'रॉ' के मिशन पर पाकिस्तान में 4 वर्ष बिताने वाले पंडित जी 1 साल से अधिक समय तक जेल में बंद रहे, भारत लौटने पर भारत सरकार के एक नुमाइंदे ने उन्हें दो किश्तों में एक लाख 36 हजार रुपए दिए और उसके बाद फाइल क्लोज कर दी।
'रॉ' के लिए जासूसी करने के आरोप में पकड़े गए नौसेना कमांडर कुलभूषण जाधव का पहला मामला है जब केंद्र सरकार ने उनकी रिहाई के लिए पुरजोर तरीके से आवाज उठाई और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक गुहार लगाई, लेकिन इसके पहले मेजर रवींद्र कौशिक से लेकर सरबजीत सिंह और सरबजीत से लेकर तमाम नाम, अनाम और गुमनाम जासूसों की हिफाजत के लिए भारत सरकार ने आज तक कोई कदम नहीं उठाया। कुलभूषण जाधव का मसला ही अलग है।
उन्हें तो तालिबानों ने ईरान सीमा से अगवा किया और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथों बेच डाला। जर्मन राजनयिक गुंटर मुलैक अंतरराष्ट्रीय फोरम पर इसे उजागर कर चुके हैं। पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में बंद सरबजीत की रिहाई के मसले में भी सामाजिक-राजनीतिक शोर तो खूब मचा लेकिन भारत सरकार ने कोई कारगर दबाव नहीं बनाया। आखिरकार, दूसरे पाकिस्तानी कैदियों को उकसा कर कोट लखपत जेल में ही सरबजीत सिंह की हत्या करा दी गई।
पाकिस्तान में मिशन पूरा कर या जेल की सजा काट कर वापस लौटे कई 'रॉ' एजेंटों ने केंद्र सरकार से औपचारिक तौर पर आर्थिक संरक्षण देने की गुहार लगाई है, लेकिन उस पर कोई सुनवाई नहीं की गई। यहां तक कि भारत सरकार ने उन्हें सरकारी कर्मचारी मानने से ही इन्कार कर दिया। सरकार ने अपने पूर्व 'रॉ' एजेंटों को पहचाना ही नहीं। ऐसे ही 'रॉ' एजेंटों में गुरदासपुर के खैरा कलां गांव के रहने वाले करामत राही शामिल हैं, जिन्हें वर्ष 1980 में पाकिस्तान 'लॉन्च' किया गया था।
पहली बार वे अपना मिशन पूरा कर वापस लौट आए, लेकिन 'रॉ' ने उन्हें 1983 में फिर पाकिस्तान भेज दिया। इस बार 1988 में वे मीनार ए पाकिस्तान के नजदीक गिरफ्तार कर लिए गए। करामत 18 साल जेल काटने के बाद वर्ष 2005 में वापस लौट पाए। करामत की रिहाई भी पंजाब के उस समय भी मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह के हस्तक्षेप और अथक प्रयास से संभव हो पाई। देश वापस लौटने के बाद करामत ने 'रॉ' मुख्यालय से सम्पर्क साधा, लेकिन 'रॉ' मुख्यालय के आला अफसरों ने धमकी देकर करामत को खामोश कर दिया। भारत सरकार की इस आपराधिक अनदेखी के खिलाफ करामत ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली, लेकिन अदालत भी कहां 'नीचा' सुनती है!
इन मामलों में सम्बन्धित राज्य सरकारें भी 'रॉ' एजेंटों के प्रति आपराधिक उपेक्षा का ही भाव रखती हैं. 'रॉ' एजेंट कश्मीर सिंह का मामला अपवाद की तरह सामने आया जब 35 साल पाकिस्तानी जेल की सजा काट कर लौटने के बाद पंजाब सरकार ने उन्हें जमीन दी और मुआवजा दिया. वर्ष 1962 से लेकर 1966 तक कश्मीर सिंह सेना की नौकरी में थे. उसके बाद 'रॉ' ने उन्हें अपने काम के लिए चुना और पाकिस्तान 'लॉन्च' कर दिया. 1973 में वे पाकिस्तान में गिरफ्तार कर लिए गए. उन्हें पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में घुमाया जाता रहा और प्रताड़ित किया जाता रहा. 17 साल तक उन्हें एक एकांत सेल में बंद रखा गया. चार मार्च 2008 को वे रिहा होकर भारत आए, लेकिन इस लंबे अंतराल में कश्मीर सिंह जिंदगी से नहीं, पर उम्र से शहीद हो चुके थे.
गुरदास के डडवाईँ गांव के रहने वाले सुनील मसीह दो फरवरी 1999 को पाकिस्तान के शकरगढ़ में गिरफ्तार किए गए थे. आठ साल के भीषण अत्याचार के बाद वर्ष 2006 में वे अत्यंत गंभीर हालत में भारत वापस लौटे, लेकिन केंद्र सरकार ने उनके बारे में कोई ख्याल नहीं किया. उन्हीं के गांव डडवाईं के डैनियल उर्फ बहादुर भी पाकिस्तानी रेंजरों द्वारा 1993 में गिरफ्तार किए गए थे. चार साल की सजा काट कर वापस लौटे. अब पूर्व 'रॉ' एजेंट डैनियल रिक्शा चला कर अपना गुजारा करते हैं. पाकिस्तान की जेल में तकरीबन तीन दशक काटने के बाद छूट कर भारत आने वाले पूर्व 'रॉ' एजेंटों में सुरजीत सिंह का नाम भी शामिल है. 'रॉ' ने सुरजीत सिंह को वर्ष 1981 में पाकिस्तान 'लॉन्च' किया था. वे 1985 में गिरफ्तार किए गए और पाकिस्तान के खिलाफ जासूसी करने के आरोप में उन्हें फांसी की सजा दी गई. 1989 में उनकी सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई.
वर्ष 2012 में पाकिस्तान की कोट लखपत जेल से सजा काटने के बाद सुरजीत रिहा हुए. सुरजीत ने भी 'रॉ' के अधिकारियों से सम्पर्क साधा लेकिन नाकाम रहे. सुरजीत अपनी पत्नी को यह बोल कर पाकिस्तान गए थे कि वे जल्दी लौटेंगे लेकिन 1981 के गए हुए 2012 में वापस लौटे. जब लौटे तब वे 70 साल के हो चुके थे. भारत सरकार ने उनके वजूद को इन्कार कर दिया, जबकि वापस लौटने पर सुरजीत ने पूछा कि भारत सरकार ने उन्हें पाकिस्तान नहीं भेजा तो वे अपनी मर्जी से पाकिस्तान कैसे और क्यों चले गए? सुरजीत मिशन के दरम्यान 85 बार पाकिस्तान गए और आए.
पाकिस्तान में गिरफ्तार हो जाने के बाद भारतीय सेना की तरफ से उनके परिवार को हर महीने डेढ़ सौ रुपए दिए जाते थे. सुरजीत पूछते हैं कि अगर वे लावारिस ही थे तो सेना उनके घर पैसे क्यों भेज रही थी? सुरजीत ने भी न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट में शरण ले रखी है. गुरदासपुर जिले के डडवाईं गांव के ही रहने वाले सतपाल को वर्ष 1999 में पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था. तब भारत पाकिस्तान के बीच करगिल युद्ध चल रहा था.
पाकिस्तान में सतपाल को भीषण यातनाएं दी गईं. पाकिस्तान की जेल में ही वर्ष 2000 में उनकी मौत हो गई. विडंबना यह है कि पाकिस्तान सरकार ने सतपाल का पार्थिव शरीर भारत को सौंपने की पेशकश की तो भारत सरकार ने शव लेने तक से मना कर दिया. सतपाल का शव लाहौर अस्पताल के शवगृह में पड़ा रहा. पंजाब में स्थानीय स्तर पर काफी बावेला मचने के बाद सतपाल का शव मंगवाया जा सका. शव पर प्रताड़ना के गहरे घाव और चोट के निशान मौजूद थे. तब भी भारत सरकार को उनकी शहादत की कीमत समझ में नहीं आई. सतपाल के बेटे सुरेंदर पाल आज भी अपने पिता के लिए न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं. पंजाब सरकार ने सतपाल के बेटे सुरेंदर पाल को सरकारी नौकरी का आश्वासन भी दिया, लेकिन यह आश्वासन भी ढाक के तीन पात ही साबित हुआ.
विनोद साहनी को 1977 में पाकिस्तान भेजा गया था, लेकिन वे जल्दी ही पाकिस्तानी तंत्र के हाथों दबोच लिए गए. उन्हें 11 साल की सजा मिली. सजा काटने के बाद विनोद 1988 में वापस लौटे. 'रॉ' ने विनोद को सरकारी नौकरी देने और उनके परिवार को सुरक्षा प्रदान करने का आश्वासन दिया था, लेकिन लौटने के बाद 'रॉ' ने उन्हें पहचानने से भी इन्कार कर दिया. विनोद अब जम्मू में 'पूर्व जासूस' नामकी एक संस्था चलाते हैं और तमाम पूर्व जासूसों को जोड़ने का जतन करते रहते हैं.
रामराज ने 18 साल तक भारतीय खुफिया एजेंसी 'रॉ' की सेवा की. 18 सितम्बर 2004 को उन्हें पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया. करीब आठ साल जेल काटने के बाद रिहा हुए रामराज को भारत आने पर उसी खुफिया एजेंसी ने पहचानने से इन्कार कर दिया. ऐसा ही हाल गुरबक्श राम का भी हुआ. एक साल की ट्रेनिंग देकर उन्हें वर्ष 1988 को पाकिस्तान भेजा गया था. उनका मिशन पाकिस्तान की सैन्य युनिट के आयुध भंडार की जानकारियां हासिल करना था. मिशन पूरा कर वापस लौट रहे गुरबक्श को पाकिस्तानी सेना के गोपनीय दस्तावेजों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया.
उन्हें सियालकोट की गोरा जेल में रखा गया. 14 साल की सजा काट कर वर्ष 2006 में वापस अपने देश लौटे गुरबक्श को अब सरकार नहीं पहचानती. रामप्रकाश को प्रोफेशनल फोटोग्राफर के रूप में 'रॉ' ने वर्ष 1994 में पाकिस्तान में 'प्लांट' किया था. 13 जून 1997 को भारत वापस आते समय रामप्रकाश को गिरफ्तार कर लिया गया. सियालकोट की जेल में नजरबंद रख कर उनसे एक साल तक पूछताछ की जाती रही. वर्ष 1998 में उन्हें 10 साल की सजा सुनाई गई.
सजा काटने के बाद सात जुलाई 2008 को उन्हें भारत भेज दिया गया. सूरम सिंह तो 1974 में सीमा पार करते समय ही धर लिए गए थे. उनसे भी सियालकोट की गोरा जेल में चार महीने तक पूछताछ होती रही और 13 साल सात महीने पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में प्रताड़ित होने के बाद आखिरकार वे 1988 में रिहा होकर भारत आए. बलबीर सिंह को 1971 में पकिस्तान भेजा गया था. 1974 में बलबीर गिरफ्तार कर लिए गए और 12 साल की जेल की सजा काटने के बाद 1986 में भारत वापस लौटे. भारत आने के बाद उन्हें जब 'रॉ' से कोई मदद नहीं मिली तो उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया. दिल्ली हाईकोर्ट ने मुआवजा देने का आदेश दिया, लेकिन 'रॉ' ने हाईकोर्ट के आदेश पर भी कोई कार्रवाई नहीं की.
'रॉ' एजेंट देवुत को पाकिस्तान की जेल में इतना प्रताड़ित किया गया कि वे लकवाग्रस्त हो गए. देवुत को 1990 में पाकिस्तान भेजा गया था. जेल की सजा काटने के बाद वे 23 दिसम्बर 2006 को लकवाग्रस्त हालत में रिहा हुए. लकवाग्रस्त केंद्र सरकार ने भी उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया और उनकी पत्नी वीणा न्याय के लिए दरवाजे-दरवाजे सिर टकरा रही हैं और मत्था टेक रही हैं. 'रॉ' ने तिलकराज को भी पाकिस्तान 'लॉन्च' किया था, लेकिन उसका कोई पता ही नहीं चला.
'रॉ' ने भी पाकिस्तान में गुम हुए तिलकराज को खोजने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. तिलकराज के वयोवृद्ध पिता रामचंद्र आज भी अपने बेटे के वापस लौटने का इंतजार कर रहे हैं. 'रॉ' ने इसी तरह ओमप्रकाश को भी वर्ष 1988 में पाकिस्तान भेजा, लेकिन ओमप्रकाश का फिर कुछ पता नहीं चला. कुछ दस्तावेजों और कुछ कैदियों की खतो-किताबत से ओमप्रकाश के घर वालों को उनके पाकिस्तान की जेल में होने का सुराग मिला. इसे 'रॉ' को दिया भी गया, लेकिन 'रॉ' ने कोई रुचि नहीं ली. बाद में ओमप्रकाश ने अपने परिवार वालों को चिट्ठी भी लिखी. 14 जुलाई 2012 को लिखे गए ओमप्रकाश के पत्र के बारे में 'रॉ' को भी जानकारी दी गई, लेकिन सरकार ने इस मामले में कुछ नहीं किया. 'रॉ' एजेंट सुनील भी पाकिस्तान से अपने घर वालों को चिट्ठियां लिख रहे हैं, लेकिन उनकी कोई नहीं सुन रहा.
पाकिस्तानी की सेना में मेजर के ओहदे तक पहुंच गए मेजर नबी अहमद शाकिर उर्फ रवींद्र कौशिक भारत सरकार की बेजा नीतियों और खुफिया एजेंसी 'रॉ' की साजिश के कारण मारे गए. 'रॉ' के अधिकारियों ने सोचे-संमझे इरादे से इनायत मसीह नामके ऐसे 'बेवकूफ' एजेंट को पाकिस्तान भेजा जिसने वहां जाते ही रवींद्र कौशिक का भंडाफोड़ कर दिया. कर्नल रैंक पर तरक्की पाने जा रहे रवींद्र कौशिक उर्फ मेजर नबी अहमद शाकिर गिरफ्तार कर लिए गए.
'रॉ' के सूत्र कहते हैं कि पाकिस्तानी सेना में रवींद्र कौशिक को मिल रही तरक्की और भारत में मिल रही प्रशंसा (उन्हें ब्लैक टाइगर के खिताब से नवाजा गया था) से जले-भुने 'रॉ' अधिकारियों ने षडयंत्र करके कौशिक की हत्या करा दी. कौशिक को पाकिस्तान में भीषण यंत्रणाएं दी गईं. पाकिस्तान की जेल में ही उनकी बेहद दर्दनाक मौत हो गई. भारत सरकार ने कौशिक के परिवार को यह पुरस्कार दिया कि रवींद्र से जुड़े सभी रिकॉर्ड नष्ट कर दिए और चेतावनी दी कि रवींद्र के मामले में चुप्पी रखी जाए. रवींद्र ने जेल से अपने परिवार को कई चिट्ठियां लिखी थीं.
उन चिट्ठियों में उन पर ढाए जा रहे अत्याचारों का दुखद विवरण होता था. रवींद्र ने अपने विवश पिता से पूछा था कि क्या भारत जैसे देश में कुर्बानी देने वालों को यही सिला मिलता है? राजस्थान के रहने वाले रवींद्र कौशिक लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र थे, जब 'रॉ' के तत्कालीन निदेशक ने खुद उन्हें चुना था. 1965 और 1971 के युद्ध में मार खाए पाकिस्तान के अगले षडयंत्र का पता लगाने के लिए 'रॉ' ने कौशिक को पाकिस्तान भेजा.
कौशिक ने पाकिस्तान में पढ़ाई की. सेना का अफसर बना और तरक्की के पायदान चढ़ता गया. कौशिक की सूचनाएं भारतीय सुरक्षा बलों के लिए बेहद उपयोगी साबित होती रहीं और पाकिस्तान के सारे षडयंत्र नाकाम होते रहे. पहलगाम में भारतीय जवानों द्वारा 50 से अधिक पाक सैनिकों का मारा जाना रवींद्र की सूचना के कारण ही संभव हो पाया. कौशिक की सेवाओं को सम्मान देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें 'ब्लैक टाइगर' की उपाधि दी थी. लेकिन ऐसे सपूत को 'रॉ' ने ही साजिश करके पकड़वा दिया और अंततः उनकी दुखद मौत हो गई.
#विशेष - केंद्रीय खुफिया एजेंसी 'रिसर्च एंड अनालिसिस विंग' (रॉ) में भीषण अराजकता व्याप्त है. 'रॉ' की जिम्मेदारियां (अकाउंटिबिलिटी) कानूनी प्रक्रिया के तहत तय नहीं हैं. एकमात्र प्रधानमंत्री के प्रति उत्तरदायी होने के कारण 'रॉ' के अधिकारी इस विशेषाधिकार का बेजा इस्तेमाल करते हैं और विदेशी एजेंसियों से मनमाने तरीके से सम्पर्क साध कर फायदा उठाते रहते हैं. 'रॉ' के अधिकारियों कर्मचारियों के काम-काज के तौर तरीकों और धन खर्च करने पर अलग से कोई निगरानी नहीं रहती, न उसकी कोई ऑडिट ही होती है.
'रॉ' के अधिकारियों की बार-बार होने वाली विदेश यात्राओं का भी कोई हिसाब नहीं लिया जाता. कौन ले इसका हिसाब? प्रधानमंत्री या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार छोड़ कर कोई अन्य अधिकारी 'रॉ' से कुछ पूछने या जलाब-तलब करने की हिमाकत नहीं कर सकता. 'रॉ' के अधिकारी अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड और यूरोपीय देशों में बेतहाशा आते-जाते रहते हैं. लेकिन दक्षिण एशिया, मध्य-पूर्व और अफ्रीकी देशों में उनकी आमद-रफ्त काफी कम होती है. जबकि इन देशों में 'रॉ' के अधिकारियों का काम ज्यादा है.
'रॉ' के अधिकारी युवकों को फंसा कर पाकिस्तान जैसे देशों में भेजते हैं और उन्हें मरने के लिए लावारिस छोड़ देते हैं. प्रधानमंत्री भी 'रॉ' से यह नहीं पूछते कि अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे आलीशान देशों में 'रॉ' अधिकारियों की पोस्टिंग अधिक क्यों की जाती है और पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका या अन्य दक्षिण एशियाई देशों या मध्य पूर्व के देशों में जरूरत से भी कम तैनाती क्यों है? इन देशों में 'रॉ' का कोई अधिकारी जाना नहीं चाहता. लेकिन इस अराजकता के बारे में कोई पूछताछ नहीं होती. 'रॉ' में सामान्य स्तर के कर्मचारियों की होने वाली नियुक्तियों की कोई पारदर्शी प्रक्रिया नहीं है.
कोई निगरानी नहीं है. 'रॉ' के कर्मचारियों का सर्वेक्षण करें तो अधिकारियों के नाते-रिश्तेदारों की वहां भीड़ जमा है. सब अधिकारी अपने-अपने रिश्तेदारों के संरक्षण में लगे रहते हैं. तबादलों और तैनातियों पर अफसरों के हित हावी हैं. यही वजह है कि जिस खुफिया एजेंसी को सबसे अधिक पेशेवर (प्रोफेशनल) होना चाहिए था, वह सबसे अधिक लचर साबित हो रही है.
'रॉ' में सीआईए वह कुछ अन्य विदेशी खुफिया एजेंसियों की घुसपैठ भी गंभीर चिंता का विषय है.
'रॉ' के डायरेक्टर तक सीआईए के लिए जासूसी करने के आरोप में जेल की हवा खा चुके हैं. इसी तरह एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जिसे आईबी का निदेशक बनाया जा रहा था, उसके बारे में पता चला कि वह दिल्ली में तैनात महिला सीआईए अधिकारी हेदी अगस्ट के लिए काम कर रहा था. तब उसे नौकरी से जबरन रिटायर किया गया. भेद खुला कि सीआईए ही उस आईपीएस अधिकारी को आईबी का निदेशक बनाने के लिए परोक्ष रूप से लॉबिंग कर रही थी. 'रॉ' में गद्दारों की लंबी कतार लगी है. 'रॉ' के दक्षिण-पूर्वी एशिया मसलों के प्रभारी व संयुक्त सचिव स्तर के आला अफसर मेजर रविंदर सिंह का सीआईए के लिए काम करना और सीआईए की साजिश से फरार हो जाना भारत सरकार को पहले ही काफी शर्मिंदा कर चुका है.
रविंदर सिंह जिस समय 'रॉ' के कवर में सीआईए के लिए क्रॉस-एजेंट के बतौर काम कर रहा था, उस समय भी केंद्र में भाजपा की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. वर्ष 2004 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार आने के बाद रविंदर सिंह भारत छोड़ कर भाग गया. अराजकता का चरम यह है कि उसकी फरारी के दो साल बाद नवम्बर 2006 में 'रॉ' ने एफआईआर दर्ज करने की जहमत उठाई.
मेजर रविंदर सिंह की फरारी का रहस्य ढूंढ़ने में 'रॉ' को आधिकारिक तौर पर आजतक कोई सुराग नहीं मिल पाया. जबकि 'रॉ' के ही अफसर अमर भूषण ने बाद में यह रहस्य खोला कि मेजर रविंदर सिंह और उसकी पत्नी परमिंदर कौर सात मई 2004 को राजपाल प्रसाद शर्मा और दीपा कुमारी शर्मा के छद्म नामों से फरार हो गए थे. उनकी फरारी के लिए सीआईए ने सात अप्रैल 2004 को इन छद्म नामों से अमेरिकी पासपोर्ट जारी कराया था.
इसमें रविंदर सिंह को राजपाल शर्मा के नाम से दिए गए अमेरिकी पासपोर्ट का नंबर 017384251 था. सीआईए की मदद से दोनों पहले नेपालगंज गए और वहां से काठमांडू पहुंचे. काठमांडू में अमेरिकी दूतावास में तैनात फर्स्ट सेक्रेटरी डेविड वास्ला ने उन्हें बाकायदा रिसीव किया. काठमांडू के त्रिभुवन हवाई अड्डे से दोनों ने ऑस्ट्रेलियन एयरलाइंस की फ्लाइट (5032) पकड़ी और वाशिंगटन पहुंचे, जहां डल्स इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर सीआईए एजेंट पैट्रिक बर्न्स ने दोनों की अगवानी की उन्हें मैरीलैंड पहुंचाया.
मैरीलैंड के एकांत आवास में रहते हुए ही फर्जी नामों से उन्हें अमेरिका के नागरिक होने के दस्तावेज दिए गए, उसके बाद से वे गायब हैं. पीएमओ ने रविंदर सिंह के बारे में पता लगाने के लिए 'रॉ' से बार-बार कहा लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला, जबकि 'रॉ' प्रधानमंत्री के तहत ही आता है. इस मसले में 'रॉ' ने कई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के निर्देशों को भी ठेंगे पर रखा. रविंदर सिंह प्रकरण खुलने पर 'रॉ' के कई अन्य अधिकारियों की भी पोल खुल जाएगी, इस वजह से 'रॉ' ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया.
विदेशी एजेंसियों के लिए क्रॉस एजेंसी करने और अपने देश से गद्दारी करने वाले ऐसे कई 'रॉ' अधिकारी हैं, जो पकड़े जाने के डर से या प्रलोभन से देश छोड़ कर भाग गए. मेजर रविंदर सिंह जैसे गद्दार अकेले नहीं हैं. 'रॉ' के संस्थापक रहे रामनाथ काव का खास सिकंदर लाल मलिक जब अमेरिका में तैनात था तो वहीं से लापता हो गया. सिकंदर लाल मलिक का आज तक पता नहीं चला. मलिक को 'रॉ' के कई खुफिया प्लान की जानकारी थी.
बांग्लादेश को मुक्त कराने की रणनीति की फाइल सिकंदर लाल मलिक के पास ही थी, जिसे उसने अमेरिका को लीक कर दिया था. मलिक की उस कार्रवाई को विदेश मामलों के विशेषज्ञ एक तरह की तख्ता पलट की कोशिश बताते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने अपनी बुद्धिमानी और कूटनीतिक सझ-बूझ से काबू कर लिया.
मंगोलिया के उलान बटोर और फिर इरान के खुर्रमशहर में तैनात रहे 'रॉ' अधिकारी अशोक साठे ने तो अपने देश के साथ निकृष्टता की इंतिहा ही कर दी. साठे ने खुर्रमशहर स्थित 'रॉ' के दफ्तर को ही फूंक डाला और सारे महत्वपूर्ण और संवेदनशील दस्तावेज आग के हवाले कर अमेरिका भाग गया. विदेश मंत्रालय को जानकारी है कि साठे कैलिफोर्निया में रहता है, लेकिन 'रॉ' उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया. 'रॉ' के सीनियर फील्ड अफसर एमएस सहगल का नाम भी 'रॉ' के भगेड़ुओं में अव्वल है.
लंदन में तैनाती के समय ही सहगल वहां से फरार हो गया. टोकियो में भारतीय दूतावास में तैनात 'रॉ' अफसर एनवाई भास्कर सीआईए के लिए क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. वहीं से वह फरार हो गया. काठमांडू में सीनियर फील्ड अफसर के रूप में तैनात 'रॉ' अधिकारी बीआर बच्चर को एक खास ऑपरेशन के सिलसिले में लंदन भेजा गया, लेकिन वह वहीं से लापता हो गया. बच्चर भी क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. 'रॉ' मुख्यालय में पाकिस्तान डेस्क पर अंडर सेक्रेटरी के रूप में तैनात मेजर आरएस सोनी भी मेजर रविंदर सिंह की तरह पहले सेना में था, बाद में 'रॉ' में आ गया.
मेजर सोनी कनाडा भाग गया. 'रॉ' में व्याप्त अराजकता का हाल यह है कि मेजर सोनी की फरारी के बाद भी कई महीनों तक लगातार उसके अकाउंट में उसका वेतन जाता रहा. इस्लामाबाद, बैंगकॉक, कनाडा में 'रॉ' के लिए तैनात आईपीएस अधिकारी शमशेर सिंह भी भाग कर कनाडा चला गया. इसी तरह 'रॉ' अफसर आर वाधवा भी लंदन से फरार हो गया. केवी उन्नीकृष्णन और माधुरी गुप्ता जैसे उंगलियों पर गिने जाने वाले 'रॉ' अधिकारी हैं, जिन्हें क्रॉस एजेंसी या कहें दूसरे देश के लिए जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सका.
पाकिस्तान के भारतीय उच्चायोग में आईएफएस ग्रुप-बी अफसर के पद पर तैनात माधुरी गुप्ता पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी के साथ मिल कर भारत के ही खिलाफ जासूसी करती हुई पकड़ी गई थी. माधुरी गुप्ता को 23 अप्रैल 2010 को गिरफ्तार किया गया था. इसी तरह अर्सा पहले 'रॉ' के अफसर केवी उन्नीकृष्णन को भी गिरफ्तार किया गया था. पकड़े जाने वाले 'रॉ' अफसरों की तादाद कम है, जबकि दूसरे देशों की खुफिया एजेंसी की साठगांठ से देश छोड़ कर भाग जाने वाले 'रॉ' अफसरों की संख्या कहीं अधिक है.
'जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से हम सब मर-मर के जीते हैं, वो सुबह कभी तो आएगी..!
अलविदा 🙏🙏