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बुधवार, 15 नवंबर 2017

★कथा कूप★

===कथा कूप==
स्वाति नक्षत्र की वेला थी, आसमान में घने बादल घुमड़ तो रहे थे, लेकिन बरसने का नाम नहीं ले रहे थे। नीचे खेतों की प्यासी जमीन बूंदों की टिप-टिप को तरस रही थी।

बादलों में बसने वाली जलराशि में समाहित बूंदें खेतों की प्यास देखकर विह्वल हो उठीं।उन्होंने बादल से विनती की - 'तात, अब हमें अपने आंचल से मुक्त करो और धरती पर बरस जाने दो। नीचे प्यासी धरती और प्राणियों को हमारी बहुत जरूरत है।"

यह सुनकर बादल बोला -'अरी बूंदो, तुम क्यों उतावली हो रही हो, क्या तुम्हें आसमान में हमारे साथ यूं स्वच्छंद विचरना अच्छा नहीं लग रहा?
देखो कितनी सुंदर हवा चल रही है। कुछ समय और इसका आनंद लो। आसमान में उड़ने का अपना ही मजा है। मैं तुम्हें बड़ी मुश्किल से जमीन से उठाकर आसमान में लाया हूं।"
यह सुनकर बूंदों ने कहा - 'हमें आसमान नहीं, जमीन चाहिए। ऐसे उडने में क्या आनंद, जो हम किसी का भला न कर सकें। इससे तो अच्छा है कि हम नीचे वालों के साथ आत्मसात् बनकर क्यों न जिएं।"

लेकिन बादल फिलहाल उन्हें मुक्त करने के लिए राजी नहीं था। वह उन्हें अपने आंचल में ही समेटे रखना चाहता था। उसे बरसने की जल्दी नहीं थी।
लेकिन उन बूंदों में से एक बूंद तुरंत नीचे गिरने के लिए मचल उठी। उसकी सहेलियों ने उसे समझाया कि वह अकेले कुछ नहीं कर पाएगी और फिलहाल न गिरने में ही समझदारी है, लेकिन वह नहीं मानी। वह आगे-पीछे सोचे बिना धरती की ओर टपक ही पड़ी।हवा भी उसका साथ नहीं दे रही थी। लेकिन वह नन्ही बूंद अपनी पूरी शक्ति लगाकर प्यासे खेत की ओर बढ़ी जा रही थी।
उसका सोचना था कि मन मसोसकर क्यों रहा जाए और अपनी सामर्थ्य से जितना बन पड़े, दूसरों की भलाई की दिशा में प्रयत्न क्यों न किया जाए।
बूंद बहुत दूर नहीं चल सकी और जहां भी बन पड़ा, वहीं बरस पड़ी। सरोवर तट पर बैठी हुई सीप ने उसकी ममता को परखा और मुंह खोल दिया - 'आओ बहन, मैं तुम्हें अपने कलेजे से लगाकर रखूंगी। तुमसे बढ़कर कौन है इस दुनिया में, जिसे मैं अपना बनाऊं।
" सीप और स्वाति बिंदु का संयोग मोती बन गया।"
★ अनुदानी और भाव पारखी
दोनों धन्य हो गए।★

        जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'
              (किस्सा जो पढ़ा था कही)

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

★कथा कूप★

बहुत पुराने समय की बात है।भारत वर्ष में  एक नृप का चक्रवर्ती शाशनथा, उनके कुलगुरु और कुलपुरोहित नीति और ज्ञान की बातें समझाते रहते थे।
निरन्तर युद्ध में जीतने के बाद राजा का ध्वज अखण्ड भारत पर गर्व से लहराता जा रहा था ।
निरन्तर प्राप्त होती विजय श्री और बढ़ते शाशन क्षेत्र के प्रभुत्व ने राजन के मस्तिष्क में गर्व की भावना कब अभिमान में परिवर्तित हुई उनको स्वम अहसास न हुआ ।
एक बार राजा ने घमंड से चूर होकर कुलगुरु से कहा, 'गुरुदेव, आज  मैं अब चक्रवर्ती सम्राट हो गया हूं....
अब मैं हजारों-लाखों लोगों का रक्षक हूं....
मेरे कंधों पर उन सब की जिम्मेदारी है।'
कुलगुरु समझ गए कि मेरे यजमान को सर्वसत्ताधीस  होने की अवभिव्यक्ति का घमंड हो गया है। यह घमंड उसकी संप्रभुताको हानि पहुंचा सकता है। इस घमंड को तोड़नेके लिए कुलगुरु ने एक उपाय सोचा...
जब एक दिन शाम को राजा और कुलगुरु भ्रमण कर रहे थे तभी राजा को एक बड़ा सा पत्थर दिखा। कुलगुरु ने उस पत्थर की ओर इशारा करते हुए कहा 'राजन! जरा इस पत्थर को तोड़ कर तो देखो।
'राजा ने अत्यंत नम्र भाव से अपने बल से वह पत्थर तोड़ डाला।
किन्तु यह क्या!
पत्थर के बीच में बैठे एक जीवित मेंढक को एक पतंगा मुंह में दबाए देख कर राजा दंग रह गया।

कुलगुरु ने राजा से पूछा, 'पत्थर के बीच बैठे इस मेंढक को कौन हवा-पानी और खुराक दे रहा है? इसका पालक कौन है? कहीं इसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी तुम्हारे ही कंधों पर तो नहीं आ पड़ी है?'
राजा को अपने कुलगुरु के प्रश्न का आशय समझमें आ गया। वह इस घटना से पानी-पानी हो कर कुलगुरु के आगे नतमस्तक हो गया।
तब कुलगुरुने कहा, 'चाहे वह तुम्हारे राज्य की प्रजा हो या दूसरे प्राणी, पालक तो सबका एक ही है- परमपिता परमेश्वर।हम-तुम भी उसी की प्रजा हैं, उसी की कृपा से हमें अन्न और जल प्राप्त होता है। एक शाशक के रूप में तुम उसी के कार्यों को अंजाम देते हो। इसीलिए हमारे भीतर पालनकर्ता होने का घमंड कभी नहीं आना चाहिए।'

#सारांश -: किसी भी कार्य के लिए हम सब मात्र निमित्त हे जिसका कर्ता स्वम को समझ सर्वश्रेठता का प्रदर्शन करना सबसे बड़ी भूल हे ।
क्योंकि धन्वन्तरि वैद्य को भी मृत्यु के समय औषधि प्राप्त न हुई थी ।

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...