शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

★कथा कूप★

बहुत पुराने समय की बात है।भारत वर्ष में  एक नृप का चक्रवर्ती शाशनथा, उनके कुलगुरु और कुलपुरोहित नीति और ज्ञान की बातें समझाते रहते थे।
निरन्तर युद्ध में जीतने के बाद राजा का ध्वज अखण्ड भारत पर गर्व से लहराता जा रहा था ।
निरन्तर प्राप्त होती विजय श्री और बढ़ते शाशन क्षेत्र के प्रभुत्व ने राजन के मस्तिष्क में गर्व की भावना कब अभिमान में परिवर्तित हुई उनको स्वम अहसास न हुआ ।
एक बार राजा ने घमंड से चूर होकर कुलगुरु से कहा, 'गुरुदेव, आज  मैं अब चक्रवर्ती सम्राट हो गया हूं....
अब मैं हजारों-लाखों लोगों का रक्षक हूं....
मेरे कंधों पर उन सब की जिम्मेदारी है।'
कुलगुरु समझ गए कि मेरे यजमान को सर्वसत्ताधीस  होने की अवभिव्यक्ति का घमंड हो गया है। यह घमंड उसकी संप्रभुताको हानि पहुंचा सकता है। इस घमंड को तोड़नेके लिए कुलगुरु ने एक उपाय सोचा...
जब एक दिन शाम को राजा और कुलगुरु भ्रमण कर रहे थे तभी राजा को एक बड़ा सा पत्थर दिखा। कुलगुरु ने उस पत्थर की ओर इशारा करते हुए कहा 'राजन! जरा इस पत्थर को तोड़ कर तो देखो।
'राजा ने अत्यंत नम्र भाव से अपने बल से वह पत्थर तोड़ डाला।
किन्तु यह क्या!
पत्थर के बीच में बैठे एक जीवित मेंढक को एक पतंगा मुंह में दबाए देख कर राजा दंग रह गया।

कुलगुरु ने राजा से पूछा, 'पत्थर के बीच बैठे इस मेंढक को कौन हवा-पानी और खुराक दे रहा है? इसका पालक कौन है? कहीं इसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी तुम्हारे ही कंधों पर तो नहीं आ पड़ी है?'
राजा को अपने कुलगुरु के प्रश्न का आशय समझमें आ गया। वह इस घटना से पानी-पानी हो कर कुलगुरु के आगे नतमस्तक हो गया।
तब कुलगुरुने कहा, 'चाहे वह तुम्हारे राज्य की प्रजा हो या दूसरे प्राणी, पालक तो सबका एक ही है- परमपिता परमेश्वर।हम-तुम भी उसी की प्रजा हैं, उसी की कृपा से हमें अन्न और जल प्राप्त होता है। एक शाशक के रूप में तुम उसी के कार्यों को अंजाम देते हो। इसीलिए हमारे भीतर पालनकर्ता होने का घमंड कभी नहीं आना चाहिए।'

#सारांश -: किसी भी कार्य के लिए हम सब मात्र निमित्त हे जिसका कर्ता स्वम को समझ सर्वश्रेठता का प्रदर्शन करना सबसे बड़ी भूल हे ।
क्योंकि धन्वन्तरि वैद्य को भी मृत्यु के समय औषधि प्राप्त न हुई थी ।

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