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सोमवार, 16 सितंबर 2019

गाँव चलिए

#गाँव_चलिए

मत समझो पत्थरों की दुनिया को सब कुछ,
गर तुमको देखनी है ज़िंदगी, तो गाँव चलिए !

मिटा डाला है जो क़ुदरत का सामान तुमने,
गर तुमको देखना है फिर से, तो गाँव चलिए !

तुम्हें कैसे रास आती हैं ये शहर की हवाएं,
गर सांस लेना है तुम्हें चैन की, तो गाँव चलिए !

क्यों घुमते फिरते हो तुम न जाने कहाँ कहाँ,
है देखना कुदरत का खज़ाना, तो गाँव चलिए !

न जानता है कोई इधर कि कोंन है पड़ोस में,
अगर देखने हैं दिलों के रिश्ते, तो गाँव चलिए !

सूरज की रौशनी भी न देख पाते कुछ लोग तो,
गर देखना है ऊषा का आँचल, तो गाँव चलिए !

यूं किस तरह से जीते हो इस शोरगुल में यारो,
गर सुननी है कूक कोकिल की, तो गाँव चलिए !

मिटा डाली है गरिमा ही तुमने हर त्यौहार की
गर तुमको देखने हैं ढंग असली, तो गाँव चलिए !

सोने चांदी से पेट भरता नहीं किसी का भी दोस्त,
गर तुमको देखना है अन्नदाता, तो गाँव चलिए !!!
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गुरुवार, 22 नवंबर 2018

मेरे गीत'मेरी रणभूमि'

माना की क्षत्रिय जन्मना कर्मणा मृत्यु योग पूर्ण होगा,
कन्धे पर सितारे न सही स्वभार प्रभार तारो से कम होगा !

पल पल खुद से खुद की खुदाई बाली जंग लड़ता हु,
साँस तोड़ती दिनदारी में लोहे से लोहा लह क्षत्रिय बनता हु !

समय समय असमय असमंजस में अकेला खड़ा मिलता हु,
कर्म धर्म रूचि सूचि सी सजी चतुरंगिणी नित युद्ध में मिलता हूँ!

बुरे भले का बोध माता ने बाल्यपन सींचा आज बटवृक्ष्यअड़िग हूँ,
हटी घमण्डी धर्मज्ञ अर्जुनसुत चक्रव्यूह वेदज्ञ अभिमन्यु में जूझगतिज्ञ हूँ!

भीष्म सा अटल शिद्धान्त यदा कदा सरसैया सर का सिरहाना मिला,
में तो फिर कलयुगी नराधम ठहरा जो कराह मिली शत का इकहरा मिला!

समयगति तू सर्त लगा अवगति में कोन किससे तीव्र धाता हे ,
मन्द मन्दर रहु तीव्र निरन्तर विजय वीरगति
दोनों मेरी ही गाथा हे !

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जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'

बुधवार, 14 नवंबर 2018

साक्ष्य इस जहां के

चमचमाती सड़कों पर बड़े-बड़े होर्डिंगों में हाथ जोड़े धर्माचार्य,
होर्डिंगों के नीचे घिरी जगह में हाथ देकर ग्राहक रोकती वेश्याएं .....
ये एक साथ होना था
मेरे ही वक्त में...........!!!!!

भूखें बच्चों की मौत की खबरों के बीच मस्ती में झूमते,चार्टड जेट से उतरती दुल्हन,
अपराधियों के बच्चों के ऊपर चावल फेंकते जननायक.....
एक ही पेज पर भूख और भूख को साथ होना था.....
ये एक साथ होना था
मेरे ही वक्त में...!!!!!!

कांपतें हुए हाथों से मांगनी थी सड़क किनारे रोटी,
उन्हीं हाथों से राजतिलक होना था.....
भीख मांगना रोटी का,
और भीख देना सत्ता की......!
ये एक साथ ही होना था
मेरे ही वक्त में....!!!!

एक साथ चलनी थी दोनो तस्वीरें....
मंगलयान पर कामयाबी से झूमते हुए!
और पेड़ पर लटकी लाश पर रोने वाले
दोनो पर हुलसते और झुलसते हुए....!
जननायकों को रोना था और गाना था
लेकिन चेहरों पर कई बार धोने पर भी
वो रो रहे है या गा रहे.....!!!!!
मुश्किल था ये पता लगाना

ये एक साथ ही होना था
मेरे ही वक्त में......!😑
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जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

में बदल गया हु माँ...!

===बदल गया हु,शहर आने से==

मां
तुमने रोक क्यों नहीं लिया,
मुझे इस शहर आने से...!
कितना आसान था
तेरे पास
सच को सच
झूठ को झूठ कहना....!!

तुम्हारे आशीष सदा सच बोलने के
चुभ रहे है
अब.....?
किसका सच बोलूं
दफ्तर का......घर का.....रास्तों का...!

किससे सच बोलूं.....!
बॉस से.....दोस्त से ...दुकानदार से
या
इन सबसे अलग
अपने आप को ......!!

शीशे में देखकर सच बोलूं.....?
दिन भर जो शरीर गतिमान रहता है,
रात को घावों से टपकता दर्द बन जाता है....।

कितना आसान था
मां....!
विश्वास कर लेना
सहजता से ......
दुख
सुख
प्यार
दुत्कार...!!!!

पर
न जाने क्यों.....?

अब विश्वास नहीं होता
भीख मांगते भिखारी की दयनीयता पर...!
झुंझला सा जाता हूं,
मदद के अनुग्रह पर...!!

मां
कितना मुश्किल था,
तेरे पास ये मान लेना......
कि चोर दिन में भी निकलते होंगे.....!!!

जीत शेर की नहीं
सियार की होंगी
खरगोश जिंदा नहीं रहेगे
बिना दांतों के ...!!!!

यहां
अब
कितना सहज हो गया हूं....?
रोज मरते हुये
लोगों के बीच से गुजरते हुये ......!!

मां
याद ही नहीं आती
तेरी सुनायी हुई कहानी.....!
कि
आखिर में जीत हुयी सही इंसान की,
कितना सरल था
दोस्त.दुश्मन पहचानना.......!!!!

मां
मुझे रोक लेती ....!!
तो
अब बहुत कठिन नहीं रहता
मुझे सच और झूठ के बीच निकलना......

मां
वहां
आज भी डरता मैं ....
पेड़ों पर उल्टे लटके चमगादडों से,
गांव के कोनों पर बनीं बांबियों से
दिन में कहानी सुनने से......!!!!

अब
ये सब बकवास लगते है
मां तुमने रोक क्यों नहीं लिया
मुझे शहर आने से......!!!!
....................

        जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018

आहा जिंदगी (गजल)

ज़रा सी है ये ज़िन्दगी, तक़रार क्याकरना ,
जब रहना है साथ साथ, तो रार क्या करना !

दुखित है वैसे भी मन, तमाशे देख दुनिया के,
फिर भरे बाज़ार में, तमाशा यार क्या करना !

काट लो खुशियों से, बची है जो ज़िंदगी यारो,
इसके लिए भी यूँही, नख़रे हज़ार क्या करना !

झेली हैं हमने मुश्किलें, वह अपना करम था ,
अपने लिए किसी और को, लाचार क्या करना !

न जीत पाया कोई भी, इन नफरतों के खेल में,
ज़िंदगी के सफर में, किसी पे वार क्या करना !

,(एक वर्ष पहले फेसबुक )

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

क्या क्या थे तुम

टूटे ख्वाबो के बिखरने से सजे हुए अरमान थे तुम,
बिखरी आशाओ के आश लगाये मेहरबान थे तुम।

सर पे  सजाना चाहा था तुमको बो सम्मान थे तुम,
कुछ सधे सम्भलते कदम रख रहे हो बन्दा परवर।

कही न कही कभी कभी न कभी मुझे देखते हो ,
अब बेतकल्ल्उफि से खुद को खुदाई रखते हो।

नुपुर सी ध्वनि नीरजवृत्त दृगदृस्टि सदृश हो तुम,
सम समान आत्मा आत्मनिधान कृष्ट् बहुदृश् हो तुम।

स्पर्श अभिप्राय नहीं  कदापि समभाज्य विधान हो तुम,
बिबर से शिखर तक पुनः पाये अप्राप्य श्रद्धान हो तुम।

सोचता हु 'इति श्री शिद्धयम' मान प्रस्थान कर दू ,
पुनः विस्मरण न कर सकु ऐसा ध्यान दृष्टान हो तुम........

                 🚩🌷🚩

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...