===बदल गया हु,शहर आने से==
मां
तुमने रोक क्यों नहीं लिया,
मुझे इस शहर आने से...!
कितना आसान था
तेरे पास
सच को सच
झूठ को झूठ कहना....!!
तुम्हारे आशीष सदा सच बोलने के
चुभ रहे है
अब.....?
किसका सच बोलूं
दफ्तर का......घर का.....रास्तों का...!
किससे सच बोलूं.....!
बॉस से.....दोस्त से ...दुकानदार से
या
इन सबसे अलग
अपने आप को ......!!
शीशे में देखकर सच बोलूं.....?
दिन भर जो शरीर गतिमान रहता है,
रात को घावों से टपकता दर्द बन जाता है....।
कितना आसान था
मां....!
विश्वास कर लेना
सहजता से ......
दुख
सुख
प्यार
दुत्कार...!!!!
पर
न जाने क्यों.....?
अब विश्वास नहीं होता
भीख मांगते भिखारी की दयनीयता पर...!
झुंझला सा जाता हूं,
मदद के अनुग्रह पर...!!
मां
कितना मुश्किल था,
तेरे पास ये मान लेना......
कि चोर दिन में भी निकलते होंगे.....!!!
जीत शेर की नहीं
सियार की होंगी
खरगोश जिंदा नहीं रहेगे
बिना दांतों के ...!!!!
यहां
अब
कितना सहज हो गया हूं....?
रोज मरते हुये
लोगों के बीच से गुजरते हुये ......!!
मां
याद ही नहीं आती
तेरी सुनायी हुई कहानी.....!
कि
आखिर में जीत हुयी सही इंसान की,
कितना सरल था
दोस्त.दुश्मन पहचानना.......!!!!
मां
मुझे रोक लेती ....!!
तो
अब बहुत कठिन नहीं रहता
मुझे सच और झूठ के बीच निकलना......
मां
वहां
आज भी डरता मैं ....
पेड़ों पर उल्टे लटके चमगादडों से,
गांव के कोनों पर बनीं बांबियों से
दिन में कहानी सुनने से......!!!!
अब
ये सब बकवास लगते है
मां तुमने रोक क्यों नहीं लिया
मुझे शहर आने से......!!!!
....................
जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'
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