मेरे शब्द इतने कातर न थे की तेरे नैनो से नीर बहा देते,
टटोला तो होता मनमहलो की ईंट तेरे करो से कुरिदवा-दवा देते !!
बिखरे खण्डहरों में बसाबट हो रही हे अब रात्रिचरो की ,
अँधेरे ही तुम्हारी रोशनियों की आशनाई हे
जरूरत कहा जुगनुओं की !
मानता हु कुरेदता हु तुम्हे अपना स्नेह समझाने को,
भूल थी साया,साया होता हे आत्मा चाहिए प्रतिमा बनाने को !
में नहीं मेरे शब्द फिर तुम्हे खोजते रहेंगे जुडाव इतना हे,
संयोग बनी प्रज्वलित लो तुम में मस्त पतंगा और मुझे जलना हे !
सागर में टूटी नाव का पतवार सा डूब तृप्त हो जाऊँगा,
अपने अपने हाल पे मलंग रहो ऋण-ऋण,धन हो जाऊँगा !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें