==='गजक' पुनः लुभाती हुई==
गजक और गुझिया में एक अद्भुत और अनदेखा सम्बन्ध हे और बो इनके प्रथक-पृथक स्वाद के होते हुए भी भारतीय ज्योतिस अनुसार "कुम्भ" राशि का होना।जेसे संगिनी और संगिनी अनुजा दोनों एक साथ आई हो घर के आँगन में।एक अपनी मर्यादा में सिमटी हुई सी और दूसरी अपनी स्वंत्रता के आभार में गली,कूचे,मोहल्ले,परिवार में तितली की तरह उन्मुक्त विचरण करती हुई अनायास ही थके हारे बुजुर्गो को आकर्षण में बांध अपनी मनमोहक सदावहार खुशबु से बत्सल्य बोध-स्मरण करती हुई .....!
एक का आगमन जहां जीवन में अतीव सुखद पलो में आगमन ...और चिरस्थाई होकर रह गयी चम्बल के उस पार!समेटे हुए भविष्य की तमाम सृजनताओ के मध्य अपनी मध्यस्तओ के चिरस्थायित्व को ....!
गजक आती हे भार्यानुजा की तरह....समय के साथ और एक आकर्षण,नूतन,नवेलापन,अल्हड़ता,उन्मुक्तता,के बीच केशरिया होती सर्सो के पुष्पो के मध्य ...जेसे पीले परिधानों की चुनरिया रख-रखी हो माथे पर ....!
गजक का आगमन लाता हे एकल युवाओ के लिए परिग्रणीक तमाम आशाये और खिले हुए आभामण्डल पर समानयोग की तमाम कल्पनायें ....! तमाम कल्पनाओ के मध्य मधुर युगल सहयात्रियों सी अपार सम्भावनाये वही गुझीया बेठी रहती हे एक अनुभवी विवाहिता की तरह सदाबहार .....सिमटी-लाज से दोहरी होती हुई और जानती हे की छुटको का आकर्षण छुटकुओ के लिए ही हे न......युगल बन्ध का दायित्व तो उसी को पूर्ण करना हे ।
गजक के आते ही जेसे गुझिया का चिर आकर्षण जेसे पतझट की तरह कुछ शुष्क हुआ क्योंकि नवांगतुक मोह ही कुछ और होता हे।गुझिया परिपक्व हे समझती हे की इसी गजक के नए नबेले आकर्षण में छिपा आगामी भविष्य का सृजन,मान-मर्यादाओ का आलम्बन और मनमुक्तता से,लाड से देखती हे अपने समक्ष्य नवयुगलों की सहभागिता में एक कागज के आधार पर गजक की मधुर मध्यस्तता.....दो युगलों के मध्य स्नेह का अंकुर डालते हुए ....छुदाअग्नि की तृप्ता के साथ साथ नयनाभिराम अदृश्य स्नेह अमृत का वर्षण करते हुए ......
मनमोहक मुस्कराहट के मध्य भविष्य की सृजन युक्ति को परिपक्व होते हुए ....
दो अभिर्नजनाओ को निकट और निकट सन्निकट आते हुए ....!
गजक आजकल बुजुर्गो की जेवो में कुर्ते की महक बनती जा रही और नन्हे-मुन्नों की कभी भी न पूर्ण होने बाली आकांक्षा भी ....।
बत्तु में आज गुझिया नहीं गजक की प्रधानता हे।बो पितामह को देखते ही चिल्लाते दौड़ते हे की "बाबा बत्तु लाये..?" और अपनी मनमाफिक बत्तु पाकर नाचने लगते हे जेसे लीलाधर श्रीकृष्ण जी पुनः माखन मिश्री प्राप्त करके "ठुमक-ठुमक नाचे कन्हैया नन्दबाबा के दुआर" का पुनः चलचित्रिकरन हो गया हो ।
बही दूर अपनी मर्यादाओ में लिपटी गुझिया अपनी उपेक्षाओं में भी बत्सल्यबोध करती निहाल हुई जाती हे और अंक में भर लाडले के केशो में उंगलियो की कंघी कर माथा चूम मातृयित्व का अथाह सागर बन जाती हे ......
वादियो का ही मेरा सागर हे वादियो सा विशाल भी
कुछ ठहर मुसाफिर दरख्तो की छाँव में देख मेरा गाँव भी ।।
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जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'
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