बुधवार, 9 सितंबर 2020

मुखाग्नि प्रेम की

हाथ मे ली हुई बीड़ी से सुट्टा खीचकर ढेर सारा धुंआ फिजाओ में छोड़ते रामआसरे चाचा कहि दूसरी दुनिया मे   गुम है !
अभी कल की ही तो बात है जब रामजानकी काकी का डोला लेकर आये थे, ओर आज काकी के सफेद होते बालो के साथ बढ़ती हुई झुर्रियों से  चेहरे भरे चेहरे पर उनका आकर्षण बिल्कुल भी खत्म नही हुआ था ।
सिर पर बंधे अंगोछे से पसीना मिश्रित आँशु जब-जब वह पोंछते है ,तब-तब उन्हें अपनी 'मुह पूछाई' रस्म स्मरण हो आती है और हृदय में उठते हुए दर्द में सहसा एक मुस्कुराहट आकर कहि गुम हो जाती है ।
लोगो के भारी कोलाहल के मध्य रामआसरे काका का मष्तिष्क व्यतीत में चला गया और बीते कल का चलचित्र  इतना स्पष्ट हुआ कि वह निश्चेत से होकर अपलक गुमनाम मुहब्बत में चले गए !


घुंघुरू बजाते बेलो के साथ एक किशोर हंकार-हंकार कर बैलों को उत्साहित कर रहा था कि पूरा 4 बीघा खेत जल्दी लग जाये तो गांव में जो रमैया आई है ...उसके साथ हंसी ठिठोली करेंगे और दोपहर भर सुस्ताएँगे पर उन्हें नही पता था कि रमैया आज घर चली जायेगी ।
भोली-गोपी भी अपने साथी के साथ दुगने जोश में चल रहे थे .....ओर 4 बीघा सितम से पहले जुत गया ।
जल्दी-जल्दी नारे बदल हल को खेत मे छोड़ रमसा काका घर पहुचे ओर चिल्लाए....

"ओ री रमैया जरा गुड़ के साथ पानी दे  दो बड़ी पियास लगी है !"

किन्तु न प्रतिउत्तर आया और नाही उम्मीद का मूर्तिरूप रमैया!
घर सूना था .....न वह खिलखिलाहट थी न वह चहल-पहल !
एक रमैया के जाते ही रमसा काका जैसे फुट-फुट कर रोने को आतुर थे ।

बात आई-गयी हुई और रमसा-रमैया की कहानी भी अतीत की परतों में कही दब गई ..!

कुछ वर्षों उपरांत रमसे का पाणिग्रहण हुआ और जब छिपते-छिपाते प्रथम भेंट को पहुंचे तो ....अवाक रह गए..!

दुल्हिन ने पाँव छूकर जब पहला शब्द बोला तो उसमें एक परिचित स्वर  सा लगा ...

" देखो जी पहले पहिचानिये फिर ही मुझे स्पर्श करना !"

परीक्षा की घड़ी ओर बालपन का स्नेह सजीब हो उठा ...कांपते होंठो से रमसा कह उठे

"रम....ममया ....रम ....रमैया..!"
ओर एक खिलखिलाहट से अटारी गूंज उठी


समय पंख लगाके उड़ता रहा .....किन्तु रमैया की गौद सुनी रही। जन्हा सुना वही दोनो दौड़े जाते ...हजार पत्थर पूज कर भी रमैया-रमसे  सन्तान सुख से वंचित थे!
 रमसे-रमैया की जोड़ी को लोग प्रातः देखना पसंद नही करने लगे ....कहते कि बांझ का मुह देखना निकृष्ठ होता है और लोग भूलके मिलते भी तो मुंह बनाकर जमीन पर ठुकथूका के चलते बनते ।

वंही रमैया ने अतिरिक्त बात्सल्य स्नेह को अपने रमसा ओर पालतू जांनंबरों को देना प्रारम्भ कर दिया ..
समय के साथ घर-जमीन सबका बंटबारा हुआ पर रमसे का दिल आज भी साझा था ....वह तो प्रेम का अशेष सागर था जो सदैव हिलोरों में रहता था ।
अपने खेतों की फसल ओर अपनी रमैया यही जीवन था !

कभी-कभी रमैया दुखी होती और रमसे के सिर को गोद का सिरहाना देकर कहती कि .....' अ जी तुम चाहते तो दूसरा विवाह कर सकते थे न,फिर क्यों सिर्फ मुझे ही निहारते रहे ?"

रमसे मोन रमैया की आंखों में निहारते हुए कहने लगे ....
"तूने क्यों इतने सम्बन्ध तोड़ सिर्फ मुझे ही साथी चुना !"

"साथी!"
रमैया सिर्फ इतना बोल पाई और हिचकियो के साथ हिलकारे ले उठी !

"तुम्हे याद नही होगा जब मे जिजी के साथ आई थी ,में ओर तुम दोनों खूब लड़ते थे !"
"....लेकिन तुमने उस दिन जान जोखिम में डालकर मुझे बचाया था।"

"याद है वह जंगली भेड़िये से तुम्हारा भिड़ना, मुझे परेह धकेल ...उसका निबाला बनने की आतुरता सिर्फ प्रेम में होती है !"

"वह निश्चल ,निःस्वार्थ प्रेम मेने तुम्हारे गज भर सीने के अंदर स्पंदित होते हृदय में स्पस्ट सुना था!"
"सुना था कि रक्त की हर वृन्द में सिर्फ रमैया बसति है फिर रमैया अपने प्रियतम मन से दूर कैसे रह सकती है ?"

"सुनो! जीवन मे कितने भी बदलाव आए पर में चाहूंगी कि में जब तन छोड़ू मेरा प्रियतम बस मुझे यू ही निहारे ..."
"उम्र का क्या है बालपन का प्रेम ,यौवन का समर्पण बना और प्रौढ़ आते-आते सहचर होने का प्रमाण भी !"

"में चाहूंगी कि में जब भी इस दुनिया को छोड़ू ,तुम मेरे सफेद बालों की लट से हमेशा मेरा चेहरा छुपने से बचाते रहो!"
"तुम कहते थे न!रमैया बालो की अलका से बड़ी जलन होती है जो मुझे तेरे दर्श के मध्य एक अवरोधक बनके बार-बार पूर्ण चन्द्र देखने से रोकती है !"
प्रेमभाव का सावन-भादो वर्ष पड़ा और रमैया के समर्पण का रमसे आभारी हो गया ।

"सुनो!"
'भगवान न करे कि कभी ऐसा समय आये में तुम्हे न पहिचान पाउ पर.....तुम मेरी पहिचान बने रहना !"
रमैया प्रेम चर्चा और रमसे प्रेम श्रोता बने उसकी गोद मे सिर रखे ही सो गए ...।


व्यतीत समय निकलता रहा और रमैया-रमसे का प्रेम प्रगाढ़ होता रहा किन्तु समय के प्रभाव से कोन बचा है......ओर एक दिन रमैया ऐसी गिरी की फिर उठ न पाई ....रीढ़ रमैया की क्षतिग्रस्त हुई थी और बाबले रमसे हो गए ...!!
बैलगाड़ी हांकते रमसे के शब्दों में हंकार नही थी और रेलगाड़ी की ध्वनि में उन्हें रमैया के नूपुर झनकते सुनाई दे रहे थे ..!

बड़े चिकित्सालय में रमैया के पास बैठे-बैठे रमसे काका बार उस अलका को पुनः रमैया के चेहरे पर देखने की लालसा में बैठे रहते की लट घूमे ओर वह उस लट को पुनः एक ओर कर पाए !


नजदीक बेड पर लेटा एक युवा यह रोज देखता ओर पूछता की .....
"बाबा क्यों आप इनके पास पूरा दिन-रात बेठे रहते हो ?"
'जबकि इनमे पहिचानना तो दूर कोई चेष्ठा भी शेष नही दिखती ...आप कुछ समय बाहर भी बैठ लिया कीजिये ...!"

रमसे...
"बेटा....यह मेरी वह सहचरी है जिसने मुझे  करोड़ो में पहिचाना था.....!"
"चलो ठीक आज मुझे नही जानती पर में तो इसे पिछले 6 दसको से जानता हूं न!"

"पता नही कब इसकी आंख खुले और में न होऊ तो इसको दर्द होगा क्योंकि हमने तो विवाह बाद भी साथ-साथ रहने के लाखों वादे किए थे !"

ओर अंतिम पिय दर्श को रमैया की आंखे गंगा-जमुना बन गयी ..।
वह जगी .....कांपते हाथ से रमसे का सिर अपने सीने पर  रख अपने अस्ताचल की राह को चली गयी ....!





श्मशान पर रमैया का पार्थिव शरीर रखा था ....रमेसर काका मुह से बीड़ी लगाए धुंआ उगल रहे थे ....!!
तमाम तैयारी उपरांत जब मुखाग्नि के लिए रमेसर काका को पुकारा वह पूर्व की तरह शांत थे ....
बुलाने पर जब न बोले तो हिलाने पर एक तरफ को लुढ़क गए ...
ओर मुंह से निकली बीड़ी की चिंगारी ने अंतिम धूम्र प्रकट किया .....देखते ही देखते ,रमेसर ओर रमैया की कहानी फिजाओ में घुलने लगी ...!!!!!!

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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

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