#गद्दारो_की_हवेली
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पढ़ते अथवा सोचते ही रोंगटे खड़े हो जाते ही कि कहि कोई हमारे साथ ऐसा विश्वाशघाती तो नही जिसके रक्त से प्लाज्मा अलग हो गया हो! कंही कोई ऐसा तो नही जो स्वार्थ शिद्धि पूर्ण करने के लिए दुश्मन खेमे जा मिला हो !!कहीं कोई ऐसा तो नही जो मुस्कुराते हुए गले तो लगे किन्तु गला रेतने से पहले कुछ भी न सोचें !!!
जी हां!.....
बाग़ियों ,दस्युओं, चम्बल श्रंखला संस्करण में आपको चम्बल से काफी परिचित कराया, अब परिचय देता हूँ एक ऐसे द्रोही का जिसकी हवेली को 'रक्त हवेली' का बदनुमा नाम दाग मिला और जिसे भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा गद्दार बोला गया .....!जिसके दगा के कारण भारत को लगभग 200 वर्षो तक ब्रितानी हुकूमत की दासता झेलने पड़ी और 'सोने की चिड़िया' बोला जाने बाला महान दो सदियों तक लूटा जाता रहा ।
1733 में पैदा हुए नवाब सिराजुद्दोला की अपनी हत्या के समय महज़ 24 साल की उम्र थी।अपनी मौत से साल भर पहले ही अपने नाना की मौत के बाद, उन्होंने बंगाल की गद्दी संभाली थी! ये वही वक्त था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी उपमहाद्वीप में अपने कदम जमाने की कोशिश कर रही थी ।
सिराजुद्दौला को कम उम्र में नवाब बनाए जाने से उनके कई रिश्तेदार खफा थे....ख़ास तौर से उनकी खाला घसीटी बेग़म ! सिराजुद्दौला ने नवाब बनने के थोड़े ही समय बाद उन्हें क़ैद करवा दिया था!
सैना बढ़ते असमांजस्य के चलते नवाब ने प्रायोगिक तौर पर बरसों से बंगाल के सेनापति रहे मीर जाफर की जगह मीर मदान को प्रमुखता दी......परिणाम वही 'सिल्हारे को सिल्हारे की जलन'..... इससे मीर जाफर नवाब से बुरी तरह खफ़ा हो गया ।
उन्ही दिनों फिरंगी अपने पाँव पसारने के लिए जगह तलाश रहे थे और उन्हें तलाश थी एक ऐसे भेदीये की जो उनकी राह के रोडा बनते नबाब की सुदृण व्यवस्था में सेंध लगा सके और उनकी तलाश शीघ्र ही अंसतुष्ट ओर सत्ता लालची मीर जाफर के रूप में पूर्ण हुई ।
एक गुप्त स्थान और मध्यस्थ के माध्यम से फिरंगी सेनापति क्लाइव -जाफर की गुप्त मंत्रणा हुई .....सड़यंत्रो की खाई खोदी गयी, अनुबंध हुआ और ब्रिटिश सेना ने आक्रमण कर दिया ।
नबाब की स्थिति चहुओर घिरे शिकार जेसी थी क्योंकि उत्तर से अब्दाली ओर पश्छिम से मराठो का अतिक्रमण पहले ही था....पूरी शक्ति से आकमण करना भी एक ओर से दुश्मन को जीतने का खुला आमंत्रण था। प्रतिकार स्वरूप बंगाल के तीनों मोर्चे सम्भालती विशाल फ़ौज की शक्ति प्रति मोर्चा एक तिहाई से कम हो गयी ।
फ़ौज के एक हिस्से के साथ वो प्लासी पहुंचे.... मुर्शिदाबाद से कोई 27 मील दूर डेरा डाला गया... 23 जून को एक युद्ध में सिराजुद्दौला के विश्वासपात्र मीर मदान की मौत हो गई.... नवाब ने सलाह के लिए मीर जाफर को सन्देश भेजा.....और मीर जाफर ने सलाह दी कि युद्ध रोक दिया जाए. ....नवाब ने मीर जाफर की सलाह मानने की भारी कर दी जिसकी परिणीति बंगाल और नबाब दोनो भूगतनी थी ।
युद्ध विराम कर दिया गया....! नवाब कि फ़ौज वापस कैंप लौटने लगी..... मीर जाफर ने रॉबर्ट क्लाइव को स्थिति समझा दी...!
क्लाइव ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया, एकाएक हुए अप्रत्याशित हमले से सिराज की सेना बौखला गई... तितर-बितर होकर बिखर गई....जब तक कुछ समझ पाते क्लाइव ने लड़ाई जीत ली।नवाब सिराजुद्दौला को भाग जाना पड़ा....!
मीर जाफर तुरन्त अंग्रेज़ कमांडर से जाकर मिला ओर सहमति के अनुसार उसे बंगाल का नवाब बना दिया गया....दरअसल वह नाम का नवाब था सत्ता तो अंग्रेज़ों के हाथ लग चुकी थी।
प्लासी की लड़ाई से भागकर नवाब सिराजुद्दौला अधिक दिन आज़ाद नहीं रह सके,उन्हें पटना में मीर जाफर के सिपाहियों ने पकड़ लिया. ....मुर्शिदाबाद लाया गया. !
मीर जाफर के बेटे मीर कासिम ने उन्हें जान से मारने का हुक्म दिया!! 2 जुलाई 1757 को उन्हें मीरजाफर की हवेली में फांसी पर लटकाया गया. ...अगली सुबह, उनकी लाश को हाथी पर चढ़ाकर पूरे मुर्शिदाबाद शहर में परेड़ कराई गई....!!!!
कुछ समय ही मीरजाफर भी कठपुतली नबाब रहा ओर फिरंगियों उसी नीति के तहत जाफर के सेनापति पुत्र मीर कासिम द्वारा कलम कर दिया गया ,मीर कासिम नबाब तो बना किन्तु फिरंगी सत्ता के अधीन ओर भारत का एक क्षेत्र फिरंगियों के हाथ चला गया ।
मुर्शीदाबाद स्थिति मीरजाफर की हवेली को आज भी हराम अथवा हरामी के हवेली के रूप में बोला जाता है !
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यह आलेख लिखते चम्बल की एक लोकोक्ति स्मरण हो आयी..!
दगा किसी का सगा नही है ,नई मानो तो कर देखो!
जिन लोगो ने दगा किया है,जाकर उनके घर देखो!!
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