घर से दूर ट्यूबेल के तिबरिया पर बैठे ताऊ कहि शून्य में गुम है, वह लगातार बीड़ी के दीर्घ कस खींचते हुये फिजाओ में ढेर सारे धुंआ को छोड़ने के साथ ऐसा प्रतीत होते है जैसे धुंये के साथ जीवन श्वांस भी छोड़ने का प्रयास कर रहे हो..!
प्रणाम दाऊ !
मेरे अभिवादन शब्दो ने जैसे उन्हें कल्पना लोक से यथार्त लोक में ला दिया और पपड़ी पड़े ओठो से शुष्क सी मुस्कान के साथ स्नेह प्रस्फुटित हो गया !
"जीते रहो लले....कैसे हो ?"
- दाऊ बैलों से होती खेती मेने भी देख ली है पर इतना याद नही....आपसे आग्रह है कि कुछ अपने पुराने समय बाले किस्से सुनाइये ....!
बातो ही बातो मेरा जिज्ञासु मष्तिष्क उन्हें कुरेदने लगा और वह अपने कर्तव्यों की आधार बने सिर से अंगोछा उतारते हुए पुनः कही बीते हुए बिचरण करने लगे ओर मुझे उनकी आंखों में चलचित्रित होते भावो की नमी स्पष्ट महसूस हुई ..।
"यह जो 4 वर्षो से खड़ा ट्रेक्टर दिख रहा है न! मेने कभी नही सोचा था कि यह मेरी वृद्धता की तरह उपेक्षित हो जाएगा!"
"लाले!...मेने तो अपनी जवानी के समय एक बैलजोड़ी,जरार के मैला से खरीदी थी, उसे भी कभी नही बेचा !"
"जब हम किसी भी सजीव-निर्जीव बस्तु,स्थान,अथवा उससे जुड़ी भावना में लाभ-हानि देखने लगते है तो प्रेम का मूल बिलुप्त होकर सिर्फ और सिर्फ लाभ का भाव ही जीवित रह जाता है !"
अपनी यादों से जुड़ी भावनाओ में बिचरण करते हुए उन्होंने तनाव महसूस किया और ओठो से बीड़ी को जोड़ते हुए बीड़ी धुएं योग के साथ भावनाओ को दबाने के लिए लगातार कस खिंचने लगे !
एक सांस खींचते हुए पुनः बोल उठे ..…जैसे एक शून्य से दूसरे शून्य को जोड़कर योगफल शून्य ही खोज रहे हो !
"मेरा जमाना......जमाना ही नही भावों का अथाह सागर हुआ करता था!"
"आज की तरह पैसा भी नही था ,ओर इसके साथ-साथ उसका इतना महत्व भी नही था।"
"अलग-अलग कमरे भी नही थे....क्या हृदय भी अलग-अलग नही थे। एक को हल्का दर्द हुआ पूरा गांव साथ था....अब तो एक परिवार होकर भी अलग-अलग है !"
'यह जो ट्रेक्टर अपनी जरावस्था में निस्तेज से खड़ा है न...यह जब आया था ,मुझे बहुत बुरा लगा था ....क्योंकि मेरे हाथ से मेरे हल की मूठ जो छीन रही थी !'
यह कहते-कहते दाऊ की आंखों में नमी तैर उठी और वह बुझी हुई बीड़ी को पुनः सुलगाकर उस तैरती नमी को शुष्क करने का असफल प्रयास करते थे !
'किन्तु इसके साथ भी होते उपेक्षित व्यवहार पर मुझे कष्ट होता है। बेलो के बाद इससे प्रेम जो कर बैठा..."
"मेरे प्रेम की परिणीति देखिए ....यह भी बेचारा जब बेदम हुआ,इससे उड़ते रक्त सम्लित गाढे धुंये पर किसी ने ध्यान नही दिया और जब लोगो का स्वार्थ शिद्धि वाधित हो गया तो ....."
'इसे भी खड़ा छोड दिया ....साइलेंसर आज उल्टा जुडा है ,कल एयरक्लीनर किसी अस्थमा रोगी के फेफडो की कचड़े से भर चुका है !"
'चहुओर उगते झाड़ किसी वृद्ध की दाढ़ी जैसे प्रतीत होने लगे है। इसकी लिफ्ट जैसे जोड़ो के रोग से ग्रसित होकर अब बोझा नही उठा सकती !'
'इसकी हेडलाइट्स मेरी आंखो की तरह चश्मे से भी नही देख सकती न..!"
यह बोलते-बोलते दाऊ की लगभग शतक से दशक पूर्व बाली आंखों से एक-अश्रुधारा वह निकली और मेरा पूरा असितित्व तरल में बदलता प्रतीत हुआ। उन्होंने सिरहाने रखी डोलची से कुछ जल लिया और कुछ अंश शुश्क हो चले कंठ में पहुचाये !
मेने उनके दर्द को स्पष्ट महसूस किया और बात बदलनी चाही किन्तु जब भाव का प्रवाह वेदना की गति से बहने लगे तब कोई भी अवरोध कुछ प्रभाव नही रखता है, ताऊ कहते चले में मष्तिष्क में लिखता चला ।
'यह ट्रेक्टर भी मेरी तरह चार बच्चों के आधिपत्य में है, चारो की साझाकरण ओर लाभकरन नीति में फंसा हुआ।"
"काश!किसी एक का होता तो यह इस तरह रुग्ण न होता....इसकी रगों में नया रक्त दौड़ता....पाचन का निस्कासन बादलों तक अपना रंग दिखाता ओर इसकी आंखों की रोशनी मे.......में भी अपनी अपनी माटी को पुनः हल की तरह सृजित होते देखता !"
'बेलो की मधुर घण्टियाँ सुने दसको के बीत गए किन्तु कभी-कभी इसकी मधुर 'पी-पी......पी-पी' में एक मल्हार ही गुनगुना लेता !"
उनका गला रुंध आया और अंततः सारा ठीकरा आधुनिकता पर फोड़ते हुए बोले ......
'चल जीतू एक काम कर इस फोन पर कोई सुरैया-शमसाद का पुराना गीत ही सुना दे !"
मेने उनकी उनकी पसंद का गीत ......"ले के पहला-पहला प्यार,भरके आंखों में फुहार"
लगा दिया और वह अपने दिनों को स्मरण करके साथ-साथ दोहराने लगे .......!
में बस उनके अनुभवी चेहरे इतनी शीघ्र बिलुप्त हुई कसक को खोजता रहा .....किन्तु वह आंखे पुनः न खुली जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी,आंखों का क्या .....वहउस दर्द को पान कर चुकी थी ,ओर ट्रेक्टर पर केन्ग्लिया पक्षियों का एक झुंड झगड़ रहा था ।
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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र
रविवार, 23 अगस्त 2020
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