अलग अपना घर बसा कर क्या मिला हमको,
रिश्तों को अकारण तोड़ करक्या मिला हमको !
कभी कितना विशाल था अपने घर का आंगन,
पर टुकड़ों में उसको बांटकर क्या मिला हमको !
मुस्कराते थे कभी कितने फूल मन उपवन मेंपर ,
खुद ही उसे बरबाद कर क्या मिला हमको !
सबसे अलग दिखने की चाहत का क्या कहिये,
पर खुद को यूं मशहूर कर क्या मिला हमको !
सोचता होगा भगवान भी सर पकड़ कर,
कि इस इंसान को बना कर क्या मिला हमको ?
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