===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
भाग-१४
★मोहर सिंह ★(द्वितीय)
आज लगभग 60 वर्ष बाद भी मोहर को अच्छे से याद की कभी भी किसी बहिन बेटी का अपमान न किया और न किसी बच्चे को सताया फिर चाहे उसका रिश्ता दुश्मन के परिवार से ही क्यों न हो। गाँव के अनपढ़ मोहर सिंह अव बीहड़ो में बन्दूक कलम से नया पाठ्य लिखते जा रहे थे ।
अब मोहर सिंह चंबल के डाकू सरदारों में एक प्रमुख नाम बन गया। पुलिस के साथ उसके एनकाउंटर रोजमर्रा की बात हो गये थे। लेकिन मोहर सिंह इससे बेपरवाह था। क्योंकि पैसे आने के साथ ही मोहर सिंह ने पुलिस से भी बेहतर हथियार उस वक्त हासिल कर लिए थे। और मोहर सिंह ने अपने गैंग को बचाने और वारदात करने के नए तरीके खोजने शुरू कर दिये।
मोहर सिंह का गैंग इतना बड़ा हो चुका था कि चंबल ने इससे पहले इतना बडा़ गैंग कभी देखा नहीं था। डेढ़ सौ आदमी और वो भी हथियारबंद । एक से एक आधुनिक हथियार और मोहर सिंह का पुलिस से सीधी टक्कर लेने का दुस्साहस मोहर सिंह को चंबल का बेताज बादशाह बना चुका था। पूरे गैंग पर 12 लाख से ज्यादा का ईनाम। 1960 के दशक के 12 लाख रूपए आज के कितने है ये आप सिर्फ हिसाब लगाईंये।
मोहर सिंह चंबल में दूसरे गैंग के साथ मिलकर भी पुलिस को चकमा देने और वारदात करने का ट्रैंड शुरू कर दिया था। मोहर सिंह, माधो सिंह , सरू सिंह, राम लखन मास्टर और देवीलाल के गिरोह चंबल में इकट्ठा होकर वारदात करने लगे थे। पुलिस टीम भी 100-200 की संख्या में इकट्ठा हथियारबंद डाकुओं से मुकाबला करने में बचती थी।
मोहर सिंह का सिर अब पुलिस के लिए बेहद कीमती बन चुका था। लेकिन मोहर सिंह छलावा बन चुका था। एक गांव में वारदात करता और फिर गायब हो जाता। पुलिस के मुखबिर गैंग की किसी भी मूवमेंट की सटीक जानकारी हासिल करने में बिलकुल नाकाम हो गए थे। एक से एक बड़ी डकैतियां और एक से एक बड़े कारनामे। पुलिस मोहर सिंह को थामना चाहती और मोहर सिंह बहता हुआ पानी साबित हो रहा था जो पुलिस के हाथों में रूक ही नहीं रहा था। पुलिस निराशा में बार बार मोहर सिंह के गांव पहुंच जाती जहां उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता था।
चंबल में डकैतों ने एक तरह का राज कायम कर लिया था। हालांकि पुलिस भी एक एक करके गैंग को निबटाती जाती थी लेकिन चंबल का ये दौर बड़े गैंग का दौर बन चुका था। पुलिस ने जिन बड़े गैंग को 60 के दशक की शुरूआत में निबटाया था वो
1963 में कुख्यात दस्यु सरगाना फिरंगी सिंह को मार गिराया गया
1964 में देवीलाल शिकारी गैंग को सरगना सहित साफ किया।
1964 में ही पुलिस ने छक्की मिर्धा को भी गोलियों का निशाना बनाया
1965 में स्योसिंह को पुलिस की गोलियों ने ठंडा कर दिया।
1965 में रमकल्ला भी पुलिस के हाथों मारा गया ।
लेकिन 1965 में मोहर सिंह के साथी नाथू सिंह ने एक प्लॉन बनाया। मोहर सिंह को भी ये प्लान जच गया। चंबल के इलाके में उस वक्त किसी ने ये सोचा भी नहीं था कि दिल्ली के भी किसी आदमी को पकड़ बनाया जा सकता है। दिल्ली के मूर्ति तस्कर शर्मा के बारे में मोहर सिंह के आदमियों को जानकारी थी कि वो चोरी की मूर्तियां खरीदने कही तक जा सकता है। बस यही से पूरा प्लान बन गया। दिल्ली से शर्मा को एक शख्स ये कहकर लाया कि कुछ एंटीक मूर्तियां है जो चोरी की गई है चंबल में एक शख्स से मिल सकती है।मूर्ति तस्कर झांसे में आ गया। पहले उसने अपना एक आदमी चंबल में भेजा। उस आदमी को गिरोह ने पकड़ लिया और फिर उसके सहारे मूर्ति तस्कर को संदेश भेजा गया कि माल सही है। शर्मा साहब प्लेन से ग्वालियर पहुंचे। वहां से एक कार में बैठाकर मूर्तियां दिखाने के बहाने मोहर के लोग चंबल की डांग में ले आए। जंगल में अपने को डाकुओं से घिरा देखकर शर्मा को समझ आ गया कि वो डाकुओं के चंगुल में फंस चुका है।
शर्मा की पहचान बड़े लोगो से थी। दिल्ली से भोपाल संदेश गया और केन्द्र से भी मुरैना पुलिस को त्वरित कार्रवाई करने के निर्देश दिए गए थे। लेकिन पुलिस को शर्मा की परछाई भी नहीं मिल पाई। और आखिर में शर्मा के परिवार को 05 लाख रूपए मोहर सिंह को देने पड़े। चंबल में इतनी बड़ी रकम इससे पहले कभी किसी पकड़ से हासिल नहीं की गई थी। हालांकि मोहर सिंह इस रकम को 26 लाख रूपए बताते है।
मोहर सिंह पुलिस की डायरी में एक ऐसा नाम बन गया जिसको पुलिस डिपार्टमेंट चलता-फिरता भूत कहने लगा। हर बड़ी वारदात के पीछे पुलिस पहले अपने गैंग चार्ट के एनिमी 2 यानि दुश्मन नंबर दो यानि मोहर सिंह का हाथ देखती थी। पुलिस और मोहर सिंह की ये आंख-मिचौली पूरे चंबल में एक दिलचस्प कहानी बन रही थी। तभी कहानी में एक मोड़ आ गया। और पूरी कहानी ने ट्विस्ट ले लिया।
चंबल में राज कर रहा मोहर सिंह भले ही पढ़ा लिखा इतना न हो लेकिन ये जानता था कि गोली का अंत गोली से होता है।
28 साल की उम्र तक इतना कुख्यात हो चुका मोहर मौत को अपने आस-पास मंडराते हुए देखता था। और मौत की छाया को दूर करने का सहारा उसको दिखा तो उसने वो लपक लिया। कल का डाकू मोहर सिंह आज के समाजसेवी नेताजी मोहर सिंह के रास्ते में मोहर सिंह ने कई उतार-चढ़ाव देखे है।
- चंबल में मोहर सिंह और माधों सिंह की दोस्ती एक मिसाल मानी जाती है। मोहर सिंह और माधों सिह पुलिस रिकॉर्ड में भी दोस्त के तौर पर दर्ज थे यानि एनिमी नंबर 2 मोहर सिंह और एनिमी नंबर 1
माधों सिहं। दोनो के गैंग चंबल के सबसे बड़े गैंग थे। चंबल में डकैतों से लोग कराह उठे थे तो सरकार की चूलें भी हिल उठी।
हत्या, लूट और डकैती की खबरें चंबल की रोजमर्रा जिंदगी का एक हिस्सा बन चुकी थी। जब बन्दूक गरजती तो गोली पर नाम नहीं लिखा होता की किसको लगेगी और ऐसा ही कुछ मोहर के साथ हुआ जिसका अपराधबोध आज भी मोहरसिंह की रूह कपा देता हे ।
वाक्या गिरोह का रात्रिकालीन भ्रमण से जुड़ा हे। एक रात चलते-चलते किसी गाँव के एक ट्यूबेल पर सोते हुए किसान ने जब गैंग को पानी पिलाने से इनकार कर दिया और कहा की "जे तिहाई बन्दुके और कहु को दिखाइयो जहाँ पानी न पिआन देंगे,अगर एक बाप के हो तो गोली मार के पि लो"।
गोली चली एक चलता फिरता किसान मेढ़े पर झुझ गया !
{ भाग-(तृतीय)}
अब तक लगभग 200 हत्या,लूट,अपहरण के अपराध मोहर सिंह के गैंग पर बिभिन्न थानो में पंजीबद्ध हो चुके थे।
मध्यप्रदेश सरकार इस समस्या को लेकर बेहद चिंतित हुई तो उसने एक 15 सदस्यीय आयोग बना दिया। पुलिस पर दबाव बढ़ने लगा। एक के बाद एक एनकाउंटर मोहर सिंह और पुलिस के होने लगे। मोहर सिंह के मुताबिक लगभग 14 साल तक के उसके दस्यु जीवन में लगभग 76 बार उसका और पुलिस का आमना-सामना हुआ और हर बार मोहरसिंह बच निकला। लेकिन मोहरसिंह भी समझ रहा था कि पुलिस का घेरा बढ़ रहा है। बीहड़ों की आंख-मिचौली किसी भी दिन उसकी सांसों को बदन से जुदा कर सकती है।
मोहरसिंह ये सोच ही रहा था कि एक दिन माधों सिंह ने उसको चौंका दिया। माधौं सिंह ने कहा कि जय प्रकाश नारायण चंबल में एक बड़ा समर्पण करा रहे है। 1960 में विनोबा भावे एक बड़ा समर्पण करा चुके थे जिसमें लोकमन दीक्षित और मानसिंह गैंग के काफी लोगों ने समर्पण किया था और जो आराम से अपनी जिंदगी जी रहे थे। मोहर सिंह ने भी तरफा फैसला ले लिया कि गोलियों का वहशी खेल अब और नहीं।
चम्बल की कहानियो की दूसरी करिश्माई किवदंती माधो सिंह ने बो कर दिखाया जो असम्भव सा था । दसको तक गोली से गोली का प्रतिकार करने बाले बीहड़ी इंसान आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो चुके थे ।
जौरा का ये पगार डैम चंबल के इतिहास के सबसे बड़े समर्पण का गवाह है। 500 से ज्यादा डाकुओं ने जय प्रकाश नारायण के चरणों में अपनी बंदूकें रख दी।
जिस वक्त मोहर सिंह समर्पण करने आया था तो उस वक्त हजारों की भीड़ उसका स्वागत करने जौरा के गांधी आश्रम पहुंची थी।
ग्वालियर कारावास में लगभग 8 वर्षो तक बे सभी दुर्दांत इंसान इस तरह रहे जेसे इन लोगो ने कभी कुछ किया न हो ।
ग्वालियर के शांतिप्रिय रहन सहन को देखते हुए लगभग आधे गिरोह को जिला अशोकनगर स्तिथि मूंगाबलि की खुली जेल में रखा गया।
मोहर सिंह जेल में सजा काटने के बाद मेहगांव लौट आया।और दस्यु जीवन की अंतिम पारी खेल जीवन की द्वितीय पारी #नेता मोहरसिंह के रूप लगभग 10 वर्षो तक नगरपालिका निर्विरोध अधक्षय रहे ।
आज भी मोहर सिंह लोगो के बीच में उस वक्त की याद जब मोहर सिंह का नाम चंबल का नहीं देश का सबसे बड़ा खौंफ जगाने वाला नाम था। और देश में सबसे बड़ा ईनाम उसके सर पर था।
कभी बीहड़ो में बड़ी-बड़ी बारदात करने बाले मोहर सिंह आज शांतिप्रिय जीवन व्यतीत कर रहे हे और आयु के 80 वर्ष में भी एक संगिनी साथ न छोड़ा और बो हे कन्धे से सदैव लटकती रायफल .......
Jstomar.blogspot.com
30/12/2017. 09:10 (पुनः प्रकाशित)
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