शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

★कही भूल न जाओ ★


नितांत निर्जन ,अकेले पलो में शोशल मिडिया से जुड़ना उतना ही हितकर हे जितना आटे में नमक । दिन प्रतिदिन चतुर होते मोबाइल से हमे हजारो लोगो के साथ संवाद स्थापित करने का माध्यम दिया किन्तु हमारे स्वम के विवेक का अपहरण भी  हुआ ।
आये दिन किसी न किसी भाई के मोबाइल गुम होने के साथ  नम्बर्स इनबॉक्स करने की पोस्ट देखता हु , क्योंकि मोबाइल डाइरेक्ट्री के सुरक्षित नम्बर पर से कभी भी सुलभता पूर्ण काल की सकती हे ,लेकिन आलस्य और अब याद नहीं रहता की बात सुनना आम हो चुका हे , कही आप मोबाइल की सुविधा के कारण भूलने के बीमारी के शिकार तो नहीं ?
कभी कभी देखता हु सेलफोन के माध्यम से हजारो लोगो से जुड़ा व्यक्तित्व ,अपने परिवारी लोगो से ,बुजुर्गो से कटा कटा रहता हे ।
क्यों की उनको मानसिक स्तिथि वास्तविकता से आभाषी दुंनिया का आदी हो चुका होता  हे ।
महाभारत पर विवेचना करके अपने को बहुमुखी कहलाने बाले मेरे जेसे जीव कभी घर की महाभारत पर कोई जवाब नहीं दे पाते हे ।
अजिव् सा व्यक्तित्व हो जाता हे न ढंग से खाना न सोना पोस्ट लिखने का मेटर तलासते लोग जिंदगी का मेटर भूल चुके होते हे ।

कभी उत्कृष्ट श्रेणी के वक्ता विवेचनकर्ता सिर्फ मूक होकर शब्द का जाल तो बुन सकते हे  लेकिन प्रासंगिक तत्यों पर जिवंत वक्तव्य हकला जाता हे ।

हालांकि मुझे भी काफी स्नेह मिला इस दुनिया में आत्मीय स्नेह की धारा से सरावोर हु ,अच्छे विचारक,उत्कृष्ट लेखक,जीवन की अनछुई बातो से रुवरु करबाती कथाओ के सृजन करता ।
एक से एक अनुपम कृतियों के लेखक ,हस्यविनोद पर रोचक लेखन सब मिला किन्तु  कभी भी शोशल मिडिया का आदि नहीं हुआ ।

मुझे पता हे बढ़ते हुए मेसेंजरो की शब्द रूपी बाते आपको यतार्थ से बहुत दूर ले जाएंगी ।और आप वचन माध्मय की संवाद पृकृति को भुला चुके होंगे ।
शोशल मिडिया केआलावा निजी जीवन में बातो तड़का याद रखे  ,कही जुवान होते हुए उत्तर आपके पास होकर भी सम्बाद स्थापित करने की प्रक्रिया  न जाती रहे और आप शब्द होते हुए भी जुवान का सही प्रयोग न कर पाये ।
                    ●जय श्री कृष्ण ●

★बोध कथा★

बहुत पुरानी बात है।
एक बार एक बालक को उसके पिताजी ने गुरुकुल में अध्ययन के लिए भेजा।
उस बालक ने गुरुकुल में विद्या अध्ययन करने लगा।
तभी एक दिन गुरुजी ने उस बच्चे को एक सबक याद करने के लिए दिया।
लेकिन वह बहुत कोशिश करने के बाद भी सबक याद न कर सका।
तब गुरुजी को गुस्सा आ गया। और उन्होंने दंड देने के लिए डंडा उठाया।
तब उस लड़के ने अपना हाथ आगे कर दिया।
गुरुजी ज्योतिष के जानकर थे। उन्होंने बच्चे का हाथ देखा तो उनका गुस्सा ठंडा हो गया और वह चले गए।
लेकिन एक दिन उस बालक ने गुरुजी से पूछा, 'गुरुजी आपने उस दिन दंड देने वाले थे, लेकिन मेरा हाथ देखने के बाद दंड नहीं दिया ?
तब गुरुजी बोले, 'बेटा तुम्हारी हाथ में विद्या की रेखा नहीं है।
विद्या की रेखा न होने के कारण तुम सबक कभी भी याद नहीं कर सकते थे।
हो सकता है तुम आगे भी विद्या ग्रहण न कर पाओ।
'यह सुनकर वह बालक बोला, 'विद्या की रेखा नहीं हुई तो क्या हुआ। मैं अभी इसे बना देता हूं। और उस लड़के ने एक नुकीले पत्थर से हाथ पर विद्या की रेखा बना दी।'
यही बालक आगे चलकर संस्कृत के महान विद्वान पाणिनि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

#कथासार
विद्या अध्ययन करने के लिए रेखाओं की जरूरतनहीं बल्कि सच्ची लगन, मेहनत, स्वयं पर विश्वास और कठिन परिश्रम की जरूरत होती है।
जो लोग अपना भविष्य हाथों की चंद लकीरों केबल पर तय करते हैं वह जीवन में ज्यादा दूर तक नहीं पहुंच पाते।
                【जय श्री कृष्ण】

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

लफ्ज-ऐ-बिस्मिल

#तेलू_पार्टी_पार्ट2 #सनक।।
चोर उचक्कों ने मिल करके कसम राम की खाई थी।।
राम नाम के अमृत में जहरीली दवा मिलाई थी।।
राम नाम से राजनीति में परचम अपना लहराया।
जंगलराज ओर गुंडागर्दी  से आम आदमी घबराया।
मोदी तेरी लहर चली थी या उठा कोई बवंडर था।
हिंदुबाद ओर राम नाम पर जीता बी जे पी का बंदर था।
इतनी भी क्या भक्ति मुरैना वाशियो ने दिखलाई थी।
जो अपने घर मे हार गया उसको भी जीत दिलाई थी।
अपने घर को बना सके ना लोगो ने लात लगाई थी।
इतना सब कुछ देख मूर्खो जातिवाद पर मुहर लगाई थी।
गरीब किसान मरता जाता सूखे और पालो से।
सांसद महोदय नही घेरते संसद को सवालों से।
गर्मी में क्वारी मैया एक नस हो जाती है।
जिसके नाम से जीते वो गौ माता प्यासी ही मर जाती है।
चिड़ियों की चहचाहट से भी  बीहड़ मौन हमारा है।
पौध लगा के सेल्फी लेना ही क्या कर्तव्य तुम्हारा है।
स्वच्छता के नाम पे तुमने भाईचारा साफ किया।
क्षत्रिय ब्राह्मण भेद डालकर वोटबैंक को नाप दिया।
सुनो मुरैना के वाशी तुम क्वारी  चम्बल की संताने हो।
युद्ध हो या आंदोलन हो विजयी होकर ही माने हो।
अन्याय विरुद्ध तुम लड़े हमेशा चोरों को गले लगाओ ना।
स्वाभिमान का मुकुट पहन कर अपना शीश झुकाओ ना।
ये नेता सेवक है अपने क्यों मालिक इन्हें बना देते।
इनके आगमन में  क्यूँ कायनात बिछा देते।
#बिस्मिल की आत्मा तुमसे प्रार्थना एक ही करती है।
तेलू भैया याद करो कि चम्बल योद्धाओं की धरती है।
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#अटल_के_संस्कारों_की_ताकत।
#बिस्मिल

==चम्बल एक सिंह अबलोकन==भाग 14 द्वितीय

       ===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
                       भाग-१४
             ★मोहर सिंह ★(द्वितीय)
आज लगभग 60 वर्ष बाद भी मोहर को अच्छे से याद की कभी भी किसी बहिन बेटी का अपमान न किया और न किसी बच्चे को सताया फिर चाहे उसका रिश्ता दुश्मन के परिवार से ही क्यों न हो। गाँव के अनपढ़ मोहर सिंह अव बीहड़ो में बन्दूक कलम से नया पाठ्य लिखते जा रहे थे ।
अब मोहर सिंह चंबल के डाकू सरदारों में एक प्रमुख नाम बन गया। पुलिस के साथ उसके एनकाउंटर रोजमर्रा की बात हो गये थे। लेकिन मोहर सिंह इससे बेपरवाह था। क्योंकि पैसे आने के साथ ही मोहर सिंह ने पुलिस से भी बेहतर हथियार उस वक्त हासिल कर लिए थे। और मोहर सिंह ने अपने गैंग को बचाने और वारदात करने के नए तरीके खोजने शुरू कर दिये। 
मोहर सिंह का गैंग इतना बड़ा हो चुका था कि चंबल ने इससे पहले इतना बडा़ गैंग कभी देखा नहीं था। डेढ़ सौ आदमी और वो भी हथियारबंद । एक से एक आधुनिक हथियार और मोहर सिंह का पुलिस से सीधी टक्कर लेने का दुस्साहस मोहर सिंह को चंबल का बेताज बादशाह बना चुका था। पूरे गैंग पर 12 लाख से  ज्यादा का ईनाम। 1960 के दशक के 12 लाख रूपए आज के कितने है ये आप सिर्फ हिसाब लगाईंये।
मोहर सिंह चंबल में दूसरे गैंग के साथ मिलकर भी पुलिस को चकमा देने और वारदात करने का ट्रैंड शुरू कर दिया था। मोहर सिंह, माधो सिंह , सरू सिंह, राम लखन मास्टर और देवीलाल के गिरोह चंबल में इकट्ठा होकर वारदात करने लगे थे। पुलिस टीम भी 100-200 की संख्या में इकट्ठा हथियारबंद डाकुओं से मुकाबला करने में बचती थी।
मोहर सिंह का सिर अब पुलिस के लिए बेहद  कीमती बन चुका था। लेकिन मोहर सिंह छलावा बन चुका था। एक गांव में वारदात करता और फिर गायब हो जाता। पुलिस के मुखबिर गैंग की किसी भी मूवमेंट की सटीक जानकारी हासिल करने में बिलकुल नाकाम हो गए थे। एक से एक बड़ी डकैतियां और एक से एक बड़े कारनामे। पुलिस मोहर सिंह को थामना चाहती और मोहर सिंह बहता हुआ पानी साबित हो रहा था जो पुलिस के हाथों में रूक ही नहीं रहा था। पुलिस निराशा में बार बार मोहर सिंह के गांव पहुंच जाती जहां उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता था।  
चंबल में डकैतों ने एक तरह का राज कायम कर लिया था। हालांकि पुलिस भी एक एक करके गैंग को निबटाती जाती थी लेकिन चंबल का ये दौर बड़े गैंग का दौर बन  चुका था। पुलिस ने जिन बड़े गैंग को 60 के दशक की शुरूआत में निबटाया था वो 
1963 में कुख्यात दस्यु सरगाना फिरंगी सिंह को मार गिराया गया
1964 में  देवीलाल शिकारी गैंग को सरगना सहित साफ किया। 
1964 में ही पुलिस ने छक्की मिर्धा को भी गोलियों का निशाना बनाया
1965 में स्योसिंह को पुलिस की गोलियों ने ठंडा कर दिया। 
1965 में रमकल्ला भी पुलिस के हाथों मारा गया । 
लेकिन 1965 में मोहर सिंह के साथी नाथू सिंह ने एक प्लॉन बनाया। मोहर सिंह को  भी  ये प्लान जच गया। चंबल के इलाके में उस वक्त किसी ने ये सोचा भी नहीं था कि दिल्ली के भी किसी आदमी को पकड़ बनाया जा सकता है। दिल्ली के मूर्ति तस्कर शर्मा के बारे में मोहर सिंह के आदमियों को जानकारी थी कि वो चोरी की मूर्तियां खरीदने कही तक जा सकता है। बस यही से पूरा प्लान बन गया। दिल्ली से शर्मा को एक शख्स ये कहकर लाया कि कुछ एंटीक मूर्तियां है जो चोरी की गई है चंबल में एक शख्स से मिल सकती है।मूर्ति तस्कर झांसे में  आ गया।  पहले उसने अपना एक आदमी चंबल में भेजा। उस आदमी को गिरोह ने पकड़ लिया और फिर उसके सहारे मूर्ति तस्कर को संदेश भेजा गया कि माल सही है। शर्मा साहब प्लेन से ग्वालियर पहुंचे। वहां से एक कार में बैठाकर मूर्तियां दिखाने के बहाने मोहर के लोग चंबल की डांग में ले आए। जंगल में अपने को डाकुओं से घिरा देखकर शर्मा को समझ आ गया कि वो डाकुओं के चंगुल में फंस चुका है।
शर्मा की पहचान बड़े लोगो से थी। दिल्ली से भोपाल संदेश गया और केन्द्र से भी मुरैना पुलिस को त्वरित कार्रवाई करने के निर्देश दिए गए थे। लेकिन पुलिस को शर्मा की परछाई भी नहीं मिल पाई। और आखिर में शर्मा के परिवार को 05 लाख रूपए मोहर सिंह को देने पड़े। चंबल में इतनी बड़ी रकम इससे पहले कभी किसी पकड़ से हासिल नहीं की गई थी। हालांकि मोहर सिंह इस रकम को 26 लाख रूपए बताते है। 
मोहर सिंह पुलिस की डायरी में एक ऐसा नाम बन गया जिसको पुलिस डिपार्टमेंट चलता-फिरता भूत कहने लगा। हर बड़ी वारदात के पीछे पुलिस पहले अपने गैंग चार्ट के एनिमी 2 यानि दुश्मन नंबर दो यानि मोहर सिंह का हाथ देखती थी। पुलिस और मोहर सिंह की ये आंख-मिचौली पूरे चंबल में एक दिलचस्प कहानी बन रही थी। तभी कहानी में एक मोड़ आ गया। और पूरी कहानी ने ट्विस्ट ले लिया।  
चंबल में राज कर रहा मोहर सिंह भले ही पढ़ा लिखा इतना न हो लेकिन ये जानता था कि गोली का अंत गोली से होता है।
28 साल की उम्र तक इतना कुख्यात हो चुका मोहर मौत को अपने आस-पास मंडराते हुए देखता था। और मौत की छाया को दूर करने का सहारा उसको दिखा तो उसने वो लपक लिया। कल का डाकू मोहर सिंह आज के समाजसेवी नेताजी मोहर सिंह के रास्ते में मोहर सिंह ने कई उतार-चढ़ाव देखे है। 
- चंबल में मोहर सिंह और माधों सिंह की दोस्ती एक मिसाल मानी जाती है। मोहर सिंह और माधों सिह पुलिस रिकॉर्ड में भी दोस्त के तौर पर दर्ज थे यानि एनिमी नंबर 2 मोहर सिंह और एनिमी नंबर 1
माधों सिहं। दोनो के गैंग चंबल के सबसे बड़े गैंग थे। चंबल में डकैतों से लोग कराह उठे थे तो सरकार की चूलें भी हिल उठी।

 हत्या, लूट और डकैती की खबरें चंबल की रोजमर्रा जिंदगी का एक हिस्सा बन चुकी थी। जब बन्दूक गरजती तो गोली पर नाम नहीं लिखा होता की किसको लगेगी और ऐसा ही कुछ मोहर के साथ हुआ जिसका अपराधबोध आज भी मोहरसिंह की रूह कपा देता हे ।
वाक्या गिरोह का रात्रिकालीन भ्रमण से जुड़ा हे। एक रात चलते-चलते किसी गाँव के एक ट्यूबेल पर सोते हुए किसान ने जब गैंग को पानी पिलाने से इनकार कर दिया और कहा की "जे तिहाई बन्दुके और कहु को दिखाइयो जहाँ पानी न पिआन देंगे,अगर एक बाप के हो तो गोली मार के पि लो"।
गोली चली एक चलता फिरता किसान मेढ़े पर झुझ गया !

          {   भाग-(तृतीय)}
         

अब तक लगभग 200 हत्या,लूट,अपहरण के अपराध मोहर सिंह के गैंग पर बिभिन्न थानो में पंजीबद्ध हो चुके थे।
मध्यप्रदेश सरकार इस समस्या को लेकर बेहद चिंतित हुई तो उसने एक 15 सदस्यीय आयोग बना दिया। पुलिस पर दबाव बढ़ने लगा। एक के बाद एक एनकाउंटर मोहर सिंह और पुलिस के होने लगे। मोहर सिंह के मुताबिक लगभग 14 साल तक के उसके दस्यु जीवन में लगभग 76 बार उसका और पुलिस का आमना-सामना हुआ और हर बार मोहरसिंह बच निकला। लेकिन मोहरसिंह भी समझ रहा था कि पुलिस का घेरा बढ़ रहा है। बीहड़ों की आंख-मिचौली किसी भी दिन उसकी सांसों को बदन से जुदा कर सकती है। 
मोहरसिंह ये सोच ही रहा था कि एक दिन माधों सिंह ने उसको चौंका दिया। माधौं सिंह ने कहा कि जय प्रकाश नारायण चंबल में एक बड़ा समर्पण करा रहे है। 1960 में विनोबा भावे एक बड़ा समर्पण करा चुके थे जिसमें लोकमन दीक्षित और मानसिंह गैंग के काफी लोगों ने समर्पण किया था और जो आराम से अपनी जिंदगी जी रहे थे। मोहर सिंह ने भी  तरफा फैसला ले लिया कि गोलियों का वहशी खेल अब और नहीं।

चम्बल की कहानियो की दूसरी करिश्माई किवदंती माधो सिंह ने बो कर दिखाया जो असम्भव सा था । दसको तक गोली से गोली का प्रतिकार करने बाले बीहड़ी इंसान आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो चुके थे ।
जौरा का ये पगार  डैम चंबल के इतिहास के सबसे बड़े समर्पण का गवाह है। 500 से ज्यादा डाकुओं ने जय प्रकाश नारायण के चरणों में अपनी बंदूकें रख दी।
जिस वक्त मोहर सिंह समर्पण करने आया था तो उस वक्त हजारों की भीड़ उसका स्वागत करने जौरा के गांधी आश्रम पहुंची थी।
ग्वालियर कारावास में लगभग 8 वर्षो तक बे सभी दुर्दांत इंसान इस तरह रहे जेसे इन लोगो ने कभी कुछ किया न हो ।
ग्वालियर के शांतिप्रिय रहन सहन को देखते हुए लगभग आधे गिरोह को जिला अशोकनगर स्तिथि मूंगाबलि की खुली जेल में रखा गया।
 मोहर सिंह जेल में सजा काटने के बाद मेहगांव लौट आया।और दस्यु जीवन की अंतिम पारी खेल जीवन की द्वितीय पारी #नेता मोहरसिंह के रूप लगभग 10 वर्षो तक नगरपालिका निर्विरोध अधक्षय रहे ।
आज भी मोहर सिंह लोगो के बीच में उस वक्त की याद जब मोहर सिंह का नाम चंबल का नहीं देश का सबसे बड़ा खौंफ जगाने वाला नाम था। और देश में सबसे बड़ा ईनाम उसके सर पर था। 

कभी बीहड़ो में बड़ी-बड़ी बारदात करने बाले मोहर सिंह आज शांतिप्रिय जीवन व्यतीत कर रहे हे और आयु के 80 वर्ष में भी एक संगिनी साथ न छोड़ा और बो हे कन्धे से सदैव लटकती रायफल .......

Jstomar.blogspot.com
       30/12/2017.     09:10 (पुनः प्रकाशित)

रविवार, 24 दिसंबर 2017

कथा कूप

★कथा कूप★'अभिव्यक्ति'

एक गांव में कुछ मजदूर पत्थर के खंभे बना रहे थे।
उधर से एक संत गुजरे। उन्होंने एक मजदूर से पूछा- यहां क्या बन रहा है?
उसने कहा- देखते नहीं पत्थर काट रहा हूं? संत ने कहा- हां, देख तो रहा हूं। लेकिन यहां बनेगाक्या?
मजदूर झुंझला कर बोला- मालूम नहीं।यहां पत्थर तोड़ते-तोड़ते जान निकल रही है और इनको यह चिंता है कि यहां क्या बनेगा।

साधु आगे बढ़े।
एक दूसरा मजदूर मिला। संत ने पूछा- यहां क्या बनेगा?
मजदूर बोला- देखिए साधु बाबा, यहां कुछ भी बने।चाहे मंदिर बने या जेल, मुझे क्या। मुझे तो दिन भर की मजदूरी के रूप में 100 रुपए मिलते हैं। बस शाम को रुपए मिलें और मेरा काम बने। मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि यहां क्या बन रहा है।

साधु आगे बढ़े तो तीसरा मजदूर मिला। साधु ने उससे पूछा- यहां क्या बनेगा?
मजदूर ने कहा- मंदिर।इस गांव में कोई बड़ा मंदिर नहीं था। इस गांव के लोगों को दूसरे गांव में उत्सव मनाने जाना पड़ता था। मैं भी इसी गांव का हूं। ये सारे मजदूर इसी गांव के हैं।
मैं एक- एक छेनी चला कर जब पत्थरों को गढ़ता हूंतो छेनी की आवाज में मुझे मधुर संगीत सुनाईपड़ता है। मैं आनंद में हूं।कुछ दिनों बाद यह मंदिर बन कर तैयार हो जाएगा और यहां धूमधाम से पूजा होगी। मेला लगेगा। कीर्तन होगा। मैं यही सोच कर मस्त रहता हूं।

मेरे लिए यह काम, काम नहीं है। मैं हमेशा एक मस्ती में रहता हूं। मंदिर बनाने की मस्ती में। मैं रात को सोता हूं तो मंदिर की कल्पना के साथ और सुबह जगता हूं तो मंदिर के खंभों को तराशने के लिए चल पड़ता हूं।बीच-बीच में जब ज्यादा मस्ती आती है तो भजन गाने लगता हूं। जीवन में इससे ज्यादा काम करने का आनंद कभी नहीं आया।
साधु ने कहा- यही जीवन का रहस्य है मेरे भाई। बस नजरिया का फर्क है।

#शब्दसार
आप जो भी काम करें उसमें आनंद ढूंढ लें। काम स्वतः ही आनंदमय हो जाएगा। गीता में भीकहा गया है कि कर्म करो फल की इच्छा मत करो, अगर कर्म अच्छे हैं तो फल स्वतः ही मिल जाएगें।
                      शुभ मंगल प्रभातम्

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

==चम्बल एक सिंह अवलोकन==भाग ७

===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
                      भाग-७
     ●छिद्दा,माखन की युगल जोड़ी●
चम्बल पार खेड़ा राठौर निवासी राजा की उपाधि प्राप्त ददुआ मान सिंह राठौर ......
भदावर के डॉक्टर,मास्टर,और फिर जादूगर कहलाये मशहूर बागी माधो सिंह भदोरिया......
दोस्ती का दूसरा रूप  दुश्मनी में बदलति लाखन सिंह की मरणासन्न स्तिथि बदला लेने की अद्भुत क्षमता .........
बही अपने स्वर्ण युक्त पेरो से देश के लिए करीव ८तमगे दिलाने वाले सूबेदार पानसिंह तोमर की जीवन में सिर्फ दौड़ना लिखा था .......
दद्दा मलखान सिंह का अन्याय के विरुद्ध रायफल उठाने का दृश्यावलोकन करती इस श्रंखला की अपनी लेखनी आज आ पहुची सिकरवारि के खारो में ......

#साहिव_सलाम" के चिरपरिचित वाक्य के कारण प्रशिद्ध
यहा कें दो बागी मित्रो की अतुलनीय मित्रता का किस्सा आज आपके समक्ष
वही चिरपरिचित ऊँचे बड़े टीले  दूर क्षितीज में हल्की धुंध के वीच चम्बल किनारे स्वर्णिम अतीत को याद कराती और नारी शक्ति के त्याग की गाथा का प्रमाण  "सती मैया " मन्दिर यही स्तिथि सिकवारी का एक छोटा ठिकाना #नन्दगांगोलि ......

प्रातः काल की बैला आनन्द के आषाढ़ का माह कोयल कुक तो पपीहे की पीहू पीहू .....मोर का नृत्य के बीच कन्धे पर हल रखे करीव 20 वर्षीय नोजवान अपनी बैल जोड़ी के बिच कोई लोकगीत गुनगुनाता हुआ मस्त चाल चला जा रहा हे दूर के खेत पर ........हल चलाने ..     .सृजन करने....कृषि कर्म करने किन्तु नियति को कुछ और मंजूर था ।

"काये रे मखना तू मानो नाय फिर आय गओ खेत पे हमने नाही करि हती की नहीं ....?" के शब्द एकाएक नवयुवा के कर्णो में पिघले हुए शीशे की मानिंद उतरते चले गए ।

"अरे भज्जा जी खेतु तो दादे पुखरण रीति ते  हमहि जोते आय रहे हे तिहाओ कब हे गयो" ....माखन के क्रोध भरे शब्द
एकाएक सामने बाले दवंग की त्योरियों में बल बढाते गए और क्रोधतिरेक में या धन का घमण्ड और अपनी ऊँची पहुच पुलिस पटवारी का मेल का दम्भ बन्दूक टाँगे दवंग को बल देता गया  ....

बात ही बात में एक अकेले युवा को लट्ठ,डंडो के जख्म बढ़ते रहे ......बैल की जोड़ी मालिक की करून कृदन देख सुन  रंभाती रही किन्तु सुनसान खेतो पर कोन था जो सहयोग करे ....अथवा बचाव करे ...?
हमलावरों द्वारा लगातार जख्म पड़ते रहे दूर चम्बल ,कुँवारी नदी के वादियो एक बगावत का बीजारोपण होता रहा ।

लगभग मरनासन्न स्तिथि में बेले के नारे खोल जुअट के सहारे माखन को लटका कर बाँध गाव की तरफ बेल हांक दिए जाते हे ........जेसे ही बेल घर के सन्मुख पहुचते हे की हाहाकार मच जाता हे चारो तरफ ग्राम वासियो का जमावड़ा रुदन क्रोध बदले की भावना आँखों से टपकती हुयी ऊँगली के पोरो में आकर सूखती रही ।

५०के दशक में अभी भी भारतीय पुलिस भारतीय न हो पाई थी उनमे अभी भी ईस्ट इंण्डिन संक्रमनता के विषाणु व्याप्त थे ।
तहकीकात और न्याय की बजाय देवगढ़ थाने पर ही एक क्षेत्रीय चिकित्सक द्वारा मलहम पट्टी उपरान्त खेत दवंग को देकर मुक्ति पा लेने जैसा तुगलकी आदेश ....सूना दिया गया ....!!
न चाहते हुए भी विवस होकर मातृभूमि जबरदस्ती छीन लिए जाने का दर्द और बदला लेने की पृवती सबल होती गयी
और कुछ समय बाद गाँववासियों पर होते अत्याचार के कारण रह रह कर माखन सिंह सिकरवार की आँखों में अंगार वर्षाने लगा कहते हे की जव अति की पराकाष्ठा हो जाती हे तब तब रौद्रता प्राकट्य होता हे ।

आखिर घर की औरतो से दशहरे पे भेंट में मिली चुडिंया माखन सिंह को ललकार उठी और प्रारम्भ हुआ जुल्म पर जुल्म होने का ,आग को आग में जलने जैसा विचित्र खेल जिसमे शामिल हुए माखन के अभिन्न मित्र छिद्दा सिंह की सहभागिता ने विकट रूप ले लिया था ।

कभी कुल्हाड़ी से दुश्मन को टुकड़े टुकड़े कर बीहड़  निकले माखन सिंह के पास आज सेमिआटोमेटिक रायफल का भरोसा था तो छिद्दा जेसे यार का मजबूत कन्धा एक एक करके बदले लिए जाते रहे फिर चाहे पटवारी को उलटा टांग बीहड़ में मिर्चीयो का धुँआ दिया गया हो या तत्कालीन  प्रभारी को दौड़ा दौड़ा कर शिकार करने की बेदर्दी से लिए गए बदले .......
वीहड़ी जीवन में पकड़े होना आम बात हे सबलगढ़ के सेठ की चर्चित डेढ़ लाख फिरोती ने प्रशाशन की नजर माखन ,छिद्दा की जोड़ी को एनिमी नम्बर ५ पांच बना दिया ।

उप्र०मप्र०राज० की पुलिस तिकड़ी बीहड़ो की ख़ाक छानती रही किन्तु माखन का धैर्य और छिद्दा की चपलता४५ बागियों का गिरोह कभी राजस्थान,कभी मप्र०तो कभी उप्र में काण्ड करता रहा ।

इसी बीच एक दिन भीषण मुठभेड़ हुई सुभह से शाम किन्तु दोनों और से गरजती बन्दुके गरजती रही डाकुओ का अम्युनेसन खत्म होने की कगार पर निकलने का कोई रास्ता नहीं चहु और भदावर क्षेत्र में घिरा गिरोह ईश्वर को याद करने लगा .........
एक एक के छिद्दा सिंह ने सभी से अपने सर की शपथ ली की आज माखन कोई कुछ न बताएगा और सब निकल जाएंगे  अपने भाई की बात मांनेगे ।
इससे पहले की कोई कुछ समझ पाता छिद्दा की रायफल गरजने लगी अकेले ही मोर्चे पर भाग भाग तावड तोड़ फायरिंग करता हुआ पुलिस को ललकारता रहा और पुलिस पूरा गिरोह एक  जगह समझ केवल छिद्दा की चाल में फंस गयी गिरोह जमीन के सहारे रेंगता हुआ एक खार से होते हुए गायव हो चूका था ।

माखन को जब पता चला की छिद्दा "साहव सलामत" ..........प्रतिउत्तर दीर्घ मोन .......!!
और उन्हें समझते देर न लगी की आज छिद्दा ने सबकी सलामति के लिए मित्रता का सर्वोपरि वलिदान कर  दिया हे .......तत्क्षण शपथ ली की छिद्दा तेरे वलिदान का बदला लिए बगैर न जाऊँगा इस दुनिया से ।

छिद्दा जेसे मित्र और रघुवीर जेसे भाई को वीहडो में खोकर माखन ने अपना बदला लेने के लिए मास्टर  माधो सिंह भदोरिया का साथ चुना और एक दिन  छिद्दा ,रघुवीर सिंह के एनकाउंटर उपरान्त उत्साह में आई पुलिस पार्टी के सभी १५ को अधिकारियो समेत कुवारी के बीहड़ो में माधो सिंह के सहयोग से आमने सामने की गोली बारी में मार कर बदला पूरा किया ।

१६ अप्रैल १९७२ जोरा गांधी आश्रम में माधो सिंह और लगभग ५४७बागियों  के साथ माखन सिंह सिकरवार ने भी आत्मसमपर्ण कर दिया था ।
१९८२ तक जेल में रहने के बाद समाज की मुख्य धारा से जुड़कर ,समाज सैवा और दस्यु उन्मूलन में माधो सिंह के साथ सहभागी रहे  माखन सिंह २१, मई १९९८ शिकारपुर रेलवे स्टेशन के पास संदिग्ध परिस्तिथियों में मृत पाये गए ।

"साहिव सलाम " के ताकिया कलाम से  प्रशिद्ध बागी ,डाकू,मित्र ,दस्यु उन्मूलन के सहभागी माखन सिंह अंतोतगत्वा गति को प्राप्त हुए ।

विशेष -: लेख की रोचकता के लिए चलचित्र "मुझे जीने दो " का सांकेतिक चित्र ,मात्र रोचकता के लिए संज्ञान में ले जिसका इस किस्से से कोई सम्बन्ध नहीं हे ।
(दिनांक 17 जुलाई 2017 --13:47 फेसबुक बाल पर प्रथम)

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...