★एक वार्ता★
पिछले दिनों हमारा घर जाना हुआ तो गाँव से लगे मझरे बाला हमारा 'अमूलब्टर बासी' सहपाठी कनछेदीलाल खेतो पर भेंटा गया।उसका मेरा रिश्ता बड़ा ही अजब हे।रिश्ता इतना प्रगाढ़ हे की परीक्षाओ के समय मेरी पीछे बाली बेंच पे बैठता और खुद की उत्तर पुस्तिका में अनुक्रमाक मेरा ही उतारा करता था।जिसके चलते उसको कई बार मेरे द्वारा 'पनाह पूजन' की क्रिया द्वारा भी गुजरना पडा था और तभी मुझे पता नहीं क्यों 'लम्बर गुरु' के खिताब से नवाजता आ रहा हे ।
आजकल हमारा कन्छेदि 'नीली पार्टी' का सदस्य हे और गाये बगाहे 'भेनवती' की नीलगती वादों से पुरे मझरे को 'नीललैंड' बनाने पे तुला हे ।
वो कहता है अगर आप हम जैसे आम लोगों का, या चैटिंग-सैटिंग में बीज़ी नौजवान पीढ़ी के बचे हुए समय में कुछ ज्ञान वर्धन करेंगे तो बड़ी कृपा होगी।मै कन्छेदी को, इलेक्शन वाले किसी अपडेट से नावाकिफ़ रखना ख़ुद भी कभी गवारा नहीं करता। उसके अनुरोध को मुझे टालना कभी अच्छा नहीं लगा। मेरे पास इन दिनों टाइम-पास का कोई दूसरा शगल या आइटम, सिवाय कन्छेदी के और कोई बचा भी तो नहीं इसलिए उसे बातों के मायाजाल में घेरे रहना मेरी भी मजबूरी है।
उसे पुराने क़िस्से सुनने और मुझे सुनाने का शौक है।आप लोगों के पास टाइम है तो चलें, टाइम पास के लिए कुछ गड़े मुर्दे उखाड़ लें?
खेत पर हमे देखते ही बड़ी जोर से भागा आया और कहने लगा कि,"लम्बर गुरू! अब गाँव कम आते हो और इधर देखो हमने अपना कुर्ता-पजामा 'नीलाम्भ' कर लिया हे "(कहते कहते हमारी बरमूडा पहने टांगो में लम्बलेट हो गया)
"देखो गुरु अब आपका चेला आपसे विज्ञान नहीं ठगनीति का धवल ज्ञान चाहता हे क्योंकि आपके 'चम्बल शोधो' का में बहुत बड़ा प्रशंशक हु और आपने तो सन् 51 तक की राजनीति पर शोध भी किया था न ....!कृपया करके अपने इस चेले को भी कुछ प्रशिक्षण दीजिये।हालांकि आपकी 'राजनीति को खाजनीती' परिभाषित करने की सोच का आत्मा से सम्मान भी करता हु।" (कहते कहते फोरस्कावर पैकेट की एक दण्डी मेरी तरफ श्रद्धा से या पता नहीं रिश्वत रूप से मेरी तरफ अपनी 'नील धागा' लपेटे हथेली के माध्यम से समर्पित कर रहा था।)
"अबे तुतिये कनछेदिया तुझे पता नहीं की में इस 'मुखाग्नि' के लिए अभी पात्र नहीं हुआ...!ससुरे तू नोटँकी न कर ज्यादा ये पकड़ 'करका श्री' की पुड़िया और रख!"तुझे आज फ्री में खाजनीती का मुर्दापुरान सुनाता हु ।(गुटके की पुड़िया देख कन्छेदि की आँखे नीली और लाल हुयी दन्तावली में चमक 19-20 हो रही थी।)
में कन्छेदि से मुखातिव होकर उसे 'मुर्दापुरान श्रवण कराने लगा..
'ये राजनीति भी अब गज़ब की हो गई है, ज़िंदा लोगों पर आजकल की नहीं जाती। मुद्दे नहीं मिलते ...... मुर्देउखाड़े जाते हैं।राजनीतिज्ञ लोगों को आजकल फावड़ा-बेलचा ले के चलना होता है। क्या पता किस जगह किस रूप में क्या गड़ा मिल जावे?'
एक अच्छे किस्म के, ताज़ा-ताज़ा, स्वच्छ, लगभग हाल में पाटे हुए मुरदे की ख़ुश्बू नेता को सैकड़ों मील दूर से मिल जाती है।एक अच्छा मुरदा क़िस्मत के ख़ज़ाने खोल देता है, ऐसा जानकार, तजुर्बेकार, राजनीति में चप्पलें घिसे नेताओं का मानना है।
सन बावन से सत्तर तक के इलेक्शन में, ‘लोकतंत्र के पर्व की तरह’ ख़ुशबू थी, सादग़ी और भाईचारे से लोग इस पर्व के उत्साह में झूमते रहे। वैसे कुछ प्रदेशों में, कट्टा से वोट छापे जाने की शुरुआत हो चुकी थी।पर काबिज हो के मजलूम लोगों के वोट के हक़ को छीन लेना नए फैशन मेंशामिल होने लगा था। धीरे-धीरे लोगोंने सोचा इससे बदनामी हो रही है। जीतने में मज़ा नहीं आ रहा, वे अपने आदमियों से बाकायदा हवाई फायरिंग कर लोगों को सचेत कर देने की कहने लगे।
हिन्दुस्तानी नेता, चाहे कैसा भी हो, उनमें कहीं न कहीं से गाँधी बब्बा की आत्मा घुस ही आती है।
वे अहिसा का पाठ भी पढ़े होने के हिमायती बने दीखते हैं।अपने लोगों को सीखा के भेजते, आप को बूथ पर ये ज़रूर कहना है कि हम आपको लूटने-धमकाने आये नहीं हैं, हमें बस डिब्बा उठाना है। नेता जीताना है। वे डिब्बा उठाये चलते सत्यमेव जयते ‘लोगो’ वाले खाकी वर्दीधारी, पोलिग बूथ के कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी, इस पुनीत कार्य को होते देखने में ख़ुद को अभ्यस्त करते दिखते।
वे ‘जान बची और लाखों पाए’ वाले नोटों को गिनने में लग जाते।अब ये हरकतें, प्राय कम जगहों पर, या कहें तो नक्सलवाद आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों को छोड़कहीं देखने में नहीं आती।
उन दिनों मुर्दा उखाड़ने का झंझट कोई नहीं पालता था, तब मुर्दे बनाने, टपकाने के खेल हुआ करते थे।सीमित जगहों पर ये खेल था तो सांकेतिक मगर ज़बरदस्त था।
एक चेतावनी थी, प्रजातंत्र पर आस्था रखने वालो चेतो, नहीं तो हम समूची बिरादरी में फैलाने के लिए बेकरार हैं।
कन्छेदी .........! जानते हो इसकी वज़ह क्या थी?
कन्छेदी भौंचक्क देख के, ना वाली मुंडी भर हिला पाता।
मै आगे कहता, राजनीति में आज़ादी के बाद बेहिसाब पैसा आ गया। अपना देश, गरीब, शोषित, दलित, अशिक्षा, महामारी, अंधविश्वास, झाड़-फूँक में उलझा हुआ था। या तो बाबानुमा धूर्त लोग या चालाक नेता इसे ठग रहे थे।योजना के नाम पर बेहिसाब पैसा, रोड सड़क में, नालियों बाँध में,ठेकेदार इंजिनीयर के बीच बह रहा था।बाढ़ में पैसा, तूफ़ान में पैसा, भूकंम्प में पैसा, सूखे में पैसा। पैसा कहाँ नहीं था.....? नेताओं ने इन पैसों को, दिल खोल के बटोरने के लिए इलेक्शन लड़ा। लठैत-गुंडे पाले ......। दबदबा बनाया ......। मुँह में राम बगल में छुरी लिए घूमे ....!
एक रोटी की छीन-झपट, जो भूखों-नंगों के बीच हो सकती थी वो बेइन्तिहा हुई। मेरा कहना तो ये है कि कमोबेश आज भी आकलन करें तो कोई तब्दीली नज़र नहीं आती, हाल कुछ बदले स्वरूप में वही है।दिल को जीतने का नया खेल यूँ खेला जाने लगा है कि गड़े हुए मुर्दे उखाड़ो।
बोफोर्स के मुर्दे उखाड़ते-उखाड़ते सरकार पलट गई नेताओं के सामने नज़ीर बन गया। पिछले किये गए कार्यों का पोस्टमार्टम, उनके कर्ताधर्ताओं का चरित्र हनन अच्छे परिणाम देने लगे। घोटालों को, घोटालेबाज़ों को हाईलाईट किये रहना, पानी पी-पी के कोसना, गला बैठने तक कोसना फ़ैशन बन गया ।
दामाद जी को सूट सिलवा दो तो आफ़त, न सिलवा के दो, तो जग हँसाई।परीक्षा पास करा के लोगों को नौकरी दो तो उनके घर के मुर्ग-मुस्सल्ल्म की उड़ती ख़ुशबू सूँघ के घोटाले की गणना करने वालों की आज कमी नहीं।
‘आय से ज़्यादा इनकम’ के मामले में, अपने देश में बेशुमार मुर्दे गड़े हैं। इनको तरीके से उखाड़ लो तो, विदेशों से काला धन वापस लाने की तात्कालिक ज़रूरत नहीं दिखती।कोयला माफ़िया की कब्र उघाड़ के देख लो, माइनिंग वाले, प्लाट आवंटन, मिलेट्री के टॉप सीक्रेट सौदे पर तो हम अपनी आँख भी उठा नहीं सकते।जो है जैसा है, की तर्ज़ पर, या मुंबई फुटपाथ पर सोये हुए बेसहारा ग़रीबों की तर्ज़ पर इन्हें बख्श दें......?
किन-किन मुर्दों को को कहाँ-कहाँ से उठायें?सब एक साथ खोद डाले गए तो चारों तरफ बदबू फैल जायेगी। महामारी फैलने का खतरा अलग से हो सकता है।स्वच्छ भारत के आम स्वच्छ आदमी के मन से सोचें........।
इस प्रजातंत्र में, कई इलेक्शन आने हैं......।अपनी सनातन परंपरा में ये अच्छा करते हैं मुर्दों को हम गाड़ने की बजाय... जला देते हैं।शरीर जला देने के बाद भी, अविनाशी आत्मा का अंश फ़कत कुछ दिनोंके लिए हमारे दिलों में गड़ा रह जाता है बस.....!
कन्छेदी की तन्द्रा भंग हुई। वह मायूस सा थका हारा सा अपनी पत्नी के 'करवाचौथ' का बहाना लेके भारी कदमो से लौट गया........।
-----------------
जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'