मंगलवार, 30 अक्टूबर 2018

प्रतिवेदना और प्रतिउत्तर

मेरे शब्द इतने कातर न थे की तेरे नैनो से नीर बहा देते,
टटोला तो होता मनमहलो की ईंट तेरे करो से कुरिदवा-दवा देते !!

बिखरे खण्डहरों में बसाबट हो रही हे अब रात्रिचरो की ,
अँधेरे ही तुम्हारी रोशनियों की आशनाई हे
जरूरत कहा जुगनुओं की !

मानता हु कुरेदता हु तुम्हे अपना स्नेह समझाने को,
भूल थी साया,साया होता हे  आत्मा चाहिए प्रतिमा बनाने को !

में नहीं मेरे शब्द फिर तुम्हे खोजते रहेंगे जुडाव इतना हे,
संयोग बनी प्रज्वलित लो तुम में मस्त पतंगा और मुझे जलना हे !

सागर में टूटी नाव का पतवार सा डूब तृप्त हो जाऊँगा,
अपने अपने हाल पे मलंग रहो ऋण-ऋण,धन हो जाऊँगा !

रविवार, 28 अक्टूबर 2018

में और मेरा कन्छेदि (व्यंग)

                ★एक वार्ता★

पिछले दिनों हमारा घर जाना हुआ तो गाँव से लगे मझरे बाला हमारा 'अमूलब्टर बासी' सहपाठी कनछेदीलाल खेतो पर भेंटा गया।उसका मेरा रिश्ता बड़ा ही अजब हे।रिश्ता इतना प्रगाढ़ हे की परीक्षाओ के समय मेरी पीछे बाली बेंच पे बैठता और खुद की उत्तर पुस्तिका में अनुक्रमाक मेरा ही उतारा करता था।जिसके चलते उसको कई बार मेरे द्वारा  'पनाह पूजन' की क्रिया द्वारा भी गुजरना पडा था और तभी मुझे पता नहीं क्यों 'लम्बर गुरु' के खिताब से नवाजता आ रहा हे ।
आजकल हमारा कन्छेदि 'नीली पार्टी' का सदस्य हे और गाये बगाहे 'भेनवती' की नीलगती वादों से पुरे मझरे को 'नीललैंड' बनाने पे तुला हे ।

वो कहता है अगर आप हम जैसे आम लोगों का, या चैटिंग-सैटिंग में बीज़ी नौजवान पीढ़ी के बचे हुए समय में कुछ ज्ञान वर्धन करेंगे तो बड़ी कृपा होगी।मै कन्छेदी को, इलेक्शन वाले किसी अपडेट से नावाकिफ़ रखना ख़ुद भी कभी गवारा नहीं करता। उसके अनुरोध को मुझे टालना कभी अच्छा नहीं लगा। मेरे पास इन दिनों टाइम-पास का कोई दूसरा शगल या आइटम, सिवाय कन्छेदी के और कोई बचा भी तो नहीं इसलिए उसे बातों के मायाजाल में घेरे रहना मेरी भी मजबूरी है।
उसे पुराने क़िस्से सुनने और मुझे सुनाने का शौक है।आप लोगों के पास टाइम है तो चलें, टाइम पास के लिए कुछ गड़े मुर्दे उखाड़ लें?

खेत पर हमे देखते ही बड़ी जोर से भागा आया और कहने लगा कि,"लम्बर गुरू! अब गाँव कम आते हो और इधर देखो हमने अपना कुर्ता-पजामा 'नीलाम्भ' कर लिया हे "(कहते कहते हमारी बरमूडा पहने टांगो में लम्बलेट हो गया)
"देखो गुरु अब आपका चेला आपसे विज्ञान नहीं ठगनीति का धवल ज्ञान चाहता हे क्योंकि आपके 'चम्बल शोधो' का में बहुत बड़ा प्रशंशक हु और आपने तो सन् 51 तक की राजनीति पर शोध भी किया था न ....!कृपया करके अपने इस चेले को भी कुछ प्रशिक्षण दीजिये।हालांकि आपकी 'राजनीति को खाजनीती' परिभाषित करने की सोच का आत्मा से सम्मान भी करता हु।" (कहते कहते फोरस्कावर पैकेट की एक दण्डी मेरी तरफ श्रद्धा से या पता नहीं रिश्वत रूप से मेरी तरफ अपनी 'नील धागा' लपेटे हथेली के माध्यम से समर्पित कर रहा था।)

"अबे तुतिये कनछेदिया तुझे पता नहीं की में इस 'मुखाग्नि' के लिए अभी पात्र नहीं हुआ...!ससुरे तू नोटँकी न कर ज्यादा ये पकड़ 'करका श्री' की पुड़िया और रख!"तुझे आज फ्री में खाजनीती का मुर्दापुरान सुनाता हु ।(गुटके की पुड़िया देख कन्छेदि की आँखे नीली और लाल हुयी दन्तावली में चमक 19-20 हो रही थी।)

में कन्छेदि से मुखातिव होकर उसे 'मुर्दापुरान श्रवण कराने लगा..

'ये राजनीति भी अब गज़ब की हो गई है, ज़िंदा लोगों पर आजकल की नहीं जाती। मुद्दे नहीं मिलते ...... मुर्देउखाड़े जाते हैं।राजनीतिज्ञ लोगों को आजकल फावड़ा-बेलचा ले के चलना होता है। क्या पता किस जगह किस रूप में क्या गड़ा मिल जावे?'

एक अच्छे किस्म के, ताज़ा-ताज़ा, स्वच्छ, लगभग हाल में पाटे हुए मुरदे की ख़ुश्बू नेता को सैकड़ों मील दूर से मिल जाती है।एक अच्छा मुरदा क़िस्मत के ख़ज़ाने खोल देता है, ऐसा जानकार, तजुर्बेकार, राजनीति में चप्पलें घिसे नेताओं का मानना है।

सन बावन से सत्तर तक के इलेक्शन में, ‘लोकतंत्र के पर्व की तरह’ ख़ुशबू थी, सादग़ी और भाईचारे से लोग इस पर्व के उत्साह में झूमते रहे। वैसे कुछ प्रदेशों में, कट्टा से वोट छापे जाने की शुरुआत हो चुकी थी।पर काबिज हो के मजलूम लोगों के वोट के हक़ को छीन लेना नए फैशन मेंशामिल होने लगा था। धीरे-धीरे लोगोंने सोचा इससे बदनामी हो रही है। जीतने में मज़ा नहीं आ रहा, वे अपने आदमियों से बाकायदा हवाई फायरिंग कर लोगों को सचेत कर देने की कहने लगे।

हिन्दुस्तानी नेता, चाहे कैसा भी हो, उनमें कहीं न कहीं से गाँधी बब्बा की आत्मा घुस ही आती है।
वे अहिसा का पाठ भी पढ़े होने के हिमायती बने दीखते हैं।अपने लोगों को सीखा के भेजते, आप को बूथ पर ये ज़रूर कहना है कि हम आपको लूटने-धमकाने आये नहीं हैं, हमें बस डिब्बा उठाना है। नेता जीताना है। वे डिब्बा उठाये चलते सत्यमेव जयते ‘लोगो’ वाले खाकी वर्दीधारी, पोलिग बूथ के कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी, इस पुनीत कार्य को होते देखने में ख़ुद को अभ्यस्त करते दिखते।
वे ‘जान बची और लाखों पाए’ वाले नोटों को गिनने में लग जाते।अब ये हरकतें, प्राय कम जगहों पर, या कहें तो नक्सलवाद आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों को छोड़कहीं देखने में नहीं आती।
उन दिनों मुर्दा उखाड़ने का झंझट कोई नहीं पालता था, तब मुर्दे बनाने, टपकाने के खेल हुआ करते थे।सीमित जगहों पर ये खेल था तो सांकेतिक मगर ज़बरदस्त था।
एक चेतावनी थी, प्रजातंत्र पर आस्था रखने वालो चेतो, नहीं तो हम समूची बिरादरी में फैलाने के लिए बेकरार हैं।
कन्छेदी .........! जानते हो इसकी वज़ह क्या थी?
कन्छेदी भौंचक्क देख के, ना वाली मुंडी भर हिला पाता।
मै आगे कहता, राजनीति में आज़ादी के बाद बेहिसाब पैसा आ गया। अपना देश, गरीब, शोषित, दलित, अशिक्षा, महामारी, अंधविश्वास, झाड़-फूँक में उलझा हुआ था। या तो बाबानुमा धूर्त लोग या चालाक नेता इसे ठग रहे थे।योजना के नाम पर बेहिसाब पैसा, रोड सड़क में, नालियों बाँध में,ठेकेदार इंजिनीयर के बीच बह रहा था।बाढ़ में पैसा, तूफ़ान में पैसा, भूकंम्प में पैसा, सूखे में पैसा। पैसा कहाँ नहीं था.....? नेताओं ने इन पैसों को, दिल खोल के बटोरने के लिए इलेक्शन लड़ा। लठैत-गुंडे पाले ......। दबदबा बनाया ......। मुँह में राम बगल में छुरी लिए घूमे ....!

एक रोटी की छीन-झपट, जो भूखों-नंगों के बीच हो सकती थी वो बेइन्तिहा हुई। मेरा कहना तो ये है कि कमोबेश आज भी आकलन करें तो कोई तब्दीली नज़र नहीं आती, हाल कुछ बदले स्वरूप में वही है।दिल को जीतने का नया खेल यूँ खेला जाने लगा है कि गड़े हुए मुर्दे उखाड़ो।
बोफोर्स के मुर्दे उखाड़ते-उखाड़ते सरकार पलट गई नेताओं के सामने नज़ीर बन गया। पिछले किये गए कार्यों का पोस्टमार्टम, उनके कर्ताधर्ताओं का चरित्र हनन अच्छे परिणाम देने लगे। घोटालों को, घोटालेबाज़ों को हाईलाईट किये रहना, पानी पी-पी के कोसना, गला बैठने तक कोसना फ़ैशन बन गया ।
दामाद जी को सूट सिलवा दो तो आफ़त, न सिलवा के दो, तो जग हँसाई।परीक्षा पास करा के लोगों को नौकरी दो तो उनके घर के मुर्ग-मुस्सल्ल्म की उड़ती ख़ुशबू सूँघ के घोटाले की गणना करने वालों की आज कमी नहीं।

‘आय से ज़्यादा इनकम’ के मामले में, अपने देश में बेशुमार मुर्दे गड़े हैं। इनको तरीके से उखाड़ लो तो, विदेशों से काला धन वापस लाने की तात्कालिक ज़रूरत नहीं दिखती।कोयला माफ़िया की कब्र उघाड़ के देख लो, माइनिंग वाले, प्लाट आवंटन, मिलेट्री के टॉप सीक्रेट सौदे पर तो हम अपनी आँख भी उठा नहीं सकते।जो है जैसा है, की तर्ज़ पर, या मुंबई फुटपाथ पर सोये हुए बेसहारा ग़रीबों की तर्ज़ पर इन्हें बख्श दें......?

किन-किन मुर्दों को को कहाँ-कहाँ से उठायें?सब एक साथ खोद डाले गए तो चारों तरफ बदबू फैल जायेगी। महामारी फैलने का खतरा अलग से हो सकता है।स्वच्छ भारत के आम स्वच्छ आदमी के मन से सोचें........।
इस प्रजातंत्र में, कई इलेक्शन आने हैं......।अपनी सनातन परंपरा में ये अच्छा करते हैं मुर्दों को हम गाड़ने की बजाय... जला देते हैं।शरीर जला देने के बाद भी, अविनाशी आत्मा का अंश फ़कत कुछ दिनोंके लिए हमारे दिलों में गड़ा रह जाता है बस.....!

कन्छेदी की तन्द्रा भंग हुई। वह मायूस सा थका हारा सा अपनी पत्नी के 'करवाचौथ'  का बहाना लेके भारी कदमो से  लौट गया........।
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                जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

में बदल गया हु माँ...!

===बदल गया हु,शहर आने से==

मां
तुमने रोक क्यों नहीं लिया,
मुझे इस शहर आने से...!
कितना आसान था
तेरे पास
सच को सच
झूठ को झूठ कहना....!!

तुम्हारे आशीष सदा सच बोलने के
चुभ रहे है
अब.....?
किसका सच बोलूं
दफ्तर का......घर का.....रास्तों का...!

किससे सच बोलूं.....!
बॉस से.....दोस्त से ...दुकानदार से
या
इन सबसे अलग
अपने आप को ......!!

शीशे में देखकर सच बोलूं.....?
दिन भर जो शरीर गतिमान रहता है,
रात को घावों से टपकता दर्द बन जाता है....।

कितना आसान था
मां....!
विश्वास कर लेना
सहजता से ......
दुख
सुख
प्यार
दुत्कार...!!!!

पर
न जाने क्यों.....?

अब विश्वास नहीं होता
भीख मांगते भिखारी की दयनीयता पर...!
झुंझला सा जाता हूं,
मदद के अनुग्रह पर...!!

मां
कितना मुश्किल था,
तेरे पास ये मान लेना......
कि चोर दिन में भी निकलते होंगे.....!!!

जीत शेर की नहीं
सियार की होंगी
खरगोश जिंदा नहीं रहेगे
बिना दांतों के ...!!!!

यहां
अब
कितना सहज हो गया हूं....?
रोज मरते हुये
लोगों के बीच से गुजरते हुये ......!!

मां
याद ही नहीं आती
तेरी सुनायी हुई कहानी.....!
कि
आखिर में जीत हुयी सही इंसान की,
कितना सरल था
दोस्त.दुश्मन पहचानना.......!!!!

मां
मुझे रोक लेती ....!!
तो
अब बहुत कठिन नहीं रहता
मुझे सच और झूठ के बीच निकलना......

मां
वहां
आज भी डरता मैं ....
पेड़ों पर उल्टे लटके चमगादडों से,
गांव के कोनों पर बनीं बांबियों से
दिन में कहानी सुनने से......!!!!

अब
ये सब बकवास लगते है
मां तुमने रोक क्यों नहीं लिया
मुझे शहर आने से......!!!!
....................

        जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'

शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

भाड़े का राजा

===कथा कूप===
किसी जंगल में एक बड़ा सा तालाब था उसमें सैकड़ों मेंढ़क रहते थे। तालाब में कोई राजा नहीं था। दिन पर दिन अनुशासनहीनता बढ़ती जाती थी और स्थिति को नियंत्रण में करने वाला कोई नहीं था।
उसे ठीक करने का कोई यंत्र तंत्र मंत्र दिखाई नहीं देता था। नई पीढ़ी उत्तरदायित्व हीन थी। जो थोड़े बहुत होशियार मेंढ़क निकलते थे वे पढ़-लिखकर अपना तालाब सुधारने की बजाय दूसरे तालाबों में चैन से जा बसते थे।
हार कर कुछ बूढ़े मेंढ़कों ने घोर तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया और उनसे आग्रह किया कि तालाब के लिये कोई राजा भेज दें। जिससे उनके तालाब में सुख चैन स्थापित हो सके।

शिव जी ने प्रसन्न होकर नंदी( शिव का वाहन) को उनकी देखभाल के लिए भेज दिया।नंदी तालाब के किनारे इधर उधर घूमता, पहरेदारी करता लेकिन न वह उनकी भाषा समझता था न उनकी भावनामई को  आवश्यकताएं। नंदी के खुर से कुचलकर अक्सर कोई न कोई मेंढ़क मर जाता। समस्या दूर होने की बजाय और बढ़ गई थी। पहले तो केवल झगड़े झंझट होते थे लेकिन अब तो मौतें भी होने लगीं।
फिर से कुछ बूढ़े मेंढकों ने तपस्या से शिवजी को प्रसन्न किया और राजा को बदल देने की प्रार्थना की। शिव जी ने उनकी बात का सम्मान करते हुए नंदी को वापस बुला लिया औरअपने गले के सर्प को राजा बनाकर भेज दिया।

फिर क्या था वह पहरेदारी करते समय एक दो मेंढ़क चट कर जाता, मेंढ़क उसके भोजन जो थे। मेंढ़क बुरी तरह से परेशानी में घिर गएे।
फिर से मेंढ़कों ने घबराकर अपनी तपस्या से भोलेशंकर को पुनः प्रसन्न किया। शिव भी थे तो भोलेबाबा ही, सो जल्दी से प्रकट हो गए। मेंढ़कों ने कहा, "आपका भेजा हुआ कोई भी राजा हमारे तालाब में व्यवस्था नहीं बना पाया। समझ में नहीं आता कि हमारे कष्ट कैसेदूर होंगे!कोई यंत्र या मंत्र काम नहीं करता। आप ही बताएं हम क्या करें?

'इस बार शिव जी जरा गंभीर हो गए। थोड़ा रुक कर बोले, "यंत्र मंत्र छोड़ो और स्वतंत्र स्थापित करो। मैं तुम्हें यही शिक्षा देना चाहता था। तुम्हें क्या चाहिए और तुम्हारे लिए क्या उपयोगी वह केवल तुम्हीं अच्छी तरह समझ सकते हो।किसी भी तंत्र में बाहर से भेजा गया कोई भी विदेशी शासन या नियम चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो तुम्हारे लिये अच्छा नहीं हो सकता। इसलिये अपना स्वाभिमान जागृत करो,संगठित बनो, अपना तंत्र बनाओ और उसे लागू करो। अपनी आवश्यकताएं समझो, गलतियों से सीखो। मांगने से सब कुछ प्राप्त नहीं होता, अपने परिश्रम का मूल्य समझो और समझदारी से अपना तंत्र विकसित करो।"

#शब्दसार
लघुकथा का आशय यह है कि हमें अपने विवेक और बुद्धि का उपयोग करते हुए काम करना चाहिए। किसी पर आश्रित रहकर यदि काम करते हैं तो हानि ही उठानी पड़ती है।
             (बाकि जो हैए सो हैए ही)

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018

आहा जिंदगी (गजल)

ज़रा सी है ये ज़िन्दगी, तक़रार क्याकरना ,
जब रहना है साथ साथ, तो रार क्या करना !

दुखित है वैसे भी मन, तमाशे देख दुनिया के,
फिर भरे बाज़ार में, तमाशा यार क्या करना !

काट लो खुशियों से, बची है जो ज़िंदगी यारो,
इसके लिए भी यूँही, नख़रे हज़ार क्या करना !

झेली हैं हमने मुश्किलें, वह अपना करम था ,
अपने लिए किसी और को, लाचार क्या करना !

न जीत पाया कोई भी, इन नफरतों के खेल में,
ज़िंदगी के सफर में, किसी पे वार क्या करना !

,(एक वर्ष पहले फेसबुक )

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

क्या क्या थे तुम

टूटे ख्वाबो के बिखरने से सजे हुए अरमान थे तुम,
बिखरी आशाओ के आश लगाये मेहरबान थे तुम।

सर पे  सजाना चाहा था तुमको बो सम्मान थे तुम,
कुछ सधे सम्भलते कदम रख रहे हो बन्दा परवर।

कही न कही कभी कभी न कभी मुझे देखते हो ,
अब बेतकल्ल्उफि से खुद को खुदाई रखते हो।

नुपुर सी ध्वनि नीरजवृत्त दृगदृस्टि सदृश हो तुम,
सम समान आत्मा आत्मनिधान कृष्ट् बहुदृश् हो तुम।

स्पर्श अभिप्राय नहीं  कदापि समभाज्य विधान हो तुम,
बिबर से शिखर तक पुनः पाये अप्राप्य श्रद्धान हो तुम।

सोचता हु 'इति श्री शिद्धयम' मान प्रस्थान कर दू ,
पुनः विस्मरण न कर सकु ऐसा ध्यान दृष्टान हो तुम........

                 🚩🌷🚩

हम

भूल जाओ यारो, अपने हाथों की लकीरों को
खुद ही बनाना पड़ता है, अपनी तक़दीरों को!

उसका तो फल मिलेगा जो किया है तुमने
मगर दोष देते हो क्यों, अपनी तकदीरों को!

ग़मों का क्या वो न छोड़ते हैं किसी को भी,
चाहे जकड़ें गरीबों को, चाहे पकड़ें अमीरों को!

वो तो बैठा है हर किसी के #दिल में,
मगर सर नवाते है हम, बेज़ुबान तस्वीरों को...!!

वक्त

✍🕘
मेहरवानी अय वक़्त, तूने रहना सिखा दिया ,
दुनिया के सारे ग़म, तूने सहना सिखा दिया !

आसान कर दी, अपने परायों की परख तूने,
जो था लबों पर मेरे, तूने कहना सिखा दिया !

कूप मंडूक थे, न पता था बाहर का मिज़ाज़,
मिल के साथ राहों में, तूने चलना सिखा दिया !

लगाते थे तक तक कर, निशाने मुझ पे लोग,
इक बता के नया हुनर, तूने बचना सिखा दिया !

इबारत भोले चेहरों की, न समझ पाए हम,
शुक्रिया अय वक़्त कि, तूने पढ़ना सिखा दिया !

#सिखा_दिया

डिलिवरी वॉय 'एक दृश्य'

#डिलिवरी_बॉय           (एक दृश्य)

कितनी तेजी से निकला वो बाईक वाला
रेडलाईट पर रूकना था,जरा सी देर में क्या बिगड़ जाएंगा....!

लड़के ने सुना नहीं

उसको आदत है इस बात की ठीक रेड़ लाईट के बीच दूसरे गियर में गाड़ी डाल कर निकलने की....!

रेड लाईट पर रूके लोग अक्सर देखते है पीठ पर बैग लटकाएं लड़के को
लड़के को जल्दी है वक्त पर पहुंचने की
तो
फ्लैट में घड़ी ताक रहे लोगो को इंतजार है उस के लेट होने का...!

लेट होने से  ठंडा हो सकता है पिज्जा
ठंडा है तो बदमजा हो सकता है पिज्जा
बदमजा हो तो फ्री हो सकता है पिज्जा,
पिज्जा फ्री मिलेंगा......कही से तो कटेगा
ये जानता है रेड लाईट पर दौड़ने वाला लड़का.....!

लड़के की सैलरी पर नजर है मैनेजर की
मैनेजर का सौ फीसदी रिकार्ड है
कंपनी को जीताने का.......और हारती है तो
लड़के की सैलरी।कंपनी का एकाउंट नहीं...!!

लड़के को मालूम है
एक असाईंनमेंट लेट करने की कीमत
घर का किराया....बाप के थके कदमों को उठाकर दरवाजों तक ले जाने की ताकत दवाई से आती है।रोज आसमान तक पहुंचती दवाई और सैलरी में पुराना झगड़ा है ।

रूक जाती है सैलरी
चढ़ जाती है दवाई..!

मां को चाहिए घर का सामान
पिज्जे की खुशबू से ज्यादा
मादक होती है घर की रोटी
और मां के हाथ की सब्जी की महक
लेकिन जाने क्या है की सब्जी कम होती  जाती है थाली से...?
क्योंकि इंटरनेशनल मार्किट में दाम बढ़ रहे है तेल के.....और तेल कम नहीं करता खाड़ी से शेखों से लेकर दिल्ली के शेखों की थाली की कीमत मुद्रा का  अवमूल्यन।
गिरा देता है लड़के और क्रेडिट कार्ड की कीमत...!

बहन को जरूरत है
नई ड्रैस की,पर
कभी कहती नहीं...!
लेकिन आंखें लड़के की खुली है
बहन को गुजरना होता है ऐसी ही कई रेडलाईटों से भूखी सी सैकड़ों हजारों निगाहों से कटते हुए....!

पब्लिक ऑटों का किराया भी बढ़ता है
और बढ़ता है लड़के का डर भी रोज रोज
इसके अलावा फोन में बंद है ....चार्ज कूपन
कीमत कितनी भी हो।दुनिया से बाते करनी है.....!

दुनिया जाने क्यों दो आंखों में सिमट जाती है
कुछ तो गिफ्ट होगा....?
मिलना है शाम को कही भी....!
जिस पिज्जा को पहुंचाना है,वही खरीद कर खिलाना है ।
अरे इसका दाम भी तो रोज बढ़ता है सैलरी से ज्यादा...!
दोस्तों के साथ शेयर करना है पानी हो या बीयर...
दोनो में से कोई चीज नहीं मिलती है फ्री
खुद भी तो चाहिए एक सही सा जूता
सेल में मिले या रिसेल में...जेब के खांचें में बैठता हो फिट....
और सही से लग जाएं किक,घिसे हुए सोल से फिसलती है किक
और सूजन डाल देती है पंजें की हड्डी में
और ये सूजन निकाल देती है हवा पर्स की.....!!

किराया घर का हर तारीख पर देना है।
बिल बिजली का सही समय पर देना है..!
खाना भी रोज ही चाहिए
कुछ तो खर्च होना ही है,बहाना चाहे जितना बनाईंये....!
मंडली दोस्तों की हो
या साथ,दुनिया की सबसे अलग आंखों का
दोस्तों की जान रहना है न....!

बहन का अभिमान रहना है
मां का स्वाभिमान रहना है
इसलिए ऐसी रेडलाईटों को तो रोज ही सहना है.....!!!!

जल्दी में कई बार अखबार के आखिरी पन्नें की खबरें छूट जाती है ।

पेज पर छपे गरीबों के मसीहाओं के बच्चों की शादी के खूबसूरत फोटों के ठीक नीचे
रेड लाईट पार करता हुआ एक डिलिवरी ब्वॉय एक्सीडेंट में कुचला गया......!

घंटों बाद पहुंची पुलिस ने जाम खुलवा दिया है।
शव की पहचान के लिए पिज्जा हटों से सपर्क में है  पुलिस.....

#पता_नहीं_कभी_कभी_क्या_लिखदेता_हूँ.....!

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...