====चम्बल एक सिंह अवलोकन====
भाग-४
●सुवेदार पान सिंह तोमर ●
यु तो चंबल की इन अद्भत वादियो में धर्म ,मर्यादा के लिए कभी दुस्ट आक्रमण कारी मुगलो मलेक्ष्य अंग्रेजो दमन के विरोध में समय समय पर सिंह गरजानाये होती रही किन्तु अपनों की अतिसंक्रमन योजनाये भी चरम पर थी ।
कभी बंदूकों के साथ दौड़ते हुए तो कभी बंदूकों के लिएदौड़ते हुए,मौत और जिंदगी की लबीं दौड़ ही चंबल की कहानी है।
बाग़ी और पुलिस की "आइस स्पाई" के खेल में बागियों के कितने ही पैरों की अऩगिनत छाप चंबल के बीहड़ों में दर्ज है।
चबंल को शायद ही कुछ पैरों की आहट याद होगी परंतु चंबल अगर आज भी किसी को यादकरती है तो एक ऐसे शख्स के पदों की पदचाप को जिसमे स्वर्ण की खनक थी देश का गौरव था ।
जीं हां ........"स्वर्णपद" !!
चंबल की सर जमीं पर एक बागी के पैरों को चंबल अगर कोई नाम देना चाहे तो यही कह सकते है कि उसके पैरों में सोना था।
कभी सेना केबीच में अपनी रेजींमेंट को सोना दिलाने के लिए ट्रैक पर दौड़ा तो कभी देश को सोना दिलाने के लिए दुनिया के ट्रैक पर दौड़ा।
चंबल के सोने के पैर बाले बागी पानसिंह तोमर की कहानी फिल्मीं पर्दे की कहानी है.....,और ये कहानी इतनी असली थी कि पर्दे पर उतरी तो भी कही से नकली नहीं लगी.........ये है बागी सूबेदार पानसिंह तोमर की जिंदगी की रील जिसमें सबकुछ रीयलहै रील कुछ भी नहीं।
चंबल के बीहड़ों के गांवों में छिपी एक ऐसी कहानी जिसको निकलने के लिए वर्षो का इतंजार करना पड़ा, पानसिंह तोमर की आंखें जैसे आपसे प्रशन्न कर रही हो........ बहुत सारे प्रशन्न!!
एक गांव की गलियों से शुरू हुई जिंदगी का कहानी का अंत कहा जाकर हुआ.....?
एक दूसरे में आलिंगनबद्ध हुए प्रशन्न..... क्या कोई रास्ता नहीं था जो पानसिंह को चंबल की इन घाटियों से जिंदा निकाल पाता ?
या कहा जाएं कि दुनिया के अलग-अलग शहरों में घूम चुके पानसिंह केपैरों में चंबल की मिट्टी चिपकी हुई थी और उसके अंत की कहानी शायद गांव की जमीन में ही लिखी जा रही थी।
चंबल की सबसे दर्दनाक कहानियों में एक कहानी मानी जाती है पानसिंह तोमर की। गांव की किसानी से बाहर निकल देश की सेना में पहुंचने का सफर ही कम नहीं था फिर सेना के बीच एक एथलीट का सफर शुरू हुआ। पहले सेना और फिर देश के लिए रिकॉर्ड़ों का टाल लगाने के बाद पानसिंह तोमर का नाम एशियन खेलों में जा पहुंचा......एशियन गेम्स में हिंदुस्तान की ओर से दौड़ते हुए पानसिंह ने खूब दौड़ लगाई।
एक छोटे से गांव से सपनों का ये सफर चल ही रहा था कि जैसे किस्मत ने पलटा खा लिया....पैरों में पंख बांधकर ट्रैक पर दौड़ रहे पानसिंह के कदम गांव में पड़े तो समयचक्र विपरीत ही घूम गया। और कुछ दिन पहले अखबारों की सुर्खियों में रहा पानसिंह इस बार भी सुर्खियों में था लेकिन कुछ दूसरे अंदाज में.......!!
पदक के लिए ट्रैक पर दौड़ने वाला पानसिंह अब बदले के लिए चंबल के बीहड़ों में दौड़ रहा था, इस बार के ट्रैक जिंदा वापसी का कोई तरीका नहीं था।
बागी पानसिंह और एथलीट पानसिंह के बीच सिर्फ एक खबर का फासला था और वो भी आ गई.... बागी पानसिंह गैंग और पुलिस की मुठभेड़। डाकू पानसिंह की मौत।
एक अक्तूबर 1981 को गोलियों ने पानसिंह को छलनी कर दिया था।और गोलियों की आवाज पर दौड़ने वाले पानसिंह की येआखिरी दौड़ थी जिंदगी से मौत तक के सफर की आखरी दौड़। लेकिन ये कहानी काफी लंबी है उस पर बात करते है।
चबंल के बीहड़ों में बसे सैकड़ों दूसरे गांव के जैसा एक छोटा सा गांव ठिकाना मुरैना शहर से ५० किलोमीटर दूर और ग्वालियर से लगभग 100 किलोमीटर दूर तक का रास्ता काफी उबड़-खाबड़ है। बीहड़ों से होकर गुजरता है। कुछ खेतों में फसल औरकुछ में सिर्फ मिट्टी ही मिट्टी ... भिडौंसा गांव पहुंचते ही हम के मस्तिष्क की स्मिर्तियो में एक नाम आ जाता हे सुवेदार पान सिंह तोमर , पुलिस रिकॉर्ड में डाकू पानसिंह, अचूक निशानेबाज पानसिंह, फरार बागी पानसिंह जैसे कितने शब्दों से संज्ञा प्राप्त हो चुके और खुद को चंबल का शेर सूबेदार पानसिंह कहने वाले पानसिंह का घर.......!!
चंबल के इसी गांव में पानसिंह का जन्म 1931 में हुआ था। गांव के स्कूल में पढ़ाई और उसके बाद पानसिंह ने इलाके के ज्यादतर छात्रों की तरह भारतीय सैना में भर्ती की तैयारी शुरू कर दी.......और किस्मत ने भी साथ दिया और पानसिंह सन 1949 में फौंज में भर्ती हो गये ,पानसिंह की किस्मत उसको अर्श पर बैठाने के लिए तैयार थी। पानसिंह की कद- काठी पहले से ही एक नैसर्गिक एथलीट की तरह थी। फौंज के अनुशासन ने उनकी मेहनत को और निखार दिया था। सुनते है कि छह फीट एक इंच लंबे पानसिंह को भूख काफी लगती थी। बचपन में भी घर के तमाम लोगों से ज्यादा खाने वाले पानसिंह को फौंज की नियमित डाईट से थोडा परेशानी हुई तो फौंज के दोस्तों ने समझाना शुरू कर दिया कि अगर खाने की अपनी भूख मिटानी है तो फिर फौंज में खिलाड़ी बन जाओं।
छह दशक पहले की कहानी की असलियत बताने वाला तो कोई नहीं है लेकिन एक सजा के तौर पर दौंड़ लगाने के किस्से ने पानसिंह के फौंज में एक खिलाड़ी के तौर पर उभरने में मदद की।
पानसिंह फौंज में धावक बन गये........स्टेमिना और तेजी दोनो पानसिंह को खेल केमैदान में तारीफ दिलाने लगी। पानसिंह के स्टेमिना ने को देखते हुए कोच ने पहले पानसिंह को 5000 मीटर की क्रास कंट्री दौंड़ में उतारा ,अब इस बात का शायद ही कोई मतलब रहे कि पानसिंह और इस देश के उडनसिख मिल्खासिंह की भर्ती फौंज में लगभग एक साथ ही हुईथी। और दोनों ने अपने खेल जीवन की शुरूआत भी लगभग साथ ही साथ ही। पानसिंह ने ट्रैक पर रिकॉर्ड बनाने शुरू कर दिए।फ्लाईँग सिख मिलखा सिंह और पानसिंह हिंदुस्तानी फौंज के ऐसे दो नाम बनकर उभर रहे थे जिनसे अब फौंजको ही नहीं बल्कि देश को खेलों की दुनिया में पदक की उम्मीद लगने लगी थी। तभी पानसिंह तोमर को पांचहजार मीटर से स्टीपलचेज में परिवर्तित कर दिया गया। पानसिंह तोमर ने इस खेल को भी शानदार तरीके से खेला। और रिकॉर्ड तोड़ने और नए बनाने का सिलसिला बनाएं रखा। और पानसिंह की किस्मत सितारों से होड़कर रही थी।
अभी उनको कई और दुनिया का रास्ता तय करनाथा.......पानसिंह ट्रैक पर दौड़ रहे थे और उसके साथ दौड़ रहे थे रिकॉर्ड। 50 से 60 के दशक में पानसिंह अपनी रेस में सबसे आगे रहे विश्व कीर्तमान स्थापित किये .... पानसिंह की ट्रैक पर बादशाहत की गवाही उसका रिकॉर्ड देता है। लगातार सात साल तक अंतराष्ट्रीय चैंपियन रहे पानसिंह का रिकॉर्ड भी उसके ट्रैक से विदा होने के दस साल बाद ही टूटा।
1956 के कॉमनवेल्थ खेल हो या फिर 1958 के टोक्यो एशियन गेम्स पानसिंह को पदक भले ही हासिल न हुआ हो लेकिन उसका प्रदर्शन बेहतरीन रहा। ट्रैक पर उसकी ख्याति देश और विदेश के खेल जगत में हो गई। 1958 में भी उन्होंने मुन्नास्वामी का रिकॉर्ड तोड़ दिया था.......काश ये ही पानसिंह की जिंदगी की कहानी की अंतिम शिखर न होती .....!!
फौंज में पानसिंह की तरक्की हो रही थी तो गांव में जिंदगी के रास्ते अलग दिशा में मुड़ते जा रहेथे। फौंज उनकी अहमियत खेल के मैदान में जानती थी लिहाजा उसको 1962 में चीन के साथ हुए युद्द और 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्द में भाग नहीं लेने दिया गया।
लेकिन अब पानसिंह ट्रैक से उतर अपनी जिंदगी शुरू करना चाहते थे ,और आखिरकार सूबेदार पानसिंह ने बंगाल इंजीनियर्स रूड़की से अपना रिटायरमेंट ले लिया। और पानसिंह चल दिये अपनी नई जिंदगी की तरफ, अपनो के बीच।पानसिंह भिडौंसा अपने घर आ पहुंचे गांव में अपनीपुश्तैनी जमीन में खेती करने। जमीन बहुत ज्यादा तो नहीं थी लेकिन पानसिंह को अपनी मेहनत पर भरोसाथा उसी मेहनत पर जिसने उसको गांव की गलियों से निकाल कर टोकियों के ट्रैक तक पहुंचा दिया था। लेकिन पानसिंह की सीधी जिंदगी में एक बड़ा मोड आ ही गया।
सवा दो बीघा जमीन....... बस जमीन का इतना सा टुकड़ा और ढेर सा स्वाभिमान।
इस बात से शुरू हुई गांव की अपने ही परिवार की रंजिश। एक ही खानदान के दो हिस्सों में जमीन को लेकर टकराव शुरू हो गया। पानसिंह के बड़े भाई मातादीन ने पानसिंह की फौंज में नौकरी के दौरान कर्ज लेकर जमीन अपने खानदानी और आर्थिक तौर पर मजबूत बाबू सिंह के परिवार को दे दी थी। बाबू सिंह का परिवार गांव का सबसे ताकतवर परिवार था। गांव की कहावत के हिसाब से हल और हाली या लाठी और लठैत दोनों में मजबूत।
250 लोगों का मजबूत परिवार और सात-सात लाईसेंसी बंदूकें। ये गांव में किसी को हुकुम बना देती है।लिहाजा मातादीन की दी गई जमीन पर कब्जा कर लिया गया।गांव में झगड़े के हालात बन गये। अपनी जवानी को देश को न्यौछावर कर चुके पानसिंह को यकीन था कि कानून उसकी ओर खड़ा होगा। देश का नाम ऊंचा करने वाले फौंजी का सिर को देश का कानून नीचा नहीं होने देगा। लेकिन उससे पहले वो गांव के पंच परमेश्वर से इंसाफ लेना चाहता था। एक ऐसा इंसाफ जिससे उसको अपनी जिंदगी आसानी से जीने की मोहलत मिल सके।
पानसिंह ने पंचायत में पंचों के दर पर दस्तक दी। पंचायत भी गांव के बीच में हुई। और इस पंचायत में पहुंचे जिले के मुखिया। कलक्टर साहिब और पुलिस कप्तान साहब। दोनों की मौजूदगी में हुई पंचायत ने तो पानसिंह का माथा ही हिला दिया।पंचायत में पैसे की गर्मी ने अपना खेल कर दिया। और खेल के मैदान का बेजोड़ खिलाडी पानसिंह तो जैसे रेस में कही टिक ही नहीं पाये किन्तु पंचायतके आदेश को मान कर पैस पुनः दे दिये गए। लेकिन ये कहानी तो यहां से शुरू हो रही थी। बाबू सिंह को पैसे नहीं पानसिंह की बेईज्जती चाहिए थी।
और शायदयही वो मोड़ था जहां से चंबल का पानी फिर से एक और कहानी देखने वाला था।पानसिंह ने कानून के दरवाजे पर दस्तक दी। पंचायतमें हुए फैसले को बाबू सिंह परिवार ने अहमियत नहीं दी। आखिर चंबल का उसूल है कि जो कमजोर होता है वही झुकता है। पानसिंह के लिए गोली की आवाज का मतलब ट्रैक पर दौड़ना होता था लेकिन चंबल में गोली की आवाज का मतलब बदल जाता है।
पानसिंह ने अपनी जमीन बचाने के लिए पंचायत की थी लेकिन पंचायत ने उसकी पगड़ी ही उछाल दी। कलेक्टर और पुलिस कप्तान के लिए एक रोजमर्रा का मामला था जिसका फैसला अक्सर चंबल में बंदूकों की आवाजें खुद कर लेती है।पानसिंह को पंचायत से मायूसी मिली तो बाबू सिंह का हौंसला आसमान पर था। और एक दिन पानसिंह के बेटे की सरेराह मरणासन्न स्तिथि तक पिटाई कर दी। बात बढ़ी और बाबू सिंह का परिवार पानसिंह के घर पर हथियारों सहित चढ़ आया। पानसिंह घर से बाहर था और घर के भीतर पानसिंह का बेटा था। जान बचाने के लिए फायर किया तो भीड़ ने भी चढ़ाई कर दी। बेटा जान बचा कर निकलातो बाबू सिंह ने बुजुर्ग मां की पिटाई कर दी।
पानसिंह की समझ में कुछ नहीं आ रहा था लिहाजा वो फिर से कानून के दरवाजें पर जा पहुंचा। लेकिन चंबल के किस्सों में पुलिस की कहानियां जिस तरह दर्ज है पुलिस ने उसी तरह से काम किया।
कहते है किपुलिस अधिकारी ने पहले तो स्टीपलचेज का मतलब ही नहीं समझा और मारपीट और गोलीबारी तो तब तक बेकार बताया जब तक तीन-चार लाशें न गिर जाएं।बुरी तरह से टूटे हुए पानसिंह घर लौटे तो मां ने कहा कि अगरवो उसकी बेईज्जती का बदला नहीं ले पाता वो अपना खून माफ नहीं करेंगी..... और बस यही सब्र की हद थी। पानसिंह ने वो राह पकड़ ली जिसमें कभी वापसी नहींहोती। इसके बाद पानसिंह ने बंदूक उठाई और ट्रिगर पर उंगिलयां जमा दी।सेना के अनुशासन और धावक की चपलता दोनो ने पानसिंह के सीने में जल रही आग को और भड़का दिया। बदले की आग में सबसे पहले तो पानसिंह का सुनहरा अतीत जला और फिर उसके दुश्मनों के घर जलने शुरू हो गए।
पहले जंडेल सिंह, उसके भाई हवलदार सिंह और आखिर में बाबू सिंह के सीने में गोलियां उतार दी। पानसिंह के बीहड़ों में उतरने के साथ ही बाबू सिंह ने पुलिस सुरक्षा हासिल कर ली थी लेकिन पानसिंह को धुन लग चुकी थी। उसको बाबू सिंह की मौत चाहिए थी।
एक दिन जैसे ही उसको खबर लगी कि बाबू सिंह आ चुका है तो वो अपने आदमियों केजा धमका। और बाबू सिंह ने भाग कर जान बचाने की कोशिश की लेकिन चंबल के बीहड़ों का सबसे बड़ा धावक उसका दुश्मन था लिहाजा उसकी दौड़ ज्यादा दूरतक न चल पाई। और पानसिंह ने उसको भी भून दिया। लेकिन दुश्मनी की दौड़ में पानसिंह शामिल तो हो गये लेकिन वो ये भी जानते ठेव कि अब उसको मौत ही इन जंगलों से जुदा कर सकती है। पानसिंह ने कहा कि थाने में समर्पण कर नहीं सकता, गांव में रह नहीं सकता और सरकार से कोई मदद नहीं तो जिंदगी बस अब मारना और मरना इसके सिवा कुछ भी नहीं। और अब पानसिंह ने एक नई दौंड़ में हिस्सा ले लिया और ये दौड़ थी चंबल का दस्यु सम्राट बनने की। चंबल का बादशाह बनने की और चंबल का शेर कहलाने की। यानि ये कहावत सोने से कोयला बन कर जलने की दौड़ थी।
पानसिंह का गैंग चंबल के बीहड़ों में एक और नया गैंग नहीं था...बल्कि बिलकुल नया गैंग था। जिसका सरदार डाकू पानसिंह नहीं सूबेदार पानसिंह कहलाना पसंद करता था।
पानसिंह के अंदर डर नहीं था। एक के बाद एक दुस्साहसिक वारदात। चंबल थर्रा उठा। ये वो दौर थाजब चंबल में मलखान सिंह, मानसिंह, फक्कड बाबा, और फूलन का गैंग चल रहा था। ऐसे में पानसिंह ने एक के बाद एक बडी पकड़ करनी शुरू कर दी। और इसके लिए नए नए फिल्मी तरीके इस्तेमाल किए। चंबल का शेर कहलाने का जुनून अब पानसिंह के सिर पर था। ये जुनून उसको ट्रैक की बादशाहत जितना प्यारा लग रहा था। हर पकड़ या फिर एनकाउंटर के बाद माईक पर एनाउंस करता हुआ पानसिंहअपने गैंग का ऐलान करता था कि ये गैंग है चंबल के शेर डकैत सूबेदार पानसिंह तोमर "भिडोसा "//
चंबल की पुलिस का इससे पहले ऐसे गैंग से पाला नहीं पड़ा था जो मुठभेड़़ में इतना साहस दिखाता हो। पानसिंह माईक पर चिल्ला चिल्ला कर पुलिस वालों से मैदान छोड़ कर भागने को कहता रहता था।लेकिन पुलिस लगातार पानसिंह का पीछा कर रही थी। और पानसिंह को भी डकैंतों के तौर-तरीके उस तरीके नहीं आते थे जिनसे चंबल में दशकों तक डाकू अपने आप को पुलिस की गोली का निशाना बनने से बचते रहते है।
गैंग काफी बड़ी हो चुकी थी। एक वक्त पानसिंह के गैंग में 28 हथियार बंद डकैंत शामिल थे। हथियार चलाने और भागने की ट्रैनिंग खुद पानसिंह देते थे ।
यहाँ तक की एक रिपोर्टर को बुलाकर तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह को खुला चेलेंज दे दिया ......और यही भारी चूक हुई नेता की आँख में किरकिरी बनना भारी पडी ।
रठैयन का पूरा (दगावाज गाव के नाम से आज कुख्यात )
गांव में गैंग कई बार रूकता था बस बात की मुखबिरी कर दी गयी गांव दलितों का था। इंस्पेक्टर मानसिंह को थोड़ी सी मशक्कत के बाद ही रास्तामिल गया। मुखिया को ईनाम और उसके बच्चों को पुलिसकी नौकरी। और पानसिंह के लिए व्यूह तैयार........१अक्तूबर १९८१ पानसिंह का गैंग चंबल पार कर इसगांव में घुस रहा था तो भैंस पर बैठे हुए एक लड़केको देखकर पानसिंह के भतीजे बलवंता ने कहा कि चाचाआज यहां रूकना ठीक नहीं शगुन सही नहीं दिख रहे है।
लेकिन पानसिंह ने मानने से इंकार कर दिया। रठैयनका पुरा गांव के मुखिया मोती ने गर्मजोशी से स्वागत किया। और बकरा बनाकर एक मध्यम जहर मिला शराब गैंग को परोस दी गयी गैंग के पिछले कुछ दिन ठीक नहीं थे। कुछ दिन पहले ही उसके चार सदस्य एक मुठभेड़ में मारे गए थे और दस लोग अपने मूल ठिकाने पर थे। 14 लोग जब दारू और खाने के बाद लेटे हुए थे तभी बलवंता चिल्लाया कि यहां पुलिस आ चुकी है।
पानसिंह उनको उड़ाना चाहताथा लेकिन मोती ने मनुहार कर उसको मना लिया। और पानसिंह ने गांव से निकलने की तैयारी शुरू कर दी।लेकिन उसको मालूम नहीं था कि गांव की हर गली मोहल्ले में पुलिस वाले तैनात है। गांव के पीछे से निकलने की प्लान के बीच ही उसको पता चल गया कि पुलिस ने गांव को एक पिंजरे में बदल दिया है अब चारो तरफ पुलिस वाले है। लेकिन पानसिंह ने समर्पणकी बजाय पुलिस पर हमले का रास्ता चुना।शाम सात बजे से रात भर फायरिंग चलती रही। बीच बीच में पानसिंह मेगाफोन से पुलिस वालो पर चीखता रहा कि दाल खाने वालों अपनी जान बचाकर निकल लो ये सूबेदार पान सिंह तोमर भिडौसा की गैंग है तुम सब मारे जाओंगे। और इसी मेगाफोन की आवाज से पुलिस कोअंदाजा हो गया कि पानसिंह तोमर गांव के पास की नहर पार कर बीहड़ों में घुस जाने वाला है।
पुलिस ने उस तरफ की गारद को सावधान किया और वहां से निकलने से पहले ही फायरिंग ने पानसिंह गैंग के लोगो को चीर कर रख दिया। उस मुठभेड़ से बच निकलने वाला बलवंता (पान सिंह के भतीजे बलबन्त सिंह )के लिए जैसे वो कल की बात थी। सुबह के उजाले में पुलिस को पानसिंह गैंग के दस लोगो की लाशें नहर के किनारे पड़ी मिली। और उनमेंसे एक लाश पानसिंह की थी। वही पानसिंह जिसके पैरों के सहारे सेना और देश ने कितने मैडल जीते थे अब इस लाश के सहारे पुलिस पार्टी को मैडल मिलना था।
किन्तु पानसिंह की कहानी चंबल की ऐसी दर्दनाक कहानियों में से एक है जो फर्श से अर्श और अर्श सेफर्श के सफर को हकीकत में दिखाती है। मुठभेड़ के बाद गैंग में कुछ बचा नहीं और बलवंता ने भी समपर्ण कर दिया। और आज चंबल में पानसिंह की कहानीबची है या फिर इस कहानी को सुनाते हुये बलवंत सिंह ।
और रह जाती हे एक स्वर्णमय कदमो की अनदेखी आहत भिडोसा ठिकाने की गलियो में ।
क्रमशः
प्रस्तुत लेख स्व अध्यन ओलम्पिक रिकॉर्ड विकिपीडिया, बलबन्त सिंह जी की बातचीत ,व् बुजुर्गो की किस्सा गोई पर उध्दृत ।
(प्रस्तुत सांकेतिक फ़िल्मी पोस्टर व् जीवित अवस्था में सुवेदार पान सिंह तोमर )
तृतीय चित्र व् चतुर्थ चित्र आराधना चौहान जी से साभारप्राप्त ।
बहुत ही उम्दा लिखा है लले , बधाई हो
जवाब देंहटाएंआपका स्नेहाभार
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