सोमवार, 22 नवंबर 2021

बॉलीवुड 'नीलिमा अजीम'

प्यार का सहारा न मिला ।

नीलिमा अजीम का जन्म 2 दिसम्बर 1958 को हुआ था । बचपन से हीं उनकी रुचि कत्थक नृत्य में थी । बड़ी होकर उन्होंने कत्थक नृत्य में अपनी कामयाबी के असीम पल गुजारे हैं । उन्हें कत्थक की राजकुमारी के नाम से जाना जाने लगा । उन्होंने बाइबिल की कहानियां , कश्मीर, फिर वही तलाश और धूम मचाओ धूम आदि धारावाहिकों में काम किया । उनकी फिल्मों का सफर फिल्म सड़क से 1991 में शुरु हुई थी । उसके बाद उन्होंने कर्म योद्धा (1992), नागिन और लुटेरे (1992) , हाहाकार ( 1995) , छोटा सा घर (1996),  इतिहास (1997 ), इश्क विश्क (2003) और देहरादून डायरी ( 2013) में काम किया है ।

नीलिमा अजीम की निजी जिंदगी बहुत उतार चढ़ाव वाली रही । उन्होंने तीन शादियां की । कोई कामयाब नहीं रही । उनकी पहली शादी आफिस आफिस धारावाहिक फेम पंकज कपूर से 1975 में हुई थी । एक बेटा हुआ - शाहिद कपूर । वही शाहिद कपूर जिसने पद्मावती , हैदर , जब वी मेट , कमीने और उड़ता पंजाब जैसी हिट फिल्में की हैं । आज शाहिद कपूर को सुपर स्टार का दर्जा मिला हुआ है । लड़ते झगड़ते यह शादी 9 साल तक घिसटती रही । 1984 में दोनों अलग हो गये । पंकज कपूर ने सुप्रिया पाठक से शादी कर ली । बाद में 1990 में नीलिमा अजीम ने फिल्म अभिनेता राजेश खट्टर से शादी की । यह शादी 11 साल तक चली । 2001 में यह शादी भी टूट गयी । इस शादी से एक बेटा ईसान खट्टर पैदा हुआ । यह बेटा भी फिल्मी लाइन में हीं गया । उसकी फिल्म धड़क खूब चली है ।

राजेश खट्टर ने बाद के दिनों में वंदना सजनानी से शादी कर ली ।  नीलिमा अजीम ने भी अपनी तीसरी शादी अपने बचपन के दोस्त और क्लासिकल वोकालिस्ट उस्ताद रजा अली खां से 2004 में की । उम्मीद थी कि यह शादी सफल होगी , पर यह शादी तो केवल पांच साल हीं चली । इन दोनों का 2009 में तलाक हो गया । एक बार फिर नीलिमा अजीम को मिस्टर राइट नहीं मिला । जब त्याग, समर्पण , प्यार का अभाव होता है तो शादियां टूटती हैं । अब यह अवधारणा दम तोड़ने लगी है कि जोड़ियां आसमान में बनतीं हैं । जोड़ियां इसी धरती पर बनतीं हैं । जब आपसी समझ बेकार हो जाती है तो ये शादियां इसी धरती पर हीं टूटतीं  हैं । पहले कम टूटती थीं , अब ज्यादा टूटती हैं । हम जीरो टाॅलरेंस की तरफ बढ़ रहे हैं ।

ऐसे संकट की घड़ी में शाहिद कपूर ने अपनी मां का भरपूर साथ दिया है । उनका अपने जैविक पिता पंकज कपूर के साथ साथ सौतेले पिताओं राजेश खट्टर और उस्ताद रजा अली खां के साथ भी मधुर सम्बंध हैं । उनकी शादी में इनके तीनों पिताओं ने शिरकत की थी । उनकी मां के साथ साथ उनकी सौतेली माताएं ( सुप्रिया पाठक , वंदना सजनानी ) भी वर वधू को आशीर्वाद देने आयीं थीं । ज्ञातव्य हो कि शाहिद कपूर ने मीरा राजपूत से शादी की है । उनको एक बेटा और बेटी का प्रेम रतन मिला है । शाहिद कपूर का अपने भाई ईशान खट्टर से भी अच्छे सम्बंध हैं । एक बार एक इण्टरव्यू के दौरान शाहिद कपूर ने मजाक में कहा था । मैं अपने बच्चों से पहले ईसान खट्टर की नैपी बदल चुका हूं ।

जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो उनकी अलग दुनियां हो जाती है । वे अपनी इस दुनियां में रम जाते हैं । मां बाप के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं । 12 जनवरी 2017 को नीलिमा अजीम की फिल्म का प्रीमियम था । शाहिद कपूर अपनी फिल्म पद्मावत की शूटिंग में व्यस्त थे । नहीं आ पाए । ईसान खट्टर थोड़ी देर के लिए आए और चले गये । नीलिमा अजीम को बहुत खाली खाली का आभास हुआ होगा । उनको फिर से अपना घर बसाने की सोचनी चाहिए  । क्या पता अबकी बार मिस्टर राइट मिल जाय । जिंदगी का खालीपन भर जाय ।

जिंदगी की राहों में रंजोगम के मेले हैं ।
भीड़ है कयामत की और हम अकेले हैं ।

            कोपिड फ्रॉम     - इं एस डी ओझा सर

सोमवार, 30 अगस्त 2021

नारायणी सैना (देवेंद्र सिकरवार फेसबुक लेख)



यूँ तो कृष्ण के चरणों की धूल के कण मात्र पर भी महाकाव्यों की रचना हो सकती है परंतु फिर भी उनके कालखंड में उनके चहुं ओर व्याप्त घटनाओं, व्यक्तियों व उपकरणों के प्रति मेरी अधिक आसक्ति रही है। 

उनका एक महत्वपूर्ण उपकरण थी नारायणी सेना। 

-नारायणी सेना, तत्कालीन युग की सबसे शक्तिशाली सेना
-नारायणी सेना, कृष्ण की सबसे भयानक प्रहारक शक्ति।
-नारायणी सेना, कृष्ण का सबसे बड़ा उपदेश।

पर आश्चर्य की बात है कि महाभारत युग की सबसे महत्वपूर्ण सैन्य शक्ति का अधिक विवरण पुराणों में उपलब्ध नहीं। 

इसका कारण भगवान वेदव्यास, महर्षि जैमिनि आदि लेखक व बुद्धिजीवियों की सैन्य विषयक मामलों में उदासीनता नहीं बल्कि कृष्ण के महान उद्देश्यों के समक्ष उसकी लघु महत्ता है। 

यही कारण है कि विभिन्न स्रोतों से लेकर मैंने नारायणी सेना के संबंध में उपलब्ध सूचनाओं को जोड़कर उसके संगठन व स्वरूप को निर्धारित करने का दुःसाहस किया है। 

वस्तुतः नारायणी सेना के संगठन का प्रारंभ तभी हो गया था जब कृष्ण ने गायें चराते हुये न केवल आभीरों की युद्धकला को आत्मसात किया बल्कि उसे पूर्ण मार्शल आर्ट में परिवर्तित करते हुए #वेलाकलि शैली को जन्म दिया। 

यह वैदिक कलारी की तीसरी शैली थी।

महारुद्र शिव द्वारा जन्मी, कार्तिकेय द्वारा प्रसारित इस कला के दो रूप 'थेक्कन' और 'वदक्कली' पहले ही अगस्त्य व परशुराम द्वारा प्रचलन में थी। 

हाथ में लकड़ी के ठोस दण्डों से 'डांडिया' रास ही नहीं होता था उससे दुश्मन का सिर भी चूर चूर किया जा सकता था। 

कमल पत्र और मृणाल तो बस प्रतीकात्मक व प्रशिक्षण भर के लिए था वरना कमलपत्र ढाल के रूप में और मृणाल लपलपाती तलवार के रूप में शत्रु का सिर धड़ से अलग कर सकती थी। 

रासनृत्य केवल मनोरंजन नहीं था बल्कि प्रहारक 'युद्ध नृत्य' भी था और यह कोई संयोग नहीं कि राजपूतों तक यह 'War Dance' शैली में तलवार संचालन होता रहा। 

और इतनी से नन्हीं अवस्था में इन युद्ध कलाओं का विकास करने वाले इस चमत्कारी बालक की क्षमताओं का अंदाज इसी से लगा लें कि मर्मस्थलों पर वार करके चाणूर व मुष्टिक जैसे भारत प्रसिद्ध मल्लों को माँस का लोंदा बना दिया और सटी हुई उंगलियों के एक कर प्रहार से गुंडे रजक की गर्दन सफाई से ऐसे उड़ा दी मानो हथेली हथेली न होकर तीखी छुरी हो। 

वस्तुतः भारत उस युग में एक खतरे का सामना कर रहा था। 

राम के युग के पश्चात 'असुर' पश्चिम एशिया में शक्तिशाली हो रहे थे और विभिन्न व्यापारिक बस्तियों के माध्यम से राजनीति में हस्तक्षेप करने लगे थे। 

वे जरासंध के संपर्क में थे, 
वे कंस के संपर्क में थे, 
वे बाणासुर व नरक जैसे प्राचीन असुरों के भी संपर्क में थे।
वे दुर्योधन से भी संपर्क करने का प्रयत्न कर रहे थे। 

-जरासंध उनके दूषित प्रभाव में आकर 'नरमेध' जैसा दुष्कृत्य करने पर उतारू था।
-कंस असुरों का प्रयोग 'भाड़े के हत्यारों' के रूप में करने लगा। 

सिंधु क्षेत्र में यूनानियों की बस्ती 'दत्तमित्री' के रूप में एक और अलग खतरे के रूप में थी और उनका नेता गर्गाचार्य का पुत्र  'कालयवन ' जो आर्य संस्कृति का कट्टर शत्रु था जिससे असुरों का गठबंधन तय था। 

संभवतः जब कृष्ण जरासंध व कालयवन के 'इनसिजन टैक्टिक' अर्थात 'कैंची आक्रमण' से बचने के लिए यदुसंघ के 'महान निष्क्रमण' का नेतृत्व कर रहे थे उस समय ही उन्हें संभवतः एक पेशेवर सेना के संगठन की आवश्यकता प्रतीत हुई जिसके लिए सबसे अधिक आवश्यकता थी धन की। 

उन्होंने सबकुछ सोचकर शार्यात आर्यों के क्षेत्र पर अधिकार जमाकर बैठे प्राचीन असुरों के अड्डे 'कुशस्थली' पर आक्रमण कर उसे अधिकार में कर यदु गणसंघ को अजेय जलदुर्ग में सुरक्षित कर दिया बल्कि  पश्चिम एशिया के व्यापारिक केंद्र  पर अधिकार कर लिया।

धन अब कोई समस्या नहीं था। 

हरे भरे चरागाह, कृषि भूमि और पश्चिम एशिया से संपूर्ण व्यापार अब  कृष्ण की मुट्ठी में था। 

उनके द्वारा प्रशिक्षित गोपों की यह परंपरा से बनी एक छोटी मोटी सेना जो वृंदावन में ही तैयार हुई थी वही अब  एक पेशेवर सेना के रूप में नारायणी सेना के रूप में  विकसित हो गई क्योंकि अब  उनके हाथों में व्यापार व वाणिज्य के रूप में अकूत आर्थिक स्रोत पर उनका अधिकार में था। 

जरासंध मंडल जिस अनुपात में सेना बढा रहा था उसी अनुपात में कृष्ण को भी नारायणी सेना की संख्या बढ़ानी पड़ी जो बढ़ते बढ़ते  चार अक्षौहिणी अर्थात लगभग नौ लाख के आसपास हो गई। 

कृष्ण ने इस सेना की छावनियां चतुराईपूर्वक उन क्षेत्रों में स्थापित की जिनपर कोई राज्य अपने अधिकार का दावा नहीं कर सकता था लेकिन भारत के सभी महत्वपूर्ण मार्गों पर उनका नियंत्रण स्थापित हो गया। 

उदाहरण के लिए उन्होंने अपनी सेना के एक बड़े भाग को चर्मण्यवती अर्थात चंबल के बीहड़ों में रखा जिससे न केवल सेना के पोषण हेतु विशाल चरागाह क्षेत्र मिल गया बल्कि विभाजन के कारण कमजोर हो चुके पांचालों को कुरुओं व मगध के विरुद्ध तुरंत सहायता पहुंचाई जा सकती थी। 

एक भाग कहीं न कहीं पूर्व में भी था ताकि काशी, पुण्ड्र और प्राग्ज्योतिषपुर के गठबंधन पर दृष्टि व नियंत्रण रखा जा सके व अभियान के समय तुरंत सैन्य उपलब्ध हो सके। 

उन्होंने सेना का एक बड़ा भाग निश्चय ही सौराष्ट्र में तो रखा ही होगा क्योंकि न केवल जरासंध मंडल बल्कि पश्चिमी एशिया के असुरों से सुरक्षा आवश्यक थी जिन्हें कृष्ण तीन बार सबक सिखा चुके थे। 

प्रथम कुशस्थली से एक एक असुर का समूल नाश ताकि पश्चिमी सीमा सुरक्षित रहे।
द्वितीय कालयवन का विनाश जिसमें भारी संख्या में असुर भी थे।
तृतीय गुरुदक्षिणा के तौर पर गुरुपुत्र को वापस लाने के प्रक्रम में पंचजन के पूरे बेड़े का विनाश। 

जरासंध की मृत्यु व शाल्व वध के साथ ही नारायणी सेना ने अपने सारे लक्ष्य पूर्ण कर लिये लेकिन तीन खतरे अभी भी उपस्थित थे। 

1-पूर्वोत्तर में नरक व बाणासुर जैसे असुर संस्कृति के पोषक राजाओं की उपस्थिति
2-असुरों का दुर्योधन से गठबंधन 
3-एकलव्य का द्वारिका के पास के द्वीपों में सैन्य उपस्थिति। 

पर सबसे बड़ा खतरा स्वयं नारायणी सेना ही बनती जा रही थी और कृष्ण इसे भलीभांति समझ रहे थे। 

सैद्धांतिक रूप से गणसंघ का नेतृत्व भले ही अंधकवंशी उग्रसेन के हाथों में था लेकिन वास्तविक नेतृत्व कृष्ण-बलराम व सात्यिकी  के हाथों में था और यही बात भोज व अन्धकवंशियों को खटक रही थी जिनका नेतृत्व कृतवर्मा कर रहा था। 

प्रारम्भ में कृष्ण के प्रशंसक रहे वृष्णिवंशी अक्रूर भी व्यक्तिगत कारणों से इस गुट से मिल गए और इस फूट ने स्यमंतक मणि के माध्यम से यदुकुल के विनाश का बीज बोया। 

और वैसे भी यादवों को अब कृष्ण व धर्म की आवश्यकता नहीं रह गई थी क्योंकि वह उनके अबाध भोग व सत्तामद के आड़े आ रहे थे। 

चूँकि कृष्ण सामूहिक नेतृत्व व सत्ता के विकेंद्रीकरण में भरोसा करते थे अतः उन्होंने 'नारायणी सेना' को कई भागों में बांटकर उसका नेतृत्व विभिन्न कुलों को सौंप दिया और सबसे बड़ा भाग कृतवर्मा को दिया। 

कृष्ण की उदारता के कारण सेना की निष्ठा अपने सेनानायकों के प्रति आ गई और उनकी बुराइयां भी। 

कृष्ण ने नारायणी सेना के अधिकांश भाग को नष्ट करवाने का निश्चय कर लिया लेकिन उससे पूर्व उन्होंने एक विशाल टुकड़ी लेकर एक अत्यंत गोपनीय अभियान किया और वह था एकलव्य के विरुद्ध। 

संभवतः एकलव्य की किसी भी पक्ष की छावनी में अनुपस्थिति ने उन्हें एकलव्य के इरादों के प्रति सतर्क कर दिया। वे पुनः शाल्व प्रकरण को दोहराना नहीं चाहते थे खासतौर पर जब बलराम दुर्योधन की अप्रत्यक्ष मदद हेतु  अपनी ही 'कूटनीति' दिखाने के चक्कर में सारे यादव महारथियों को अपने साथ 'तीर्थयात्रा' पर ले गए थे। 

द्वारिका असुरक्षित थी और पीछे की ओर से पांडव शिविर भी अतः उन्होंने एकलव्य के गुप्त ठिकाने पर आक्रमण किया और उसका वध कर उप्लवय लौट आये और इसका खुलासा घटोत्कच की मृत्यु के समय किया। 

अब बारी नारायणी सेना के विध्वंस की थी जिसमें से एक अक्षौहिणी से भी अधिक का निजी भाग कृतवर्मा के नेतृत्व में दुर्योधन के शिविर में भेज दिया।

सात्यिकी अपने संघीय व व्यक्तिगत अधिकार का हवाला देकर अपने नेतृत्व वाली सेना के साथ पांडव शिविर में आ गए। 

परंतु हास्यास्पद घटना यह हुई कि दुर्योधन ने कृष्ण के ऊपर अविश्वास के चलते नारायणी सेना को टुकड़ियों में बांटकर अलग अलग सेनापतियों के अधीन कर दिया जिससे उसकी मारक क्षमता ही समाप्त हो गई। 

कृष्ण के नारायणी सेना के बदले चरित्र के आकलन की सटीकता और उनके प्रशिक्षण की भयानकता को इसी बात से समझा जा सकता है कि युद्ध में इन सैनिकों ने खाली हाथों से ही अर्जुन के रथ के घोड़ों, चक्रों से लिपटकर रथ को अवरुद्ध कर दिया और अगर उस दिन कृष्ण न होते तो अर्जुन के साथ दुर्घटना होनी तय थी। 

खैर कौरवों के साथ नारायणी सेना का भी विनाश हुआ लेकिन कुछ महाभारत विशेषज्ञों के अनुसार नारायणी सेना के चौबीस सहस्त्र आभीर सैनिक भाग गए और पंजाब के घने वनों में आभीरों की पश्चिमी शाखा से जा मिले व कृष्ण के जाने के बाद अर्जुन पर आक्रमण कर अपने विनाश का प्रतिशोध लिया। 

कुछ आभीर सैनिक दक्षिण की ओर चले गए जहाँ उन्होंने कृष्ण की कलारी विधि 'वेलाकलि' का प्रचलन किया जो कलारी की अन्य मूल शाखाओं के साथ प्रैक्टिस की जाने लगी। 

अस्तु! 

नारायणी सेना एक अत्युत्तम उदाहरण है ऐसे लोगों का जो न्यायपथ पर चलते चलते अपना मार्ग भटक जाते हैं और फिर समूल विनाश ही उनकी नियति बन जाता है।

रविवार, 22 अगस्त 2021

प्रिया छुटकी की राखी पर

#मेरी_छुटकी
अबकी बार तेरी भेजी हुई स्नेहसूत्र कि पाती बिल्कुल समय पर मिली,जैसे सब कुछ संबरने लगा है,मेरे जीवन का हर एक बिखरा पन्ना फिर से जुड़ने लगा है।पर मुझे लगता है कि अब तू बड़ी होने लगी है..न पहले की रूठती है और न अब लड़ती है...बहुत दिन हो गए!अपनी चिरैया की चहचहाट सुने हुये...वह तेरे पैने बोलो की मधुराहट में खुद को मन्त्रमुग्ध हुये देखना जैसे आंगन की चिरैया का चहचहाना पल-पल स्मृतियों में तेरे शने-शने बड़े होने को में हर क्षण महसूस करता हूँ।
पिछली बार की राखी पर वह तुम्हारा बार-बार पूछना इस बार तुम्हारे आत्मविश्वास के आगे कहि छुप गया क्योंकि बिटिया को आश्वस्त दिखी...नीयत समय पर  उसका निश्छल प्रेम पहुंच ही जायेगा।

तू कितनी भी बड़ी हो जाये,अपने लक्ष्य प्रशासनिक अधिकारिणी बनने को अतिशीघ्र  पूर्ण कर जाए किन्तु तू मेरे लिए सदा वही रहेगी जिसकी नाक बहती है और में मग्न होकर उसे पोंछ कर तुझे दुलार रहा होता होता हूँ।जी करता है की तुझसे जब भी मिलु ,तुझे गुलाबी फ्रॉक में कंधे पे उठाकर नाचता फिरू ..चंहुओर तेरी ख्वाहिशो पर अपने अंक का हिंडोला बनाके झुलाता रहू..!वह समय अपनी गति को स्थिर कर दे और तुम बस मेरे कांधे बैठ मेरे सिर पर अपने नन्हे-नन्हे हाथो से बाल पकड़कर बैठी रहो ।
बहुत दिन हो गए अपनी छुटकी का गुस्से में टेड़ा मुंह बनते हुए देखना,जैसे इस बनाबटी गुस्से में भी असीम स्नेह-बात्सल्य निर्झर होकर झरता है न..यही मेरे इस जीवन की अशेष पूंजी है।
पिछली बार तेरा स्नेहसूत्र थोड़ा बिलम्ब से मिला ,उसे में सहेजकर रखे रहा और इस जीवन के मृत्युलोक आगमन दिवस पर अपने कर में आत्मसात किया क्योंकि सारा जीवन ही उस दिन का ऋणी है जब इस दुनिया मे हम आते है,फिर तेरे प्रति मेरे कर्तव्यों का स्मरण मेरे जन्म दिवस से बेहतर कोई दिन हो ही नही सकता है ।

सच कहें तो मेरे जीवन मे अशेष रिक्तताये थी  जो तेरे आने से एकाएक परिपूर्ण हो उठी है,जैसे सुष्क हुए तड़ाग में किसी के आशीष से दुग्ध रत्न से परिपूर्ण हो उठा हो,जीवन की  समस्त आशाएं एक साथ आकर मेरा पता मुझसे पूछ रही हों।
मुझे नही पता कि तेरे इस स्नेह ऋण का भार  कैसे व्यक्त करू,किन्तु लिखते-लिखते डबडबाई आंखे बहुत कुछ मूक होकर स्वतः शीतल भाव से गदगद कर रही है ।

मेरी चिरैया तू मेरी जिंदगी का वह सौभाग्य है जो सबको नही मिलता है..!
तुम्हारी रक्षा स्नेह सूत्र वचन के साथ तुम्हारे नन्हे-नन्हे श्री चरणों मे मेरा गर्वशीश तुम्हे प्रणाम करता है ।
❣️🙏❣️😘
------------
तुम्हारा दद्दा 
कुँ.जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र,तन्वरघार स्टेट '५२से'

रविवार, 11 जुलाई 2021

मेरे व्यंग

#गहदुये_गीदड़पंथ

किसी समय कुत्ते जंगल मे व गहदुये (सियार,शृगाल,गीदड़)हम मानवो के साथ पालतू हुआ करते थे। वह दुनिया सबसे विकसित जीव मानव के साथ रहकर मस्त रखबाली करते और कभी-कभार एकाध लठ्ठ खाकर भी पडे रहते। कुल मिलाकर गहदुये बड़े मस्त थे ।
वही बेचारे कुत्ते बड़े परेसान थे,प्रोटोकॉल के तहत ग़ांव के आस-पास मंडराते की ठोक-पीटकर,गहदुओ द्वारा चिथकर अपनी दुर्दसा पर खून के आंसू रोते रहते ।

इसी तरह गहदुओ -कुत्तों का जीवन यापन होते-होते एक लंबा अरसा गुजर गया और ग़ांव में खा-खाकर गहदुओ की चर्बी चढ़ गई ।अब वह खेलते हुए बच्चों को डराने लगे,मानवो पर ही गुर्राने लगे ...मानव स्वभाव से युक्तियों का आविष्कारी प्राणी रहा है और उसने युक्ति पूर्ण तरीके से इस समस्या का निदान करने की ठान ली ।

कुत्तों को इन्विटेसन दिया,गहदुये तो पहले से पूंछ में फूल बनाकर डटे हुए थे। कुत्तों की तरफ भी पूंछो में ढिबरी डालकर बड़े-बड़े पंच आये और पंचायत हुई ।
मानवो ने की सुनो गहदुओ तुम्हारी सन्तति ठीक-ठाक से विकास कर चुकी है अब क्यों न इन कुत्तों की भी दशा में सुधार किया जाए  और सर्वसम्मति से 6-6 माह का ग्रामनिबास दोनों भाइयों को प्रदान करके विकास का चक्र किया जाए !
गहदुये तो दिमाक चर्बी लिए घूम ही रहे उन्होंने बड़े घमंड से "जाओ ये भी क्या याद करेंगे कि किसी ने आश्रय दान किया था!" बोलकर वन गमन कर लिया ।

6 माह बाद समयावधि पूर्ण हुई और कुत्तों की गर्दनों की चाम बदल गयी उधर गहदुये लेंडी,बेर खाकर भूखे रहकर कुछ बड़े शिकारी जानबरो के  शिकार बनकर आधे रह गए। कुत्तों ने मानवो के साथ  निष्ठा व मित्रतापूर्ण व्यवहार बनाकर,पहले से इधर अपनी 'जड़ें चूल्हे तक जमा ली थी' ।
परिणाम यह हुआ कि मानवो ने बोला कि जाकर इन गहदुयो की रेल बना दो ,सालो को इतना कूटो की चारो पहर अपनी दुर्दशा पर रोते रहे ।
गहदुये आये 'हुआये' कुत्तों 'भों-भों' करके अपनी चिरपरिचित गाली से उन्हें सुसज्जित करके रेद दिया...तब से गहदुये रात के चारो प्रहर रोते-चिल्लाते आ रहे है और कुत्ते उन्हें गरियाकर चिथेड़कर भगाते आ रहे है...!
कुत्तों को डर बस किसी 'फिआउली' (पागल गहदुये) से लगता है जो प्रोटोकॉल को 'पौये' की झक्क में फक्क करके कुत्तों की रेल बना देता है और मानव तालिया बजाते आ रहा है ।
-----------

बात कहने का तातपर्य है कि पहले की तरह आज भी कुछ कुत्ते-गहदुये-फिआउली बने लोग शोशल मीडिया में भी है। जो सिर्फ रोना-भोंकना-फफ़ियाना सतत करते रहते है और कभी न कभी किसी न किसी के  'पालतू पट्टे' में जरूर मिलेंगे ..अतः  मानवो को उनसे समुचित दूरी बनाकर रहना चाहिए ।क्योंकि सबको पता 14 इंजेक्सन दोनों के काटने पर 'उपग्रह' छोड़ सीधे पेटकी टुंडी में भाले की तरह कोचे जाने में डॉक्टर दया नही करता है ।  

------------
JVS. 

sd ओझा सर

जहर से अब आराम हुआ है.

पोटेशियम सायनाइड (KCN) एक यौगिक होता है, जो रंगहीन, दिखने में चीनी जैसा व  पानी में घुलनशील होता है. KCN को सोने की खदानों, आर्गेनिक सिनथेशिस और इलेक्ट्रोप्लेटिंग में इस्तेमाल किया जाता है. छोटे पैमाने पर यह आभूषणों के केमिकल gilding (सोने का पानी चढ़ाना)  और buffing (पालिश करना) के काम आता है.यह एक तीक्ष्ण जहर है. एक बार चाय पीते और साथ में काम करते समय यह जहर बहुत हीं अल्पतम मात्रा में एक कर्मचारी के पेट में चला गया . डाक्टरों की टीम ने कई घंटों के अथक प्रयास के बाद उसे बचा लिया. यह पहला मौका था कि पोटेशियम सायनाइड के जहर से प्रभावित व्यक्ति को बचाया जा सका. इसका एक कण जुबां पर रखते हीं अादमी की मौत हो जाती है. इसका मतलब कि एक कण का सौवां हिस्सा वह जहर होगा, जिसके कारण उसकी जान बची.

आज तक कोई भी पोटेशियम सायनाइड का स्वाद बता नहीं पाया है. कई वैज्ञानिक इस प्रयास में अपनी जान गंवा बैठे हैं. जहर खाते समय हीं वे लिखना शुरू कर देते , पर कोई भी S से आगे नहीं लिख पाया. S से Sweet भी हो सकता है और Sour भी. वैज्ञानिकों के अकारण मौत को देखते हुए इस प्रयोग को बन्द करना पड़ा. बाद में एक भारतीय ने अपने सुसाइड नोट में जो लिखा,वह अक्षरशः दिया जा रहा है   "Doctors, Potassium cyanide, I have tested it. It burns the tongue and tastes acrid ." चूंकि इतना लम्बा लिखना KCN खाने वाले के लिए सम्भव नहीं था, इसलिए इसकी विश्वसनीयता प्रामाणिक नहीं मानी गई.

एक बार और पोटेशियम सायनाइड के स्वाद का पता चलने की बारी आई थी. बात 16 फरवरी सन् 1932 की है. महान् वैज्ञानिक सर सी वी रमण के तत्वाधान में एक विलक्षण प्रयोग हुआ, जिसकी देख रेख देशी विदेशी वैज्ञानिकों की एक टीम कर रही थी. सबसे पहले योगी नरसिंह स्वामी शहद के मानिंद तेजाब चाट गये. फिर संखिया, कुचिला आदि जहरीले पद्दार्थों का उन्होंने सेवन किया. उसके बाद बारी आई पोटेशियम सायनाइड का. जय मां काली के उद्घोषणा के साथ वे पोटेशियम सायनाइड भी खा गये. कुछ देर बाद पूरा हाल तालियों की गड़गड़हट से गूंज उठा. योगी नरसिंह स्वामी भी पोटेशियम सायनाइड का स्वाद नहीं बता पाए. कारण,  एसिड, संखिया और कुचिला का स्वाद चढ़ी उनकी जिह्वा पोटेशियम सायनाइड का स्वाद बताने में असमर्थ रही.

पोटेशियम सायनाइड लोगों की जान हीं नहीं लेती, बल्कि उनके दिलों को जोड़ती भी है. एक बार लैब में साथ साथ काम करने वाले एक लड़की और एक लड़के को पोटेशियम सायनाइड की जरूरत महसूस हुई. दोनों प्यार में धोखा खाए हुए थे. दोनों चुपके चुपके लैब में पोटेशियम सायनाइड खोजते. साथ में किस कदर उन्हें प्यार में धोखा मिला, उसकी चर्चा भी एक दुसरे से करते. पोटेशियम सायनाइड तो मिला नहीं, पर उनका प्यार जरूर परवान चढ़ गया. 

वैज्ञानिकों ने पोटेशियम सायनाइड को प्रभाव हीन करने के लिए एक नया मिश्रण 3- मरसोटोपाइरुवेट बना दिया है, जिसका चूहों पर सफल परीक्षण किया जा चुका है. यह औद्योगिक हादसों और आतंकवादी हमलों में उपयोगी सिद्ध होगा. 

वैसे पोटेशियम सायनाइड इच्छा मृत्यु के लिए रामबाण औषधि है . लाइलाज बीमारी वाले रोगियों को सरकार की सहमति से शान्ति प्रिय और पीड़ा रहित मृत्यु देने का इससे बेहतर और कोई विकल्प नहीं हो सकता. 

जितनी दवा पी उतना हीं तड़पे,
जहर से अब आराम हुआ है!

            साभार -Er S D Ojha सर🙏

समय के झटके2

ज़रा सी देर में, इसरार बदल जाते हैं
वक़्त के साथ, इक़रार बदल जाते हैं!

दौलत है तो सब दिखते हैं अपने से,
वर्ना तो यारो, दिलदार बदल जाते हैं!

न करिये यक़ीं अब इन हवाओं पे भी,
मिज़ाज़ इनके, हर बार बदल जाते हैं!

भूल जाओ अब तो सौहार्द की भाषा,
वक़्त पड़ने पर, घरवार बदल जाते हैं!

जब तक समझ आते हैं अपने पराये,
जीने के तब तक, आसार बदल जाते हैं!

न आजमाइए अब खून के रिश्तों को,
वक़्त पे उनके, व्यवहार बदल जाते हैं!

न ढूंढिए यंहा अब मोहब्बत को इधर
देखते ही देखते, बाज़ार बदल जाते हैं!!

--------
JVS.

समय के झटके 1

आखिर सांसों का साथ, कब तक रहेगा !
किसी का हाथों में हाथ, कब तक रहेगा !

बस यूं ही डूबते रहेंगे चाँद और सूरज तो,
आखिर रोशनी का साथ, कब तक रहेगा !

अगर जीना है तो चलना पड़ेगा अकेले ही,
आखिर रहबरों का साथ, कब तक रहेगा !

न करिये काम ऐसे कि डूब जाये नाम ही,
आखिर सौहरतों का साथ, कब तक रहेगा !

कभी तो ज़रूर महकेगा उल्फत का चमन,
आखिर ख़िज़ाओं का साथ, कब तक रहेगा !

तुम भी खोज लो ’ ख़ुशी के अल्फ़ाज़' यारा,
आखिर रोने धोने का साथ, कब तक रहेगा !

---------
मुस्कुराइये अनुभव तो मिला
     JVS.

ये नयन

#ये_नयन
--------------
अपनी आँखों से-अपनी आँखों का कभी प्रतिबिम्ब  निहारा है,..कभी किसी की आँखों मे,इस दुनिया-जंहान की दिलकसी का नजारा इतना मोहक होता है कि पलके झपकना भूलकर जड़ हो जाती है..जैसे उन्हें भय मिश्रित अपेक्षा हो कि कंही पल भर की झपकी ..वह मोहिनी न भंग करदे जिसकी कब से प्रतीक्षा की थी !

आपके नयन ही आपके प्रति हुए उस अतीव आकर्षण का मूल से प्रतीत होते है..आप जब मुझे देखकर हया से लजाती हुई पलको को ढालती है न,तब प्रतीत होता है हृदय के स्पंदन की गति कहीं इतनी तीव्रतम न हो जाये ...कि रक्त वेग से शरीर की उन तमाम वाहिकाओं का असितित्व एक झटके में सिमट जाये !

यूं तो सिनेमाई अदाकारों ने,फ़नकारों ने नयनो को खूब तबज्जो दी पर मुझे लगता है कि इन नयनो पर कुछ भी लिखना-बोलना इतना सरल नही है..यह जो नैना है ....झुकी लज्जा के साथ मूक होकर एक उद्वेग  प्रकट करते है ..जैसे वृक्ष अपने फलो से लदकर हयावस भार से झुकते-झुकते लजाया हो ...जैसे गाँव-जबार मे एकाएक झुकी हुई बदरिया बड़े स्नेह से जल आचमन से  करती प्रतीत हुई हो ।
जैसे सागर शांत पड़ी तरंगों में ज्वार-भाटा आकर चला गया हो !

हाँ! यह जो तुम्हारे नैना है वह मेरे मन की भाषा बोलते है,मुझे विदित है वह तुम्हारा मुझे देख कल्पना करके बार-बार पलके झपकाना और खुद की आँखों से खुद को आश्वत करना कि प्रत्यक्ष को अब प्रमाण नही दिए जा सकते है ।

धनुष जैसी भृकुटियों के नीचे विद्यमान यह जो दो ज्ञानेन्द्रीय है न ...कभी बन्द होकर शांति से सपना नही देखती है।इनके सपने तो खुले चक्षुओं से चारो और दिग-दिगान्तर तक बड़े करीने से सजते है।
गीतकार ने लिखा था कि ..
"नैनो की ना मानियो ,नैना ठग लेंगे..!"
के स्थान पर....
"नैनो की यह बात नैना जाने रे.." 
से में बड़ी सहमति रखता आया हूँ,आखिर नैना ही तो वह भावना का केंद्र है जँहा से होकर खुशी और गम दोनों के भावना प्रवाह समान रूप से प्रस्फुटित होते है ।

मुझे कभी कभी महसूस होती है तुम्हारी पलको पर शबनम की वह बूंदे ..जैसे फूली हुई सरसो में कोई भंवर आकर इन मोतियों को न तोड़ ले जाये। आँखे ही तो वह तारा है जिसके तारे में अपना बना हुआ प्रतिबिम्ब हर कोई निहारने की तमन्ना किये रहता है ।
सुनो!
एक छोटी सी ख्वाहिश पलको पर आ बैठी है कि मुझे अशेष समय तक वह दो नैना अपने चक्षुओं से अपलक निहारने है....और बस निहारने है ।

मोहब्बत के भी कुछ राज होते हैं,
जागती आँखों में भी ख्वाब होते हैं!
जरूरी नही हैं कि गम में ही आँसू आएँ,
मुस्कुराती आँखों में भी सैलाब होते हैं!

बशीर बद्र की यह पंक्तिया एकाएक स्मरण हो आयी ।

----/// -----

JVS.

मंगलवार, 25 मई 2021

खूबसूरत अहसास

अरे सुनो!!
शायद तुम्हे सुनने या पढने में आ जाये..पर मुझे लगता है कि यह सब ग्रहण करने शक्ति अब तुमसे बहुत दूर जा चुकी है,ठीक बेसे ही जैसे पतझड़ में वृक्ष अपने तृणों से रहित होकर बड़े ही अनासक्त से लगते है...और उनके तल में एकत्रित हो जाता है उन्ही के तृणों का बहुत बड़ा झुरमुट। जिसमे किसी की भी पदचाप उन तृणों के असितित्व को चकनाचूर करते हुए निकल जाती है,असितित्व तुम्हारे अप्राप्य तृणों का होता है और उनकी करुण कृदंन कि एक पीड़ा को में अपने अंतस में महसूस करता हूं ।
जरा इधर चितवन करिए...!
तुम्हारे मुरझाए हुए चेहरे को जब भी देखता हूं,मुझे भय होता है कि तुम इतने समीप कैसे हो,कैसे कभी -कभी तुम्हारी उपस्थिति मुझे इतनी सुस्पष्ट आभासित रहती है?
जबकि आभास-बास्तविक्ता,प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष,सच-झूठ,स्पर्श-अश्पर्स,दृश्य-अदृश्य इन सब सजीव-निर्जीव अनुभवों का आलम्बन कहि दूर अनन्त में ओझल हो चुका है ।

देखो! बिल्कुल तुम्हारी पसंद की छोटी चिड़िया जैसी आज कैसे भोर से बाल सँवार के निकली है,उसका एक पैर खड़े होकर दाना चुगना और दोनों पैरों पर नाचना मुझे बार-बार उस गोरैया की याद दिलाती है,जिसके पंखे से पर क्षतिग्रस्त हो गए थे,तुम बहुत रोये थे जैसे चिड़िया के रूप में तुमने स्वयं कुतरे हुए खुद के पंखों की पीड़ा महसूस की हो !

तुम्हे पता है?
अब हमारे यंहा अब ओस के मोती नही झड़ते है और उसपर गिरती किरणों से भुवन भास्कर की रश्मिका का परावर्तित आनन्द का दृश्य जैसे किसी ने अपहृत कर लिया है।फिर भी जाता हूं की कंही कोई शबनम न गिरी हो और में उस आभास में विश्वास के धनी दृश्य से अछूता न रह जाऊ ।
वो ठंड से मेरा काँपना और जुड़ी के ज्वर से कराहना ...तुम्हारा दोस्तो के साथ मेरा ख्याल रखना कितना सुखद था...ऐ काश!वह ज्वर सदा के लिए बना रहता ।
मुझे याद है ...मेरा सर्द लहर में भीगकर हॉस्टल तक पहुँचना और तुम्हारा बस से बीच राह में साथ देने के लिए कूदना..कितना कुछ तुम अपना हिस्सा अपने आप बाट लेते थे ।
अब न साथ है,न हिस्सा है और न ही वह बारिस है बस बाकी है अन्तस् का भीगना और खुशनुमा वक्त की स्मर्णीकाये। जिनमे व्यक्त करने पर अनुभवी होने का भय....वह भय ही तो है जो हृदय के भाव भरे स्पंदन को महसूस ही नही होने देता है। रक्त वाहिकाएं रक्तसंचरण तो करती है पर अब उसमें पूर्व की भावनाओ का सागर ठाटे नही मारता है,वहः तो वक्त के साथ अरमानो की तरह सूख चला है। उसमे जो कहि नमी बाकी है न उसमे 'समझदारी' का ताप सनै-सनै सब झुलसा के दरारे निकाल चुका है। उन दरारों से उठती भावुकता की नमी बाष्प बनकर कभी कभी निकलती है और साथ ही निकलता खूबसूरत अहसासों का जनाना जिसमे लाश भी खुद है और जनाजेगीर भी खुद है ..!!!


बुधवार, 14 अप्रैल 2021

नव सम्वत्सर पर विशेष

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा वसंत ऋतु में आती है। वसंत ऋतु में वृक्ष, लता फूलों से लदकर आह्लादित होते हैं जिसे मधुमास भी कहते हैं। इतना ही यह वसंत ऋतु समस्त चराचर को प्रेमाविष्ट करके समूची धरती को विभिन्न प्रकार के फूलों से अलंकृत कर जन मानस में नववर्ष की उल्लास, उमंग तथा मादकाता का संचार करती है।
इस नव संवत्सर का इतिहास बताता है कि इसका आरंभकर्ता परमार वंशी महाराज विक्रमादित्य थे। कहा जाता है कि देश की अक्षुण्ण भारतीय संस्कृति और शांति को भंग करने के लिए उत्तर पश्चिम और उत्तर से विदेशी शासकों एवं जातियों ने इस देश पर आक्रमण किए और अनेक भूखंडों पर अपना अधिकार कर लिया और अत्याचार किए जिनमें एक क्रूर जाति के शक तथा हूण थे।
ये लोग पारस कुश से सिंध आए थे। सिंध से सौराष्ट्र, गुजरात एवं महाराष्ट्र में फैल गए और दक्षिण गुजरात से इन लोगों ने उज्जयिनी पर आक्रमण किया। शकों ने समूची उज्जयिनी को पूरी तरह विध्वंस कर दिया और इस तरह इनका साम्राज्य शक विदिशा और मथुरा तक फैल गया। इनके कू्र अत्याचारों से जनता में त्राहि-त्राहि मच गई तो मालवा के प्रमुख नायक विक्रमादित्य के नेतृत्व में देश की जनता और राजशक्तियां उठ खड़ी हुईं और इन विदेशियों को खदेड़ कर बाहर कर दिया।

 इस पराक्रमी वीर महावीर का जन्म अवन्ति देश की प्राचीन नगर उज्जयिनी में हुआ था जिनके पिता महेन्द्रादित्य गणनायक थे और माता मलयवती थीं। इस दंपत्ति ने पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान भूतेश्वर से अनेक प्रार्थनाएं एवं व्रत उपवास किए। सारे देश शक के उन्मूलन और आतंक मुक्ति के लिए विक्रमादित्य को अनेक बार उलझना पड़ा जिसकी भयंकर लड़ाई सिंध नदी के आस-पास करूर नामक स्थान पर हुई जिसमें शकों ने अपनी पराजय स्वीकार की।
इस तरह महाराज विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर एक नए युग का सूत्रपात किया जिसे विक्रमी शक संवत्सर कहा जाता है।

 राजा विक्रमादित्य की वीरता तथा युद्ध कौशल पर अनेक प्रशस्ति पत्र तथा शिलालेख लिखे गए जिसमें यह लिखा गया कि ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की।
इतना ही नहीं शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी और अरब विजय के उपलक्ष्य में मक्का में महाकाल भगवान शिव का मंदिर बनवाया।

 #नवसंवत्सर_का_हर्षोल्लास

 आंध्रप्रदेश में युगदि या उगादि तिथि कहकर इस सत्य की उद्घोषणा की जाती है। वीर विक्रमादित्य की विजय गाथा का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक 'शायर उल ओकुल' में किया है।
उन्होंने लिखा है वे लोग धन्य हैं जिन्होंने सम्राट विक्रमादित्य के समय जन्म लिया। सम्राट पृथ्वीराज के शासन काल तक विक्रमादित्य के अनुसार शासन व्यवस्था संचालित रही जो बाद में मुगल काल के दौरान हिजरी सन् का प्रारंभ हुआ। किंतु यह सर्वमान्य नहीं हो सका, क्योंकि ज्योतिषियों के अनुसार सूर्य सिद्धांत का मान गणित और त्योहारों की परिकल्पना सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण का गणित इसी शक संवत्सर से ही होता है। जिसमें एक दिन का भी अंतर नहीं होता।
 सिंधु प्रांत में इसे नव संवत्सर को 'चेटी चंडो' चैत्र का चंद्र नाम से पुकारा जाता है जिसे सिंधी हर्षोल्लास से मनाते हैं।
कश्मीर में यह पर्व 'नौरोज' के नाम से मनाया जाता है जिसका उल्लेख पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वर्ष प्रतिपदा 'नौरोज' यानी 'नवयूरोज' अर्थात्‌ नया शुभ प्रभात जिसमें लड़के-लड़कियां नए वस्त्र पहनकर बड़े धूमधाम से मनाते हैं।
 सनातन संस्कृति के अनुसार नव संवत्सर पर कलश स्थापना कर नौ दिन का व्रत रखकर मां दुर्गा की पूजा प्रारंभ कर नवमीं के दिन हवन कर मां भगवती से सुख-शांति तथा कल्याण की प्रार्थना की जाती है। जिसमें सभी लोग सात्विक भोजन व्रत उपवास, फलाहार कर नए भगवा झंडे तोरण द्वार पर बांधकर हर्षोल्लास से मनाते हैं।
 इस तरह भारतीय संस्कृति और जीवन का विक्रमी संवत्सर से गहरा संबंध है लोग इन्हीं दिनों तामसी भोजन, मांस मदिरा का त्याग भी कर देते हैं !!

●लेख स्त्रोत:-  इंटरनेट  व राजा विक्रमादित्य परमार का इतिहास विक्रमी सम्वत से सम्बंधित पुष्तके ...

---------
जितेंद्र सिंह तौमर '५२से' 
चम्बल मुरैना मप्र

सोमवार, 22 मार्च 2021

गजल

जब कलम और कर्म दोनों खाली हो,
चल-जिंदगी में बहुत कुछ सबाली हों!

क्यों न खुद कोई तस्वीर उतारी जाये,
देखे औरो को खुदी को? गाली दी जाये!

तह पर तह लगाए कब तक जिये यारा,
शल्कों में छिपी शक्लें क्यों निकाली जाये!

अब तो परिंदों ने घरौंदे रखना छोड़ दिया,
चल दूर कंही दरिया में कस्ती उतारी जाये!

वक्त बहुत आये बहुत से निकलते जाएंगे 
भूल की भूले चल भूलकर भूल डाली जाए !!

--------

मंगलवार, 19 जनवरी 2021

यादों का इडियट बॉक्स

#यादों_का_इडियट_बॉक्स

ऐ सुनो! 
यह जो तुम...मुझे नित्य याद करते हो न,उसकी एक कसक तो मुझे भी होती है,पता ही नही चलता कि मर्म समझकर भी यह मर्मान्तक अहसास इतनी पुनरावृत्ति क्यों करता है?
आजकल हमारे वीराने में तुम्हारे साथ बिताये उन स्मृत पलो की एक-एक कड़ी सरसो के पौधों की तरह दक्षिणावृत्त होकर झुक सी गयी है,जैसे सजृन और फलन का दायित्व बढ़ गया हो..जैसे एक ऋण से उऋण होने के  लिये अपना सर्वस्व शनै-शनै क्षीण होते हुये मूकदर्शक बनकर निहार रहा होऊँ !
क्षीण होते वास्तविक दृश्य में सहसा तुम्हारी कल्पना भी दृश्य होती है!ठीक सरसो के फूलों की तरह...एक केशरिया छटा बनकर तुम्हारे पीत बस्त्रो में आने का बोधन कराती है और में गुम हो जाता हूँ कंही दूर वीराने में तुम्हे खोजता हुआ सा किन्तु तुम कस्तूरी की तरह उपवन महकाकर मुझे विस्मृतातीत कर चुके हो !!

यह जो गेंहू के नन्हे पौधों पर शबनमी बुंदे है न वह मुझे स्मरण दिलाती है,तुम्हारे ओष्ठ के वांयी तरफ कुदरत ने सजाये उस तिल की ,जिससे मुझे सबसे अधिक जलन होती थी,आखिर दमकती चेहरे की आभा पर वह आकर्षण अतिरेक का माध्यम जो बना था। 
हरितलबनी से परिपूर्ण पातों पर जब भुवनभास्कर की रश्मियां अपना तेज बिखेरती है न,तब मुझे आभाष होता है कि मैने भी 'सुगन्ध' को 'पाश' में संजोने का दुर्लभ प्रयास किया था!परन्तु हृदय से स्पंदन और आत्मा से परमात्मा बिलग करने का हठ जो था ..!!

आजकल हमारे यहाँ कुछ अलग सा आकर्षक कुहासा  होता है जैसे तुम्हारे बालो की चेहरे बाली लट परिपक्वता का शंदेश लाकर धबल हो गयी हो..नेत्र तीक्ष्णता ऐनक में लगी डंडी उसे आज भी सम्भाल पाती है....उसे तेजी से सम्भालते कंकन किंकिर हाथों की ध्वनि प्रेमातीत हुये हर स्मरण का आभास तो देती है किंतु बड़ा दुर्लभ है 'पानी' से 'पानी' पर "पानी" लिखना और कल की बातों को विस्मृत कर  आज की यादों को स्मृत रखना ... !

फागुन कल आएगा और भोरे अपना राग गाएंगे,हम तो मुसाफिर थे साथी रंग लगे न लगे अपना रंग न बदल पाएंगे।चलते रहेंगे उन्ही राहों में बार-बार ..अब तक न लौटे,अब क्या लौट के खाक जाएंगे ..?

------  

बुधवार, 13 जनवरी 2021

बाबा कीनाराम

-------:अघोर साधक बाबा कीनाराम:-------        ********************************
 यह घटना 1757 की है जब एक महान् अघोर साधक अपने गुरु को खोजते- खोजते गिरिनार की लम्बी यात्रा करते हुये काशी के हरिश्चन्द्र घाट के महाश्मशान पहुंचे। चुपचाप एक कोने में बैठे हुए अपने गुरु को निहार रहे थे। उनके नेत्र सहसा ही गीले हो गए थे। बस, वे जानना चाह रहे थे कि गुरु उन्हें पहचानते भी हैं या नहीं।
       प्रातःकाल का समय था। सर्द हवा पूरी तेजी से चल रही थी। भगवान् भास्कर धीरे-धीरे नीले आकाश में अपनी सिन्दूरी आभा बिखेर रहे थे। काशी का वह पूरा घाट स्वर्ण आभा से मण्डित हो गया था जिस कारण मानो गंगा की धारा में हज़ारों स्वर्ण कण बिखरे पड़े थे और अपनी चमक से अपनी असीम ऊर्जा बिखेर रहे थे। केदार घाट पर केदारेश्वर के मन्दिरोँ से घण्टों की गम्भीर आवाज़ एक प्रकार से आध्यात्मिक चेतना-सी जाग्रत  कर् रही थी। श्मशान की जलती चिताएं वायु के झोंकों से और भी विकराल हो रही थीं और कुछ बुझ चुकी थीं। श्मशान के चारों तरफ फैली बिखरी हड्डियां, मालाएं, मुर्दे के जलने से निकलती गन्ध--सब मिलकर एक मिला-जुला-सा रहस्यमय वातावरण उतपन्न हो रहा था। पीपल के पेड़ पर बैठे कौओं और गिद्धों की कर्कश ध्वनि वातावरण को और भी भयानक बना देती। ऐसा लगता था जैसे चिताओं में सुलगती आत्माएं मुक्ति की गुहार लगा रही हों। गंगा की उत्ताप तरंगें गतिमान वायु से टकराकर छप-छप कर् रही थीं, मानों व्याकुल चिताओं को शान्ति प्रदान करने की कोशिश कर् रही हों।
      एक ओर सृजन हो रहा है और दूसरी ओर महान् सत्य साकार हो रहा है। हरिश्चन्द्र घाट मुक्तिदायिनी काशी का प्रागेतिहासिक महाश्मशान है। जहाँ देवाधिदेव मृत्युंजय भगवान् शिव का प्रिय निवास है। कभी इसी शमशान घाट पर राजा हरिश्चंद्र डोम सरदार की चाकरी करते थे और उनकी पत्नी रानी तारा सर्प-दंश से मृत अपने पुत्र रोहिताश्व का अन्तिम संस्कार हेतु जब हरिश्चन्द्र के सामने उपस्थित हुई तो अपने कर्म के प्रति सजग हरिश्चन्द्र ने बिना शमशान का कर चुकाए अन्तिम संस्कार के लिए मना कर् दिया था।
      इसी महान् श्मशान में महाश्मशानेश्वर महादेव के समक्ष एक साधक अविचल मुद्रा में ध्यानस्थ था। तेजश्वी मुख, शुभ्र् श्वेत वस्त्र, ऊपर का भाग् निर्वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की माला, शरीर पर चिता की राख लपेटे घनी जटा- जूट। ऐसा लग रहा था मानों साक्षात् महा मृत्युंजय समाधिष्ठ हैं।

      सूर्य की रक्तिम आभा उस तेजस्वी के मुख को और भी रक्तिम कर रही थी। पास ही एक झोला पड़ा था और पड़ी थी सिन्दूर पुती हुई एक मानव खोपड़ी। धीरे-धीरे सन्यासी अपने नेत्र खोलता है, चारों तरफ सरसरी दृष्टि से लोगों को देखता है, फिर महादेव को प्रणाम कर कुछ मन्त्र पढ़ता है।
       जलती चिताओं के पास पहुँच कर, उसमें से भस्म लेकर शरीर में लगाकर, अपने गन्तव्य की ओर चलने से पहले ज़मीन पर पड़ी उसी सिद्ध खोपड़ी से बोलता है--चल रे ! काहे ज़मीन पर पड़े-पड़े सो रहा है ?
       ये थे महान् अघोरी साधक कालूराम। उनका रोज़ का काम था साधना करना, कभी-कभी शव-साधना करना। यही क्रम वर्षो से चलता आ रहा था। प्रातः उठते ही अपनी सिद्ध खोपड़ी को आवाज़ लगाते। खोपड़ी हवा में उछलकर बाबा के हाथों में आ जाती और फिर उसे हाथ में लेकर भद्रवन की ओर चल पड़ते। आज जहाँ #क्रीमकुण्ड है, वहां पहले घना वन था--औघड़ साधकों का साधना-स्थल। तमाम औघड़ साधक वृक्षों के नीचे बैठे साधना करते रहते। बाबा कालूराम का उसी भद्रवन में एक विशेष् स्थान था जो वर्तमान में क्रीमकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। इसी स्थान में आज उनकी समाधि भी है।
      खैर, वह मानव खोपड़ी आज रोज की तरह उछलकर बाबा के हाथों में नहीं आयी, जहाँ की तहाँ पड़ी रही।  बाबा कालूराम को पहले तो थोड़ा आवेश आ गया, उनका चेहरा तमतमा गया। लेकिन जब उन्होंने नज़र घुमाकर देखा--श्मशान के पास घने पीपल के वृक्ष के नीचे एक युवा साधक साधन-रत है। बीस-बाइस साल का युवक, हल्की-हल्की दाढ़ी-मूंछ, बड़े-बड़े घने घुंघराले काले बाल कंधों तक फैले हुए, शुभ्र् श्वेत वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की पतली माला, हाथ में कमण्डल--साक्षात् बाल शिव जैसा मोहक स्वरूप। बाबा कालूराम को तुरन्त आभास हो गया कि वह कोई साधारण युवक नहीं है, कोई सिद्ध युवा साधक है। इसी युवक ने मेरी सिद्ध मानव खोपड़ी को स्तंभित कर् रखा है।
      बाबा को अब किसी प्रकार का क्षोभ नहीं रहा, बल्कि उस साधक को देखकर उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ आया--जैसे कोई अपना वर्षों से बिछुड़ा हुआ अचानक सामने आ गया हो। बाबा कालूराम चलते हुए उस युवक के पास पहुंचे। युवक ने झुककर बाबा कालूराम का चरण स्पर्श किया और कहा--मैं कीनाराम और यह मेरा शिष्य बीजाराम है। बीजाराम ने भी बाबा का झुकाकर चरण स्पर्श किया। बाबा ने पूछा--काशी में कैसे आना हुआ ? 
        कीनाराम बोले--गिरिनार से आ रहा हूँ तपस्या पूर्ण करके अपने गुरु की तलाश में। अनुभूति हुई कि गुरुदेव का दर्शन  काशी में होगा, बस चला आया।
       इतना कहकर कीनाराम चुप हो गए। बाबा कालूराम बस मुस्करा दिए, फिर बोले--तेरा गुरु तो तुझे मिल जायेगा, पहले कुछ खिलाओ, बड़ी भूख लगी है।
        क्या खाएंगे ?--कीनाराम ने पूछा।
        मछली खाने की इच्छा हो रही है।--बाबा कालूराम बोले। कीनाराम गंगा की ओर मुंह करके खड़े हो गए, फिर भगवती गंगा को हाथ जोड़कर उन्होंने प्रणाम किया। फिर कोई मन्त्र बुदबुदाया--देखते ही देखते दर्जनों मछलियां गंगा से उछल- उछल कर सामने जलती हुई चिता की आग में गिरने लगी। धड़ाधड़ एक के बाद एक मछली जलती चिता में गिर रही थी। बाबा कालूराम चिल्लाये--अरे ! पूरी गंगा की मछली निकाल देगा क्या ? बस कर, कीनाराम, बहुत है।
       वहां पर खड़े लोगों ने देखा--चिता मछलियों से भर गई थी। कीनाराम बोले--बीजाराम, जा अच्छी-अच्छी भुनी हुई मछली ले आ बाबा के लिए। बीजाराम मछली निकाल कर ले आया।बाबा आनंद-मग्न होकर मछली खाने लगे। इसके बाद बाबा कालूराम, कीनाराम और बीजाराम एक साथ चल पड़े भद्रवन की ओर।--------:अघोर साधक बाबा कीनाराम:-------
**********************************
                         भाग--02
                      ***********
परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी के अध्यात्म-ज्ञानप्रवाह में पावन अवगाहन

पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन

         
       एकाएक बाबा कालूराम रुक गए और पलटकर गंगा की ओर देखकर बोले--कीनाराम, देख, कोई शव बहा जा रहा है। कीनाराम तुरन्त बोले--नहीं बाबा, वह जिन्दा है।
       तो बुला उसे।
       कीनाराम वहीँ से चिल्लाकर बोले--इधर आ, कहाँ बहता जा रहा है ? 
        तत्काल वह शव विपरीत दिशा में घूमा और घाट के किनारे आ लगा। फिर धीरे-धीरे उठा और फिर पूरी ताक़त बटोर कर खड़ा हो गया सामने आकर हाथ जोड़कर, मूकवत। कीनाराम बोले--खड़ा-खड़ा मेरा मुंह क्या देख रहा है ? जा अपने घर, तेरी माँ रो-रो कर पागल हो रही है।
       तत्काल वह दौड़ता हुआ घर की ओर भागा और माँ से अपनी जीवित होने की कथा सुना डाली। माँ को विश्वास नहीं हो  रहा था। वह उसी हाल में अपने बेटे को लेकर उलटे पांव घाट की ओर भागी। तब तक सभी लोग घाट की सीढ़ी चढ़कर सड़क पर आ गए थे। तभी कीनाराम की दृष्टि सामने पडी। देखा--वही बालक अपने माँ के साथ भागता हुआ चला आ रहा है।
       कीनाराम कुछ समझ पाते,  उस बालक की माँ आकर कीनाराम के पैरों पर गिर पड़ी। कीनाराम ने उसको उठाया, आने का कारण पूछा तो वह बोल उठी--बाबा ! आपकी कृपा से मेरा बेटा पुनः जीवित हो गया। इसके लिए मैं आपकी सदा ऋणी रहूंगी। लेकिन यह आप ही हैं जिन्होंने इसे जीवन दान दिया है। अब यह आपका ही है। मेरी दी हुई जिंदगी तो ख़त्म हो चुकी थी, बाबा, अब आप इसे अपने चरणों में स्थान दीजिए। इसे मैं आपको सौंपती हूँ। कीनाराम बाबा कालूराम की ओर प्रश्नभरी दृष्टि से देखने लगे। बाबा कुछ बोले नहीं, बस सिर हिलाकर उन्होंने अपनी सहमति दे दी। आगे चलकर बाबा ने उस बालक का नाम 'राम जियावन' रखा जो आगे चलकर सिद्ध अघोरी बने।
      सभी लोग भद्रवन पहुंच बाबा की कुटिया के पास पड़ी हुई चटाई पर बैठ गए। सभी लोग आराम करने लगे। रात्रि में श्मशान घाट जाना था साधना करने। 
       एक दिन कीनाराम से रहा नहीं गया।  बाबा कालूराम के पास पहुंचे और उनके पास चुपचाप बैठ गए। बाबा ने पूछा--कीनाराम, क्या बात है चुपचाप आकर बैठ गए हो मेरे पास। कोई जिज्ञासा तो नहीं है ? 
      कीनाराम कुछ पल किसी गहरे सोच में डूबे रहे। फिर बोले--बाबा बचपन से मेरा मन अशान्त था। हर पल एक खालीपन-सा परेशान करता रहता। कुछ समझ में नहीं आता तो 'राम-राम' की माला जपने लगता। गुरु बनाया, उनके सान्निध्य में साधना भी की, लेकिन मन नहीं लगा। भारत के सभी धर्म-स्थलों पर गया। फिर भी मन अशान्त रहा। जब गिरनार गया तो भगवान् दत्तात्रेय मन्दिर में रहकर कठोर साधना की। भगवान् दत्तात्रेय के दर्शन लाभ भी हुए और ऐसी अनुभूति हुई कि भगवान् दत्तात्रेय कह रहे हैं कि काशी जाओ, वहीँ तुम्हारा कर्मक्षेत्र मिलेगा। बस, फिर क्या था, काशी के लिए चल पड़ा। सर्वप्रथम गंगा स्नान कर् भगवान् विश्वनाथ का स्मरण कर् एक वृक्ष के नीचे बैठा रहा। बस, आपको देखा तो मन को बड़ी शान्ति मिली। इसके बाद की तो सारी कथा आपको पता ही है।
       बाबा कालूराम कुछ पल चुप रहे फिर बोले--कीनाराम ! अब समय आ गया है रहस्य बतलाने का...तो सुनो, तुम्हारा जन्म विशेष् कार्य प्रयोजन के लिए हुआ है। तुम तो जीवन-मुक्त जाग्रत अघोर साधक हो। पता नहीं, कितने जन्मों से तुम्हारी साधना चली आ रही हैं। आज तुम्हारे पास जो सिद्धियां हैं, वे जन्म-जन्मान्तरों से चली आ रही हैं। तुम्हें स्वयम् पता नहीं है। अघोर संप्रदाय अति प्राचीन है। अघोर साधक कभी भी जगत् के सामने नहीं आते। मुक्तावस्था को उपलब्ध् होने के लिए उनकी  साधना चलती रहती है। लेकिन इधर कुछ काल से अवैदिक मतों का काफी बोलबाला हो गया। साधना के नाम पर भोली-भाली जनता को ठगा जा रहा है जिससे हमारे देश का अति प्राचीन अघोर पन्थ भ्रष्ट हो रहा है। महादेव की इच्छा से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम्हें अघोर पन्थ की अलख जगानी है, अलग पहचान और चेतना जगानी है ताकि सारा संसार जान सके अघोर पन्थ का वास्तविक रहस्य और जहाँ तक गुरु की बात है, वह गुरु मैं ही हूँ तुम्हारा जन्म-जन्मान्तर से।

       बाबा कालूराम ने कीनाराम के सिर पर अपना हाथ रख दिया। जैसे ही हाथ रखा, कीनाराम के सामने सारा रहस्य खुल गया और जन्म लेने का उद्देश्य भी।
       समय अपनी गति से चलता रहा। बाबा कालूराम अब अपनी साधना में अधिक से अधिक लीन रहने लगे। बाकी के कार्य कीनाराम करने लगे। कीनाराम के चमत्कार और लोक-कल्याण के कार्य चारों ओर फैलने लगे। कोई दुःखी और निराश होकर नहीं जाता। जो लोग सच्चे मन से साधना करना चाहते थे, कीनाराम उन्हें सच्चा मार्ग बतलाते और जो आडम्बर करते, उन्हें वे दण्ड भी देते। धीरे-धीरे काशी नरेश राजा बलवन्त के कानों तक कीनाराम की लोकप्रियता की गाथा पहुँचने लगी। एक दिन वे कीनाराम के पास आये। राजा के नम्र स्वभाव और उनकी भक्ति देखकर कीनाराम ने उन्हें आशीर्वाद दिया। कीनाराम के लाख मना करने पर भी राजा बलवन्त सिंह ने उनका निवास स्थान पक्का बनवा दिया जो आजकल 'कीनाराम स्थल' या 'क्रीमकुण्ड' के नाम से प्रसिद्ध है।
       बाबा कीनाराम का जन्म सन् 1684 में वाराणसी से 150 किलोमीटर दूर #रामगढ़ गांव में हुआ था। बचपन से ही एकान्त में रहना, किसी पेड़ के नीचे ध्यान करते रहना और हर समय केवल राम-राम का जप करते रहना उनका रोज का कार्य हो गया था। परिवार के लोग उनके आध्यात्मिक झुकाव को देखकर डरने लगे कि कहीं कीनाराम बड़े होकर साधू न् बन जाएं। बचपन से ही जो भी वे कह देते, वह हो जाता था। जब कीनाराम बारह वर्ष के हुए तो उनका बाल विवाह कर दिया गया। बाल्यावस्था होने के कारण उन्हें विवाह आदि के बारे में कुछ पता नही था। जब वे पन्द्रह वर्ष के हुए तब भी उनके स्वभाव में कोई अन्तर नहीं आया। तब उनके माता-पिता ने बहू की विदा करा लाने की तिथि तय कर दी। पहले बाल विवाह हो जाया करता था और गौना और बहू की विदा लड़के के वयस्क हो जाने पर होती थी। कीनाराम के माता-पिता कीनाराम के बैरागी  बन जाने के डर से ऐसा करने के लिए विवश हो गए थे। लेकिन एक दिन पहले कीनाराम दूध-भात खाने के लिए ज़िद करने लगे। किसी भी शुभ कार्य में दूध-भात खाना अशुभ माना जाता है। पर कीनाराम की ज़िद के आगे बेबस होकर माँ ने उन्हें दूध-भात खाने को दे दिया। कीनाराम बड़े चाव से दूध-भात खाकर सोने चले गए। दूसरे दिन कन्या के घर से समाचार आया कि रात में कन्या की मृत्यु हो गयी। 
       कुछ दिनों के बाद एक दिन कीनाराम बिना कुछ बतलाए घर छोड़कर चले गए। घूमते-घामते वे बलिया पहुंचे। वहां पर वैष्णव शिवाराम के सान्निध्य में साधना करने लगे। लेकिन वहां भी वे जो कुछ कहते, वह पूरा हो जाता। उन्हें स्वयम् पता नहीं होता कि यह सब कैसे हो जाता है। एक दिन कीनाराम क्या देखते हैं गुरु शिवाराम के पास एक युवती बैठी है। कीनाराम को आश्चर्य हुआ कि सन्यासी गुरु के समीप युवती का क्या काम ! बाबा बड़े स्नेह से उससे वार्ता कर् रहे थे। कीनाराम को देखकर गुरु शिवाराम बोले--कीनाराम ! तुम मेरे परम प्रिय शिष्य हो इसलिए तुमसे कहता हूँ। मैं इस युवती से विवाह करने जा रहा हूँ। अब से यह तुम्हारी गुरुमाता होंगी।
       कीनाराम कुछ नहीं बोले। अपने गुरु को प्रणाम कर वह आश्रम से बाहर चले आये और चुपचाप आश्रम के सामने पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गए। पता नहीं क्यों उन्हें ग्लानि होने लगी। बस, बिना कुछ बोले तत्काल उन्होंने उस आश्रम को छोड़ दिया। भारत के धर्मस्थलों की यात्रा कर गिरिनार चले गए। वहां पर 10 वर्ष तक घोर तपस्या कर पूर्व जन्म की सुप्त सिद्धियों को जाग्रत कर् काशी चले गए। राजा बलवन्त सिंह उनके परम भक्त थे। उनसे दान में मिले कीनाराम स्थल (क्रिमकुण्ड) की स्थापना की और जो अघोरी श्मशान, वृक्ष, नदी तट पर साधना करते थे, उनके लिए विशेष्  साधना-स्थल की व्यवस्था की ताकि अघोरी साधक इधर-उधर भटकने के लिए बाध्य न हों। उनके लिए कुछ कड़े नियम बनाये गए जिनका कोई अघोरी उल्लंघन नहीं कर् सकेगा। अघोरी साधक पूर्ण ब्रह्मचारी रहेगा। नारी-भोग से सदा दूर रहेगा। किसी के घर के भीतर प्रवेश नहीं करेगा। सार्वजनिक स्थलों पर अपनी विद्या का प्रदर्शन नहीं करेगा। अपनी साधना में लीन रहेगा। मदिरा का सेवन साधना की आवश्यकता और मर्यादा में रहकर करेगा, सार्वजनिक स्थलों, श्मशानों, पूजा-स्थलों और मंदिरों पर नहीं। अन्य इसी प्रकार के कठोर नियम अघोर साधकों के लिए बनाये जिनका हर एक अघोरी साधक के पालन के लिए अनिवार्य कर् दिया। जो भी साधक इनका उल्लंघन करता पाया जाता, उसे कठोर दण्ड का भागी बनाया जाता। इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे अघोर साधना और अघोरियों के लिए समाज में फैली भ्रान्त धारणा दूर होने लगी। लोग उन्हें अब बड़े श्रद्धा-भाव से देखने लगे। जब भी समय मिलता, अनेक सिद्ध अघोरी साधक लोक-कल्याण के कार्य भी करते। धीरे-धीरे दूर प्रान्तों के अघोरी साधक बाबा कीनाराम के चमत्कारों और उनके ज्ञान से अभिभूत होकर उनके अनुयायी बनने लगे और गुप्त रूप से उनके साधना नियमों के अनुसार अपनी साधना करने लगे। आज इक्कीसवीं सदी है। चार सदी बीत चुकी हैं। लेकिन बाबा कीनाराम ने जो ज्योति जलाई वह आज भी अनवरत चल रही है। बाबा कीनाराम के अनेक भक्त देश-विदेश में हैं। वे गुरु पूर्णिमा के अवसर पर लाखों की  संख्या में कीनाराम स्थल पर आते हैं और उस महान् साधक से अपने सुखमय जीवन की कामना करते हैं। बाबा ने जो धूनी जलाई, वह आज तक अनवरत जल रही है।


श्री शिवराम तिवारी जी की फेसबुक लेख से आभार

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...