#यादों_का_इडियट_बॉक्स
ऐ सुनो!
यह जो तुम...मुझे नित्य याद करते हो न,उसकी एक कसक तो मुझे भी होती है,पता ही नही चलता कि मर्म समझकर भी यह मर्मान्तक अहसास इतनी पुनरावृत्ति क्यों करता है?
आजकल हमारे वीराने में तुम्हारे साथ बिताये उन स्मृत पलो की एक-एक कड़ी सरसो के पौधों की तरह दक्षिणावृत्त होकर झुक सी गयी है,जैसे सजृन और फलन का दायित्व बढ़ गया हो..जैसे एक ऋण से उऋण होने के लिये अपना सर्वस्व शनै-शनै क्षीण होते हुये मूकदर्शक बनकर निहार रहा होऊँ !
क्षीण होते वास्तविक दृश्य में सहसा तुम्हारी कल्पना भी दृश्य होती है!ठीक सरसो के फूलों की तरह...एक केशरिया छटा बनकर तुम्हारे पीत बस्त्रो में आने का बोधन कराती है और में गुम हो जाता हूँ कंही दूर वीराने में तुम्हे खोजता हुआ सा किन्तु तुम कस्तूरी की तरह उपवन महकाकर मुझे विस्मृतातीत कर चुके हो !!
यह जो गेंहू के नन्हे पौधों पर शबनमी बुंदे है न वह मुझे स्मरण दिलाती है,तुम्हारे ओष्ठ के वांयी तरफ कुदरत ने सजाये उस तिल की ,जिससे मुझे सबसे अधिक जलन होती थी,आखिर दमकती चेहरे की आभा पर वह आकर्षण अतिरेक का माध्यम जो बना था।
हरितलबनी से परिपूर्ण पातों पर जब भुवनभास्कर की रश्मियां अपना तेज बिखेरती है न,तब मुझे आभाष होता है कि मैने भी 'सुगन्ध' को 'पाश' में संजोने का दुर्लभ प्रयास किया था!परन्तु हृदय से स्पंदन और आत्मा से परमात्मा बिलग करने का हठ जो था ..!!
आजकल हमारे यहाँ कुछ अलग सा आकर्षक कुहासा होता है जैसे तुम्हारे बालो की चेहरे बाली लट परिपक्वता का शंदेश लाकर धबल हो गयी हो..नेत्र तीक्ष्णता ऐनक में लगी डंडी उसे आज भी सम्भाल पाती है....उसे तेजी से सम्भालते कंकन किंकिर हाथों की ध्वनि प्रेमातीत हुये हर स्मरण का आभास तो देती है किंतु बड़ा दुर्लभ है 'पानी' से 'पानी' पर "पानी" लिखना और कल की बातों को विस्मृत कर आज की यादों को स्मृत रखना ... !
फागुन कल आएगा और भोरे अपना राग गाएंगे,हम तो मुसाफिर थे साथी रंग लगे न लगे अपना रंग न बदल पाएंगे।चलते रहेंगे उन्ही राहों में बार-बार ..अब तक न लौटे,अब क्या लौट के खाक जाएंगे ..?
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