रविवार, 23 अगस्त 2020

क्षत्रियो की ८४ ओर इतिहास

--- राजपूतो में चौरासी की अवधारणा---

राजपूतो के बसापत का पैटर्न समझने के लिए ये पोस्ट जरूर पढ़ें। इससे पहले इस विषय पर कभी नही लिखा गया--

राजपूतो की ज्यादातर बसापत गांवो के समूह के रूप में मिलती हैं। 12 गांव, 24 गांव, 42 गांव, 60 गांव, 84 गांव आदि। इन्हें खाप कहा जाता है। ये राजपूतो में ही मिलती है या राजपूतो से गिरकर दूसरी जाती में गए वंशो में। दूसरी जातियों में भी सिर्फ उन्ही वंशो की एक गोत्र की खाप मिलती है जो राजपूतो से गिर कर उनमे शामिल हुए हैं। क्योंकि राजपूतो की ही बसापत सैनिक सेवा के बदले जागीर मिलने से होती थी। इसके अलावा खुद से भी किसी क्षेत्र को जीता जाता था लेकिन उसके बाद अपने से बड़ी ताकत से पट्टा अपने नाम लिखवाया जाता था जो कि गांवो के समूह के रूप में ही होता था। 

जागीर एक दो गांव की भी हो सकती थी लेकिन ज्यादातर कई गांवो की होती थी। अब जरूरी नही कि जितने गांवो की जागीर मिली है उन सभी गांवो में उन राजपूतो की बसापत हो। लेकिन समय के साथ आबादी बढ़ने से जागीर के अन्य गांवो में भी फैल जाते थे। बाद में खुद खेती भी करने लगे। 

राजपूतो की इन खापो में सबसे ज्यादा लोकप्रिय संख्या 84 की थी। 84 क्या है इसको जानना बहुत जरूरी है। भारतीय संस्कृति में संख्या 84 का बड़ा धार्मिक महत्व रहा है। इसे शुभ माना जाता रहा है। इसीलिए किसी चीज को दर्शाने में इस संख्या का बहुत इस्तेमाल किया जाता रहा है। जैसे महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थो की संख्या 84 बताई गई है। जरूरी नही की तीर्थो की संख्या सटीक 84 ही हो लेकिन पवित्र होने के कारण इस संख्या का सांकेतिक रूप में प्रयोग किया जाता है। इसी तरह मेरु पर्वत की ऊँचाई 84 हजार योजन बताई जाती है। ब्रज को 84 कोस में फैला बताया जाता है। प्रसिद्ध जोगियों की संख्या 84 बोली जाती है। जानवरो की प्रजातियों की संख्या 84 लाख बताई जाती हैं आदि आदि। 

इसी तरह जब इलाकाई डिवीज़न की बात की जाती थी तब भी 84 का बहुत उपयोग किया जाता था। एक परगने को 84 गांव के बराबर माना जाता था। हालांकि मध्यकाल में एक परगना 40 गांव का भी हो सकता था और 400 गांव का भी। राजपूतो को सबसे बड़ी जागीर जो मिलती थी वो ज्यादातर 84 गांव की ही होती थी। इनमे से कई 84 आज भी मौजूद हैं लेकिन जरूरी नही कि इनमे आज राजपूतो की संख्या पूरे 84 गांवो में हो। इसके अलावा 84 गांव पूरे ना होने या उससे कुछ ज्यादा होने पर भी 84 बोल दिया जाता था। कई बार एक पूरा परगना किसी एक वंश की जागीर में होने पर उसे 84 बोलना पसंद करते थे भले ही उसमे 84 गांव पूरे ना हो या उससे कुछ ज्यादा हों। ये 84 सांकेतिक ज्यादा होती थी।

इसी तरह 84 के चार गुना यानी की 360 और 360 के चार गुना 1440 संख्याओं को भी शुभ माना जाता है इसीलिए इनका भी राजपूतो के इलाकाई डिवीज़न में बहुत महत्व था। लेकिन 360 और 1440 ज्यादातर जागीर में नही मिलते थे। एक 'सरकार' जो आज के जिले की तरह होता था उसे 360 गांव के बराबर माना जाता था। हालांकि ये संख्या भी सांकेतिक ही होती थी। किसी वंश का शासन किसी बड़े हिस्से में हो जो लगभग सरकार के बराबर या आसपास हो तो उसे 360 गांव बोल दिया जाता था जैसे हरियाणा में मडाडों का राज्य था या रोहतक वाले परमारो का। अगर इससे कहीं ज्यादा बड़ा हो तो 1440 गांव बोल दिया जाता था। जैसे हरिद्वार, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर क्षेत्र में पुंडीरो का राज्य था। गौरतलब है कि 360 या 1440 अक्सर वहां होते थे जहां किसी वंश का पहले से ही बड़ा राज्य रहा हो और बड़ी ताकत के अधीन होने के बावजूद ये अर्धस्वतंत्र होते थे और अपने राज्य में खुद जागीर बांटते थे। और आज भी उसी तरह से इनकी आबादी मिलती है। 

उदाहरण के लिए हरियाणा के परमारो का राज दादरी से गोहाना और जींद से बहादुरगढ़ के क्षेत्र तक था। इसको 360 गांव की रियासत कह सकते हैं। ये इलाका जीतने के बाद परमार राजा ने अपने सेनापतियों या पुत्रो वगैरह को जागीरे बांटी होंगी। इसी तरह परमारो की इस क्षेत्र में 12, 24 या 32 गांवो की 3-4 या उससे ज्यादा खाप बनी। इन्ही जागीर के गांवो में परमार राजपूतो की आबादी का विस्तार हुआ। कुछ एकलौते गांव की जागीरे या भोम भी दी जाती थीं इसलिए स्वतंत्र गांव भी बसते थे। रियासत के बाकी गांवो में किसान जातीयो के लोग बसाकर परमार राजा उनसे खेती कराते। इन परमारो की राजधानी कलानौर थी। किसानों को बसाने के उपक्रम में किसानों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण किसान जाती के लोग जमीन के लिए 'भेंट' देने की भी पेशकश करते, तभी से कलानौर में कौला पूजा की शुरुआत हुई। किसानों को जहां खेती की जमीन मिलती वही बस जाते थे, किसी एक गोत्र के किसानो को खेती करने के लिए जागीर की तरह गांवो का पूरा समूह देने का कोई मतलब नही था इसलिए उनमे एक ही गांव में कई गोत्र के लोग मिलेंगे जो रिश्तेदारी में आकर नही बसे बल्कि एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से जमीनें मिलने पर बसे हैं। इसी तरह एक गोत्र की जगह कई गोत्र की खाप भी मिलेगी। हरियाणा में सुरक्षा कारणों से जाटो में अलग अलग गोत्र के किसानों के गांवो द्वारा मिलकर खाप बना लेने का चलन था इसलिए वहां जाटो में बहुगोत्रीय खाप भी मिलती हैं जैसे महम चौबीसी खाप। ये खाप कलानौर परमार रियासत की खालसाई जमीन पर खेती करने वालो की है जो इन्होंने 19वी सदी में ही बनाई है। इस खाप के जाट परमारो के मुजारे होते थे। इस खाप के बनने के बाद ही इन्होंने कौला पूजन के खिलाफ आंदोलन किया। 

इसीलिए हरियाणा और पश्चिम यूपी में जाट और गूजर जैसी जातियों में एकगोत्र कि खाप सिर्फ वो ही हैं जो राजपूतो से निकले हैं। जैसे पश्चिम यूपी में गूजरो में भाटी, कलस्यान, पवार, नागर आदि की ही खाप मिलती हैं जो अपने को राजपूतो से निकला बताते हैं। बाकी हूण, चेची,  कसाना आदि गोत्र के गूजर जो असली गूजर कहे जाते हैं वो बिखरे हुए ही मिलते हैं। 

राजपूतो के गांव वहीं बसते थे जहाँ उन्हें खुद सैनिक सेवा के बदले जागीर मिलती थी। जबकि कृषक या अन्य पेशों वाली जातियां कही भी किसी की भी जागीर में या 
खालसाई इलाको में बस सकती थीं जहाँ उन्हें खेती के लिए जमीन या उनके पारंपरिक पेशे से जुड़ा काम मिल जाए। पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब वगैरह में दिल्ली के करीब होने के कारण मुस्लिम शासन की स्थापना के बाद राजपूतो को कोई नई जागीरे नही मिली और जो पुरानी जागीरे या राज्य थे उनको भी धीरे धीरे तोड़ा जाता रहा इसलिए अपनी जागीरों में भी नए गांवो में राजपूतो का बसना बंद होता गया। इस कारण इन क्षेत्रों में एक तो पिछली कई सदियों में राजपूतो की आबादी का विस्तार बहुत कम हुआ। ऊपर से जागीरे टूटने और कमजोर होने के कारण कई खापो के अन्य जातियों में शामिल होने से संख्या पहले से कम भी होती गई। जबकि कृषक जाती होने के कारण जाट गूजर जैसी जातियों के लोग 20वी सदी तक नए इलाको और गांवो में बसते रहे, दूसरों की जागीरों में मुजारे के अलावा खालसाई जमीनों पर भी खेती करने के लिए बसते रहे। इसके अलावा राजपूतो से गिरी खाप भी इनमे शामिल होती रहीं। इस कारण इन क्षेत्रों में इनकी आबादी का बहुत विस्तार हुआ और इनके पिछली कुछ सदियों में ही बसे गांव बहुत मिलेंगे। दिल्ली में सल्तनत की राजधानी से लगता इलाका खालसा में होने के बावजूद इनकी वहां बहुत आबादी है। 

इस 360 की तरह ही मडाड और चौहानो की 360 थी। मडाडों के 360 गांव जो बोले जाते हैं उसका मतलब उनकी रियासत से था, मडाड राजपूतो की बसापत सभी 360 गांवो में नही थी। 

इसी तरह उत्तरी दोआब में पुंडीरो की रियासत 1440 गांव की बोली जाती थी जो आज के सहारनपुर, हरिद्वार, मुजफ्फरनगर और शामली जैसे 4 जिलों में फैली हुई थी। इसमे पुंडीरो के गांवो के कई समूह हैं जो पहले जागीर रही होंगी। 

लेकिन इसमे कोई एकरूपता नही होती थी। जैसे जाटू तंवरो के राज्य का क्षेत्रफल मडाडों या परमारो से ज्यादा नही था लेकिन वो अपने को 1440 बोलते थे। बाद में भाट जगाओ ने अज्ञानता के कारण अपने हिसाब से इन संख्याओं को परिभाषित करने का काम किया। जैसे किसी वंश की 360 बोली जाती है लेकिन वर्तमान में उस जगह सिर्फ 40-50 गांव में उस वंश की आबादी दिख रही है तो भाटो ने अपने मन से उस वंश की दूसरी जगह बसी खापो को जोड़ जाड़ के 360 गांव सिद्ध कर दिए। जैसे पश्चिम उत्तर प्रदेश में गहलोतो के कई जगा/भाट यहां पुराने जमाने से 360 गांव होने की बात जो जनश्रुतियों में लोकप्रिय थी, उसे सिद्ध करने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी खाप के गहलोतो के गांव के साथ नेपाल में गहलोत बताकर वहां के गांव तक की काल्पनिक संख्या जोड़ देते हैं। जबकि उन्हें नही पता कि हाथरस क्षेत्र में ही एक समय गहलोतो का बड़ा राज्य था जिस कारण 360 गांव होने की बात जनश्रुतियों में थी। 

इसी तरह सर्विस क्लास जातियों के भी आंतरिक संगठन में 84 और 360 गांवो पर चौधरी होते थे। उदाहरण के लिए एक विशेष क्षेत्र में बढ़ई जाती के 360 गांव बोले जाते थे जिनपर उनका मुखिया होता था जिसे चौधरी कहते थे। इसका मतलब ये नही कि वो 360 गांव के मालिक होते थे। बल्कि 360 गांव में रहने वाले बढ़ई जाती के लोगो का मुखिया होता था। लेकिन 360 भी सांकेतिक होता था। गांव इससे कहीं ज्यादा या कम हो सकते थे। 

राजपूतो में उत्तर भारत में निम्नलिखित चौरासी थीं----

(ये संपूर्ण लिस्ट नही है और ना ही परफेक्ट है। कई जगह पहले कुछ और मान्यता रही होगी और अब कुछ और। जैसे बुलंदशहर के बाछलो पर पहले 55 गांव की जागीर होती थी जो अंग्रेजो के समय खत्म हो गई और उस वक्त जिन 12 गांवो में बसापत थी उनमे ही उनकी आबादी रही आई इसलिए अब बारहा गांव की खाप बोली जाती है)

गाजियाबाद-हापुड़ में तोमरो की चौरासी।

हापुड़ के गढ़मुक्तेश्वर में ही चौरासी का आधा ब्यालसी भी थी तोमरो की। 

बुलंदशहर के खुर्जा में भाल सोलंकीयो की चौरासी।

बुलंदशहर के ही जेवर में छोकरो की चौरासी। 

बुलंदशहर के ही अनूपशहर और संभल के नरौली क्षेत्र में बडगूजरो(राघव) की चौरासी।

पुराने जमाने में गुड़गांव और मुजफ्फरनगर क्षेत्र में भी बडगूजरो(राघवो) की चौरासी बोली जाती थी। अब गुड़गांव में चौबीसी बोली जाती है जबकि मुजफ्फरनगर वाली के मुसलमान बन जाने की बात बोली जाती है लेकिन असल मे बालियान जाट जो बडगूजरो की देखा देखी अपने को अब रघुवंशी बोलते हैं उन्ही के लिए पुराने  समय मे जनश्रुतियों में बडगूजरो की चौरासी होना बोला गया है।  
 
बुढ़ाना क्षेत्र में कछवाहों की चौरासी। हालांकि पुराने जमाने में इनकी यहां 360 होने का जिक्र होता था। जिसका मतलब इनका कभी बड़ा राज्य रहा हो सकता है।

सहारनपुर के काठा क्षेत्र को पहले चौरासी बोला जाता था।

लोनी में चौहानो की चौरासी थी। 

अलीगढ़ के चंडौस क्षेत्र में चौहानो की चौरासी।

अलीगढ़-हाथरस क्षेत्र में पुंडीरो की चौरासी है।

कासगंज के सोरों क्षेत्र मे सोलंकियों की चौरासी।

इसी क्षेत्र में गौरहार की चौरासी।

मथुरा में तरकर की चौरासी। 

बदायूं के बिलसी क्षेत्र में जंघारा तोमरो की चौरासी।

मैनपुरी के किरावली में राठोड़ो की चौरासी।

आंवला में चौहानो की चौरासी है।

मिर्जापुर के कांतित में गहरवारों की चौरासी थी। 

प्रयागराज के मेजा क्षेत्र में भी गहरवारों की चौरासी है। 

कानपुर के शिवली में चंदेलों की चौरासी है।

एमपी के जबलपुर के पास बनाफ़रो की चौरासी है।

उन्नाव में बिसेन राजपूतो की चौरासी होती थी। 

मैनपुरी के बेवर क्षेत्र में बैस राजपूतो की चौरासी बोली जाती थी। 

जौनपुर में चंदेलों की चौरासी होती थी। 

गोखपुर के उनौला के पास पालिवार राजपूतो की चौरासी है।

बलिया के दोआबा में बिसेनो की चौरासी है। 

गाजीपुर के गहमर क्षेत्र और उससे लगते बिहार में सिकरवारो की चौरासी। 

सिकरवारों की चौरासी थी। 

एमपी के मुरैना में सिकरवारों की चौरासी है। 

भोपाल के पास चौहानो की चौरासी है।

रीवा के रामपुर में बघेलों की चौरासी। 

सीधी में चौहानो और सेंगरो की चौरासी। 

सुल्तानपुर-जौनपुर क्षेत्र में राजकुमारों के क्षेत्र को चौरासी कोस में फैला बोलते हैं। 

इसी तरह 360 की अगर बात करें तो हरियाणा और पंजाब में बड़े राज्य रहे हैं इसलिए वहां कई 360 मिलती हैं। 

जैसे उत्तरी हरियाणा में चौहानो की 360। लेकिन वहां अब बसे हुए गांवो के आधार पर दो 84 बोलने का चलन ज्यादा है। 

उससे नीचे मडाडों की 360

मडाडों के नीचे परमारो की 360

सिरसा में भट्टियों की भी 360 होती थी। 

पंजाब में वराह और तावनी राजपूतो की भी 360 बोली जाती थी। 

उनसे आगे घोडेवाहा के 360 गांव का राज बोला जाता था।

लुधियाना और जालंधर के आसपास मंज राजपूतो की 360 होती थी। 

हाथरस आगरा क्षेत्र मे अब गहलोत की 84 है लेकिन पहले 360 बोली जाती थी जिससे संकेत मिलता है कि पहले यहां इनका बड़ा राज्य था। 

मुरादाबाद के कठेरिया रामपुर में अपने 360 गांव बोलते हैं हालांकि कठेरियो का राज इससे कई गुना बड़े इलाके पर था, मुरादाबाद से लेकर शाहजहांपुर तक। इनके राज्य के लिए 1440 की सांकेतिक संख्या भी कम है। 

कानपुर में जो चंदेलों की 84 है उसको पहले 360 बोलते थे। 

गोंडा क्षेत्र में बिसेनो का 360 रहा है। 

वाराणसी-गाजीपुर के कटेहर क्षेत्र के रघुवंशियो की खाप को 360 बोला जाता था। 

बलिया जिले के प्रसिद्ध लखनेसर के सेंगरो के राज्य को 360 गांव का ही बोला जाता था। 

इसके बाद अगर 1440 की बात करें तो पुंडीरो के अलावा भिवानी हिसार में जाटू तंवरो के 1440 गांव बोले जाते थे। 

मुरैना क्षेत्र में भी तोमरो की खाप को 1440 बोला जाता है। 

अवध का बैसवाड़ा भी 1440 गांव का माना जाता है। 

उन्नाव का दिखितवाड़ा, राय बरेली के कान्हपुरिया, सुलतानपुर के बछगोती, सर्यूपार के कलहंस, सूर्यवंशी, श्रीनेत, उत्तरी अवध के चंद्रवंशी बाछल, हरदोई के सोमवंशी, आजमगढ़- अम्बेडकरनगर के पालिवारो के राज्य भी 360 या 1440 गांव का बोले जाते थे। 

लेखक- पुष्पेन्द्र राणा

संदर्भ- विभिन्न colonial रिकार्ड्स

नोट- इसमे सिर्फ मेरी जानकारी की और पढ़ने में जो आई सिर्फ उन्ही खापो का जिक्र किया है। इस तरह की और खापो के बारे में जानकारी हो तो बताए। धीरे धीरे उन्हें भी जोड़ दिया जाएगा। जागीर/खाप इससे अलग संख्या में भी होती है। 12, 24, 60, 87 आदि गांव की भी खाप होती हैं और इन्हें भी शुभ संख्या माना जाता है लेकिन 84 को सबसे शुभ माना जाता है क्योंकि इस संख्या का 7 और 12 दोनो से भाग होता है। ये भारतीय ज्योतिषशास्त्र का विषय है, में इसके डिटेल मे नही जाना चाहता। मेने 84 के बहाने से राजपूतो के सेटलेमेंट्स या उपनिवेशीकरण का पैटर्न समझाने की कोशिश की है क्योंकि में देखता था कि इस विषय मे लोगो को बहुत भ्रम हैं। (आज तक किसी academician ने भी इस विषय पर शोध नही किया और ना ही उन्हें ज्ञान) अगर फिर भी कोई डाउट हो तो पूछ सकते हैं। राजपूतो की बसापत सिर्फ इसी तरह होती थी ऐसा नही है लेकिन पुराने जमाने मे ये ही स्टैण्डर्ड प्रक्रिया थी।

आंखों का क्या

घर से दूर ट्यूबेल के तिबरिया पर बैठे ताऊ कहि शून्य में गुम है, वह लगातार बीड़ी के दीर्घ कस खींचते हुये फिजाओ में ढेर सारे धुंआ को छोड़ने के साथ ऐसा प्रतीत  होते है जैसे धुंये के साथ जीवन श्वांस भी छोड़ने का प्रयास कर रहे हो..!

प्रणाम दाऊ !

मेरे अभिवादन शब्दो ने जैसे उन्हें कल्पना लोक से यथार्त लोक में ला दिया और पपड़ी पड़े ओठो से शुष्क सी मुस्कान के साथ स्नेह प्रस्फुटित हो गया !

"जीते रहो लले....कैसे हो ?"

- दाऊ बैलों से होती खेती मेने भी देख ली है पर इतना याद नही....आपसे आग्रह है कि कुछ अपने पुराने समय बाले किस्से सुनाइये ....!

बातो ही बातो मेरा जिज्ञासु मष्तिष्क उन्हें कुरेदने लगा और वह अपने कर्तव्यों की आधार बने सिर से अंगोछा उतारते हुए पुनः कही बीते हुए बिचरण करने लगे ओर मुझे उनकी आंखों में चलचित्रित होते भावो की नमी स्पष्ट  महसूस हुई ..।

"यह जो 4 वर्षो से खड़ा ट्रेक्टर दिख रहा है न! मेने कभी नही सोचा था कि यह मेरी वृद्धता की तरह उपेक्षित हो जाएगा!"
"लाले!...मेने तो अपनी जवानी के समय एक बैलजोड़ी,जरार के मैला से खरीदी थी, उसे भी कभी नही  बेचा !"
"जब हम किसी भी सजीव-निर्जीव बस्तु,स्थान,अथवा उससे जुड़ी भावना में  लाभ-हानि देखने लगते है तो प्रेम का मूल बिलुप्त होकर सिर्फ और सिर्फ लाभ का भाव ही जीवित रह जाता है !"

अपनी यादों से जुड़ी भावनाओ में बिचरण करते हुए उन्होंने तनाव महसूस किया और ओठो से बीड़ी को जोड़ते हुए बीड़ी धुएं योग के साथ भावनाओ को दबाने के लिए लगातार कस खिंचने लगे !
एक सांस खींचते हुए पुनः बोल उठे ..…जैसे एक शून्य से दूसरे शून्य को जोड़कर योगफल शून्य ही खोज रहे हो !

"मेरा जमाना......जमाना ही नही भावों का अथाह सागर हुआ करता था!"
"आज की तरह पैसा भी नही था ,ओर इसके साथ-साथ उसका इतना महत्व भी नही था।"
"अलग-अलग कमरे भी नही थे....क्या हृदय भी अलग-अलग नही थे। एक को हल्का दर्द हुआ पूरा गांव साथ था....अब तो एक परिवार होकर भी अलग-अलग है !"
'यह जो ट्रेक्टर अपनी जरावस्था में निस्तेज से खड़ा है न...यह जब आया था ,मुझे बहुत बुरा लगा था ....क्योंकि  मेरे हाथ से मेरे हल की मूठ जो छीन रही थी !'

यह कहते-कहते दाऊ की आंखों में नमी तैर उठी और वह बुझी हुई बीड़ी को पुनः सुलगाकर उस तैरती नमी को शुष्क करने का असफल प्रयास करते थे !

'किन्तु इसके साथ भी होते उपेक्षित व्यवहार पर मुझे कष्ट  होता है। बेलो के बाद इससे प्रेम जो कर बैठा..."
"मेरे प्रेम की परिणीति देखिए ....यह भी बेचारा जब बेदम हुआ,इससे उड़ते रक्त सम्लित गाढे धुंये पर किसी ने ध्यान नही दिया और जब लोगो का स्वार्थ शिद्धि वाधित हो गया तो ....."
'इसे भी खड़ा छोड दिया ....साइलेंसर आज उल्टा जुडा है ,कल एयरक्लीनर किसी अस्थमा रोगी के फेफडो की कचड़े से भर चुका है !"
'चहुओर उगते झाड़ किसी वृद्ध की दाढ़ी जैसे प्रतीत होने लगे है। इसकी लिफ्ट जैसे जोड़ो के रोग से ग्रसित होकर अब बोझा नही उठा सकती !'
'इसकी हेडलाइट्स मेरी आंखो की तरह चश्मे से भी नही देख सकती न..!"

यह बोलते-बोलते दाऊ की लगभग शतक से दशक पूर्व बाली आंखों से एक-अश्रुधारा वह निकली और मेरा पूरा असितित्व तरल में बदलता प्रतीत हुआ। उन्होंने सिरहाने रखी डोलची से कुछ जल लिया और कुछ अंश शुश्क   हो चले कंठ में पहुचाये !
मेने उनके दर्द को स्पष्ट महसूस किया और बात बदलनी चाही किन्तु जब भाव का प्रवाह वेदना की गति से बहने लगे तब कोई भी अवरोध कुछ प्रभाव नही रखता है, ताऊ कहते चले में मष्तिष्क में लिखता चला ।

'यह ट्रेक्टर भी मेरी तरह चार बच्चों के आधिपत्य में है, चारो की साझाकरण ओर लाभकरन नीति में फंसा हुआ।"
"काश!किसी एक का होता तो यह इस तरह रुग्ण न होता....इसकी रगों में नया रक्त दौड़ता....पाचन का निस्कासन बादलों तक अपना रंग दिखाता ओर इसकी आंखों की रोशनी मे.......में भी अपनी अपनी माटी को पुनः हल की तरह सृजित होते देखता !"

'बेलो की मधुर घण्टियाँ सुने दसको के बीत गए किन्तु कभी-कभी इसकी मधुर 'पी-पी......पी-पी' में एक मल्हार ही गुनगुना लेता !"

उनका गला रुंध आया और अंततः सारा ठीकरा आधुनिकता पर फोड़ते हुए बोले ......
'चल जीतू एक काम कर इस फोन पर कोई सुरैया-शमसाद का पुराना गीत ही सुना दे !"

मेने उनकी उनकी पसंद का गीत ......"ले के पहला-पहला प्यार,भरके आंखों में फुहार"
लगा दिया और वह अपने दिनों को स्मरण करके साथ-साथ दोहराने लगे .......!
में बस उनके अनुभवी चेहरे इतनी शीघ्र बिलुप्त हुई कसक को खोजता रहा .....किन्तु वह आंखे पुनः न खुली जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी,आंखों का क्या .....वहउस दर्द को पान कर चुकी थी ,ओर ट्रेक्टर पर केन्ग्लिया पक्षियों का एक झुंड झगड़ रहा था ।


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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र

सत्यबोध

जैसा कि जनश्रुति है.....
 नागिन जब नाग के साथ रमणरत होती है तो वह नितांत निर्जन  को चुनती है ....अपने अंडजो को दुनिया देखने से पूर्व घेरकर ...स्वयं ही निगलने की प्रवृति में कितने बच्चों को मारकर खा जाती है..!

वही मादा बिच्छू अपने अंडों को हीयरे से लगाकर रखती है ...उन्हें सेह करने के साथ-साथ दोनो हाथो से निरन्तर लुढ़काते हुए,स्थानान्तरन करते हुए एक वृहद सुरक्षा के सिपाही की तरह से सुरक्षा प्रदान करती रहती है! 
स्वजाये अन्डजो के पोषण में वह जब तक कुछ भी नही खाती ....! वह सन्तानमोह में सब भूल बैठती है, उसे सन्तान मोह ओर सृजन अभिलाषा इतनी प्रवल होती है कि अन्डो से निकलते बच्चे उसे जब चुनने लगते है,तब वह भूख से परिचित होती है और जब तक कि  उसके बच्चे उससे तिल-तिल के मारते है !

वह पल प्रतिपल असहनीय दर्द को महसूस करती है और   भागती है ....जीवन रक्षा के लिए ....मर्मातक पीड़ा से बचने के लिए ! 
किन्तु सन्तानमोह में यह पीड़ा तो सहन करती है, स्वयं के  दर्द कारक बच्चों को स्वयं से प्रथक नही करती है। और अंततः उसी के जाए एक दिन उसको निढाल कर देते है ....वह सृजन करके स्वयं के विनाश का कारण स्वयं बनती है !

सर्पनी अंडे देकर उन्हें भूल जाती है, जैसे कोई कभी मोह था ही नही! उसने तो सर्प के साथ रमण सिर्फ भौतिक आवश्यकता पूर्ति और रति आकर्षण वश किया था .....प्रकृति ने उसे गर्भ (गर्व भी पढ़ सकते है,जिसका भाव अंत मे प्रकट होगा) दिया और सर्पिणी ने गर्भ को बोझ समझ उपेक्षित कर दिया ।

उसे तो पूर्वाग्रह हो गया उन अचेष्ठी अन्डो है कि उसे जनते हुए उसकी ऊपरी चमड़ी उधड़ गयी ....उसे असहनीय प्रसव वेदना सहनी पड़ी। उसने सृजन ओर बात्सल्य से जुडी प्रसव को बिपरीत दृश्टिकोण से परखा ..!
अंततः नियत समय पर आ गयी अपने अंशो को निगलने के लिए ,अन्डो की वृत्ताकार परिधि में उसने कुंडली लगाई और चटकते अण्ड आवरण पर शिकारी की निगाह रखी ......जो निकला और निकलते ही अपनी माँ से दूर भागा बच गया किन्तु जो निकल कर मातृपक्षीय मोह न त्याग सका ,वह माता द्वारा ही पुनः उदरस्थ कर लिया गया...!
यह कैसा सृजन ओर जनन था जिसमे पूर्वाग्रह ओर क्रोध में जननकर्ता द्वारा शैशव को क्षुदा शांति की भेंट चढ़ना पड़ा ?

मादा बिच्छू ओर  सर्पिणी यू तो दोनों के प्राकृतिक जनन व्यवहार सर्वदा बिपरीत है किंतु जब इसे #खाजनीति की  दृष्टि से तौला जाए तो बिच्छू वह क्षेत्र व समाज है जिसमे #लेता पैदा होता है और शैशव काल मे ही 'भौतिक शास्त्री-लेन्ज' की व्यंजना का सन्दर्भ बनता है !

जब वह बड़ा होकर सर्पिणी सदृश होता है तो सर्वप्रथम समाज,क्षेत्र,कर्त्तव्य,कर्म,धर्म से विमुख होकर उसी  से उदरपूर्ति कर लेता है ....जिसके सृजन ,पालन,पोषण का उत्तरदायित्व उसपर होता है .....!!!

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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र

तँवर वंश अभिवादन

#जय_गोपाल_जी_की
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चन्द्रवंश,भरतकुल-पाण्डव वंशी तोमर(तँवर) क्षत्रियो का अभिवादन क्यों है ..?
कभी-कभी कुछ अतिसामान्य से व्यवहारिक प्रश्न मष्तिष्क में आते तो है किंतु समुचित उत्तर जिव्हा में ओर भाव होते हुए भी चुप रह जाते है .....कारण है समुचित जानकारी और उससे कारण का ज्ञात न होना !

आज तँवरवंश के अविवादन पर कुछ शब्दो के माध्यम से चर्चा की जाए..।

महाभारत के युद्ध से पूर्व धर्मराज युधिष्ठिर के मातृपक्षीय बन्धु योगेश्वर श्रीकृष्ण जी जीवन ही इतनी लीलाओं का अथाह सागर रहा कि उनके अनन्त नाम रखे गए ....और गोवर्धन पर्वत तर्जनी पर धारण करने बाले लीलाधर देवराज इंद्र के द्वारा 'गोपाल' पुकारे गए।
योगेश्वर की बहिन योगमाया तँवर कुलदेवी तो योगेश्वर द्वतीय कुलदेव माने गए ...!
एक समय आया कि गुरुपुत्र अशश्वथामा ने द्रौपदी पुत्रो की नृशंस हत्या कर दी और जाकर ऋषि आश्रम में छुप गया। जब पाण्डव व योगेश्वर से सामना हुआ तो छिपकर सीखे गए 'बृह्मशीर्ष अमोघअस्त्र' का सन्धान किया ....जिसके प्रतिउत्तर में श्रीकृष्ण जी की सलाह पर पार्थ द्वारा भी उसी दिव्याश्त्र का सन्धान किया। अंतरिक्ष मे अंधेरा होने लगा ,दिगम्बर डिगने लगे...पृथ्वी कम्पित हो गयी और सृष्टि जैसे महाप्रलय के अंधकार में लुप्त होने लगी ....। दो महान दिवाश्त्रो के मध्य आये महर्षि द्वारा अर्जुन-अशश्वथामा को आदेशित किया गया कि इससे पूर्व महाप्रलय हो अपने अस्त्र बापस करलो ....अर्जुन को पूर्णसंचलन ज्ञान था और उन्होनो अस्त्र बापस कर किन्तु गुरुपुत्र को अर्द्धज्ञान था और उसने अपने पूर्वाग्रह के कारण पाण्डव वंश बीजनाश हेतु उत्तरा के गर्भ पर लक्षित कर दिया ।
गर्भ में पल रहे शिशु महात्मा परीक्षित का जीवन ओर भरतकुल वंश का असितित्व जब संकट में आया तो पुनः योगेश्वर अपनी योगमाया के साथ अपने अनन्य भक्त की रक्षा गर्भ में उस अस्त्र का कबच बन करते रहे ।

जब महात्मा परीक्षित का जन्म हुआ तो वह सबकी तरह रुदन करने की बजाय शुकासन लगाकर बेठ गए और सबपर अपनी परीक्षित दृष्टि से अवलोकन करने लगे ....किसी के अंक में जाने की जगह उन्ही निगाहे तलाश रही रही थी .....अपना चक्रधर....रक्षक मुरलीधर....अपना दैव गिरिधर गोपाल ! जैसे ही गोपाल का आगमन हुआ और वह दौड़कर चिपक गए गोपाल के  अंक में ....जय जय गोपाल गाने लगे ।

प्रथम कुल दैव महादेव हरिहर शंकर जी के बाद द्वितीय कुलदेव के रूप में गिरिधर गोपाल जी इतनी बार इस तन्वरकुल रक्षा की है कि महात्मा परीक्षित से ही सम्भवतः "जय गोपाल जी की" तंवरो का कुल अविवादन  प्रचलित हो गया और हम अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए अपार श्रद्धा में जय गोपाल जी की बोलते है ।

★जय गोपाल जी की ★

सन्दर्भ :-
 श्रीमदभागवत महापुराण,महाभारत,श्रीमद्भभागत विष्णु महापुराण,सबल सिंह चोहान कृत महाभारत

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प्रेम

परोक्षप्रेम,प्रत्यक्ष मोहभंग
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वह भी एक आम फेसबुकिया था....औरो की तरह रोज 8 से लेकर 20 घण्टे तक दिहाड़ी करने बाला। अपने अंक में समेटे था सेकड़ो झटके,अनगिनत भावनाये ओर युवामन की अशेष आशाओं में कही पुनः जीवन स्थापन के लिए नित्य प्रत्यनशील !
घर से दूर एकांत रहना और अवकाश बाले दिनों में भी टिफिन के साथ कोई किताब लेकर जंगलो,नदी सरोबरो के किनारे फक्कड़ जैसी प्रियता में वह इस दुनिया मे एक विचित्र से कम नही था। सधे शब्दो मे बोलना ओर माटी को शब्द देना जैसे उसे इसी फक्कड़पन का फल था ..!!

वह जब व्याकरणीय त्रुटियों के साथ माटी को शब्द देता तो लोग बलिहारी हुए जाते थे.....लोगो ने जब उसके विषय मे कल्पनाएं गढ़ी तो कल्पनाएं सदा की तरह स्थिति के विपरीत ही बनी....सदा इंसान परोक्ष में बसी कल्पनाओ में ठगा महसूस करता है,ओर जब पूर्वनियोजित धारणा से कही एक हजार गुना अधिक निम्न प्रत्यक्ष होता है! तो जो मानव आकर्षण होता है वह  कुछ अपवादों को छोड़ .....आकर्षण बिंदु से कही दूर भागता है ।
लोग उससे दूर भाग रहे थे और वह जीवन युद्ध मे भाग रहा था .....इधर-उधर,यत्र-तत्र, सर्वत्र! स्वम की प्राणवायु  खोजते हुए क्योंकि उसे आडम्बर पसंद नही थे और समय उसके साथ परिहास कर रहा था ...।
समय ने उसके साथ इतने परिहास किये की उसे उसपर होने बाले परिहास कही सूक्ष्म दिखते ओर वह नए-नए खुशियों के माध्यम में खुश था ।

उसके नीड़ में तृणों के अभाव थे किंतु वह पक्षियों के नीड़ सुरक्षित करके सुख अनुभूत करता था। वह औरो को अपना बनाकर उनकी उपलब्धियों में स्वम से जोड़ लेता था....वह नही जानता था कि "औरो के परितोष स्वम के घर मे नही सजते!"
यंहा तो अपना घर सजाने के लिए 'रद्दी पत्र' भी स्वम ही खरीदने पड़ते है। उसमें किसी से मोह नही लगाया क्यूकी  वह जिससे मोह करता था.....वह इस दुनिया मे तमाम कष्टों के विचरण का माध्यम बन जाता अथवा इस दुनिया से ही विचर जाता। कहि दूर अनन्त में अदृश्य धुंए की कुछ लकीरे उसे आज भी स्मरण है ....स्वम की असफलताओं के प्रतीक बनकर....अपनो से कही दूर रहने का संकेतक प्रतीक बनकर !

वह प्राकृतिक था....है और सदैव रहेगा! उसने न कल आकर्षण के आवरण ओढ़े थे ...न कभी आकर्षण बिंदु बने रहने की अपेक्षाएं की थी। वह तो नग्न तेग जैसा था ...दुधारा,निरीह,निष्ठुर...जिसके फल का स्पर्श सिर्फ घाव दे सकता है और हजारो घाव लिए वह लोगो को घावों से बचाते हुए इस दुनिया को अलविदा कर गया .....आकर्षण की अपेक्षाओं से रहित एक सिहाई का  सरोबर अंततः सुख गया !!!!

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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

गुप्तचरों की दुर्दशा

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कल की पोस्ट से कुछ स्वजन व्यथित थे , में यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि प्रेम में धोखा ,किसी के दबाव , या किसी के अपमान के कारण नही जा रहा , आप सबीके5 रहते हुए किसी की इतनी हिम्मत नही की मुझतक कोई आंच आये , बस फेसबुक से एक ऊबन होने लगती है , जबतक मुझे लगता है कि मैं इसे चला रहा तबतक सब ठीक होता है मैं यहाँ लिखता हूँ लेकिन जैसे ही पता लगता ज्म कि ये हमे चला रहा हम ठहरे मलंग चल पड़ते हैं झोला उठाकर , तो आज आखिरी लेख है तो एक विशेष लेख तो बनता है , इसको पढ़कर सोचना की एक गुमनाम योद्धा कैसे आपकी सुरक्षा दीवार तैयार करता है और मूवी के इतर उसकी वास्तविक जीवन की लड़ाई कैसी होती है ।।

हर देश में मौजूद विदेशी दूतावास सर्फ दूतवाश है नही जासूसों का भी अड्डा होते हैं, लेकिन यह पता होने के बावजूद सारे देश ऐसी जासूसी को स्वीकार करते हैं, लेकिन क्यों?

जासूसी की अंतरराष्ट्रीय दुनिया बड़ी स्याह और आम तौर पर गैरकानूनी है, लेकिन इसके बावजूद हर देश इसे स्वीकार करता है। बकिंघम यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सिक्योरिटी एंड इंटेलिजेंस स्ट्डीज के डायरेक्टर एंथनी ग्लीस इसे "जेंटलमैंस एग्रीमेंट" कहते हैं,यह कोई लिखित या आधिकारिक समझौता नहीं होता, बस "आप मुझ पर नजर रखें और मैं आप पर" वाली बात है।

 दूतावास हमेशा तथाकथित इंटेलिजेंस अफसरों को नियुक्त करते हैं, यह देशों के बीच एक गैरआक्रामक संधि सी है, जिसके तहत सरकारें आपसी फायदे के लिए एक दूसरे के मामलों पर आंखें मूंद लेती हैं।" अगर किसी देश को अपने जासूसों को विदेश भेजना है तो उसे विदेशी जासूसों को अपने देश में भी मंजूरी देनी होती है। अब यह जासूसों पर निर्भर करता है कि वह कितनी जानकारी किस ढंग से निकाल पाते हैं,यही वजह है कि दूसरे देशों में जासूसों को अक्सर डिप्लोमैट या कूटनीतिक अधिकारी के तौर पर नियुक्त किया जाता है, उन्हें डिप्लोमैटिक इम्युनिटी और एक खास किस्म की सुरक्षा भी दी जाती है, कूटनीतिक संबंधों को लेकर 1961 की वियना संधि में इन बातों का जिक्र है।।

बबहरखैर 
जासूसी के बारे में सोचा जाता है तो आम तौर पर दिमाग में सिनेमा का चरित्र जेम्स बांड उभरता है, लेकिन यह वैसा नहीं है,जब हम खुफिया कार्य के बारे में सोचते या बातचीत करते हैं तो हम सामान्य रूप से जेम्स बांड, बंदूक, लड़कियां, गिटार और ग्लैमर के बारे में सोचते हैं, लेकिन गुप्तचरी की दुनिया वैसी नहीं है , ये कैसी है यदि दिखा दिया जाए तो रूह कांप जाए , यह उन देशभक्तों का यथार्थ आर्तनाद है, जिन्होंने अपने देश के लिए पाकिस्तान, चीन ,रसिया, अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया ,अफगानिस्तान, ईरान जैसे देशों में जासूसी करते हुए जीवन खपा दिया, लेकिन आज अपने देश में दिहाड़ी मजदूर या उससे भी गलीज हालत में हैं, उन्हें कोई 'राष्ट्रभक्त' पूछता नहीं, 'राष्ट्रभक्त' सरकार को देशभक्त जासूस की कोई चिंता नहीं, अब संकेत में नहीं, सीधी बात पर आते हैं और एक ऐसे ही एजेंट की कहानी आप सबको बताते हैं (नाम और पहचान गुप्त रखी गयी है बाकी अक्षरसः सत्य है) दिल्ली में एक जो भारतीय खुफिया एजेंसी 'रिसर्च एंड अनालिसिस विंग' ('रॉ') के जासूस थे, उन्होंने अपने बेशकीमती 4 वर्ष पाकिस्तान के अलग-अलग इलाकों में सड़कों पर खोमचा घसीटते हुए, मुल्ला बन कर मस्जिद में नमाज पढ़ाते हुए, संवेदनशील सरकारी महकमों पर महीनों नजरें रखते हुए, पाकिस्तानी सेना द्वारा पोषित आतंकियों से दोस्ती गांठते हुए, जान की परवाह न कर वहां की सूचनाएं भारत भेजते हुए और आखिर में बर्बर यातनाओं के साथ जेल काटते हुए बिताए।

बड़ी मुश्किल से पाकिस्तान की जेल से छूट कर भारत पहुंचे 'रॉ' एजेंट (नाम पंडित जी रख लेते हैसंबोधन में आसानी होगी ) का जीवन अपने देश आकर और दुश्वार हो गया, 'रॉ' एजेंट पंडित जी उर्फ मोहम्मद इमरान।

पंडित जी की तरह ऐसे अनगिनत देशभक्त हैं, जिनका जीवन देश के लिए जासूसी करते हुए और जान को जोखिम में डालते हुए बीत गया। जब वे अपने वतन वापस लौटे तो अपना ही देश उन्हें भूल चुका था। सरकार को भी यह याद नहीं रहा कि भारत सरकार का प्रतिनिधि होने के नाते ही वह पाकिस्तान में प्रताड़नाएं झेल रहा था। कुलभूषण जाधव तो सुर्खियों में इसलिए रहे हैं कि उनसे सरकार का राजनीतिक-स्वार्थ सध रहा है।

यह सियासत क्या कुलभूषण के जिंदा रहने की गारंटी है? अगर गारंटी होती तो रवींद्र कौशिक, सरबजीत सिंह जैसे तमाम देशभक्त पाकिस्तान की जेलों में क्या सड़ कर मरते? फिर सरकार का उनसे क्या लेना-देना, जो देशभक्ति में खप चुके, पर आज भी जिंदा हैं! ऐसे खपे हुए देशभक्तों की लंबी फेहरिस्त है, जो अपनी बची हुई जिंदगी घसीट रहे हैं। इन्होंने देश की सेवा में खुद को मिटा दिया, पर सरकार ने उन्हें न नाम दिया न इनाम.  'रॉ' एजेंट पंडित जी का प्रकरण सुनकर केंद्रीय खुफिया एजेंसी के एक आला अधिकारी ने कहा कि मोदी सरकार बदलाव की बातें तो करती है, लेकिन विदेशों में काम कर रहे 'रॉ' एजेंट्स को स्थायी गुमनामी के अंधेरे सुरंग में धकेल देती है।

विदेशों में हर पल जान जोखिम में डाले काम कर रहे अपने ही जासूसों की हिफाजत और देश में रह रहे उनके परिवार के लिए आर्थिक संरक्षण का सरकार कोई उपाय नहीं करती। जबकि देश के अंदर काम करने वाले खुफिया अधिकारियों की बाकायदा सरकारी नौकरी होती है। वेतन और पेंशन उन्हें और उनके परिवार वालों को ठोस आर्थिक संरक्षण देता है। इसके ठीक विपरीत 'रॉ' के लिए जो एजेंट्स चुने जाते हैं, सरकार उनकी मूल पहचान ही मिटा देती है।

उनका मूल शिक्षा प्रमाणपत्र रख लेती है और किसी भी सरकारी या कानूनी दस्तावेज से उसका नाम हटा देती है। पंडित जी इसकी पुष्टि करते हैं। पंडित जी कहते हैं कि R. K. पुरम स्थित DPS कॉलेज से उन्होंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी और दिल्ली विश्वविद्यालय  से उन्होंने ग्रैजुएशन किया था। 'रॉ' के लिए चुने जाने के बाद उनसे स्कूल और कॉलेज के मूल प्रमाणपत्र ले लिए गए। जब वे 4 साल बाद अपने घर लौटे तो उनकी पूरी दुनिया बदल चुकी थी. उन्हें बताया गया कि सरकारी मुलाजिमों का एक दस्ता वर्षों पहले उनके घर से उनकी सारी तस्वीरें ले जा चुका था। राशनकार्ड से पंडित जी का नाम हट चुका था. सरकारी दस्तावेजों से पंडित जी का नाम 'डिलीट' किया जा चुका था.

भारत सरकार ऐसी घिसी-पिटी लीक पर क्यों चलती है? भारतीय खुफिया एजेंसी के अधिकारी ही यह सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि अमेरिका, चीन, इजराइल, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे कई देश अपने जासूसों की हद से आगे बढ़ कर हिफाजत करते हैं और उनके परिवारों का ख्याल रखते हैं. यहां तक कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई तक अपने एजेंटों को सुरक्षा कवच और आर्थिक संरक्षण देती है, लेकिन भारत सरकार इस पर ध्यान नहीं देती, क्योंकि सत्ता-सियासतदानों को इसमें वोट का फायदा नहीं दिखता।

वर्ष 2010 में 'रॉ' के टैलेंट हंट के जरिए चुने गए पंडित जी की अकेली आपबीती देश के युवकों को यह संदेश देने के लिए काफी है कि वे 'रॉ' जैसी खुफिया एजेंसी के लिए कभी काम नहीं करें। मेजर रवींद्र कौशिक से लेकर ऐसे तमाम 'रॉ' एजेंटों की बेमानी गुमनाम-शहादतों के उदाहरण भरे पड़े हैं। खुफिया एजेंसियों के अफसर ही यह कहते हैं कि पाकिस्तान या अन्य देशों में तैनात 'रॉ' एजेंट के प्रति आंखें मूंदने वाली सरकार भारत में रह रहे उनके परिवार वालों को लावारिस क्यों छोड़ देती है, यह बात समझ में नहीं आती। ऐसे में देश का कोई युवक 'रॉ' जैसी खुफिया एजेंसी के लिए काम करने के बारे में क्यों सोचे? पंडित जी को 'रॉ' के टैलेंट फाइंडर जीतेंद्रनाथ सिंह परिहार ने चुना था।

एक साल की ट्रेनिंग के बाद पंडित जी को जनवरी 2011 में भारत-पाकिस्तान सीमा पर मोहनपुर पोस्ट से 'लॉन्च' किया गया ,पंडित कजी के साथ एक गाइड भी था जो उन्हें पाकिस्तान के पल्लो गांव होते हुए बम्बावली-रावी-बेदियान नहर पार करा कर लाहौर ले गया और उन्हें वहां छोड़ कर चला गया. उसके बाद से दी का जासूसी करने का सारा रोमांच त्रासद-कथा में तब्दील होता चला गया,23 जनवरी 2014 को सिंध प्रांत के हैदराबाद शहर से गिरफ्तार किए जाने तक पंडित जी ने जासूसी के तमाम पापड़ बेले, खोमचे घसीटे, लाहौर, कराची, मुल्तान, हैदराबाद, पेशावर जैसे तमाम शहरों में आला सैन्य अफसरों से लेकर बड़े नेताओं की जासूसी की और दुबई, कुवैत, कतर, हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर जैसी जगहों पर बैठे 'रॉ' अफसरों के जरिए भारत तक सूचना पहुंचाई।

'रॉ' ने हैदराबाद के आमिर आलम के जरिए पंडित जी को अफगानिस्तान भी भेजा जहां जलालाबाद और कुनर में उन्हें अहले हदीस के चीफ शेख जमीलुर रहमान के साथ अटैच किया गया। वहां के सम्पर्कों के जरिए पंडित जी पेशावर में डेरा जमाए अरब मुजाहिदीन के सेंटर बैतुल अंसार पहुंच गए और जेहादी के रूप में ग्रुप में शामिल हो गए।  बैतुल अंसार पर ओसामा बिन लादेन और शेख अब्दुर्रहमान जैसे आतंकी सरगना पहुंचते थे और सेंटर को काफी धन देते थे। 23 जनवरी 2014 को पंडित जी को सिंध प्रांत के हैदराबाद से गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के बाद पंडित की यंत्रणा-यात्रा शुरू हुई, पहले उन्हें हैदराबाद में आईएसआई के लॉकअप में रखा गया फिर उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस की 302वीं बटालियन में शिफ्ट कर दिया गया, हैदराबाद से उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस की दूसरी कोर के कराची स्थित मुख्यालय भेजा गया।

पूछताछ के दौरान पंडित को बर्बर यातनाएं दी जाती रहीं. पिटाई के अलावा उन्हें सीधा बांध कर नौ-नौ घंटे खड़ा रखा जाता था और कई-कई रात सोने नहीं दिया जाता था, करीब एक साल तक उन्हें इसी तरह अलग-अलग फौजी ठिकानों पर टॉर्चर किया जाता रहा और पूछताछ होती रही। इस दरम्यान पंडित जी के हबीब बैंक के हैदराबाद और मुल्तान ब्रांच के अकाउंट भी जब्त कर लिए गए और उसमें जमा होने वाले धन के स्रोतों की गहराई से छानबीन की गई। 21 दिसम्बर को उन्हें कराची जेल शिफ्ट कर दिया गया। पांच महीने बाद जून पंडित जी पर पाकिस्तानी सेना की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ और उन्हें कराची जेल से 85वीं एसएंडटी कोर (सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट कोर) को हैंड-ओवर कर दिया गया.

इस दरम्यान पंडित जी को पाक सेना की 44वीं फ्रंटियर फोर्स (एफएफ) के क्वार्टर-गार्ड में बंद रखा गया, वर्ष 2015 में पंडित जी 21वीं आर्मर्ड ब्रिगेड के हवाले हुए और उन्हें 51-लांसर्स के क्वार्टर-गार्ड में शिफ्ट किया गया। इस बीच मेजर नसीम खान, मेजर सलीम खान, लेफ्टिनेंट कर्नल हमीदुल्ला खान और ब्रिगेडियर रुस्तम दारा की फौजी अदालतों में मुकदमा (कोर्ट मार्शल) चलता रहा। पंडित जी कहते हैं कि कोई कबूलदारी और सबूत न होने के कारण पाकिस्तान सेना ने उन्हें सिंध सरकार के सिविल प्रशासन के हवाले कर दिया।

सिंध सरकार ने वर्ष 2015 में ही पंडित जी को भारत वापस भेजने (रिपैट्रिएट करने) का आदेश दे दिया था, लेकिन वह 1 साल तक कानूनी चक्करों में फंसता-निकलता आखिरकार मार्च 2016 में तामील हो पाया, पंडित जी को 22 मार्च 2016 को बाघा बॉर्डर पर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के सुपुर्द कर दिया गया. 'रॉ' के मिशन पर पाकिस्तान में 4 वर्ष बिताने वाले पंडित जी 1  साल से अधिक समय तक जेल में बंद रहे, भारत लौटने पर भारत सरकार के एक नुमाइंदे ने उन्हें दो किश्तों में एक लाख 36 हजार रुपए दिए और उसके बाद फाइल क्लोज कर दी।

'रॉ' के लिए जासूसी करने के आरोप में पकड़े गए नौसेना कमांडर कुलभूषण जाधव का पहला मामला है जब केंद्र सरकार ने उनकी रिहाई के लिए पुरजोर तरीके से आवाज उठाई और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक गुहार लगाई, लेकिन इसके पहले मेजर रवींद्र कौशिक से लेकर सरबजीत सिंह और सरबजीत से लेकर तमाम नाम, अनाम और गुमनाम जासूसों की हिफाजत के लिए भारत सरकार ने आज तक कोई कदम नहीं उठाया। कुलभूषण जाधव का मसला ही अलग है।

उन्हें तो तालिबानों ने ईरान सीमा से अगवा किया और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथों बेच डाला। जर्मन राजनयिक गुंटर मुलैक अंतरराष्ट्रीय फोरम पर इसे उजागर कर चुके हैं। पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में बंद सरबजीत की रिहाई के मसले में भी सामाजिक-राजनीतिक शोर तो खूब मचा लेकिन भारत सरकार ने कोई कारगर दबाव नहीं बनाया। आखिरकार, दूसरे पाकिस्तानी कैदियों को उकसा कर कोट लखपत जेल में ही सरबजीत सिंह की हत्या करा दी गई।

पाकिस्तान में मिशन पूरा कर या जेल की सजा काट कर वापस लौटे कई 'रॉ' एजेंटों ने केंद्र सरकार से औपचारिक तौर पर आर्थिक संरक्षण देने की गुहार लगाई है, लेकिन उस पर कोई सुनवाई नहीं की गई। यहां तक कि भारत सरकार ने उन्हें सरकारी कर्मचारी मानने से ही इन्कार कर दिया। सरकार ने अपने पूर्व 'रॉ' एजेंटों को पहचाना ही नहीं। ऐसे ही 'रॉ' एजेंटों में गुरदासपुर के खैरा कलां गांव के रहने वाले करामत राही शामिल हैं, जिन्हें वर्ष 1980 में पाकिस्तान 'लॉन्च' किया गया था।

पहली बार वे अपना मिशन पूरा कर वापस लौट आए, लेकिन 'रॉ' ने उन्हें 1983 में फिर पाकिस्तान भेज दिया। इस बार 1988 में वे मीनार ए पाकिस्तान के नजदीक गिरफ्तार कर लिए गए। करामत 18 साल जेल काटने के बाद वर्ष 2005 में वापस लौट पाए। करामत की रिहाई भी पंजाब के उस समय भी मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह के हस्तक्षेप और अथक प्रयास से संभव हो पाई। देश वापस लौटने के बाद करामत ने 'रॉ' मुख्यालय से सम्पर्क साधा, लेकिन 'रॉ' मुख्यालय के आला अफसरों ने धमकी देकर करामत को खामोश कर दिया। भारत सरकार की इस आपराधिक अनदेखी के खिलाफ करामत ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली, लेकिन अदालत भी कहां 'नीचा' सुनती है!

इन मामलों में सम्बन्धित राज्य सरकारें भी 'रॉ' एजेंटों के प्रति आपराधिक उपेक्षा का ही भाव रखती हैं. 'रॉ' एजेंट कश्मीर सिंह का मामला अपवाद की तरह सामने आया जब 35 साल पाकिस्तानी जेल की सजा काट कर लौटने के बाद पंजाब सरकार ने उन्हें जमीन दी और मुआवजा दिया. वर्ष 1962 से लेकर 1966 तक कश्मीर सिंह सेना की नौकरी में थे. उसके बाद 'रॉ' ने उन्हें अपने काम के लिए चुना और पाकिस्तान 'लॉन्च' कर दिया. 1973 में वे पाकिस्तान में गिरफ्तार कर लिए गए. उन्हें पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में घुमाया जाता रहा और प्रताड़ित किया जाता रहा. 17 साल तक उन्हें एक एकांत सेल में बंद रखा गया. चार मार्च 2008 को वे रिहा होकर भारत आए, लेकिन इस लंबे अंतराल में कश्मीर सिंह जिंदगी से नहीं, पर उम्र से शहीद हो चुके थे.

गुरदास के डडवाईँ गांव के रहने वाले सुनील मसीह दो फरवरी 1999 को पाकिस्तान के शकरगढ़ में गिरफ्तार किए गए थे. आठ साल के भीषण अत्याचार के बाद वर्ष 2006 में वे अत्यंत गंभीर हालत में भारत वापस लौटे, लेकिन केंद्र सरकार ने उनके बारे में कोई ख्याल नहीं किया. उन्हीं के गांव डडवाईं के डैनियल उर्फ बहादुर भी पाकिस्तानी रेंजरों द्वारा 1993 में गिरफ्तार किए गए थे. चार साल की सजा काट कर वापस लौटे. अब पूर्व 'रॉ' एजेंट डैनियल रिक्शा चला कर अपना गुजारा करते हैं. पाकिस्तान की जेल में तकरीबन तीन दशक काटने के बाद छूट कर भारत आने वाले पूर्व 'रॉ' एजेंटों में सुरजीत सिंह का नाम भी शामिल है. 'रॉ' ने सुरजीत सिंह को वर्ष 1981 में पाकिस्तान 'लॉन्च' किया था. वे 1985 में गिरफ्तार किए गए और पाकिस्तान के खिलाफ जासूसी करने के आरोप में उन्हें फांसी की सजा दी गई. 1989 में उनकी सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई.

वर्ष 2012 में पाकिस्तान की कोट लखपत जेल से सजा काटने के बाद सुरजीत रिहा हुए. सुरजीत ने भी 'रॉ' के अधिकारियों से सम्पर्क साधा लेकिन नाकाम रहे. सुरजीत अपनी पत्नी को यह बोल कर पाकिस्तान गए थे कि वे जल्दी लौटेंगे लेकिन 1981 के गए हुए 2012 में वापस लौटे. जब लौटे तब वे 70 साल के हो चुके थे. भारत सरकार ने उनके वजूद को इन्कार कर दिया, जबकि वापस लौटने पर सुरजीत ने पूछा कि भारत सरकार ने उन्हें पाकिस्तान नहीं भेजा तो वे अपनी मर्जी से पाकिस्तान कैसे और क्यों चले गए? सुरजीत मिशन के दरम्यान 85 बार पाकिस्तान गए और आए.

पाकिस्तान में गिरफ्तार हो जाने के बाद भारतीय सेना की तरफ से उनके परिवार को हर महीने डेढ़ सौ रुपए दिए जाते थे. सुरजीत पूछते हैं कि अगर वे लावारिस ही थे तो सेना उनके घर पैसे क्यों भेज रही थी? सुरजीत ने भी न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट में शरण ले रखी है. गुरदासपुर जिले के डडवाईं गांव के ही रहने वाले सतपाल को वर्ष 1999 में पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था. तब भारत पाकिस्तान के बीच करगिल युद्ध चल रहा था.

पाकिस्तान में सतपाल को भीषण यातनाएं दी गईं. पाकिस्तान की जेल में ही वर्ष 2000 में उनकी मौत हो गई. विडंबना यह है कि पाकिस्तान सरकार ने सतपाल का पार्थिव शरीर भारत को सौंपने की पेशकश की तो भारत सरकार ने शव लेने तक से मना कर दिया. सतपाल का शव लाहौर अस्पताल के शवगृह में पड़ा रहा. पंजाब में स्थानीय स्तर पर काफी बावेला मचने के बाद सतपाल का शव मंगवाया जा सका. शव पर प्रताड़ना के गहरे घाव और चोट के निशान मौजूद थे. तब भी भारत सरकार को उनकी शहादत की कीमत समझ में नहीं आई. सतपाल के बेटे सुरेंदर पाल आज भी अपने पिता के लिए न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं. पंजाब सरकार ने सतपाल के बेटे सुरेंदर पाल को सरकारी नौकरी का आश्वासन भी दिया, लेकिन यह आश्वासन भी ढाक के तीन पात ही साबित हुआ.

विनोद साहनी को 1977 में पाकिस्तान भेजा गया था, लेकिन वे जल्दी ही पाकिस्तानी तंत्र के हाथों दबोच लिए गए. उन्हें 11 साल की सजा मिली. सजा काटने के बाद विनोद 1988 में वापस लौटे. 'रॉ' ने विनोद को सरकारी नौकरी देने और उनके परिवार को सुरक्षा प्रदान करने का आश्वासन दिया था, लेकिन लौटने के बाद 'रॉ' ने उन्हें पहचानने से भी इन्कार कर दिया. विनोद अब जम्मू में 'पूर्व जासूस' नामकी एक संस्था चलाते हैं और तमाम पूर्व जासूसों को जोड़ने का जतन करते रहते हैं.

रामराज ने 18 साल तक भारतीय खुफिया एजेंसी 'रॉ' की सेवा की. 18 सितम्बर 2004 को उन्हें पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया. करीब आठ साल जेल काटने के बाद रिहा हुए रामराज को भारत आने पर उसी खुफिया एजेंसी ने पहचानने से इन्कार कर दिया. ऐसा ही हाल गुरबक्श राम का भी हुआ. एक साल की ट्रेनिंग देकर उन्हें वर्ष 1988 को पाकिस्तान भेजा गया था. उनका मिशन पाकिस्तान की सैन्य युनिट के आयुध भंडार की जानकारियां हासिल करना था. मिशन पूरा कर वापस लौट रहे गुरबक्श को पाकिस्तानी सेना के गोपनीय दस्तावेजों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया.

उन्हें सियालकोट की गोरा जेल में रखा गया. 14 साल की सजा काट कर वर्ष 2006 में वापस अपने देश लौटे गुरबक्श को अब सरकार नहीं पहचानती. रामप्रकाश को प्रोफेशनल फोटोग्राफर के रूप में 'रॉ' ने वर्ष 1994 में पाकिस्तान में 'प्लांट' किया था. 13 जून 1997 को भारत वापस आते समय रामप्रकाश को गिरफ्तार कर लिया गया. सियालकोट की जेल में नजरबंद रख कर उनसे एक साल तक पूछताछ की जाती रही. वर्ष 1998 में उन्हें 10 साल की सजा सुनाई गई.

सजा काटने के बाद सात जुलाई 2008 को उन्हें भारत भेज दिया गया. सूरम सिंह तो 1974 में सीमा पार करते समय ही धर लिए गए थे. उनसे भी सियालकोट की गोरा जेल में चार महीने तक पूछताछ होती रही और 13 साल सात महीने पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में प्रताड़ित होने के बाद आखिरकार वे 1988 में रिहा होकर भारत आए. बलबीर सिंह को 1971 में पकिस्तान भेजा गया था. 1974 में बलबीर गिरफ्तार कर लिए गए और 12 साल की जेल की सजा काटने के बाद 1986 में भारत वापस लौटे. भारत आने के बाद उन्हें जब 'रॉ' से कोई मदद नहीं मिली तो उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया. दिल्ली हाईकोर्ट ने मुआवजा देने का आदेश दिया, लेकिन 'रॉ' ने हाईकोर्ट के आदेश पर भी कोई कार्रवाई नहीं की.

'रॉ' एजेंट देवुत को पाकिस्तान की जेल में इतना प्रताड़ित किया गया कि वे लकवाग्रस्त हो गए. देवुत को 1990 में पाकिस्तान भेजा गया था. जेल की सजा काटने के बाद वे 23 दिसम्बर 2006 को लकवाग्रस्त हालत में रिहा हुए. लकवाग्रस्त केंद्र सरकार ने भी उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया और उनकी पत्नी वीणा न्याय के लिए दरवाजे-दरवाजे सिर टकरा रही हैं और मत्था टेक रही हैं. 'रॉ' ने तिलकराज को भी पाकिस्तान 'लॉन्च' किया था, लेकिन उसका कोई पता ही नहीं चला.

'रॉ' ने भी पाकिस्तान में गुम हुए तिलकराज को खोजने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. तिलकराज के वयोवृद्ध पिता रामचंद्र आज भी अपने बेटे के वापस लौटने का इंतजार कर रहे हैं. 'रॉ' ने इसी तरह ओमप्रकाश को भी वर्ष 1988 में पाकिस्तान भेजा, लेकिन ओमप्रकाश का फिर कुछ पता नहीं चला. कुछ दस्तावेजों और कुछ कैदियों की खतो-किताबत से ओमप्रकाश के घर वालों को उनके पाकिस्तान की जेल में होने का सुराग मिला. इसे 'रॉ' को दिया भी गया, लेकिन 'रॉ' ने कोई रुचि नहीं ली. बाद में ओमप्रकाश ने अपने परिवार वालों को चिट्ठी भी लिखी. 14 जुलाई 2012 को लिखे गए ओमप्रकाश के पत्र के बारे में 'रॉ' को भी जानकारी दी गई, लेकिन सरकार ने इस मामले में कुछ नहीं किया. 'रॉ' एजेंट सुनील भी पाकिस्तान से अपने घर वालों को चिट्ठियां लिख रहे हैं, लेकिन उनकी कोई नहीं सुन रहा.

पाकिस्तानी की सेना में मेजर के ओहदे तक पहुंच गए मेजर नबी अहमद शाकिर उर्फ रवींद्र कौशिक भारत सरकार की बेजा नीतियों और खुफिया एजेंसी 'रॉ' की साजिश के कारण मारे गए. 'रॉ' के अधिकारियों ने सोचे-संमझे इरादे से इनायत मसीह नामके ऐसे 'बेवकूफ' एजेंट को पाकिस्तान भेजा जिसने वहां जाते ही रवींद्र कौशिक का भंडाफोड़ कर दिया. कर्नल रैंक पर तरक्की पाने जा रहे रवींद्र कौशिक उर्फ मेजर नबी अहमद शाकिर गिरफ्तार कर लिए गए.

'रॉ' के सूत्र कहते हैं कि पाकिस्तानी सेना में रवींद्र कौशिक को मिल रही तरक्की और भारत में मिल रही प्रशंसा (उन्हें ब्लैक टाइगर के खिताब से नवाजा गया था) से जले-भुने 'रॉ' अधिकारियों ने षडयंत्र करके कौशिक की हत्या करा दी. कौशिक को पाकिस्तान में भीषण यंत्रणाएं दी गईं. पाकिस्तान की जेल में ही उनकी बेहद दर्दनाक मौत हो गई. भारत सरकार ने कौशिक के परिवार को यह पुरस्कार दिया कि रवींद्र से जुड़े सभी रिकॉर्ड नष्ट कर दिए और चेतावनी दी कि रवींद्र के मामले में चुप्पी रखी जाए. रवींद्र ने जेल से अपने परिवार को कई चिट्ठियां लिखी थीं.

उन चिट्ठियों में उन पर ढाए जा रहे अत्याचारों का दुखद विवरण होता था. रवींद्र ने अपने विवश पिता से पूछा था कि क्या भारत जैसे देश में कुर्बानी देने वालों को यही सिला मिलता है? राजस्थान के रहने वाले रवींद्र कौशिक लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र थे, जब 'रॉ' के तत्कालीन निदेशक ने खुद उन्हें चुना था. 1965 और 1971 के युद्ध में मार खाए पाकिस्तान के अगले षडयंत्र का पता लगाने के लिए 'रॉ' ने कौशिक को पाकिस्तान भेजा.

कौशिक ने पाकिस्तान में पढ़ाई की. सेना का अफसर बना और तरक्की के पायदान चढ़ता गया. कौशिक की सूचनाएं भारतीय सुरक्षा बलों के लिए बेहद उपयोगी साबित होती रहीं और पाकिस्तान के सारे षडयंत्र नाकाम होते रहे. पहलगाम में भारतीय जवानों द्वारा 50 से अधिक पाक सैनिकों का मारा जाना रवींद्र की सूचना के कारण ही संभव हो पाया. कौशिक की सेवाओं को सम्मान देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें 'ब्लैक टाइगर' की उपाधि दी थी. लेकिन ऐसे सपूत को 'रॉ' ने ही साजिश करके पकड़वा दिया और अंततः उनकी दुखद मौत हो गई.

#विशेष - केंद्रीय खुफिया एजेंसी 'रिसर्च एंड अनालिसिस विंग' (रॉ) में भीषण अराजकता व्याप्त है. 'रॉ' की जिम्मेदारियां (अकाउंटिबिलिटी) कानूनी प्रक्रिया के तहत तय नहीं हैं. एकमात्र प्रधानमंत्री के प्रति उत्तरदायी होने के कारण 'रॉ' के अधिकारी इस विशेषाधिकार का बेजा इस्तेमाल करते हैं और विदेशी एजेंसियों से मनमाने तरीके से सम्पर्क साध कर फायदा उठाते रहते हैं. 'रॉ' के अधिकारियों कर्मचारियों के काम-काज के तौर तरीकों और धन खर्च करने पर अलग से कोई निगरानी नहीं रहती, न उसकी कोई ऑडिट ही होती है.

'रॉ' के अधिकारियों की बार-बार होने वाली विदेश यात्राओं का भी कोई हिसाब नहीं लिया जाता. कौन ले इसका हिसाब? प्रधानमंत्री या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार छोड़ कर कोई अन्य अधिकारी 'रॉ' से कुछ पूछने या जलाब-तलब करने की हिमाकत नहीं कर सकता. 'रॉ' के अधिकारी अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड और यूरोपीय देशों में बेतहाशा आते-जाते रहते हैं. लेकिन दक्षिण एशिया, मध्य-पूर्व और अफ्रीकी देशों में उनकी आमद-रफ्त काफी कम होती है. जबकि इन देशों में 'रॉ' के अधिकारियों का काम ज्यादा है.

'रॉ' के अधिकारी युवकों को फंसा कर पाकिस्तान जैसे देशों में भेजते हैं और उन्हें मरने के लिए लावारिस छोड़ देते हैं. प्रधानमंत्री भी 'रॉ' से यह नहीं पूछते कि अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे आलीशान देशों में 'रॉ' अधिकारियों की पोस्टिंग अधिक क्यों की जाती है और पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका या अन्य दक्षिण एशियाई देशों या मध्य पूर्व के देशों में जरूरत से भी कम तैनाती क्यों है? इन देशों में 'रॉ' का कोई अधिकारी जाना नहीं चाहता. लेकिन इस अराजकता के बारे में कोई पूछताछ नहीं होती. 'रॉ' में सामान्य स्तर के कर्मचारियों की होने वाली नियुक्तियों की कोई पारदर्शी प्रक्रिया नहीं है.

कोई निगरानी नहीं है. 'रॉ' के कर्मचारियों का सर्वेक्षण करें तो अधिकारियों के नाते-रिश्तेदारों की वहां भीड़ जमा है. सब अधिकारी अपने-अपने रिश्तेदारों के संरक्षण में लगे रहते हैं. तबादलों और तैनातियों पर अफसरों के हित हावी हैं. यही वजह है कि जिस खुफिया एजेंसी को सबसे अधिक पेशेवर (प्रोफेशनल) होना चाहिए था, वह सबसे अधिक लचर साबित हो रही है.
'रॉ' में सीआईए वह कुछ अन्य विदेशी खुफिया एजेंसियों की घुसपैठ भी गंभीर चिंता का विषय है.

'रॉ' के डायरेक्टर तक सीआईए के लिए जासूसी करने के आरोप में जेल की हवा खा चुके हैं. इसी तरह एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जिसे आईबी का निदेशक बनाया जा रहा था, उसके बारे में पता चला कि वह दिल्ली में तैनात महिला सीआईए अधिकारी हेदी अगस्ट के लिए काम कर रहा था. तब उसे नौकरी से जबरन रिटायर किया गया. भेद खुला कि सीआईए ही उस आईपीएस अधिकारी को आईबी का निदेशक बनाने के लिए परोक्ष रूप से लॉबिंग कर रही थी. 'रॉ' में गद्दारों की लंबी कतार लगी है. 'रॉ' के दक्षिण-पूर्वी एशिया मसलों के प्रभारी व संयुक्त सचिव स्तर के आला अफसर मेजर रविंदर सिंह का सीआईए के लिए काम करना और सीआईए की साजिश से फरार हो जाना भारत सरकार को पहले ही काफी शर्मिंदा कर चुका है.

रविंदर सिंह जिस समय 'रॉ' के कवर में सीआईए के लिए क्रॉस-एजेंट के बतौर काम कर रहा था, उस समय भी केंद्र में भाजपा की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. वर्ष 2004 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार आने के बाद रविंदर सिंह भारत छोड़ कर भाग गया. अराजकता का चरम यह है कि उसकी फरारी के दो साल बाद नवम्बर 2006 में 'रॉ' ने एफआईआर दर्ज करने की जहमत उठाई.

मेजर रविंदर सिंह की फरारी का रहस्य ढूंढ़ने में 'रॉ' को आधिकारिक तौर पर आजतक कोई सुराग नहीं मिल पाया. जबकि 'रॉ' के ही अफसर अमर भूषण ने बाद में यह रहस्य खोला कि मेजर रविंदर सिंह और उसकी पत्नी परमिंदर कौर सात मई 2004 को राजपाल प्रसाद शर्मा और दीपा कुमारी शर्मा के छद्म नामों से फरार हो गए थे. उनकी फरारी के लिए सीआईए ने सात अप्रैल 2004 को इन छद्म नामों से अमेरिकी पासपोर्ट जारी कराया था.

इसमें रविंदर सिंह को राजपाल शर्मा के नाम से दिए गए अमेरिकी पासपोर्ट का नंबर 017384251 था. सीआईए की मदद से दोनों पहले नेपालगंज गए और वहां से काठमांडू पहुंचे. काठमांडू में अमेरिकी दूतावास में तैनात फर्स्ट सेक्रेटरी डेविड वास्ला ने उन्हें बाकायदा रिसीव किया. काठमांडू के त्रिभुवन हवाई अड्डे से दोनों ने ऑस्ट्रेलियन एयरलाइंस की फ्लाइट (5032) पकड़ी और वाशिंगटन पहुंचे, जहां डल्स इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर सीआईए एजेंट पैट्रिक बर्न्स ने दोनों की अगवानी की उन्हें मैरीलैंड पहुंचाया.

मैरीलैंड के एकांत आवास में रहते हुए ही फर्जी नामों से उन्हें अमेरिका के नागरिक होने के दस्तावेज दिए गए, उसके बाद से वे गायब हैं. पीएमओ ने रविंदर सिंह के बारे में पता लगाने के लिए 'रॉ' से बार-बार कहा लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला, जबकि 'रॉ' प्रधानमंत्री के तहत ही आता है. इस मसले में 'रॉ' ने कई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के निर्देशों को भी ठेंगे पर रखा. रविंदर सिंह प्रकरण खुलने पर 'रॉ' के कई अन्य अधिकारियों की भी पोल खुल जाएगी, इस वजह से 'रॉ' ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया.

विदेशी एजेंसियों के लिए क्रॉस एजेंसी करने और अपने देश से गद्दारी करने वाले ऐसे कई 'रॉ' अधिकारी हैं, जो पकड़े जाने के डर से या प्रलोभन से देश छोड़ कर भाग गए. मेजर रविंदर सिंह जैसे गद्दार अकेले नहीं हैं. 'रॉ' के संस्थापक रहे रामनाथ काव का खास सिकंदर लाल मलिक जब अमेरिका में तैनात था तो वहीं से लापता हो गया. सिकंदर लाल मलिक का आज तक पता नहीं चला. मलिक को 'रॉ' के कई खुफिया प्लान की जानकारी थी.

बांग्लादेश को मुक्त कराने की रणनीति की फाइल सिकंदर लाल मलिक के पास ही थी, जिसे उसने अमेरिका को लीक कर दिया था. मलिक की उस कार्रवाई को विदेश मामलों के विशेषज्ञ एक तरह की तख्ता पलट की कोशिश बताते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने अपनी बुद्धिमानी और कूटनीतिक सझ-बूझ से काबू कर लिया.

मंगोलिया के उलान बटोर और फिर इरान के खुर्रमशहर में तैनात रहे 'रॉ' अधिकारी अशोक साठे ने तो अपने देश के साथ निकृष्टता की इंतिहा ही कर दी. साठे ने खुर्रमशहर स्थित 'रॉ' के दफ्तर को ही फूंक डाला और सारे महत्वपूर्ण और संवेदनशील दस्तावेज आग के हवाले कर अमेरिका भाग गया. विदेश मंत्रालय को जानकारी है कि साठे कैलिफोर्निया में रहता है, लेकिन 'रॉ' उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया. 'रॉ' के सीनियर फील्ड अफसर एमएस सहगल का नाम भी 'रॉ' के भगेड़ुओं में अव्वल है.

लंदन में तैनाती के समय ही सहगल वहां से फरार हो गया. टोकियो में भारतीय दूतावास में तैनात 'रॉ' अफसर एनवाई भास्कर सीआईए के लिए क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. वहीं से वह फरार हो गया. काठमांडू में सीनियर फील्ड अफसर के रूप में तैनात 'रॉ' अधिकारी बीआर बच्चर को एक खास ऑपरेशन के सिलसिले में लंदन भेजा गया, लेकिन वह वहीं से लापता हो गया. बच्चर भी क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. 'रॉ' मुख्यालय में पाकिस्तान डेस्क पर अंडर सेक्रेटरी के रूप में तैनात मेजर आरएस सोनी भी मेजर रविंदर सिंह की तरह पहले सेना में था, बाद में 'रॉ' में आ गया.

मेजर सोनी कनाडा भाग गया. 'रॉ' में व्याप्त अराजकता का हाल यह है कि मेजर सोनी की फरारी के बाद भी कई महीनों तक लगातार उसके अकाउंट में उसका वेतन जाता रहा. इस्लामाबाद, बैंगकॉक, कनाडा में 'रॉ' के लिए तैनात आईपीएस अधिकारी शमशेर सिंह भी भाग कर कनाडा चला गया. इसी तरह 'रॉ' अफसर आर वाधवा भी लंदन से फरार हो गया. केवी उन्नीकृष्णन और माधुरी गुप्ता जैसे उंगलियों पर गिने जाने वाले 'रॉ' अधिकारी हैं, जिन्हें क्रॉस एजेंसी या कहें दूसरे देश के लिए जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सका.

पाकिस्तान के भारतीय उच्चायोग में आईएफएस ग्रुप-बी अफसर के पद पर तैनात माधुरी गुप्ता पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी के साथ मिल कर भारत के ही खिलाफ जासूसी करती हुई पकड़ी गई थी. माधुरी गुप्ता को 23 अप्रैल 2010 को गिरफ्तार किया गया था. इसी तरह अर्सा पहले 'रॉ' के अफसर केवी उन्नीकृष्णन को भी गिरफ्तार किया गया था. पकड़े जाने वाले 'रॉ' अफसरों की तादाद कम है, जबकि दूसरे देशों की खुफिया एजेंसी की साठगांठ से देश छोड़ कर भाग जाने वाले 'रॉ' अफसरों की संख्या कहीं अधिक है.

 'जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से हम सब मर-मर के जीते हैं, वो सुबह कभी तो आएगी..! 

अलविदा 🙏🙏

बुधवार, 5 अगस्त 2020

छुटकी प्रिया की राखी पर

#मेरी_छुटकी_नटखट
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मेरी दुलारी पता है ....उस दिन जब तुमने मुझसे रूठते हुए,टेड़ा मुँह करते हुए ....मेरे पत्राचारी व्यवहार की जानकारी पूँछी थी न! उसी दिन तुम्हारे छोटे-छोटे हाथो की बुनी हुई एक भावनात्क डोरी मेने अपनी कलाई में महसूस की थी ।
उसमे सितारे नही थे किंतु चन्द्र ओर उसके साथ आकाश गंगा बिखरे असीम तारागण थे। जो मुझे भावनाओ से अभिभूत कर रहे थे। में नही समझता कि तुमसे बंधी हुई ऐसी कोनसी डोर है जो मुझसे कोई भी भेद छिपने नही देती है और वह भी इतनी सहजता से की में स्वम से साझा करने में संकोच करता हूं ।

तुम्हारा रोज-रोज पूछना की "स्पीडपोस्ट आई क्या दद्दा!" 
मुझसे कंही न कही मेरी ही तरह 'बिलम्बित गति' प्रतिदिन प्रश्न करती है.....की तुझसे तेरी यह प्रकृति कहि दूर जा रही है और किसी के निश्छल स्नेह में सबकुछ समयनुसार होने बाला है....!
मुझे नही पता कि तुमसे कब मिलूंगा ओर कब तुम्हारे भाग्यशाली चरण स्पर्श कर सकूंगा ?
किन्तु इतना अवश्य जान गया हूं कि, तुम मेरे जीवन मे नया सौभाग्य लेकर आई हो ।

तुम्हे बता दु की में जब जॉब अथवा स्टडी लाइफ में रहा ...रक्षाबन्धन को घर नही आता था। क्योंकि मुझे पता है कलाई पर धागे अनन्त बंध जाए फिर भी किसी छुटकी या बड़की के साथ अपने हृदय के भाव साझा नही कर पाया वह तुमने सहज ही जान लिए ।

तुम्हारी भेजे हुए धागे तो में उसी दिन से बंधे समझ रहा हूं, जब तुमने मेरे नाम की यह राखी रजिस्टर्ड की होगी। वह देर आये...अबेर आये कोई फर्क नही क्योंकि में कलाई त्योहार उपरांत राखी वर्ष भर बांधे रखता हूं....ठीक मोली की तरह ! जो मुझे पल-पल मेरे कर्तव्यों के निर्वहन (क्षत्रियत्व)का स्मरण कराती रहती है !
वर्षो से एक सपना था कि कोई मेरे कहे बगेर मुझे एक धागा देकर उस डोर से बांध दे...जिसकी आजन्म से रिक्तता है। एक अनजाना अधिकार कहि सुप्त था जो सहसा जागृत हो गया ।

हमे नही याद कब मिले ...पर न जाने क्यों तुझे कांधे बिठा सारा संसार घुमाके अर्पित कर देने की एक लालसा  जागृत है। कहि न कही तुम्हारे टेढ़े-मेढे गुस्से बाले मुह की शैतानी अलग ही बात्सल्य जागृत करता है। सोचता हूं जब तुमसे मिलूंगा कहि खुशी में हार्टफेल न कर बैठु !

छुटकी तुम चिंतित मत होना तुम्हारा स्नेह सूत्र मेरे पास ही है और तुम्हारा भैया यथार्त के साथ कल्पनाओ में भी उतना ही विश्ववास करता है। जब मिलु अपनी सभी शिकायते दिनभर सुनाना ओर शाम को बड़ी दादी की तरह सब भूलकर खाना में देरी के लिए झिड़की देना ....में चाहता ही हु की तुम बस रूठी रहो और में चिढ़ाता रहुँ ....मनाता रहु...यू ही युगों तक .....जन्मजन्मातर ...तुम्हारे स्नेहबन्धन  के कर से कभी करमुक्त न हो संकु..!!

तुम्हारी 'आईएएस' सफल होने की प्रशन्नता में नाचने को आतुर तुम्हारा भैया ...

मेरे इस तुक्ष्य जीवन मे अवतरीत उन सभी बहिनो का सात जन्मों तक ऋणी हु, जिन्होंने मेरी कलाई कभी सुनी नही रहने दी ❤️❤️❤️🙏

कुँ. जितेंद्र सिंह तोमर "   "
चम्बल मुरैना मप्र "तँवरघार"

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...