===गढ़ी के अवशेष===
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अगर आप भिंड-मुरैना आएंगे तो आपको समझना पड़ेगा यंहा के रियासत और ठिकानों के अनुसार रचे-बसे क्षत्रियो कुलो के अनुसार पड़े क्षेत्रो के नाम ...जेसे तंवरघार(तोमरघार),सिकरवारी, भदावर,कछवाह घार इत्यादि ।
इन्ही घारों(ठिकानों) में चम्बल से २३ किमी. दक्षिण-पक्षम में स्तिथि हे मेरा गाँव 'पालि ५२से'! जो चम्बल के मैदानी क्षेत्र की उपजाऊ भूमि और तहसील पोरसा की वृहद कृषक रकबो का गाँव हे। मुख्यतः क्षत्रिय ब्राह्मण की बसाबट और चम्बल की 'बागी-क्रांति' का जीवित प्रमाण भी हे। इस ठिकाने ने गजनबियो को गाजर-मूली की तरह चम्बल के खारो में काटा था कभी किन्तु आज चर्चा करते हे...इस ठिकाने में छिपे ८००से६०० वर्ष छिपे इतिहास पर ....!
कभी यह क्षेत्र प्रतिहारों(परिहारों) का आधिपत्य था और ठाकुर मंगलसिंह के विवाह उपरान्त यह क्षेत्र बतोर वैवाहिक भेंट तन्वरो को मिला किन्तु 'पोरसा' के क्रूर और दुष्ट मुगल क्षेत्रीय प्रशाशक के कारण यदा-कदा-सर्वदा मुगलो की बसाबट का कारण भी रहा .....एक साझा युद्ध अभियान में 'पेरुस' जमीदोज कर दिया और प्रारम्भ हुआ मलेक्ष्य सफाई अभियान....
अपने ठिकाने का इतिहास करीब सहस्त्र वर्षो पूर्व का हे....जिसने कितने ही काल देखे और कितने ही रक्तपात भी देखे....उन्ही कालो की प्रमाण हे मेरे गाँव की 'गढ़ी' जो किसी गढ़ अथवा दुर्ग (किले) के कारण गढ़ी नहीं कहलाती,जैसा की इधर गाँवों में प्रायः देखने को मिलता हे ।
जब-जब वारिश के मिटटी कटाव होता हे तो इसमें से निकलते हे साढ़े साथ से लेकर आठ फिट तक नरकंकाल और अल्युमिनियम के कटोरे,मिटटी के सुराहीदार बर्तन,ऊंट के चर्म से निर्मित घी के कुप्पे और सेकडो जिज्ञासाओं को जन्म देते प्रश्न ....!!
मेरे जैसा जिज्ञासु इन सबको जान्ने के प्रयास में रहता हे और सांध्यकालीन चर्चाओ में बुजुर्गो से प्राय कुछ न कुछ जुटाता रहता हे....यह किस्सागोई अलिखित हे जो मेरे बुजुर्गो को उनके बुजुर्गो से और उनके बुजुर्गो को वृहद बुजुर्गो से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होकर आज तक यथावत हे ....! अलाव लगते हो या खेतो पर अपने समय को स्मरण करते करीब ८७ वर्षीय ठाकुर बलवीर सिंह जी 'अटा दाऊ' की शब्दों में सबकुछ सहज ही जीवन्त हो उठता हे ।
'दाऊ' कहते हे की अपना गाँव कभी 'तुर्को' की आवादी हुआ करता था...उनके मुख्य केंद्र को खत्म करने के बाद प्रारम्भ हुआ इस माटी को तुर्क मुक्त और तंवरघार में विस्तारण का कार्य ....जिसके तहत विभिन्न ठिकाने असितित्व में आये और 'चापिक-ढोढरी' से पूर्वजो ने हजारो की 'अखज' को ठिकाने दर ठिकाने....ठिकाने लगाते चले आये ....!!
में कदाचित जानते हुए भी "अखज'(खरपतवार) को गहराई से स्पष्ट जानने की चेष्टा में दाऊ को स्पष्ट बताने का निवेदन करता हूँ तो वह हुक्के के दो गहरे कस लेकर धुआ छोड़ते हुए बताते हे की -
"खेतो में उगी अनावश्यक वनस्पति जेसे 'गाजरगास' और समाज में उगी अनावश्यक "तुरकि" ही अखज हे जो हानि के अलावा आज भी कुछ नहीं हे !"
"ठीक उसी तरह अपने गामो में भी अखज को समूल जड़ से नष्ट कर दिया गया और यह गढ़ी उन्ही की लाशो को दबाने का स्थान हे !"
"यंहा सेकडो तुर्को को गाढ़ा गया और कालांतर में यह जगह 'गाढ़-गाढ़' से गढ़ी में बदल गयी....बदला तो बहुत कुछ हे लले !"
यूँ ही नही अपने गाँव इन क्रूर मुगलो से रहित हे..."इतिहास की गर्त में सेकडो छोटे-छोटे 'अखज साफ़' अभियान निहित हे जो पढ़ने को नही मिलेंगे बस एकआध को स्मरण रहेंगे ..!"
दाऊ कहते हे की उन्होंने वह समय देखा हे जब जमीन पटपर(बंजर) पढ़ी रहती थी और वारिषो के 'झर' लगने के कारण मिटटी से बने घर ढ़य जाते थे ....घर का हर युवा लांटेंन,फावड़ा,रस्सी लेकर चोपार में सोया करते थे......चोपारे तो तुमने भी देखि हे न ...! उनमे लगाई लकडियो की 'लोढ़े' ही ५०० वर्ष से पुरानी होती थी और पक्के घरो के लिए कंकडों को पीस ककैया ईंटो के माध्यम से घर बनाने में दसको को गुजर जाते थे !"
इससे पहले की ताऊ जी अपने अतीत में जाकर दार्शनिक मोड़ में चले जाए में उन्हें पुनः कुछ स्मरण दिलाने के प्रयास में पूछता हूँ की,दाऊ माता मन्दिर के पास 'कसाई चबूतरे' को कसाई चबूतरा क्यों कहते हे ?
दाऊ मुस्कुराते हे और कहते हे की "तुम आज ही सब पूछोगे का ?"
में थोड़े ज्यादा आग्रह और निवेदन पूर्ण होकर पूछता हूँ। दाऊ आप न बताओगे तो हमे को बतायेगो !
'कसाई चबूतरा ' जैसा नाम बैसा काम की बजह बोला जाता हे,इसकी दांत के नीचे दफन हे वह तुर्क... जिसने 'महुआ' के चार बालको को इस बजह 'रेत' दिया था की उन्होंने होली पर उसको कीचड़ से बिगाड़ दिया और यही वह कारण जिसके कारण गढ़ी गाजियों के कंकाल उगलती हे। रक्त से सनी हुई 'पाल' महीनो तक गढ़ी पर सूखने के कारण अपना गाँव #पालि ...और तंवरघार श्रंखला में ५२ गाँवों की रियासत के कारण '५२से' कहा जाता हे ...!!"
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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.
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