रविवार, 26 जनवरी 2020

गणतन्त्र

===गणों पर लदा 'गणतन्त्र'===
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रिहर्सल शुरू हो गई,गणतंत्र आ गया! सुबह-सुबह चौराहे पर मलिन बालक-बालिकाओं को तिरंगे की झंडियां बेचते देख, सहसा यकीन करने का मन करता है....'गणतंत्र आ गया....!!
' मैंने उनसे जानना चाहा। 'अभी बोहनी नहीं हुई है साब।' वे सर्द आवाज में बोले। एकाएक लगा, जैसे गणतंत्र 'बोहनी' के इंतजार में अटका हुआ है। 
तस्दीक करने के लिए मैंने फुटपाथ पर ठंड में गठरी बने पड़े आदमी से पूछा, 'तो तुमने देखा है गणतंत्र को?' 
वह मैली-कुचैली, फटी-पुरानी कंबल को कसकर पकड़ते हुए, अनजान भय से भयाक्रांत होते हुए, कांपती आवाज में बोला, 'बाल-बच्चों की कसम साब, मैं रात भर इधर ही था, नहीं देखा। इसने देखा होगा।'

यह कहते हुए उसने पास में लेटे व्यक्ति की ओर इशारा कर दिया। वह अधलेटा आदमी सर्दी से इतना नहीं कांपा, जितना इस भय से कांप उठा कि कहीं, गणतंत्र को देखकर, मुकरने के जुर्म में उसको रात को ही मिली एकमात्र कंबल न छीन ली जाए, उसने 'ना' में सिर हिला दिया! 
मुझे लगा, गणतंत्र अभी कंबल से ही नहीं निकला है। 
एक गरीब आदमी से पूछा, 'क्या तुमको गणतंत्र मिला है?'
'नहीं जी, इस बार भी बीपीएल लिस्ट में नाम नहीं चढ़ा।' कहते हुए वह मायूस हो गया। बड़ा संकट है, बीपीएल लिस्ट में नाम नहीं, चढ़े तो 'गणतंत्र' मिले....!

मुझे अगले जवाब का अनुमान हो चला, सरकार तो घोषणा करती रहती है, लेकिन जैसे राशन का गेहूं, चावल, केरोसिन दाब कर बैठे हैं, वैसे ही किसी ने गणतंत्र भी दाब लिया होगा! गरीब तक कहां पहुंचता है, बीच रास्ते ही मार्केट में ब्लैक हो जाता है ।

 कुछ लोगों ने चौकन्ने होते हुए मुझे बताया, 'श्रीमान जी, गणतंत्र के बारे में ज्यादा पूछताछ ना करें यहां, वरना अभी झांकी निकल जाएगी आपकी....यहां नेताजी की मर्जी के बगैर गणतंत्र तो क्या, परिंदा भी पर नहीं मार सकता । 
पिछले साल कुछ लोगों ने हिम्मत कर दबी जुबान से गणतंत्र की मांग उठाई थी, नेता जी के लोग उन्हें गणतंत्र देने के बहाने उठा ले गए....तब से उनका 'गनतंत्र', 'भूगोल' सब बदला हुआ है, अब वे लोग गणतंत्र का नाम लेते ही 'गुलामी' के दिनों को अच्छा बताने लगते हैं ।
अब नेता जी के लोग आकर पूछते हैं-और किसी को चाहिए गणतंत्र, तो लोग सहम जाते हैं।'

सच तो यही है कि गणतंत्र की उम्मीद तो हम सबने की थी! बड़े जोर-शोर से दिवास्वप्न भी दिखाए गए थे कि 'तुम हमें अपना 'गण' दो, हम तुम्हें एक जबर्दस्त 'तंत्र' देंगे.... एक सशक्त गणतंत्र देंगे।' आजादी की अलसभोर थी, पब्लिक उत्साह से सराबोर थी, आंख मूंदकर अपना सारा 'गण' उन्हें सौंप दिया। जिन्हें सौंपा, वे बदले में तंत्र देने की बजाय 'गण' पर ही लद गए। तब से लोग 'तंत्र' को ढो रहे हैं।
 बड़ी उम्मीद से दीवार पर टंगे कैलेंडर को निहारते हैं। जिसे गणतंत्र समझते हैं, वह महज 26 जनवरी निकलती है।

कहते हैं, अब हर साल छब्बीस जनवरी को गणतंत्र राजपथ पर आता है। इस समय आधे से ज्यादा भारत सर्दी में ठिठुरता है। शीतलहर के मारे लोग घरों में दुबके रहते हैं। ऊपर से कोहरे, पाले की मार! ठिठुरते, कांपते, सिकुड़े, सिमटे शरीरों में इतनी हलचल भी नहीं होती कि वे उसे देखने की चेष्टा कर सकें। हर तरफ नैराश्य का कोहरा फैला दिखता है। गणतंत्र राजपथ पर टहलकर चला जाता है.....!!

बाकी लोगों की तरह मैं भी हर साल उम्मीद से होता हूं कि राजपथ पर उसकी झलक भर दिख जाए। नजरें गड़ाता हूं कि शायद झांकियों में वह सब दिखेगा, जो हमारे लिए अपेक्षित था.... लेकिन किसान की झांकी में किसान फसल काट रहा है कि फंदा बुन रहा है....के बीच अंतर नहीं समझ पाता हूँ ....नैराश्य में डूबा आसमान में बादल तक रहा है कि लटकने के लिए ऊंचाई नाप रहा है-दृश्यता शून्य से तय करना मुश्किल हो जाता है। आंखें फाड़कर देखने की कोशिश करता हूं, अहा, कश्मीर की झांकी में स्वर्गिक अनुभूति हो जाए..!!
लेकिन घाटी में ये रंग-बिरंगे फूल खिले हैं कि स्वर्ग की सारी कायनात आतंक से लहूलुहान है, यह समझ नहीं आता।

लोकतंत्र को परिपक्व रूप में दिखाने वाली सदन की झांकी भी दिखती है। भीतर नेताओं का बहिष्कार, हो-हुल्लड़, वॉक आउट, दोषारोपण की धमा-चौकड़ी है। गोया सारा देश पूरी सज-धज के साथ झांकी में दिख रहा है, लेकिन कोहरे का फायदा उठाकर नेता, अधिकारी, बाबू, अपराधी जिसको जहां से मौका मिलता है, उसे कुतरने में लगे हैं। यहां, वहां से भ्रष्टाचार, आतंकवाद, जातीय संघर्ष, क्षेत्रीय वैमनस्यता की लपटें उठ रही हैं। लेकिन मंचासीन लोग केवल तालियां बजा रहे हैं....!

इन सबके बीच पब्लिक की हालत जाड़े की सर्द सुबह में घाट पर खड़े उस व्यक्ति की तरह है, जिसके लिए गणतंत्र वह तौलिया है, जिसे किनारे रख, यों ही पानी में डुबकी लगाई, तौलिया गायब! वह बरसों से उघड़े, गीले बदन खड़ा ठिठुर रहा है। यह स्थाई मुद्रा है। जो भी आता है, उसी से खोए तौलिए की उम्मीद लगा लेता है। लेकिन उस तौलिए से तो कुछ 'नग्न' किस्म के लोग अपनी नंगई ढांपे खड़े हैं!

खैर.....गणतन्त्र दिवस की बधाई..!
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गुरुवार, 23 जनवरी 2020

वार्ता में इतिहास

===गढ़ी के अवशेष===
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अगर आप भिंड-मुरैना आएंगे तो आपको समझना पड़ेगा यंहा के रियासत और ठिकानों के अनुसार रचे-बसे क्षत्रियो कुलो के अनुसार पड़े क्षेत्रो के नाम ...जेसे तंवरघार(तोमरघार),सिकरवारी, भदावर,कछवाह घार इत्यादि ।
इन्ही घारों(ठिकानों) में चम्बल से २३ किमी. दक्षिण-पक्षम में स्तिथि हे मेरा गाँव 'पालि ५२से'! जो चम्बल के मैदानी क्षेत्र की उपजाऊ भूमि और तहसील पोरसा की वृहद कृषक रकबो का गाँव हे। मुख्यतः क्षत्रिय ब्राह्मण की बसाबट और चम्बल की 'बागी-क्रांति' का जीवित प्रमाण भी हे। इस ठिकाने ने गजनबियो को गाजर-मूली की तरह चम्बल के खारो में काटा था कभी किन्तु आज चर्चा करते हे...इस ठिकाने में छिपे ८००से६०० वर्ष छिपे इतिहास पर ....!

कभी यह क्षेत्र प्रतिहारों(परिहारों) का आधिपत्य था और ठाकुर मंगलसिंह के विवाह उपरान्त यह क्षेत्र बतोर वैवाहिक भेंट तन्वरो को मिला किन्तु 'पोरसा' के क्रूर और दुष्ट मुगल क्षेत्रीय प्रशाशक के कारण यदा-कदा-सर्वदा मुगलो की बसाबट का कारण भी रहा .....एक साझा युद्ध अभियान में 'पेरुस' जमीदोज कर दिया और प्रारम्भ हुआ मलेक्ष्य सफाई अभियान....

अपने ठिकाने का इतिहास करीब सहस्त्र वर्षो पूर्व का हे....जिसने कितने ही काल देखे और कितने ही रक्तपात भी देखे....उन्ही कालो की प्रमाण हे मेरे गाँव की 'गढ़ी' जो किसी गढ़ अथवा दुर्ग (किले) के कारण गढ़ी नहीं कहलाती,जैसा की इधर गाँवों में प्रायः देखने को मिलता हे ।
जब-जब वारिश के मिटटी कटाव होता हे तो इसमें से निकलते हे साढ़े साथ से लेकर आठ फिट तक नरकंकाल और अल्युमिनियम के कटोरे,मिटटी के सुराहीदार बर्तन,ऊंट के चर्म से निर्मित घी के कुप्पे और सेकडो जिज्ञासाओं को जन्म देते प्रश्न ....!!

मेरे जैसा जिज्ञासु इन सबको जान्ने के प्रयास में रहता हे और सांध्यकालीन चर्चाओ में बुजुर्गो से प्राय कुछ न कुछ जुटाता रहता हे....यह किस्सागोई अलिखित हे जो मेरे बुजुर्गो को उनके बुजुर्गो से और उनके बुजुर्गो को वृहद बुजुर्गो से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होकर आज तक यथावत हे ....! अलाव लगते हो या खेतो पर अपने समय को स्मरण करते करीब ८७ वर्षीय ठाकुर बलवीर सिंह जी 'अटा दाऊ'  की शब्दों में सबकुछ सहज ही जीवन्त हो उठता हे ।
'दाऊ' कहते हे की अपना गाँव कभी 'तुर्को' की आवादी हुआ करता था...उनके मुख्य केंद्र को खत्म करने के बाद प्रारम्भ हुआ इस माटी को तुर्क मुक्त और तंवरघार में विस्तारण का कार्य ....जिसके तहत विभिन्न ठिकाने असितित्व में आये और  'चापिक-ढोढरी' से पूर्वजो ने हजारो की 'अखज' को ठिकाने दर ठिकाने....ठिकाने लगाते चले आये ....!!

में कदाचित जानते हुए भी "अखज'(खरपतवार) को गहराई से स्पष्ट जानने की चेष्टा में दाऊ को स्पष्ट बताने का निवेदन करता हूँ तो वह हुक्के के दो गहरे कस लेकर धुआ छोड़ते हुए बताते हे की -
"खेतो में उगी अनावश्यक वनस्पति जेसे 'गाजरगास'   और समाज में उगी अनावश्यक "तुरकि" ही अखज हे जो हानि के अलावा आज भी कुछ नहीं हे !"

"ठीक उसी तरह अपने गामो में भी अखज को समूल जड़ से नष्ट कर दिया गया और यह गढ़ी उन्ही की लाशो को दबाने का स्थान हे !" 
"यंहा सेकडो तुर्को को गाढ़ा गया और कालांतर में यह जगह 'गाढ़-गाढ़' से गढ़ी में बदल गयी....बदला तो बहुत कुछ हे लले !"
यूँ ही नही अपने गाँव इन क्रूर मुगलो से रहित हे..."इतिहास की गर्त में सेकडो छोटे-छोटे 'अखज साफ़' अभियान निहित हे जो पढ़ने को नही मिलेंगे बस एकआध को स्मरण रहेंगे ..!"

दाऊ कहते हे की उन्होंने वह समय देखा हे जब जमीन पटपर(बंजर) पढ़ी रहती थी और वारिषो के 'झर' लगने के कारण मिटटी से बने घर ढ़य जाते थे ....घर का हर युवा लांटेंन,फावड़ा,रस्सी लेकर चोपार में सोया करते थे......चोपारे तो तुमने भी देखि हे न ...! उनमे लगाई लकडियो की 'लोढ़े' ही ५०० वर्ष से पुरानी होती थी और पक्के घरो के लिए कंकडों को पीस ककैया ईंटो के माध्यम से घर बनाने में दसको को गुजर जाते थे !"

इससे पहले की ताऊ जी अपने अतीत में जाकर दार्शनिक मोड़ में चले जाए में उन्हें पुनः कुछ स्मरण दिलाने के प्रयास में पूछता हूँ की,दाऊ माता मन्दिर के पास 'कसाई चबूतरे' को कसाई चबूतरा क्यों कहते हे ?
दाऊ मुस्कुराते हे और कहते हे की "तुम आज ही सब पूछोगे का ?"

में थोड़े ज्यादा आग्रह और निवेदन पूर्ण होकर पूछता हूँ। दाऊ आप न बताओगे तो हमे को बतायेगो !

'कसाई चबूतरा ' जैसा नाम बैसा काम की बजह बोला जाता हे,इसकी दांत के नीचे दफन हे वह तुर्क... जिसने 'महुआ' के चार बालको को इस बजह 'रेत' दिया था की उन्होंने होली पर उसको कीचड़ से बिगाड़ दिया और यही वह कारण जिसके कारण गढ़ी गाजियों के कंकाल उगलती हे। रक्त से सनी हुई 'पाल' महीनो तक गढ़ी पर सूखने के कारण अपना गाँव #पालि ...और तंवरघार श्रंखला में ५२ गाँवों की रियासत के कारण '५२से' कहा जाता हे ...!!"

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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

बुधवार, 22 जनवरी 2020

क्रांति नायक

#क्रांति_ऐ_रोशन

'.. जिंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन
.. वरना कितने ही यहां रोज फना होते हैं..।'

जी हां यह पंक्तिया हे माटी के पूत क्रांति रोशन दीप ठाकुर रोशन सिंह जी क़ी.... सनातनी आर्य विचारो की खान वर्ण से क्षत्रिय  यह वीर था उत्तरप्रदेश के शाहजँहापुर के नवादा गाँव, माँ कौशल्या देवी पिता ठाकुर जंगी सिंह जी के घर २२जनवरी १८९२ को हुआ था ...।

ठाकुर रोशन सिंह ने छह दिसंबर 1927 को इलाहाबाद नैनी जेल की काल कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था..। 
"एक सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि आप मेरे लिए रंज हरगिज न करें। मेरी मौत खुशी का कारण होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूर है। दुनिया में बदफैली करके अपने को बदनाम न करें और मरते वक्त ईश्वर को याद रखें, यही दो बातें होनी चाहिए। ईश्वर की कृपा से मेरे साथ यह दोनों बातें हैं। इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस के लायक नहीं है। दो साल से बाल-बच्चों से अलग रहा हूं। इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला। इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी न रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्टभरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी जीने के लिए जा रहा हूं। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है, जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले महात्मा मुनियों की...।"
पत्र समाप्त करने के पश्चात उसके अंत में उन्होंने अपना यह शेर भी लिखा...जो पोस्ट के प्रारम्भ उल्लेखित हे !

फांसी से पहली की रात ठाकुर रोशन सिंह कुछ घंटे सोए। फिर देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रात:काल शौच आदि से निवृत्त हो यथानियम स्नान-ध्यान किया। कुछ देर गीता पाठ में लगाया फिर पहरेदार से कहा.. 'चलो.., वह हैरत से देखने लगा यह कोई आदमी है या देवता।

उन्होंने अपनी काल कोठरी को प्रणाम किया और गीता हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फांसी घर की ओर चल दिए। फांसी के फंदे को चूमा फिर जोर से तीन बार वंदे मातरम का उद्घोष किया और वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए।

इलाहाबाद में नैनी स्थित मलाका जेल के फाटक पर हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष, युवा और वृद्ध एकत्र थे उनके अंतिम दर्शन करने और उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए। जैसे ही उनका शव जेल कर्मचारी बाहर लाए वहां उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया '..रोशन सिंह अमर रहें..'। भारी जुलूस की शक्ल में शवयात्रा निकली और गंगा-यमुना के संगम तट पर जाकर रुकी, जहां वैदिक रीति से उनका अंतिम संस्कार किया गया।

फांसी के बाद ठाकुर रोशन सिंह के चेहरे पर एक अद्‍भुत शांति दृष्टिगोचर हो रही थी। मूंछें वैसी की वैसी ही थीं बल्कि गर्व से ज्यादा ही तनी हुई लग रहीं थी। उन्हें मरते दम तक बस एक ही मलाल था कि उन्हें फांसी दे दी गई, कोई बात नहीं। उन्होंने तो जिंदगी का सारा सुख उठा लिया परंतु बिस्मिल, अशफाक और लाहिडी़ जिन्होंने जीवन का एक भी ऐशो-आराम नहीं देखा, उन्हें इस बेरहम बरतानिया सरकार ने फांसी पर क्यों लटकाया?

नैनी जेल के फांसी घर के सामने अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह की आदमकद प्रतिमा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके अप्रतिम योगदान का उल्लेख करते हुए लगाई गई है। वर्तमान समय में इस स्थान पर अब एक मेडिकल कॉलेज स्थापित है। मूर्ति के नीचे ठाकुर साहब की कहीं गई यह पंक्तियां भी अंकित हैं... ।
 'जिंदगी जिंदादिली को जान ए रोशन, 
वरना कितने ही यहां रोज फना होते हैं !!

कोटिस नमन करता हूँ आपको क्रांतिवीर 🙏
वन्देमातरम 🚩

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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र 
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सोमवार, 13 जनवरी 2020

पितामह भीष्म

====पितामह भीष्म====
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दुर्योधन के द्वारा बार-बार उकसाने पर पितामह भीष्म वचन देते हे कि कल युद्ध निर्णायक होगा और  कल गंगापुत्र भीष्म के सरो का कोई तोड़ न रहेगा !
पाण्डव खेमे में चिंता चरम पर हे कि अगर पितामह चाहे तो कल ही युद्ध समाप्त हो जाएगा,उनके समक्ष कोई न टिकेगा! किन्तु योगेश्वर नेत्रबन्द किये मोहक मुस्कान बिखेर रहे हे। कल की कोई चिंता न हो..! द्रोपदी पुकारती हे "केशव आपका मोन कब खुलेगा?"
"हम चिंतित हे की अगर पितामह मनोयोग से युद्ध करते हे फिर पांडवो की विजय नही पराजय होगी,और आपका सूत्रधार बनना व्यर्थ जायेगा भैया ..!"
केशव ने नयन खोले और द्रोपदी को सम्बोधित करते हुए दिग्दर्शक बोल उठे..जेसे किसी ने एकाएक जलतरंग को छेड़ दिया हो ..!
"हे कल्याणी! चिंतित न होइये क्यों न आज पितामह के शिविर में जाकर आप उन्हें आभास हुए बगैर शन्ध्या वन्दन उपरांत प्रणाम कर आइये और पितामह की काट पितामह से पूछ ली जाए ..!"

कुरुक्षेत्र का वह शिविर जंहा प्रतिदिन तेज और त्याग श्वेतकणिकाएं एक अद्भुत आभामण्डल प्रकट करती थी। पितामह पद्मासन में ध्यानमग्न हे और शिविर के बाहर कन्हैया द्रोपदी की पादुकाएं पीताम्बर में लपेटे चोरो की तरह खड़े हे। योगेश्वर पहले से समझा चुके थे की चरणवन्दन करते हुए कंगन की खनक अवश्य हो ...!
जेसे ही पितामह का संध्या वन्दन ध्यान पूर्ण होने को हुआ और योगेश्वर ने संकेत किया कि भृतकुल बधु भरतकुल श्रेष्ठ पितामह के पदपंकजो में किंकिंकर ध्वनि साथ शीश रख चुकी थी। पितामह सब जानते थे और बन्द नेत्रो से ही आशीष में दोनों कर उठाते हुए बोल पड़े "अखण्ड सौभाग्यवती भवः पुत्री..!"
किन्तु जब चक्षु खोले तो द्रोपदी .....!!
कल्याणी बोल पड़ी पितामह क्षमा करिये आपके इस 'अखण्डसोभाग्य' वर पर कदाचित प्रशन कर सकती हूँ?
पितामह मुस्काये जेसे रहष्य और रहस्योद्घाटन के मध्य की खाई दायें-वाये मन्थर गति से फैलते होठो के मध्य जड़वत हो गयी हो...!
"पुत्री ..! भोजन और भजन के उपरान्त प्राप्त हुए आशीष कभी निष्फल नहीं जाते हे !" 
"मुझे उस माखनचोर की उपस्तिथि का आभाष हो रहा हे! कहा हो माखन चोर ?"
यह सूना और मुरलीधर पीताम्बर से अनुजा पादुका लपेटे भक्त के समक्ष आ खड़े हुए !
भक्त की आँखों में स्नेह के आंसू थे और भगवन के नेत्रो में दुनिया भर के स्नेह की नमी !!
पितामह सहसा बोल उठे " कुलबधु मेरा बध तभी सम्भव हे जब में धनुष नीचे ढाल दू और शशत्र तभी ढालूँगा जब कुरुक्षेत्र में मेरे समक्ष कोई स्त्री आ जाए !"
"पूर्वजन्म की अम्बा अथवा तात्कालिक शिखण्डी वही हे जो मुझे अश्त्र-शश्त्र न धारण किये रहने की स्तिथि पर ले आएगा,जाओ और धर्मयुद्ध विजय के मध्य खड़े इस भीष्म को मुक्त करो !"

प्रातः नियत समय पर पितामह और प्रपोत्र परस्पर प्रत्यक्ष थे....दीर्घ शंखनाद से दशो दिशाएं गूंज उठी,श्रीकृष्ण सारथि अर्जुन रथी ऐसे प्रतीत होते हे जेसे दो भास्कर एकसाथ युद्ध को निकले हो और पितामह स्वरूप दिग्बृह्मांड़ सामने भीषण युद्ध हुआ और साधारण से लेकर दिव्यास्त्र तक प्रयोग किन्तु पितामह ने  प्रपाश्त्र कदापि आह्वाहनित न किया क्योंकि वह जानते हे की उनका वलिदान ही धर्म की विजयनीव रखेगा...!!
शिखण्डी ध्वजा के समीप खड़ा हे और पितामह शशत्र त्याग चुके हे। अब बस गाण्डीव से निकले वाण और पार्थ के नेत्रो से झरते आंसू दिख रहे हे। प्रत्येक वक्ष विभेदन करता वान पितामह के श्रीमुख से 'यशश्वी भवः वत्स,विजयी भवः पार्थ!" का स्नेह आशीष देता हे और कभी अनभर प्रपोत्र को स्नेह देने बाले पितामह आज अपने सबसे लाडले के द्वारा वाणों की सर सैंया पर लेट चुके हे !
दोनों दल हाथ जोड़े खड़े हे। कोई मलमल का सिरहाना लेने गया कोई कुछ पर पितामह कह उठे अरे मुझे सरो की सैंया देने बाले पार्थ के हाथो से सिरहाना चाहिए और  गाण्डीव से निकले दो वाण सिरहाना वन गए,एक वाण माँ गंगा को प्रकट कर वृद्ध पितामह को जलपान कराने लगा ..!

इक्छामृत्यु वर प्राप्त पितामह,अपने गुरु पराजित करने बाले देववृत आज बाणो की पीडाश्रयी सैंया लेटे हे और १८ दिवसीय,१८अक्षोहणि,१८ महारथी इस प्रथम विश्वयुद्ध को देख रहे हे। प्रतिदिन इस पितामह रूपी महात्मा स्वर्ग लेने के लिए देवताओ के दल आते हे किन्तु उन्हें सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा हे और मकरसंक्रांति पर्व के दिवस भरतकुल नन्दन देववृत 'भीष्म' युगों-युगों दोहराई जाने बाली कुरुकुल की महागाथा बनकर #महाप्रयाण कर गए ...!!
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आइये इस मकर संक्रांति पर कुरुकुल गौरवसिरोमणि पितामह भीष्म को मैया योगेश्वरी के समक्ष स्मरण करे और इस भरतवंश (पाण्डु वंश) गुप्तगंगा दर्शन के साक्षी बन 'तँवरगढ़ ऐसाह' पर पितामह देववृत भीष्म को स्मरण कर श्रद्धांजलि अर्पित करे !

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कुँ. जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'
      तंवरघार एकता मंच 
     स्टेट चम्बल मुरैना मप्र

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

विश्व हिंदी दिवस

जब हमारी कलमे अपने शरीर के रस से सराबोर होकर चलती हे,और उस मसि से उद्धृत हुए शब्दो में लिखे भाव माता के साथ मातृभाव समेटे हुए वहते हे।तो यह टँकन और लेखन,बोधन,श्रवण,बक्तव्य, का माध्यम एक समान धार में बिंधकर 'हिन्दी' बन जाता हे ।

14 सिप्टेम्बर सिर्फ भारत के लिए हिंन्दी दिवस हे जबकि आज 10 जनबरी को 'विश्व हिन्दी दिवस' के रूप स्मरण किया जाता हे। जिसका प्रारम्भ और आधिकारिक घोषणा का श्रेय जाता हे। अपने उद्धबोधनो में कभी भी सही से हिन्दी उच्चारण  न कर पाने बाले पूर्व प्रधानमन्त्री श्री मनमोहन सिंह को....!!
जी हा आप सही पढ़ रहे हे आज ही के दिन 2006 को मनमोहन सिंह द्वारा इसकी आधिकारिक घोषणा की गयी थी और समस्त विश्व के देशो ने इसी सहर्ष स्वीकार किया था ।

आज भारत की राष्ट्रीय भाषा  विश्व के लगभग 15 देशो में बोली,पढ़ाई व सिखाई जाती हे।फिर भारत की दण्ड संहिता में 'इंडियन पीनल कोड',ताजीराजे-ए-हिन्द" जेसे शब्द आज भी हमे सेकडो वर्षो दासता की कहानी स्मरण करने के लिए क्यों दोहराये जाते हे?
आंग्लभाषा के बाद विश्व की सबसे अधिक समझी जाने बाली इस वैद(मूल संस्कृत) को हम भारतीयो ने उपहासित कर रखा हे। अन्यथा इसमें 5 उपभाषाएँ व 17 बोलियो का संगम हे। जिसमे अनन्त शब्दों का महासागर हे। विश्व के साहित्य जनक भगवान वैद्व्यास जी महाराज व लेखक आदिगणेश जी से लेकर आज  तक के  शब्दऋषियो  तक अद्भुत ज्ञान सराबोर हे ।
देवनागरी लिपि ही नहीं अपितु वह समाधि हे जिसमे  रमने के बाद शाधक मुक्तिबोधन तक की यात्रा में सर्वश्रेष्ठ सुख अनुभूत करता हे ।
रोज भाषा में अनगिनत शब्दों को स्वम्भू  राजनेतिक प्रचार-प्रसारित करने बाली पक्ष और बिपक्ष की धूर्त मीडिया को शायद स्मरण न हो किन्तु गूगल ने हिंदी साहित्य विसारद श्री प्रेमचन्द जी और  भाषा प्रथम तीन वर्णों का 'डूडल' बना बखूबी स्मरण किया हे ।

हिन्दी से मेरा पहला प्रेम तो "माँ" और उनके द्वारा गायी जाती 'लोरियों' से हो गया था। जो कुछ कमी थी वह सावन की मल्हारों,होली फागों के साथ स्नेहबन्धो ने पूर्ण कर दिया हे ।
हमारे बृज की तो हर माँ-बहिन हिन्दी की कवित्री हे। वह आँगन बुहारने से चाकी चलाते हुए भी अनगढ़ पदों को रच लेती हे,फिर चाहे बांकेबिहारी की बाललीला हो या प्रीतम बिछोह हिन्दी की सरसता हिलोरे मारती हे ।

वैद्ग्रंथो में चन्द्र बिंदी (ऊँ),माता ललाट पर शुशोभित कंकु बिंदी और  देवभाषा हिन्दी के हम सदैव ऋणी हे और ऋणी रहेंगे .....!!!

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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र 

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...