बुधवार, 27 मार्च 2019

अमर शहीद गाथा

===महावीर जसवन्त सिंह रावत===
         ★गाथा एक महावीर की★

बचपन से सुनते आया हूँ की आत्माये अमर होती हे मरता तो मात्र शरीर हे।पंचमहाभूतो से निर्मित यह शरीर क्या नष्ट होकर भी अपनी गतिविधियों के सजीव माध्यम से देश के प्रति अपनी कर्तव्यता नहीं भूलता !
हा यह कोई दन्तकथा नहीं बल्कि सत्यकहानी हे जिनके कर्मस्थल को 'गढ़' के रूप जाना जाता हे और मृत्यु उपरान्त भी एक 'भारत माँ का लाल' निरतंर सीमाओ पर सजग प्रहरी बन आज भी रायफल उठाये 'सिपाही' से 'मेजर जनरल' तक पदोन्नति पाता हे ..!
विस्मय मत करिये यह किस्सा हे भारत की दूर सीमाओ पर तैनात "जसवंत गढ़" के अमर शाशक मेजर-जनरल(वर्तमान) बाबा जसवंत सिंह रावत जी और उनकी प्रेमिकाएं "शैला-नूरा" का जिन्होंने हजारो-हजार चीनियो को अपनी बुद्धि,बाहुवल और चातुर्य के बलबूते लगातार 3 दिन-रात (72घण्टे) तिल भर बढ़ना छोड़िये मार-मार के लाशो के ढेर में परिवर्तित कर रखा था ....!

पिता गुमानसिंह की देखरेख और माँ लीलादेवी की पावन कोख से 19 अगस्त 1941 ग्राम बाड्यू, पट्टी-खाडली,ब्लाक बीरोंखाल को अवतरित हुए थे।17 वर्ष की अल्पायु से सैना को समर्पित जसवंत जी अद्भुत व्यक्तित्व के धनी थे।उनके चातुर्य और कोशल की बजह वह सहपाठियों से खेलते हुए भी कभी न हारते ते थे यंहा तक की अकेले दम पर पूरी चीनी आर्टिलरी को तहस-नहस करने बाले वह प्रथम गैरराजपत्रित सैनिक भी थे ।

किस्सा उन दिनों का जब जबाहर लाल नेहरू विश्वशांति के पक्षधर बने घूम रहे थे।संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा में मिली स्थायी सदस्यता को 'गुडविल अ ब्रदर' दिखाने के लिए चाइना को बतोर 'गिफ्ट' कर दिया गया और वर्तमान 'जुमलों' की तरह  जुमला हुआ  निकला था "हिन्दी-चीनी,भाई-भाई!"
इसी जुमले को क्रियांवत दिखाने के लिए भारत की उन तमाम आयुद्धशालाओ को 'कप-प्लेट' निर्माण की इकाइयों में बदल दिया गया।शायद मुर्ख नेतृत्व और सत्ताधीशो की मति घास चरने चली गयी थी जेसे आजकल आरक्षण को वोट केलिए 'अंग्रेजो का तम्बू' बनाया जा रहा हे।यह भारत का दुर्भाग्य हे की सत्ता में आते भत्ता के लिए #लेते देश की नीव को खाली करने पर आमादा हे ।
उस समय के मुर्ख गृहमंत्री VK.मेनन पाकिस्तान से समझोता कर ही चुके थे और नेहरू गुडविल क्रियान्वन के इश्क में 'हिन्दी-चीनी,भाई..."! का जुमला आविष्कार कर ही चुके उनको लगा की भारत चहुओर से सुरक्षित हे,हथियारो पर फौज पर खर्च करना मूर्खता हे।ये गैरजरूरी खर्च कम क्या खत्म होना चाहिए।फलतः अरुणाचल से फौज की 'नफरिया' हटा ली गयी हजारो मील भारतमाँ का आँचल माँ के लालो से छीन लिया गया और दुश्मन को आमन्त्रित करती नीतियों के कारण चीन की तरफ से भारतीय सीमाओ को 'चीनी ड्रेगन' निगलने लगा और मुर्ख सत्ताधीस कप्प्लेट निर्माण में मगन हो गए ..!
उस समय चीनी सैना ने बहुत तवाही मचा राखी थी क्यों की भारतीय सैना विहीन सीमाये चीनियो के लिए खुला आमन्त्रण था और वह आये अरुणाचल में बुद्ध मूर्ति के हाथ काट ले गए ..!
जब हालात बेकाबू हो गए तो गढ़वाल रायफल की चौथी बटालियन को तैनात किया गया।इसी बटालियन के महावीर थे जसवंत सिंह रावत....!
तत्कालीन रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री की मूर्खताओं के कारण इस बटालियन पर न हथियार थे न उचित रसद!यहां तक की कारतूसों की भी कमी थी।जिसके कारण चीनी हर मोर्चे पर हावी होते आ रहे थे और भारतीय फौजे न हार रही थी,हार तो दुस्ट राजनेतिक हस्तक्षेपो की रही थी।
17 नबम्बर 1962 को चीन की तरह से अरुणाचल की नूरानांग पोस्ट पर चौथा और बड़ा हमला किया गया।रसद और असहले विहीन हो चुकी फौजो को हार मानते हुए पीछे हटने के आदेश दिए गए किन्तु जिन्हें लड़ना होता हे वह सहज नहीं हारते वाक्य को चरितार्थ करते हुए पोस्ट से हते जसवंत जी और उनके दो साथी ...1 लांसनायक त्रिलोक सिंह नेगी,2रायफलमैन गोपाल सिंह गुसाई ..!
इनमे एक अदृश्य महिला शक्ति भी साथ थी।
शैला और नूरा नामक दो वीरांगनाएँ जो प्रेम के साथ समर्पित थी प्रेमी के लिए,मातृभूमि के लिए। चहुओर से गोलिया और भारी आर्टिलरी सेलिंग के बीच इस छोटी सी बटालियन की रसद और बारूद खत्म होने लगी क्योंकि उनके पास कोई अर्जुन का अक्षय तुरीण थोड़े था जो देवकृपा से भरता रहता और नेगी  और वैरागी जी को रसद के लिए बेस पर भेजा गया ..!

अब कठिन मोर्चे  पर हजारो चीनियो के समक्ष थे चीनियो के हिसाब से तीन हजार जबकि सत्यता में जसवंत,शैला,नूरा की त्रिगुणात्मक अद्भुत फौज जो लगातार  65 घण्टो से चीनियो के चने भून रही थी।यह तीन वीरो फौज विभिन्न मोर्चे व उपलब्ध हथियारों के बल पे किसी रेजिमेंट की तरह लड़ रही।चीनि स्तब्ध थे की यह कोनसी बटालियन आ गयी जो हम हजारो को हरा रही हे किन्तु वह शाम भारत के लिए अशुभ थी जब खाना लेके आती नूरा को चीनियो ने छिप के पकड़ लिया और नूरा उनके अत्याचारो को कैसे सह पाती जो की आम नागरिक थी एक नारी थी ..!
चीनियो को आश्चर्य हुआ जब ज्ञात हुआ की पिछले कई दिनों से वह किसी ब्रिगेड से नहीं बल्कि दो लड़की और एक जवान से परास्त हो रहे थे।नूरा को जानकारी उपरान्त वीरगति प्राप्त हुई और उधर शैला-जसवंत की रसद समाप्ति की और थी....बिकट स्तिथि में बची गोलियों से लड़ते हुए शैला भी प्रेम में प्रगति करती हुई वीरगति को प्राप्त हो गयी ..!
अंतिम गोली से महावीर जसवंत सिंह भी जीवित किसी दुश्मन के हाथ आये बगैर परमगति को प्राप्त हो गए ।
अंततः चीनी आये और अतिछुब्धता में महावीर का शीश काट ले गए ....!

जसवंत जी वीरता का प्रमाण तो स्वम चीनी सैना हे जो युद्ध समाप्ति उपरान्त राष्ट्रीय सैनिक सम्मान के साथ महाबीर जसवंत जी की कांसे की बनी हुई मूर्ति कंधो पर लाये थे ।
आज जसवंत की याद में उस पोस्ट पर 'जसवन्तगढ मन्दिर' नूरानांग घाटी और शैला मन्दिर उनके सम्मान में बने हुए हे ।

भारतीय सैना अनुसार वह आज भी जीवित हे और मुस्तैदी से ड्यूटी भी दे रहे।नित्य उनके बूट पोलिस,बिस्तर गिलाफ,वर्दी आदि को धोया जाता हे और उनके घर उनकी सैलरी,छुट्टी परमोसन इत्यादि दिया जाता हे ।
वह छुट्टी जाते हे तो उनकी सीट बुक होती हे एक दस्ता उनको सैनिक सम्मान के साथ विदा और लेने भी जाता हे ।
उस पोस्ट पर तैनात सैनिको के अनुसार जसवंत बाबा भी दिखाई देते हे और किसी भी चीनी गतिबिधि की सुचना भी देते हे ......
नमन भारत के महावीरों को जो मर के भी अमर हो गए और पंचभूतों में सशरीर न होते हुए भी निरन्तर कर्तव्य पथ पर अडिग हे !
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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'

शुक्रवार, 22 मार्च 2019

Miss you papa ji

★पिताजी आप बहुत याद आओगे★
‌         ___🙏🚩🙏___

बो कल-परसो से बार-बार कलाई घड़ी देख मुस्कुराते हुये मुझसे प्रश्न कर रहे थे "बेटा आज दिनांक क्या हुई और तिथि क्या हे?" अपरान्ह 12 और रात्रि 9 जेसे उन्होंने तय कर रखे थे,मुझसे प्रश्न करने को!उनका इतना शानिध्य,स्नेह,बात्सल्य ,पोषण,शिष्यत्व,मार्गदर्शन प्राप्त करके भी में अंजान रहा इस रहश्य पूर्ण प्रश्न से !
वर्षो से देखता आया हूँ कि प्रत्येक होली पर वह सबसे पहले धूल,राख ही मलते थे अपने चेहरे पर !
एक बार मेने यूँही कोतूहलवस पूछ लिया था की 'पापा जी आप अगर क्षमा करे तो एक बात पूंछू !'
जल में मिटटी का छोटा सा कण डालने पर जो वर्त्ताकार तरंग बनती हे ठीक उसी की तरह उनके चेहरे पर एक मनमोहक और आकर्षक मुस्कुराहट प्रकट हुई और कहने " जीतू तुम प्रश्न करने से पहले भर्मित क्यों रहते हो?आखिर तुम्हारे प्रश्न ही तो हे जो मुझे कुछ न कुछ स्मरण दिलाते रहते हे और तुम्हारी इन जिज्ञासाओं में मुझे मेरा अतीत चित्रपट की तरह सजीव दिखता हे।सदैव निः संकोच होकर पूछा करो !"

देखो ! वर्षांत और पुनर्सृजन की बैला होती हे होली,यहां हमे अपने जन्म अर्थात मिटटी से जुड़ने और 'ख़ाक' मिलने को कदापि विस्मरण नहीं करना चाहिए।इस कारणवर्ष में प्रतिवर्ष मिटटी और राख दोनों ललाट पर लगाकर अपनी जीवन और मृत्यु दोनों नमन करता हूँ ।"
उनके एक-एक शब्द का गुढ़ अर्थ हे,एक-एक कार्य में न जाने कितने भाव निहित जिन्हें में इतना सामीप्य प्राप्त करके भी न समझ पाया,सम्भवतः में जुगनू उन भास्कर की दिव्य रश्मियों के कैसे समझता जो मात्र उनका अंश हूँ और वह परिपूर्ण तेजपुंज थे ।
जब काफी छोटा था शायद वर्षो में वय होगी कोई 6-7 वर्ष....!उन्हें न जाने क्या हुआ की वर्षो से छूटी 'हल की मुठ' पुनः याद आ गयी।'जरार पशु मेले' को किसी बगैर तैयारी के निकल गए और उधर वो अकेले नहीं दो खूबसूरत बैलो की जोड़ी साथ लाये।एक तकनीकी अभियन्ता की शायद वह प्रथम प्रौन्नति होगी जब 'कलिसाज'  आधुनिक और तीव्र कृषक से मन्थर गतिक कृषि को प्राथमिकता दिया होगा और उनकी देखा-देखि हमारे लगभग बैल रहित हो चुके साढ़े पांच सहस्त्रीय बीघे से ज्यादा भूमिबाले 'ठिकाने' में पुनः लगभग दशको बाद 'बैलो की घुँघरूओ' की मधुर ध्वनि गुंजार कर उठी थी ।

पिताजी में एक बिलक्षण गुण था।वह इस इस दुनिया में अपनी अलग ही सम्बोधन संज्ञाएँ रखा करते थे।यहां तक की बैलो को भी उन्होनो नाम दिया था......भोली-गोपी..!!
मेने देखा हे उनकी एक पुकार पर "भोली-गोपी" को हल लेकर भागते हुए!मेने देखा उनके हाथो में बेलो के लिए कभी भी 'पैना"(चाबुक) न ले जाते हुए!मेने देखा उनको खाना खाने से पूर्व "भोली-गोपी" को अपने खाने का चौथाई भाग खिलाते हुये!मेने देखा उन्हें मूक पशुओ से बाते करते हुये पशुओ की मूक भावनाओ को समझते हुये !

उनकी गली-मोहल्ले के सभी आवारा कुत्तो से गजब की दोस्ती थी।वह जब भी यात्राओ से लोट कर आते तो कुत्तो का झुण्ड जेसे उन्हें देख पूँछ हिलाकर,जमीन पर लोट कर उनका अभिनन्दन किया करते थे !
एक बार मेने उनसे पूछा था 'पापा आप इन पशुओ को कैसे नियंत्रित कर लिया करते हे,इनसे इतना प्रेम आपको क्यों हे ?
ऐसे जिज्ञासाएँ रखकर मुझे,मेरे आदर्श-गुरु का मन्द-मन्द मुस्कुराना न जाने क्यों किसी दूसरी दुनिया में ले जाता था,में आजतक समझ ही नहीं पाया हूँ ।
मेरी जिज्ञासा पर उनका संछिप्त किन्तु अथाह उत्तर था,"ईश्वर अंश जीव अविनासी !"........
बेटा मुझे इनकी तृप्ति और प्रेम ऐश्वर्य प्रेम दिखता हे जो पशु आप सभी के लिये पाशविक हे वही मेरे ऐश्वरीक हे जो मुझे ठीक तुम्हारी तरह ही स्नेह करते हे !
‌जिंदगी का मेरा पहला अनुभव था जब मेने पिता पुत्र,पति-पत्नी,भाई-बहिन, माता-पुत्र में निहित स्नेह से अलग हटकर 'प्रेम' को साक्षात देखा था !
‌इतने बड़े और 'चम्बल के तामसिक जल' से अभिसिंचित इस गाँव में उनके सभी प्रेमी हे।गोधूलि बैला के समय उनके अंतिम दर्शनार्थ गाँव भर का हुजूम और हर एक गांवबाले की नम होती आँखे उनकी असंभावित विदाई सबको विस्मय में डाले हुए थी।जो आता एक ही बात कहता कि 'अभी प्रातः ही उन्होंने उसे झाड़ा था एक गलती पर !"
‌रेडियो बीबीसी और मोटी-मोटी किताबो में उनको प्रहरों तक देखा था मेने खोये हुए।आधुनिक संचार और गणक यंत्रो पर वह कभी विशवास नहीं रखते थे किन्तु मशीने जेसे उनकी उँगलियों के इशारो पर नृत्य कर उठती थी।चम्बल की ऐतिहासिक भूमि के कण-कण की उनकी जानकारी थी....उन्होंने ही तो मुझे मेग्नीफाइड के ग्लास के माध्यम से इस रज में निहित राधा-मोहन स्वरूप श्याम और गौर वर्ण 'रजकण'से परिचित कराया था !
में विस्मय में हूँ लगातार साडे तीन वर्षो से केन्सर को पराजित प्रमाण करने बाले आप ‌दिनाक 17/03/2019 शायं 4:30 को आप "ॐ नमो भगवते....." जपते हुए सारे ठिकाने को शोक का अटिसञ्छिप्त समय देकरO इस माया लोक से उस दिव्यलोक की यात्रा को कैसे निकल गए ....!
‌आपके शिष्यत्व...मार्गदर्शन का में सदैव ऋणी रहूँगा पापा जी ....
‌आपके पदपंकजो की धूल....
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‌             जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'

शनिवार, 16 मार्च 2019

राजनितिक मुखोटे

चेहरे बदल जाते हैं, मगर किरदार नहीं बदलते,
कितना भी करें ढोंग, मगर #अंदाज़ नहीं बदलते !

जो आता है चमकाता है पहले अपनी किस्मत,
अफ़सोस, कि जनता के, दिन रात नहीं बदलते !

कुर्सी भी बड़ी अजीब है भुला देती है सब वादे,
होती हैं नूरा कुश्तियां, मगर हालात नहीं बदलते !

मुडना है बेचारी भेड़ को ही चाहे कोई भी मूंडे,
बस हाथ बदल जाते हैं, पर हथियार नहीं बदलते !

फ़र्क नहीं पड़ता उनके जाने या इनके आने से,
होते हैं तमाशे रोज़ ही, मगर आसार नहीं बदलते !

न बदली है न बदलेगी अपनी तो तक़दीर दोस्तों
बदल जाते हैं राजे, पर सिपहसालार नहीं बदलते !!!

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मन्नत

हम भी किसी मंजिल के राही बनकर चले थे,
कांटे चुभे कितने ही पेरो में छाले बनकर जले थे!

वक्त की गर्दिशों में बनी रही अपनी रह गुजारिया,
कभी पैदल कभी घिसट दिन-रात बस चले थे!

जिन्हें हम मंजिल समझ अथक ताउम्र चले थे,
वह मरीचकाये भर सावित हुई जल-जलजले थे!

ऐ खुदा इतना मत जला जलजलो के संताप से,
कभी तेरी सत्ता पर किसी दुसरो के प्रश्नं उठे थे!

ये पल की वेदनाये दहन के ताप भस्म करती हे,
'नारायण' तेरे छत्र से क्या मेरी हिलती नैया अछूती हे!

इतना तपित न करो कि दासत्व से मोहभंग हो जाये,
कर लेलो मोहन तेरी छतरी से ये फिर कोई दूर न जाये...!!!!

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'असफल'😢

रविवार, 10 मार्च 2019

रेजांगला '1962'युद्ध

#जरा_याद_इन्हें_भी_कर_लो

बात फ़रवरी 1963 की है. चीन से लड़ाई ख़त्म होने के तीन महीने बाद एक लद्दाख़ी गड़ेरिया भटकता हुआ चुशूल से रेज़ांग ला जा पहुंचा. एकदम से उसकी निगाह तबाह हुए बंकरों और इस्तेमाल की गई गोलियों के खोलों पर पड़ी. वो और पास गया तो उसने देखा कि वहाँ चारों तरफ़ लाशें ही लाशें पड़ी थीं.... वर्दी वाले सैनिकों की लाशें.

जानीमानी सैनिक इतिहासकार और भारतीय सेना के परमवीर चक्र विजेताओं पर मशहूर किताब 'द ब्रेव' लिखने वाली रचना बिष्ट रावत बताती हैं, 'वो गड़ेरिया भागता हुआ नीचे आया और उसने भारतीय सेना की एक चौकी पर इसकी सूचना दी. जब सैनिक वहाँ पहुंचे तो उन्होंने देखा कि हर मृत भारतीय सैनिक के शरीर पर गोलियों के कई-कई ज़ख्म थे. कई अभी भी अपनी राइफ़लें थामे हुए थे. नर्सिंग असिस्टेंट के हाथ में सिरिंज और पट्टी का गोला था."

उन्होंने कहा, "किसी की राइफ़ल टूट कर उड़ चुकी थी, लेकिन उसका बट उसके हाथों में ही था. हुआ ये था कि लड़ाई ख़त्म होने के बाद वहाँ भारी हिमपात हो गया और उस इलाके को 'नो मैन्स लैंड' घोषित कर दिया गया. इसलिए वहाँ कोई जा नहीं पाया."

रचना बिष्ट अपनी किताब में लिखती है ..,"लोगों को इनके बारे में पता ही नहीं था कि इन 113 लोगों के साथ हुआ क्या था. लोगों को यहाँ तक अंदेशा था कि वो युद्धबंदी बन गए हैं. तब तक इनके नाम के आगे एक तरह का बट्टा लग गया था. उनको कायर क़रार कर दिया गया था. उनके बारे में मशहूर हो गया था कि वो डर कर लड़ाई से भाग गए थे."

वो लिखती  हैं, "दो तीन लोग जो बच कर आए उनका लोगों ने हुक्का-पानी बंद कर दिया था. यहाँ तक कि उनके बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया गया. एक एनजीओ को बहुत बड़ा अभियान चलाना पड़ा कि वास्तव में ये लोग हीरो थे, कायर नहीं थे."

1962 में 13 कुमाऊँ  रेजिमेंट को चुशूल हवाईपट्टी की रक्षा के लिए भेजा गया था. उसके अधिकतर जवान हरियाणा से थे जिन्होंने अपनी ज़िंदगी में कभी बर्फ़ गिरते देखी ही नहीं थी. उन्हें दो दिन के नोटिस पर जम्मू कश्मीर के बारामूला से वहाँ लाया गया था. उन्हें ऊँचाई और सर्दी में ढ़लने का मौका ही नहीं मिल पाया था. उनके पास शून्य से कई डिग्री कम तापमान की सर्दी के लिए न तो ढ़ंग के कपड़े थे और न जूते. उन्हें पहनने के लिए जर्सियाँ, सूती पतलूनें और हल्के कोट दिए गए थे.
इस मोर्चे को मेजर शैतान सिंह कमांड कर रहे थे .

मेजर शैतान सिंह ने अपने जवानों को पहाड़ी के सामने की ढलान पर तैनात कर दिया था. 18 नवंबर, 1962 को रविवार का दिन था. ठंड रोज़ की बनिस्बत कुछ ज़्यादा पड़ रही थी और रेज़ांग ला में बर्फ़ भी गिर रही थी.

उस लड़ाई में ज़िंदा बच निकलने वाले ऑनरेरी कैप्टेन सूबेदार राम चंद्र यादव जो आजकल रेवाड़ी में रहते हैं, याद करते हैं, "तड़के साढ़े तीन बजे अचानक एक लंबा बर्स्ट आया ड-ड-ड-ड-ड. पूरा पहाड़ी इलाका उसके शोर से गूंज गया. मैंने मेजर शैतान सिंह को बताया कि 8 प्लाटून के सामने से फ़ायर आया है. चार मिनट बाद हरि राम का फ़ोन आया कि 8-10 चीनी सिपाही हमारी तरफ़ बढ़ रहे थे."

वो कहते हैं, "जैसे ही वो हमारी रेंज में आए, हमारे जवानों ने लंबा बर्स्ट फ़ायर किया है. उस में चार-पांच चीनी तो उसी समय ख़त्म हो गए और बाकी वापस भाग गए. इसके बाद मैंने अपनी लाइट मशीन गन को मोर्चे के अंदर वापस बुला लिया है. ये सुन कर मेजर साहब ने कहा कि जिस समय का हमें इंतज़ार था, वो आ पहुंचा है. हरि राम ने कहा आप चिंता मत करिए. हम सब जवान तैयार हैं. हमने मोर्चा पकड़ लिया है."

7 पलटन के जमादार सुरजा राम ने अपने कंपनी कमांडर को इत्तला दी कि चीन के क़रीब 400 सैनिक उनकी पोस्ट की तरफ़ बढ़ रहे हैं. तभी 8 पलटन ने भी रिपोर्ट किया कि रिज की तरफ़ से करीब 800 चीनी सैनिक भी उनकी तरफ़ बढ़ रहे हैं.

सूबेदार राम चंद्र यादव बताते हैं, "जब चीनी 300 गज़ की रेंज में आए तो हमने उन पर फ़ायर खोल दिया. क़रीब 10 मिनट तक भारी फ़ायरिंग होती रही. मेजर शैतान सिंह बार बार बाहर निकल जाते थे. मैं उन्हें आगाह कर रहा था कि बाहर मत जाइए क्योंकि कोई भरोसा नहीं कि चीनियों की कब 'शेलिंग' आ जाए."

वो कहते हैं, "सुरजा राम ने रेडियो पर बताया कि हमने चीनियों को वापस भगा दिया है. हमारे सारे जवान सुरक्षित हैं. उन्हें कोई चोट नहीं लगी है. हम ऊँचाई पर थे और चीनी नीचे से आ रहे थे. ये बात हो ही रही थी कि चीनियों का पहला गोला हमारे बंकर पर आ कर गिरा. मेजर शैतान सिंह ने फ़ौरन फ़ायरिंग रुकवा दी. फिर उन्होंने 3 इंच मोर्टार चलाने वालों को कोडवर्ड में आदेश दिया 'टारगेट तोता.' हमारे मोर्टार के गोलों से चीनी घबरा गए और ये हमला भी नाकाम हो गया."

जब चीनियों द्वारा सामने से किए गए सारे हमले नाकामयाब हो गए तो उन्होंने अपनी योजना बदल डाली. सुबह साढ़े चार बजे उन्होंने सभी चौकियों पर एक साथ गोले बरसाने शुरू कर दिए. 15 मिनट में सब कुछ ख़त्म हो गया. हर तरफ़ मौत और तबाही का मंज़र था.
रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "पहला हमला उन्होंने नाकामयाब कर दिया था. ढलान के इधर-उधर चीनियों की लाशें पड़ी हुई थीं जो उन्हें ऊपर से दिखाई दे रही थीं. लेकिन फिर चीनियों ने मोर्टर फ़ायरिंग शुरू कर दी. ये हमला 15 मिनट तक चला होगा."

वो लिखती  हैं, "भारतीय जवानों के पास सिर्फ़ लाइट मशीन गन्स और .303 की राइफ़ले थीं जो कि 'सिंगिल लोड' थी. यानी हर गोली चलाने के बाद उन्हें फिर से 'लोड' करना पड़ता था. इतनी सर्दी थी कि जवानों की उंगलियाँ जम गई थीं."

उन्होंने बताया, "15 मिनट के अंदर चीनियों ने भारतीय बंकरों में बरबादी फैला दी. उनके बंकर उजड़ गए. तंबुओं में आग लग गईं और जवानों के शरीरों के अंग कट कर इधर उधर जा गिरे. मगर इसके बाद भी मेजर शैतान सिंह अपने जवानों का हौसला बढ़ाते रहे. जब धुँआ छंटा तो जवानों ने देखा कि 'रिज' के ऊपर हथियारों से लदे याक और घोड़े चले आ रहे हैं. कुछ क्षणों के लिए जवानों ने सोचा कि उन्हीं की अल्फ़ा कंपनी उनके बचाव के लिए आ रही है. वो बहुत खुश हुए पर जब उन्होंने दूरबीन लगा कर ग़ौर से देखा तो वो चीनी सैनिक निकले. तब चीनियों का तीसरा हमला शुरू हुआ और उन्होंने आ कर एक-एक सैनिक को मार दिया."

इस बीच मेजर शैतान सिंह की बाँह में 'शेल' का एक टुकड़ा आ कर लगा. उन्होंने पट्टी करवा कर अपने सैनिकों का नेतृत्व करना जारी रखा. वो 'रिज' पर थे तभी उनके पेट पर एक पूरा 'बर्स्ट' लगा. हरफूल ने लाइट मशीन गन से चीन के उस सैनिक पर फ़ायर किया जिसने शैतान सिंह पर गोली चलाई थी.

हरफूल को भी गोली लगी और उन्होंने गिरते हुए रामचंद्र से कहा कि मेजर साब को दुश्मन के हाथों मत लगने देना. मेजर शैतान सिंह अत्यधिक ख़ून बह जाने के कारण बार बार बेहोशी की हालत में चले जा रहे थे.
सूबेदार राम चंद्र यादव इस मुश्किल समय में उनके साथ थे और उन चंद लोगों में से एक हैं जिन्होंने उन्हें ज़िंदा देखा था.

यादव याद करते हैं, "मेजर साब ने मुझसे कहा रामचंद्र मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है. मेरी बेल्ट खोल दो. मैंने उनकी कमीज़ में हाथ डाला. उनकी सारी आंतें बाहर आ गई थीं. मैंने उनकी बेल्ट नहीं खोली, क्योंकि अगर मैं ऐसा करता तो सब कुछ बाहर आ जाता. इस बीच लगातार फ़ायरिंग हो रही थी. बेहोश हो गए मेजर शैतान सिंह को फिर होश आया."

यादव कहते हैं, "उन्होंने टूटती सांसों से कहा मेरा एक कहना मान लो. तुम बटालियन में चले जाओ और सब को बताओ कि कंपनी इस तरह लड़ी है. मैं यहीं मरना चाहता हूँ. ठीक सवा आठ बजे मेजर साब के प्राण निकले."

वो याद करते हैं, "इस बीच मैंने देखा कि चीनी सैनिक हमारे बंकरों में घुस रहे हैं और 13 कुमाऊँ के सैनिकों और चीनियों के बीच हाथों से लड़ाई हो रही है. हमारे एक साथी सिग्राम ने गोलियाँ ख़त्म हो जाने के बाद चीनियों को एक दूसरे के सिर लड़ा कर मारा. एक चीनी को उसने पैर पकड़ कर चट्टान पर दे मारा. इसके बाद 7 प्लाटून का एक सिपाही भी ज़िंदा नहीं बचा और न ही कैद हुआ."
रेज़ांग ला की लड़ाई को भारतीय सैन्य इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक माना जाता है, जब एक इलाके का रक्षण करते हुए लगभग सभी जवानों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी.

रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "रेज़ांग ला की लड़ाई इसलिए बड़ी लड़ाई थी क्योंकि 13 कुमाऊँ के जवानों को जो आदेश मिले थे, उन्होंने उसे आख़िरी दम तक पूरा किया. उनको उनके ब्रिगेडियर टीएन रैना (जो बाद में थलसेनाध्यक्ष बने) ने लिखित आदेश दिया था कि उन्हें आख़िरी जवान और आख़िरी गोली तक लड़ते रहना है. उन्होंने इस आदेश का अक्षरश: पालन किया. "

वो कहती हैं, "सिर्फ़ 124 जवान वहाँ तैनात थे. क़रीब एक हज़ार की संख्या में चीनियों ने उन पर हमला किया था. 114 जवान वहाँ मारे गए. पांच को युद्धबंदी बना लिया गया. उनमें से एक की मौत हिरासत में हुई. जब मैं इस विषय पर शोध कर रही थी तो मैंने 13 कुमाऊँ से उस लड़ाई में मरने वाले सैनिकों के नाम मांगे, तो उन से मेरे लैप-टॉप की तीन शीट्स भर गईं. ये सोच कर मेरी आँखें भर आईं कि कितने लोगों ने इस लड़ाई में अपनी ज़िंदगी की शहादत दी थी. ये लड़ाई सुबह साढ़े तीन बजे शुरू हुई थी और सवा आठ बजे ख़त्म हो गई थी पर मुख्य लड़ाई आख़िरी घंटे में ही हुई थी."

सूबेदार रामचंद्र यादव कहते हैं, "अगर ये चार्ली कंपनी शहीद नहीं हुई होती तो लेह, करगिल, जम्मू कश्मीर सब ख़तरे में पड़ जाते. इसी ने रोका चीनियों को. जब उनका इतना नुकसान हो गया तो उसने खुद युद्ध-विराम किया. हमने युद्ध-विराम नहीं करवाया था."

(रचना बिस्ट की पुस्तक "The Brave " का  एक अंश )

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...