हम भी किसी मंजिल के राही बनकर चले थे,
कांटे चुभे कितने ही पेरो में छाले बनकर जले थे!
वक्त की गर्दिशों में बनी रही अपनी रह गुजारिया,
कभी पैदल कभी घिसट दिन-रात बस चले थे!
जिन्हें हम मंजिल समझ अथक ताउम्र चले थे,
वह मरीचकाये भर सावित हुई जल-जलजले थे!
ऐ खुदा इतना मत जला जलजलो के संताप से,
कभी तेरी सत्ता पर किसी दुसरो के प्रश्नं उठे थे!
ये पल की वेदनाये दहन के ताप भस्म करती हे,
'नारायण' तेरे छत्र से क्या मेरी हिलती नैया अछूती हे!
इतना तपित न करो कि दासत्व से मोहभंग हो जाये,
कर लेलो मोहन तेरी छतरी से ये फिर कोई दूर न जाये...!!!!
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'असफल'😢
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