===अलविदा आगरा===
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बेसे स्वरों में पहले 'आ' आता हे किन्तु मेरी पहली विदाई एक क्रम आगे के स्वर 'ई' अर्थात इन्दोर से हुई थी।आँखे तव भी सजल थी और अब भी द्रवित हे।हालांकि इन्दोर छोड़ने समय कितनी अमित यादे साथ थी।कितने ही इस जीवन के सुनहरे पल हृदय स्पंदों के मध्य आज भी सजीव हे।फिर चाहे 'मेरी असफलताओ का झखीरा क्यों न हो किन्तु यादे तो जीवन की पूंजी हे जो खर्चति नहीं बल्कि बढ़ती ही जाती हे ।
इन्दोर स्मरण रहेगा इस जीवन को दार्शनिक शैली के लिए तो आगरा स्मरण रहेगा।उस अनदेखी शैली को सभी के समक्ष व्यक्त करवाने के लिए,तमाम रोचक,जीवन उपयोगी,करुणकाय दृश्य,और लेखकीय अनुभव के लिए।आगरा से मेरा जुड़ाव तो उस वक्त से हे जब प्रथम बार धरनि पे गिरा था।शैशव से युवा तक आगरा ने एक अच्छे मित्र,पालक,गुरु,सहचर की तरह स्नेह प्रदान किया किन्तु तृष्णाओ का दमन नहीं कर पाया और इन्दोर की द्रवित स्मिर्तियो पर यहां आकर भूलने की कोशिश मे स्वम को भूल बैठा....!
यहां पर काफी सारे अनुभव हुए,ओडि से लेकर कवाड चुनने बाले तक नन्हे-मुन्हों के चेहरे पर हसि देखि।लालबत्ती और धर्माचार्यो के लगे पोस्टरों के नीचे माँ बनती विक्षिप्तताओ की कराह देखि।जिंदगी की उधेड़बुन में विद्यार्थियो को सपने बुनते देखा किन्तु नहीं देखा कभी भी 'ताजमहल' या अन्य कोई शेलानि इमारत क्योंकि मेरी तो एकाकी भावनाये सदैव पहुचती थी कभी यमुना तीर तो कभी जंगलो में बसे आश्रमो में ....!
इन्दोर की गुलावी याद जब जब भूलने का प्रयास किया तब-तब कोई न कोई पुष्प-भँवर पुनः दिख गया और दिख गया व्यतीत कल जिसमे असंख्य भावनाये थी।असीम स्नेह था किन्तु असफ़लताओ की दरियादिली में समय की परीक्षाओ में सब कुछ ढ़य गया और एकाकी जीवन शैली नितांत होती गयी ......!
अनुभवो में के रूप में आगरा,इन्दोर से श्रेष्ठ रहा क्योंकि तब अपरिपक्व था अव परिपक्व युवा स्वम को बोल रकता हु।यहां कितने रिश्ते बने किन्तु विक्षेदन एक भी न हुआ।इन वर्षो में होस्टल से भीगती सड़के देखने का एक अपना अनुभव था।रेस्टोरेंटस् पर प्रेमयुगलो का लड़ना,बिछड़ना,और फिर आरोप-प्रत्यारोप तक देखा....शराव में डूवी शाम भी देखि तो इहलीला समाप्त करते विद्यार्थी भी देखे ।
कभी-कभी बो अदृश्यक भी समक्ष देखा जो सम्भवतः स्वम को चिकोटी काट के भी यकीन न हो .....!
यहां सेकड़ो 'पंक्षी पेठे' की नकली दुकाने भी देखि तो 10 रूपये घर-घर फेरी करके चेन लगाते उस युवा को देखा जो उदरपूर्ति के लिए मीलो पैदल भागता था और शाम देशी के भवके से थकान उतारता था।यहां बो बन्दर भी देखा जो हक से रोटी खाकर ही जाता था और बो स्वान भी देखा जो क्षुदा हेतु कितनी ही बार मेरी पतलून पर अपने पंजो से निशान छोड़ता था ।
पूरी एक टोली के साथ टिपिन साझा करने का अनुभव तो जेसे मन-मयूर को नृत्य करने पर ला खड़ा करता था ।
न जाने कितनी मधुर यादो का संगम रहा आगरा में और आज सब शनै-शनै पीछे छूट रहा।साथ छूट रहा था नया साथ जुड़ने की कल्पनायें कैसा अद्भुत संगम रच रही थी जेसे मष्टक पर एक बून्द उष्ण तो एक बून्द शीत धीमे से ढलक जाती हो .......
खैर,
आगरा मेरी जन्मस्थली तुमसे मेरा रिश्ता तो अटूट हे किन्तु क्या करू सिर्फ इश्क के सहारे गृहस्थी नहीं चलती न ....तो अलविदा आगरा......अलविदा आगरा..!!
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जितेंद्र सिंह तोमर'५२से'
24/01/2019
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