शनिवार, 26 जनवरी 2019

सवारी अथवा सवारा

         ===सवारी अथवा सवारा===
               ●हास्य कल्पना●

वास्तविकता में मौषम और समय किसी के लिए समान रहते हे तो वह वर्ग हे परिवहन वालो का....।
वह दिवस विशेष के मोको पर भी अपनी सदावहार 'टोन' से हमलोगो की तरह बाहर नहीं निकलते।जेसे उसी में रचे-बसे भर हो .....!
"शीशे की तरह दिल तोड़ दिया पथरा का जमाना से लेकर" गर्मी में "खटिया सरकने और ठण्ड लगने" तक में वातानुकूलन का अनुभव देते हे।तो कभी "कब याद करु उसको,कब तक अश्क बहाउ" सूना-सूना के कितनो को 'खाँसी-हंसी' मध्य पड़ने बाले ठसके का पुनःअनुभव करा ही दे ...।

इनमे कुछ ट्रेवल्स बसे मेल तो कुछ फीमेल भी होती हे।जिनके मुह,बोनट,डेशबोर्ड,विंडस्क्रीन पर लाली-नथुनिया से सजी दुल्हनिया की मुखाकृति से लेकर दिल्फ्टी शायरिया और प्रीतम के प्रति 'दारु पीकर मत चलाना,जिंदगी भर साथ दूंगी' जेसी पंक्तियों से लेकर उच्चक्के कोटि की तस्वीरें भी चस्पा मिलेंगी किन्तु रंग के मामले में यंहा भी शेडो की भरमार मिलेंगी।76  लोंडो की रँगविरंगि तस्वीरें विभिन्न मुद्राओ में देख कर अनुमान लगाया जा सकता हे।कि, यह मण्डली पसन्द के मामलो कितनी बहिर्मुखी हे ।
तुरा जब फिट बैठता हे जब आप चालक और परिचालक की जुल्फों के भेद नहीं कर पाते की 'जुल्फे नागन' की हे या ना-गण की ...!
बात अगर इनकी 'होर्न्स'(ध्वनि) की जाए तो इतने कर्कस से लेकर मधुर तक मिलेंगे की आपको अकेले यात्रा में सहयात्री की याद आ ही नहीं सकती।चाल तो कहने क्या साहव.....इतने लटके-झटके दिखाकर चलाई जाती हे की सीलिंग और विंडस्क्रीन पर दर्शाये क्षितिज(जहा जमी-आसमा मिलते प्रतीत होते हे) से लेकर व्हिलो के पास बंधे हजारो नुपुर एक साथ झंकार उठे हो.....!और आपको आपकी उनकी....नेपथ्य बाली पदचाप ....स्मरण हो आई हो और आप किसी से  चेटीआते,शेखी बखारते,पुरुषप्रधान विनोद अध्यन में-दर्शन में,अथवा मित्रो के समक्ष 'पति-पर-मूसक' होने का दाबा करते-करते,तदस्तिथि में थूक से सेलफोन की स्क्रीन साफ़ करने की सुखद अनभूति का स्मरण कर सकते हे ।
अंततः इनके पश्चभाग में  'घर कब आओगे'... 'ड्रायवर की बनी दुल्हनिया-क्लीनर से प्यार हुआ' .....'मालिक की लाड़ली'.....'डिपर मत मार जगह मिलने पर दूंगी...साइड'  'फला जगह की शेरनी' इत्यादि जेसे मनोवैग्यानिक, बहुभावअर्थीय, रिझाते,ट्रैफिक-शाश्त्रीय,त्रकारीभाव पाये जाते है ।

इनमे कुछ वाहन 'मेल्स' भी होते हे,जिसकी अनुभूति 'एंटर गेट' के सामने लिखा 'महिला सीट' और "फलाना टूर&ट्रेवल्स आपका हार्दिक स्वागत करता हे "....ऐसी अनुभूति कराता हे जेसे  'दौर-ऐ-जाम' के वक्त साकी बने मित्र ने एक जाम के बाद ही.....पूरी खेप लाने बाली नजरो से आशा लगाई हो ..!
इनकी विंडस्क्रीन पर नर स्वभावी विभिन्न नर्तकियों से लेकर हूरो तक की आकृतिया दिख जाती हे।इन बाहनो के प्रायः 'रेडिएटर कवर' नदारत होकर ऐसा दृश्य मष्तिष्क में बनाते हे जेसे बीड़ी-हुक्के की तलब में बिचारे दूकान खोज रहे हो......और बगल गुजरते वाहन से पैसे न होने की एवज कोई फुक्कु ब्रांड चलने की सहमति दे रहे हो ...तलव बड़ी चीज हे प्यारे,गुटके-तम्बाकू की लत में सर्वदा ट्रक और बसो का मुह भी  दन्तरहित ही दीखता हे ...!!
हेडलाइट्स के मध्य चस्पा बड़ी-बड़ी क्रुरसिंघि मुछो से तो वाहन पूरा मर्द ही नजर आता हे.....!मुखाकृति को और चलने पर बजती खिड़कियों का करतल का संयोजन करके देखिये की 'नरवाहन' और उसका माथे अंगोछा लपेटे चालक जेसे 'नाती-बाबा,साडू-साडू' बाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हो ..!
इनमे बजते विद्धुतचुम्बकीय वाद्य यन्त्र पर गीतों परिचालक की आयुनुसार भजन,गीत,रसिया बजाए जाते हे।हालांकि अल्ताफ राजा की गायी गजले "तुम तो ठहरे परदेशी ...की बेटकलुफि से लेकर रफ़ी साहव का 'आजा तुझको पुकारे मेरा प्यार' आह्वाहन सहसा नरो की नाजुक दुनिया की सैर करा ही देता हे।हालांकि परिचालक मुड़ तफ़रीह मारने का हुआ और रक्त में करामाती रसायन का मिशन हुआ तो 'मुन्नी बदनाम से लेकर,जवानी मांगे पानी-पानी' का ठोस-रस अनुभव करके गोरी जेल भी करा सकती हे ।
इन वाहनों की पीछे लिखी ...'तू चल में आया'.....'अम्मा-बप्पा की दुआएं'....फला का शेर....ढिका का गेहदु....गोरी का साजन......ड्रायवर की जिंदगी स्टेरिंग और ब्रेक पर'....!!!!इत्यादि वाक्य जीवन घर्षण को व्यक्त करते हे ।
यदपि कुछ-कुछ वाहन तांत्रिको का स्वभाव् भी दर्शाते हे जो अनपरिचित 'जय बाबा अकड़-पकोड़े'......'अलख निरंजन'.....'मैड बाबा की कृपा'...'जय केतली बाबा 56' के न समझ आने बाले लम्बे लम्बे बाउंसरों की तरह बहुत दूर तक समझ नहीं आते हे !

खेर इतना सब लिखते आने बाली/बाला रेल-गाडी-रेलगाडा की प्रतिक्षा कर रहा हूँ.....की अपनी तकदीर में सवारी वाहन मेल आएगा अथवा फीमेल ....😊

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जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'
प्लेटफाम नम्बर 4 ग्वालियर

गीत केशरिया

आ सजनी तोहे रंग दू केसरिया
फिर मल दू भाल पे गुलाल में
तू बन जा जो मेरा सावरिया  ।।

देर सवेर जाग उठेगा जो सोया
बेसुध,बेखबर भोला सावरिया
रुत ने जम्हाहि तू न सो जाबरिया ।।

आज न जागा ,सोता जग सारा
तेरी एक आवाज से तड़कै सारा
किलक काल को सुलावन हारा ।।

आ सजनी तोहे रंग दू केसरिया
आ सजनी तोहे रंग दू केसरिया

फटी पपीडि भोर भयो उजियारो
उठ जाग असि ले तोहे रन ललकारो
सामूहि खड़ो सुभट तोहे ललकारो ।।

बांधो फेटा सर से कांपे जग सारो
क्षत्रिय या रक्त को कर्ज उतारो
कह गए कानू रणसर रन को रख्वारो ।।

रणभेरी न बाजहिं फिर से नहो बे खबरिया
आ बालम तोहे रंग दू में केसरिया ,,,,केसरिया  केसरिया .......केसरिया .......केसरिया ।।

26/01/2017

शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

अलविदा आगरा

===अलविदा आगरा===
           ★🖐★
बेसे स्वरों में पहले 'आ' आता हे किन्तु मेरी पहली विदाई एक क्रम आगे के स्वर 'ई' अर्थात इन्दोर से हुई थी।आँखे तव भी सजल थी और अब भी द्रवित हे।हालांकि इन्दोर छोड़ने समय कितनी अमित यादे साथ थी।कितने ही इस जीवन के सुनहरे पल हृदय स्पंदों के मध्य आज भी सजीव हे।फिर चाहे 'मेरी असफलताओ का झखीरा  क्यों न हो किन्तु यादे तो जीवन की पूंजी हे जो खर्चति नहीं बल्कि बढ़ती ही जाती हे ।

इन्दोर स्मरण रहेगा इस जीवन को दार्शनिक शैली के लिए तो आगरा स्मरण रहेगा।उस अनदेखी शैली को सभी के समक्ष व्यक्त करवाने के लिए,तमाम रोचक,जीवन उपयोगी,करुणकाय दृश्य,और लेखकीय अनुभव के लिए।आगरा से मेरा जुड़ाव तो उस वक्त से हे जब प्रथम बार धरनि पे गिरा था।शैशव से युवा तक आगरा ने एक अच्छे मित्र,पालक,गुरु,सहचर की तरह स्नेह प्रदान किया किन्तु तृष्णाओ का दमन नहीं कर पाया और इन्दोर की द्रवित स्मिर्तियो पर यहां आकर भूलने की कोशिश मे स्वम को भूल बैठा....!
यहां पर काफी सारे अनुभव हुए,ओडि से लेकर कवाड चुनने बाले तक नन्हे-मुन्हों के चेहरे पर हसि देखि।लालबत्ती और धर्माचार्यो के लगे पोस्टरों के नीचे माँ बनती विक्षिप्तताओ की कराह देखि।जिंदगी की उधेड़बुन में विद्यार्थियो को सपने बुनते देखा किन्तु नहीं देखा कभी भी 'ताजमहल' या अन्य कोई शेलानि इमारत क्योंकि मेरी तो एकाकी भावनाये सदैव पहुचती थी कभी यमुना तीर तो कभी जंगलो में बसे आश्रमो में ....!

इन्दोर की गुलावी याद जब जब भूलने का प्रयास किया तब-तब कोई न कोई पुष्प-भँवर पुनः दिख गया और दिख गया व्यतीत कल जिसमे असंख्य भावनाये थी।असीम स्नेह था किन्तु असफ़लताओ की दरियादिली में समय की परीक्षाओ में सब कुछ ढ़य गया और एकाकी जीवन शैली नितांत होती गयी ......!
अनुभवो में के रूप में आगरा,इन्दोर से श्रेष्ठ रहा क्योंकि तब अपरिपक्व था अव परिपक्व युवा स्वम को बोल रकता हु।यहां कितने रिश्ते बने किन्तु विक्षेदन एक भी न हुआ।इन वर्षो में होस्टल से भीगती सड़के देखने का एक अपना अनुभव था।रेस्टोरेंटस् पर प्रेमयुगलो का लड़ना,बिछड़ना,और फिर आरोप-प्रत्यारोप तक देखा....शराव में डूवी शाम भी देखि तो इहलीला समाप्त करते विद्यार्थी भी देखे ।

कभी-कभी बो अदृश्यक भी समक्ष देखा जो सम्भवतः स्वम को चिकोटी काट के भी यकीन न हो .....!
यहां सेकड़ो 'पंक्षी पेठे' की नकली दुकाने भी देखि तो 10 रूपये घर-घर फेरी करके चेन लगाते उस युवा को देखा जो उदरपूर्ति के लिए मीलो पैदल भागता था और शाम देशी के भवके से थकान उतारता था।यहां बो बन्दर भी देखा जो हक से रोटी खाकर ही जाता था और बो स्वान भी देखा जो क्षुदा हेतु कितनी ही बार मेरी पतलून पर अपने पंजो से निशान छोड़ता था ।
पूरी एक टोली के साथ टिपिन साझा करने का अनुभव तो जेसे मन-मयूर को नृत्य करने पर ला खड़ा करता था ।

न जाने कितनी मधुर यादो का संगम रहा आगरा में और आज सब शनै-शनै पीछे छूट रहा।साथ छूट रहा था नया साथ जुड़ने की कल्पनायें कैसा अद्भुत संगम रच रही थी जेसे मष्टक पर एक बून्द उष्ण तो एक बून्द शीत धीमे से ढलक जाती हो .......

खैर,
आगरा मेरी जन्मस्थली तुमसे मेरा रिश्ता तो अटूट हे किन्तु क्या करू सिर्फ इश्क के सहारे गृहस्थी नहीं चलती न ....तो अलविदा आगरा......अलविदा आगरा..!!

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जितेंद्र सिंह तोमर'५२से'
24/01/2019

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

यह चम्बल का असर हे

       ©®
     ===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
 
"चंबल" मध्य भारत के बीच बहती एक खूबसूरत नदी।तीन राज्यों के बीच बहती हुई ये नदी 900 किलोमीटर का रास्ता तय करती हुई यमुना में मिल जाती है। लेकिन नदी की लंबाई से ज्यादा लंबी है इसकी कहानी.....नदी के सफर से लंबा है इसके किस्सों का सफर। नदी के पानी से ज्यादा चर्चित नदी के पानी की तासीर चंबल  घाटी की कहानी देश के हर हिस्से में पढ़ी और सुनी जाती है !

 चंबल की कहानी नदी के साथ दौड़ते इन टीलो और जंगली झाडियों, घने पेड़ों और गहरे खारो  की कहानी है। ये चंबल है और ये चंबल की घाटी है !
 
 चंबल की कहानी चंबल जितनी ही पुरानी किन्तु उतनी ही पुरानी हे यहाँ की मर्यादित-दुस्मनिया जो पुरुष में होती हे,माँ-बेटी,बहु चाहे दुश्मन की ही क्यों न हो दुश्मन के लिए भी "माँ आदिशक्ति" का स्वरूप होती हे ।
यहाँ के कण-कण में रक्त उबाल मारता हे।चम्बलरज का एक कण गौर तो एक श्याम वर्ण होता हे।बुजुर्ग कहते हे की यह रज बृजभान दुलारी और कृष्ण के पावन स्नेह से सिंचित हे किन्तु "माँ द्रोपदी अभिशाप" से कुछ स्वाभाविक उज्जर हे ।

यहाँ के युवा सिपाही का रक्त जब सीमाओ पर गिरता हे....'सर्वत्र विजय' का जयघोस बनता हे! सत्ता से दुश्मनी का सफर नदी के सफर जितना ही पुराना है।पिंडारियों, ठगों, बागियों और डाकूओं तक का ये सफर जिनता खौंफनाक है उतना ही दर्दनाक भी है। चंबल के इन टीलों में सदियों से इंसानों की चींखें दफन है तो इनमें दफन है खूंखार, और दुर्दांत इंसानों की दास्ताने। कभी ठग, कभी पिंडारी, कभी बागी तो कभी डाकू बस नाम और गांव बदलते रहे कहानियां नहीं.......!

कुछ लोगो को लगता है कि चंबल का पानी ही ऐसा है।लेकिन बात ऐसी भी नहीं है। चंबल शुरू होती है मध्यप्रदेश के महु जिले से लेकिन एक लंबे रास्ते में उसके आपपास के लोगो को इसके पानी से बगावत बाली उर्वरक प्रणाली की खाद नहीं मिलती है..... जाने क्या हो जाता है इस पानी में जैसे ही ये राजस्थान के धौलपुर से घुसकर इस इलाके में बहने लगती है।पानी जैसे बगावत के तेजाब में बदल जाता है।और पानी की इस बदली तासीर की गवाही कोई एक दो दस नहीं बल्कि सदियों की कहानियां देती है ।
नदी के एक और राजस्थान तो दूसरी और मध्यप्रदेश.....एक और मध्यप्रदेश तो दूसरी और उत्तरप्रदेश....!!! और इस हजारो किलोमीटर के इलाके में हर तरफ बागी और डाकूओं के किस्से ।
 
चंबल के इन्हीं किस्सों, कहानियों के बीच छिपे सच को सामने लाये अलाव पर बेठे बुजुर्ग और उनकी अनुभवी वार्ता को शब्द दिए 'हम सब'। किस्सों के बीच दर्द और दुस्साहस के किस्सों के बीच के ताने-बाने को आपके सामने लाने का अदना प्रयास आपका अपना  "जितेन्द्र सिंह तोमर -५२से" करता रहता है।
मानसिंह, डोंगर, बटरी , रूपा महाराज, लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का, लाखन, अमृतलाल , मोहर सिंह, मलखान सिंह और ......और ... और । ये एक अतंहीन फेहरिस्त है। जो कहां से शुरू होती है और कहां खत्म होगी ठीक से कोई नहीं बता सकता है। चंबल की रूखी पहा़डियों में बंदूकों और बारूद की गंध के बीच में सिर्फ आदमियों की क्रूरता के किस्से ही नहीं है बल्कि इसकी घाटियों ने महिला डकैतों की एक परंपरा देखी है। बागियों के दलो में भले ही किसी महिला को शामिल न किया जाता हो लेकिन चंबल में एक ऐसी प्रेम कहानी भी पनपी जिससे जनमी चंबल के किस्सों की सबसे पहली महिला डाकू पुतलीबाई और एक हाथ से निशाना लगाने में मशहूर पुतलीबाई से चंबल में गूंजी महिला डकैतों की बंदूकों को फूलन, कुसुमा नाईन, और सीमा परिहार जैसी महिला डकैतों ने संभाले रखा ।

चंबल की कहानी पुराणों में महाभारत काल तक पहुंचती है। तो इतिहास में पृथ्वीराज चौहान के शासन में पनपे इस इलाके के बागियों तक जाती है।। सदियों तक इस इलाके से गुजरने वाले यात्रियों को पिंडारियों और ठगो ने मौत बांटी है।ठगो ने अपने आतंक से इस इलाके को इतना दहला दिया था कि अंग्रेजों ने बाकायदा आदेश जारी कर दिया था कि गिरफ्तार किए गए ठग को उसी के गांव में सरेआम फांसी दे दी जाए और उसके परिवार को गुलाम बना लिया जाए ...!
ठगों की कहानी तो ब्रिटिश राज में ही खत्म हो गई लेकिन ठगो की जगह चंबल के बीहड़ो में एक नया शब्द गूंजने लगा और ये शब्द था "बागी"......!
19वीं सदी से चंबल में बागियों की बंदूकें गरजने लगी।  और बागियों से शुरू हुआ सफर चंबल के मौजूदा डाकूओं तक जा पहुंचा। लेकिन सफर के साथ किस्सों में दिलचस्पी बढती जाती है।चंबल का ये सफर इतना किस्सागोई से भरा है कि कई बार किस्सों और हकीकत में अंतर करना मुश्किल हो जाता है....!!
'चम्बल नीर' का असर देखिये चम्बल किस्सों को बुनने बाला पुनः मिटटी की महक महसूस करता हूँ और एकाएक सुचना पर पुनः चंबल में सरप्रथम 'चम्बल' ही लिखता हूँ.....!

तो स्टेट्युण्ड बिथ "चम्बल एक सिंह अवलोकन"....
"गोली-बोली,केशरिया होली,हमजोली-बन्दूक पे रोली" बाकी हे मेरे दोस्त .....

🙏जय माँ भवानी🙏

गुरुवार, 10 जनवरी 2019

लफ्ज़-ए-बिस्मिल

#म्हारी_धरोहर।।।

खून में बसती जिसके ज्वाला धर्म पे जान गवांते है।
वो सूरवीर रणबांकुर क्षत्रिय ओ राजपूत कहलाते है।।

नमस्कार है उन कोखों को जिनमे राणा से थे वीर पले।
नमस्कार है उस धरती को जिसपे पृथ्वी जैसे धीर चले।।

थर थर कंपती थी धरती और व्योम बड़ा थर्राता था।
राणा सांगा चढ़ घोड़े पर जब अपना शौर्य दिखाता था।।

महासती माँ पद्मा सी जो अनल सुधा को पीतीं थी।
अपने इतिहासों से परिचित वे स्वाभिमान से जीतीं थी।।

स्वामिभक्ति ओर राष्ट्रभक्ति का क्षत्रिय एक पर्याय बना।
गोरा बादल की गाथाओ से रजपुताना इतिहास भरा।।

गौरी भी हारा था खिलजी भी हारा था गजनी ने मुँह की खाई थी।
जब भी शाका करने निकले वीरों की शमशीरें लहराई थी।।

भूल नही जाना तुम बंधु जयमल फत्ते की कुर्बानी।
राम सिंह और अमर सिंह की आधी रही जवानी ।।

भूल नही जाना तुम बंधु #बिस्मिल_तोमर की कुर्बानी।
रोशन सिंह और कुंवर सिंह फिर झांसी वाली रानी।।

भूल नही तुम जाना बंधु चम्बल के वीर जवानों को।
रण में जिनने धूल चटाई नरभक्षी काले श्वानों को।।

भूल नही तुम जाना बंधु #कोन्थर के वीर किसानों को।
अंग्रेज सिंधिया की तोपों से खाली हुए किनारों को ।।

भूल नही तुम जाना मित्रों #तरसमा के वीर शहीदों को।
पदचापों से ही मार गिराया लाश नोंचते गिद्धों को ।।

भूल नही तुम जाना मित्रों #छोटी_कोन्थर के चौदह शेरों को।
द्वितीय विश्व युद्ध मे जो लगा गए दुश्मन की लाशों के ढेरों को।।

भूल नही तुम जाना बंधु इस #अनुज सिंह की रचना को।
चम्बल माटी  विश्वमणि हो हर चम्बलवासी का सपना हो।।।

कुँ.अनुज सुमन सिंह तरसमा (बिस्मिल)
9713086007।।।।

लफ्ज़-ए-बिस्मिल

बूंद बूंद बही रक्त की रक्तिम बरसा सावन था।
सदा कटाया सर जब भी गरजा नैतिकता का रावण था।

क्यों महाराणा की गाथा आज किताबों से हट जाती है।
क्यो रजपूती तलवारें शक्कर के भावों में बिक जाती है।

आज जयचंद हमारे गद्दारो के समदार बने।
महाराज भारमल अकबर के जाने कैसे नातेदार बने।

अनंगपाल को ना जाने कब, कौन सामने लाएगा।
#बिस्मिल था क्षत्रिय का बेटा, आगामी पीढ़ी को कौन बताएगा।।

कौन बताएगा वो गड़ी हुई वो कोन्थर की करुण कहानी।
जिसमे घर घर थी विधवाएं ओर रक्तिम हुई जवानी।

अरे कैसे सीखें ये शावक अपने शेरो के हमलों को।
ये तो सत्य समझ बैठे उन फिरदौसी जुमलो को।

अरे कोई तो नानी दादी की कहानी फिर से शुरू करो।
अरे कोई तो सोना बाबू से क्षत्राणी का उदय करो।

परितोष ताऊ में जीवन आप सभी का आभारी हूँ।
बिस्मिल नाम मिला है ओर में माँ चम्बल का ऋणधारी हूँ।

आप बताओ इतिहास हमारा हम जगजाहिर कर देंगे जी।
एक बार वह विजय पताका समस्त विश्व पर रख देंगे जी।।

कुंवर अनुज सुमन सिंह तोमर तरसमा (बिस्मिल)..
.9713086007

आदरणीय ताऊ जी को समर्पित।।।।

रविवार, 6 जनवरी 2019

यादो में रेडियो

==रेडियो 'प्रसार भारती'==
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कुछ वर्षो पूर्व बचपन की सुहानी यादो बाली 'चवन्नी' प्रचलन से बाहर हुई थी,मानो दादाजी-नाना जी की जेव से मिलने बाला बो स्नेहमाध्यम हमसे छीन लिया गया था ।
कभी-कभी मूल्य नहीं देयस्नेह से जुडी स्मरणिकाये बहुमूल्य होती हे।और ऐसा कुछ अभी कल भी गुजरा जब प्रसारभारती के "आकाशवाणी" की मधुर ध्वनि खामोस होने की बात विदित हुई ।
बम्बई और कोलकाता में दो निजी ट्रांसमीटरों द्वारा सन 1927 को जब ब्रितानी काल में इसकी नीव रखी गयी थी।तो कोई नहीं जानता था कि मनुष्य जीवन की तरह इसका भी हाल होगा ।
एक समय रेडियो का अपना जलवा हुआ करता था किन्तु "'योवन' में ठहराव हो सकता चिरस्थायित्व नहीं।" बाली कहावत इस सप्तरंगी श्रवण माध्यम पर भी लागू हो गयी और अपनी लगभग 82 वर्षीय अवस्था केसाथ (8 जून 1936 से) अपनी 430 प्रसारण केंद्रीय,23 भाषाओ,नजदीकी 92% देशो की पहुच और देशव्यापी 99.12 ℅ बाला "बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय" माध्यम विदा ले गया ।

भोर ही भोर "वन्देमातरम" की वन्दना से "रामचरित मानस" तक स्वर लहरिया एकाएक बन्द हो गयी।कितने ही आवाज की दुनिया के सितारों से यु बिछड़ना हो गया!'आल इण्डिया रेडियो की उर्दू सेवा"बाले रियाज खान जी की वो खरखराती आवाज से जब दोपहर में 01:40 बजे सुनाई पड़ता था,"कार्यक्रम जवानो के लिए" जो जेसे 'बारम्बारता' वाई सुई यथास्थान जड़वत हो जाती थी ..!
अमीन सयानी और विविधभारती की युगलता को कोन भूल सकता हे।जब नगमो में नगीना खोजना 'विनाका गीतमाला' से खोजा जाता था ।
विविध भारती के 'हवामहल' में अगर आपने "जयपुर बाली ट्रेन" हास्यनाटक नहीं सूना तो शायद आप आज की 'बुद्धुबक्स' बाली भोंडी नँगयी बाली डेली शो पर हंस सकते हो ।

रेडियो से मेरा सम्बन्ध उस समय हुआ था जब करीव 7 वर्ष का होऊंगा।पिताजी के साथ बीबीसी रेडियो  और विविधभारती सुनना जेसे आज की शोशल एक्टिविटीज की तरह ही निरन्तर था।गुजरे समय में भैया-भावी द्वारा जन्मदिवस पर भेंट मिला फिलिप्स का 3बेंड बाला छुटकू रेडियो जेसे उन दिनों अपना सच्चा साथी हुआ करता था ।

एक सुखद और स्वस्थ मनोरंजन के साथ बीबीसी का "विज्ञान और विकाश" कोतूहल पैदा करता था तो विश्वविद्यालयी दिवसो में क्रिकेट कमेंट्री सुनने का जमघट भी हुआ करता था..!
'विनीत गर्ग-प्रकाश वांगड़ेकर'   कमेंटेटर जेसे स्वरों से दृश्यचित्र और वाल दर बढ़ती हृदयगति को रोक देते थे ।

समय बदला...! प्रसारण-मनोरंजन,संचार क्षेत्र में टीव्ही(बुद्धुबक्स) के कई चैनल और 'कुतका' से बदलते कार्यक्रमों ने 'एक बाल मित्र' से दुरिया बढ़ा दी ....किन्तु इंटरनेट और 2 जी बेंड पर भी चलती 'प्रसारभारती' एप से कल तक जुड़ा हुआ था।फिर चाहे आप मुझे "ओल्ड थिंकिंग वॉय" कहो या 'ओल्ड इज गोल्ड' ...!

आकाशवाणी और उसके 5 प्रशिक्षण केन्द्रो का बन्द होना हम सभी लापरवाही ही हे।क्यों की हमारे Jitendra दादा ने कल ही कहा था की "सुनता ही कौन हे!"
वास्तविकता में हम 'प्रसार भारती नहीं 82 वर्षीय "बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय" बाली एक बुजुर्ग की दिग्दर्शक - मार्गदर्शिका को खो बेठे .....

बचपन की यादो बाली चवन्नी और किशोर-युवा वय बाली "आकाशवाणी" आप बहुत याद आओगी।फिर दिवाली पर पुनः नजर आये छुटकू 'फिलिप्स' को देख  आँखे सजल हुई हो अथवा चवन्नी बाली 'चटर-पटर'पर जंग लगी हुई मिली स्वर्णिम यादे पुनः दृस्तिपटल पर सचित्र हुई हो .....

अलविदा ........
"बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय!"
प्रसार-भारती.....
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जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...