अब तुम रूठते नहीं
अब तुम रूठते नहीं हो.....
और मैं मनाता नहीं,
तुम तोड़ते नही
मैं भी अब रेत के घरोंदें बनाता नहीं।
वक्त था गुजर गया
एक भी लम्हा वापस आता नहीं।
इस रात से उस रात तक
लड़ने की बातेंजाग-जाग कर।
चांद के सहारे छोटी छोटी सी
मुलाकातें रात भी आती है।
चांद भी दिखता हैआवारा सा
अब वो मुस्कुराता नहीं हैं।
आग थी सो बुझ गयी
राख से कोई दिया जलाता नही।
(बस यु ही कभी कभी डायरी के पन्नों से )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें