बुधवार, 27 दिसंबर 2023

कच्ची डोर (कहानी)

पावस ऋतु के प्रचंड वेग के समय एक सैनिक घनघोर जंगलों में अपनी चिर-परिचित राह से क्या भटका,जैसे दुरूह और स्याह रात की मुसलाधार वर्षा भी उससे कोई पुराने परिबाद का बदला लेने पर उतारू हो चुकी थी।

सर्द मेघ की बूंदों ने सैनिक की तमाम अस्थियों के मेरूरज्जु तक शीत पहुँचा दी थी। किन्तु राह भटका पथिक चलता रहा-चलता रहा और शीत व क्षुदा से त्रस्त होकर कोई आश्रय तलाशने लगा।


चंहुओर तलाश करने पर भी उसको कंही भी कोई आशा किरण नजर नही आई तो एक विशाल वटवृक्ष पर चढ़कर जीवन बचने की आशा में ,दूर तक देखकर कोई आशा की किरण खोजने लगा।कंही दूर से उसको एक आलोक होता दिखा तो मरा हुआ साहस पुनः जागृत हो उठा।


तड़ित  प्रकाश में वह एक मनोरम कुटिया में बिखरी डिभरी की आभा में गृहस्वामिनी तरुणी को देख ठिठक गया।फूलती सांस,सतत होती शारीरिक ऊर्जा क्षय और कांपते जिगर से आश्रय पाकर भी निराश्रित सा लोटने को उध्दृत हो उठा। किन्तु तरुणी की तीक्ष्ण दृष्टि व बादलों में कड़कती तड़ित के आलोक से वह न बच सका।

तरुणी ने कहा कि देखो इस घनघोर बहित्काल में मेरे आश्रय तो ले सकते हो किन्तु मेरे पिता-माता ननिहाल गए तो मुझे तुम्हारे कारण मेरे शील मर्यादा का भय न  हो !

वह बलबीर द्रवित हो उठा...!

'भद्रे!,में एक क्षत्रिय हूँ और शील-मर्यादा,धर्म की रक्षा मेरे लिए इस जीवन से अधिक प्रिय है। में बाहर औलाती के सहारे प्रहरी बनकर बैठा रहूंगा।''किन्तु!तुम्हे कोई क्षति नही आने दूंगा!!'

तरुणी आश्वस्त हुई और कुटी के पट से परेह हटकर आगन्तुक को अंदर आने की क्रियात्मक स्वीकृति दी ।

प्रायः ऐसा ही होता है,की आश्रय मिल जाये तो क्षुदा आग्रह भी मेजबान के समक्ष प्रस्तुत करना ही पड़ता है।और आगन्तुक भी आमंत्रित से बरबस ही बोल पड़ा।

'कृपया कुछ क्षुदा निवारण हेतु उपलब्ध हो तो मेरी प्राण रक्षा कीजिये,चार घड़ी से इस निर्जन में भटक रहा हूँ।'

तरुणी द्वारा सैनिक को कुछ सत्तू व कन्द इत्यादि खिलाकर तृप्त किया और अपने लिए जमीन पर बिछावन करने लगी। 

इस बरसात में चलती तेज वायु और सतत धरा की शीतलता में शयन  की सोच सैनिक बरबस ही बोल उठा।"

देवि!आप इस चारपाई पर शयन करिये में सैनिक हूं और इस भूमि पर शयन करने का अभ्यस्त भी हुँ।,कृपया आप चारपाई ग्रहण करिये। में बड़े आराम से सो लूंगा!"

तरुणी ने भृकुटि तानी और थोड़े से बनाबटी गुस्से के साथ बोली..."अतिथि को भूमि पर और स्वयं सुलाकर,में आतिथ्य सत्कार में हुई चूक की हकदार क्यों बनूगी ?"

दोनो और से "आप-आप" होते-होते एक शायिका पर दोनों के मध्य एक कच्ची सूत की डोर की मर्यादा बांध दी गयी और दोनों अपनी-अपनी करबट सोने का प्रयास करने लगे।

भोर में लड़की पहले जागी और बोलने लगी.....

"तुमने कितने समुहे रिक्त करके युद्ध किये हैं..?"

सैनिक -भद्रे इस जीवन काल मे सैकड़ों युद्ध किये और कभी पराजित नही हुआ हूँ,एक-एक दुश्मन के ओहदों पर अपनी ढाल और सिरोही की धमक से धावे पर धावा बोला है।"


प्रतिउत्तर में तरुणी रक्तिम आंखे और खा लेने बाली नजरों में से देखते हुये बोली...

"चल नामर्द,झूठे...इससे पहले की तुझपर शीलभंग का आरोप लगाकर तुझे मरबा दूँ।निकल जा इधर से ..!!"

"रात में एक यौवना तरुणी की धधक शांत करने के लिए तुझसे एक कच्चे सूत की डोर तो लांघी नही जा सकी।बड़ा आया युद्ध जीतने-पराक्रम दिखाने की बाते बनाने बाला।"

"जा. !ओझल हो जा,जो एक स्त्री के मन की बात और बाह्य दिखावे को नही समझ सकता।उससे सौर्य की बातें शोभा नही देती!!"

मेने,तुझे...

आश्रय किसी पथिक को आतिथ्य सत्कार के लिए ही नही,वरन स्वयं की आवश्यकता के लिए दिया था।एक डोर तो टूटी नही,किसी की सैया क्या तोड़ पायेगा..पौरुष हीन।


सैनिक ..किंकर्तव्य विमूढ़ होकर सिर धुनने लगा कि,आखिर उससे चूक अपना धर्म निर्वहन करके हुई अथवा अधर्म न करके...!!

वह पहली बार जीवन मे धर्म निर्वहन करके सात्विक रहकर,शौष्ठव शरीर होकर भी स्वयं को पौरुषहीन अनुभूत करता हुआ।धराशायी पगों से अपनी पगडंडी को चलता बना ।

आखिर चूक कहाँ हुई.. ??

सोमवार, 27 नवंबर 2023

चार वर्ष ♥️🥰

सुना है..!
तुम बहुत दूर जाने बाले हो,अपनो से कहीं विस्तृत होकर,नया सम्बोधन लेकर,विरक्त से होकर अपनी शास्वत दुनियाँ में पदार्पण करने...जैसा कि हर कोई एक स्वप्न में सजा के रखा करता है।
अब वह तुम्हारा मेरे से तमाम प्रश्न रखना और अनायास ही चिंतित होकर लताड़ना कदाचित ही हो पायेगा।शायद ही वह दिव्य ध्वनियों से अभिगुंजित होती स्वर सरिता पुनः अपने कर्णों के माध्यम पुनः अपने मन मस्तिष्क में लहरा सकूंगा !

में नही जानता कि हम किसको-कितना स्मरण रख पायेंगे,किन्तु जब-जब यारी-दुनियादारी,ईमानदारी व परस्पर स्वभावों की तुलना करने की बारी आएगी...मुझे-तुम्हारी और शायद तुम्हे भी मेरी सूरत।उजली न सही,धुंधली तो अवश्य याद आएगी न?
क्या तुम्हें याद रहेगा,मेरा तुम्हारे ओजस्वी चौड़े भाल पर संस्कृति की बिंदी के लिए बाध्य कर देना?और तुम्हारा मुझे "प्राचीन खड़ूस बुढ़ऊ दोस्त " कहकर 'बिंदी' स्वीकार कर लेना  ।
 
सच कहुँ यार...!!
मेरे 'शब्द' तुम्हारे स्वर के बिना बहुत नीरस हो चुके हैं,प्रायः अब वह लिखने की अकुलाहट व मेरी सदैव की टंकण त्रुटि पर तुम्हारी झल्लाहट का न होना बहुत खलेगा।बहुत याद आएगा तुम्हारा शब्दों में प्राण सजीव करने का अद्भुत सामर्थ्य।पर मेरे सामर्थ्य से तुम बहुत दूर अपने स्वर्णिम सपनो में सदैव गतिमान रहना। प्रायः इस संसार की गति में आकर सबको अपनी गति पकड़नी होती है ।

हम प्रत्यक्षय कभी भेंट नही कर सके,कभी तुम्हारे आग्रह पर में उपलब्ध नही हो सका तो कभी मेरे आग्रह पर तुम।शायद कुछ आत्मीय बंधन बनते ही इस लिये हैं कि,उनकी रिक्तियां सदैव भावाव्यक्तियों से कहीं सर्वोच्य होकर सदैव चिर स्मृतियों में स्थायित्व प्रदान करके स्मरण की जा सकें ।

सम्भवतः यह मेरा तुम्हारे लिए लिखा पहला और अन्तिम भावासक्त विदाई भाव हो।क्यों कि तुम्हारे को संस्कारस्वरूप प्राप्त हुए।नूतन जीवनशैली,नूतन उत्तरदायित्व एवं नवनूतन भावप्रवणता मुझे भावरहित होने पर बाध्य कर देती है।

लोग कहते हैं कि,एक समय अंतराल उपरांत हर कोई अपनी स्मृतियों को विस्मृत कर देता है।किन्तु में बिलुप्त होती उस मानव सभ्यता का प्राणी ठहरा जो अपनी जीवनी को बड़े समीप से चलचित्रित होते प्रायः देखा करता हुँ।अपनी इसी विप्लब क्षमता के कारण कितनी ही बार स्वयं के द्वारा ठगा जाता हूँ ।
मुझे विदित नही कि लोग क्या समझेंगे?
सम्भवतः स्नेह से अनुरिक्त करके जोड़े।जैसा की आम अवधारणा पूर्व से निहित है। किन्तु यह स्नेह की भावना उस आम जनमानस की भावना से कहीं सो कोटि सर्वदा प्रथक है ।
यार!!
तुम न,मेरी जिन्दगी के वह अभिसिंचित अमूल्य धरोहर थे,जो कभी न कभी उसके धारक को दिव्य रश्मो के साथ देने ही थे।
माँ भगवती तुम्हारे पावन आँचल में सदैव उन्नति-प्रगति व बात्सल्य की दिव्य 'रश्मियां' सदैव पल्लवित रखे ।
तुम जिधर जाओ उधर मधुर श्रवनमाष की दिव्य सुसंस्कृतिया सदैव 'अभिगुंजित' होकर गुंजार करती रहे ।

सदैव प्रशन्न व आनन्दित रहकर नवजीवन की असीम शुभकामनायें प्रिय ...!!
सुखद विदाई,अँकवार स्नेह ...अलविदा !!

सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

डाक दिवस

#डाक_तार

पता नही कि खुद के पते पर आई अन्तिम डाक की अन्तिम तिथि क्या थी..??
अब तो अपनी खाकी गणवेश में सायकल से डाक लाने बाले छुट्टे चाचा का चेहरा भी ढंग से याद नही है।याद तो बस रह गया है,कि मेरी उन तमाम जी गयी जिंदगियों की अक्स सिहाईयों के माध्यम से भरी डायरियों में सबके डाक व्यवहार की एक छोटी-छोटी स्मर्णीका!प्रथम भेंट,प्रथम सन्देश की एक छोटी सी पुर्जी को मैने अपनी जीवन की उन अमूल्य थातियों के रूप में संजों रखा है ।

आज  उन सबके पत्राचार का सूत्र मैंने अपने पास संजो रखा है,जिनका मुझसे तनिक सा भी सम्पर्क कभी रहा हो..!पता नही क्यों आज भी उन पत्र व्यवहारी पतों को क्यों सतत फेहरिस्त में जोड़े जाता हूँ?
जबकि मुझे पता है कि कभी किसी को पत्र व्यवहार के माध्यम से वह अमूल्य भाव भेंट नही कर पाऊंगा।जिस भाव से डायरी के पेजों को नीलवर्णों से सजा लेता हूँ।

अब न शब्दों की सारंगी दुनिया में , "थोड़ा लिखो अधिक समझों...आप अधिक समझदार हो!"
समझने बाले लोग बचे हैं,और ना ही खतों-खतूत की दुनिया के वह प्रतिक्षिक लोग ...!!

बचा है बस...चंद अल्फाजों में सिकुड़ती दुनिया का खत्म हुआ बजूद!जो कभी खतों को भी सिकोड़कर-सहेजकर रख लिया करती थी..!

पता नही...! किस पते पर...?
किस नायक-नायिका,पिता-पुत्र,बहिन-भाई,पूत-माई,सखा-सम्बन्धी,देवर-भौजाई का आखिरी खत तन्मयता के साथ नयनो में नमी लेकर बाँचा अथवा पढ़कर सुनाया गया होगा ...!!

जगजीत सिंह जी के 'चिट्ठी न कोई सन्देश'  से लेकर  सोनू निगम-रूपकुमार राठौर के " संदेशे आते हैं .." और पंकज उदास की "चिट्ठी आई है,आई है..!" 
एक नम आंखों की दास्तान है,जो एकात्म हुए भावों के भंवर में बरवस पाशवित कर ही लेती है ।

आज कुछ खतों पर समय की मार के कारण तह की हुई यादों का रंग हल्का पीला सा पड़कर भी कितना सजीव सा है..!
इस दुनिया को भले ही हम असीमित भावों को लेकर अपनो आप को  'पोस्टकार्ड' की तरह पेश करें.....किन्तु चहुँ ओर से बन्द 'अन्तर्देशीय' से चित्त हो ही जाते हैं ।

खैर चलो...!
खतों-खतूत की दुनिया की तरह ही इस दुनिया का भी पराभव होना सुनिश्चित है।पोस्टकार्ड हो या अन्तर्देशीय एक दिन सबके लिखे हर्फ सनै-सनै समझ आ जाते हैं ।

हाँ याद आया ... !!!!!
डाक आती तो है.. ..! बहिना की राखी लेकर किन्तु उसमे भी वह शब्दों का संजोये जाना बाला 'इंद्रजाल' नही पढ़ने को मिलता .....!!!
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विश्व डाक दिवस है आज....♥️

"क़ासिद तेरी हड़ताल पे, कुर्बान जाइये;
वो आ गये हैं खुद, मेंरे खत के जबाब में।"

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जितेंद्र सिंह तौमर '५२से' 
चम्बल मुरैना मप्र.

बुधवार, 4 अक्टूबर 2023

यादों का इडियट बॉक्स 2

गाँव में महीनो बाद आने पर दिखाई देती है मेरी मातृभूमि! धानी चुनरिया ओढे दुलार देती हुयी सी!!अपने शावक को अंक में लेकर दुलारने को आतुर नयन देख बरबस ही यह नयन भी सजल हो उठते हैं..।

बाजरे की बालियों का रंग जैसे चाँदी की जरिकारी किये हुए लहराता हुआ किसी का आँचल,कहीं कनखियों से निहारकर आलम्बन कि प्रतीक्षा में न जाने कितने समय की दूरियों का शिकवा-गिला जताकर अभी फफक पड़ेगा..!

 अभी-अभी दुग्ध कटोरा देते हुए बो लाल चूड़ियों से भरा हाथ,अपने चेहरे पर आई ,आधी धवल हो चुकी लटों को..लाल देख हटाना भूल चुका है। अभी दुलार से माथे पर सहलाते हुए कहेगा कि,
 "कितना दुबला हो गया है रे तू ...?

"कुछ खाता भी है वहाँ ,जा मात्र जोड़ने-जोड़ने  की ही  सोचता है ??"

" ले ये तेरा पसंदीदा मीठा दूध ,जब तक रुका है, छक के पी ।आज देर से क्यों आया..तनिक जल्दी आ जाता तो तेरे पसन्द की खीर न बना लेती...!"

खाना खिलाते माँ प्रायः सदा की भांति अपनी पढ़ाई भूल जाती है,चार की संख्या उन्हें दो नजर आती है ।
ना-नुकुर करने पर डपट देती है
 "अभी खाया ही क्या जो इतरा रहा है ?,क्या तुझे माँ से बेहतर कोई खाना खिलाने बाला भा रहा है !"

"चल झट बात करा ...देखु-सुनु-समझु तेरे व्यक्तित्व के अर्द्धभाग को!,अगर जरा चूक हुई तो क्या कोसूँगी बाद अपने भाग को ..!"

 लाडले की लजाती नजर को अनदेखा करके खीर का कटोरा भर देती है,दोनों हथेलियो के मध्य बत्सलता का सूर्य सन्मुख कर लाडले की थाली कचौड़ियों से भर देती है...!
समझ नही पाता हूँ...!!!
खाते-खाते जड़वत होकर सोच उठता हुँ....!!!!
पहले इस स्नेह-बात्सल्यता के प्रतीक स्नेहसागर के दर्श के नयन अघाउँ या उन नयनो के आदेश पर इस उदर को अघाउँ...!!!!!

पुरवाई भी क्या खूब मन महक से भरती है।जब शिवालय में मधुर शंखझालर बजती है न,मन मयुर एकाकी जीवन में बिताये एकाकी क्षद्म स्वांतन्त्र के नीरस पलो को धिक्कारता है।
आ अब लौट चले सुवर्ण माटी की महक में  मुझे मेरा गाँव पुकारता है ।

फिर अवकाश खत्म होने का भय पुरजोर स्मरण आ रहा है।कुछ घण्टों अथवा प्रहरों का ही तो समय शेष बचा है...!इन शेष प्रहरों में उन पेड़ों की शाखाओं पर गोदकर उकेरे हुये,खोटियों के साथ झड़ते हुये,अपने नामों को देखकर आह भर लूं....!या उन पुराने घरों का एक चक्कर लगा लूं...जहां न जाने कितनी शैतानियों की गवाह दीवारों में आज इश्क की महक नमी पाकर तेजी से पुकारती प्रतीत होती है।

क्या निकल लूँ...?
उन विश्वविद्यालयी दिवसों के सतरंगी सपनो के सागर किनारे,जहां एक रेडियोसेट की सरसराती फ्रीक्वेंसी उसके पसन्द के गीत को बरबस ही उसकी याद में ले जाया करती थी।
या उन काल्पनिक परछाइयों के बढ़ते-कम होते कदों के साथ,उसका अक्स उकेरने की तमन्ना पूरी कर लूं..!!

कभी-कभी प्रतीत होता है कि,में बड़े होने की मरीचिका में कितना कुछ अपना ...उन दरख्तों पे गोद डाले गए नामों और समय के साथ उखड़ति खोटियों के माध्यम से मिटता सा अपना सब कुछ इस उन्नति की चाह में स्वतः ही मिटाकर ....कितना आगे निकल आया हूँ....!!!!!!

काश!वह व्यतीत सब कुछ एक बार पुनः त्रुटि रहित प्रारम्भ कर सकता!!
जिसका पटाक्षेप कल्पनातीत था .......।।

(7 वर्ष पूर्व की मेमोरी का अपडेट वर्जन)
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~जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'
   चम्बल मुरैना मप्र.

शनिवार, 19 अगस्त 2023

फिर से गजलें और एक बिखरा स्वप्न 😥

लोगों के अंदर कुछ और, बाहर कुछ और होता है!
दिखता है कुछ और, पर असल कुछ और होता है!

 इनके मासूम चेहरों पर न जाइये साहिबान,
इनके चेहरे पे कुछ और, दिल में कुछ और होता है!

ग़मगीन होकर सुनेंगे तुम्हारे दर्द की दास्तान ये,
मगर सामने कुछ और,पर पीछे कुछ और होता है!

सच तो ये है कि हम सब निभाते हैं यही किरदार, 
अपने लिए कुछ और, गैरों के लिए कुछ और होता है!

उपाहने पांव चलके देखा करता हुँ, नित शमशीर की धारें,
घाव पड़ते हैं -लहू बहता कंही और दर्द कहीं और होता है!

सोया हुआ मेरे हरफों का चश्मो चिराग और कहीं आज,
आह की आभा बिखेरता यहां,उजाला कहीं और होता है..!!!!!

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#अर्से_बाद_गजल_से_मुहब्बत_हुई_है

~JV•सिंह

शनिवार, 12 अगस्त 2023

शब्द श्रद्धांजलि ♥️🙏♥️

अन्तर्जाली स्मरणिका और तुम
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बो कल का दिन था!जब तुम्हे पिछले 13 वर्ष उपरांत पुनः एक बिसराई हुई कसक की तरह सहज कुरेदा था मेने। 
महसूस किया था..तुम्हारे पंचम स्वर में निहित वेदना को,रुग्णता के पलो में जो दिव्य औषधि रूपी साथ था! आज छिन्न-भिन्न सा है ।
जेसे किसी ने वर्षो से संजोये हुए मुक्तकों की मणिका को एक पल में खण्डित कर दिया हो,और में और तुम छिटक के शिखर के किसी बिबर  में पढ़कर अनन्त रसातल की यात्रा पर निकल चुके हों....!!

हम एक ऐसी यात्रा के सहभागी बनकर रह गए।जो जीवन के प्रतिभागी बनने में दो राहे से होकर निकलनी थी।तुम्हारे शब्द मूक होकर मष्तिष्क में भूचाल ला देते थे। कितना कुछ समानता का समिश्रण था, स्वर से मुखर तक पुष्प-श्रद्धा के साथ आभा का समीकरण तक।यहां तक की अंतरात्मयी ऐश्वर से धमनियों के रक्त तक का एक ही होना संयोग मात्र नहीं हो सकता था.!!!

हाँ में!!
 तुम्हारे अदृश्य एक कृतिक का आज भी उपासक हूँ, किन्तु स्मरणी चिन्हो से वंचित हूँ।क्योंकि जब हृदय में साक्षात-चिरस्थायी एक प्रतिबिम्ब हो तो स्मरणीका चिन्ह स्वयं का स्वरूप छोड़कर अनन्त में यात्राबलंबित हो जाते हैं न.....??

किन्तु अन्तर्जाली स्मृति एक वर्ष-दस वर्ष, प्रतिवर्ष अथवा उम्र रहने तक,साँस चलने तक।सहज ही कुछ न कुछ स्मरण करने को प्रतिबद्ध करते रहती है। 
कि आज १० वर्ष की स्मरण,साढ़े तीन वर्ष की स्मृति कणिका अपना अनन्त ०(शून्य) त्याज्य करके पुनः ११ (एकादस) आलंबन के लिए स्वागतातुर है ।और तुम्हारा यथेस्ट १(एक), अभीस्ट १(एक) युग्म न होकर सदैव एकाकारी ही रह गया !
शीर्ष पर लघु शून्य,मध्य में वक्रार्द्ध और तल में निम्नतम तक नींव के साथ अपना असितित्व लिए बस प्रतीक्षित सा खड़ा है । 

फिर स्वविवेक अनुसार तुम १ से लेकर ९की दहाई तक,अपने भाल को  किसी से भी अंकित करो ये एकल था।एकल की सन्तुति और एकल ही प्रतीकित होगा।।

किसी का योग बनना सम्भवतः मेरी नीयति में नहीं और दहाई रिक्त होकर भी कोई रिक्तता नहीं ..!!!!
समय हंस से उसके पखेरू कुतरकर उसकी उड़ान समाप्त कर सकता है।किंतु उसके विवेकी नीर-क्षीर पृथक करने की क्षमता को कभी समाप्त नही कर सकता  है।
संकल्पों के कभी विकल्प नही होते,विकल्पों के सदैव अनन्त संकल्प जो होते है।एकमेवता संकल्पता की शिद्धि  है,जिसके समक्ष विवेक और श्रेष्ठता की परिशिष्ठता समाप्त हो जाती है ।
कुछ अनुभूतियां आजन्म समाप्त नही होती हैं,जैसे किसी का होना-न होना।अदृश्यता में दृश्यता व भास-आभाष से मुक्त अनुभूति भी एक सजीव आभा है ।
श्रेष्ठता परिमापन की असल आजतक कोई इकाई नही बनी है,वह तो हम लोंगो की नजर है जो...लाभ-हानि से जोड़कर श्रेष्ठता व निष्ठता का स्वभाव अनुसार परिमापन किया करती है ।

 ।। श्रद्धा_पुष्प_आभा_के_स्वमेवी_एकाकी भाव के साथ,स्वयं को साक्षात भावव्यक्ति पूर्ण होने पर ..प्रथम से आज १३ वर्षीय पूर्ण होने पर बधाई के साथ श्रद्धांजलि ।।
                       🙌🌷🎭
                   ~  जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
                        चम्बल मुरैना मप्र .

शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

फूलन का आत्मसमर्पण

5 दिसंबर, 1982 की रात मोटर साइकिल पर सवार दो लोग भिंड के पास बीहड़ों की तरफ़ बढ़ रहे थे. हवा इतनी तेज़ थी कि भिंड के पुलिस अधीक्षक राजेंद्र चतुर्वेदी की कंपकपी छूट रही थी.
उन्होंने जींस के ऊपर एक जैकेट पहनी हुई थी, लेकिन वो सोच रहे थे कि उन्हें उसके ऊपर शॉल लपेट कर आना चाहिए था.
मोटर साइकिल पर उनके पीछे बैठे शख़्स का भी ठंड से बुरा हाल था. अचानक उसने उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा, 'बाएं मुड़िए.' थोड़ी देर चलने पर उन्हें हाथ में लालटेन हिलाता एक शख़्स दिखाई दिया.

वो उन्हें लालटेन से गाइड करता हुआ एक झोपड़ी के पास ले गया. जब वो अपनी मोटरसाइकिल खड़ी कर झोपड़ी में घुसे तो अंदर बात कर रहे लोग चुप हो गए.

साफ़ था कि उन लोगों ने चतुर्वेदी को पहले कभी देखा नहीं था. लेकिन उन्होंने उन्हें दाल, चपाती और भुने हुए भुट्टे खाने को दिए. उनके साथी ने कहा कि उन्हें यहां एक घंटे तक इंतज़ार करना होगा.
थोड़ी देर बाद आगे का सफ़र शुरू हुआ. मोटर साइकिल पर उनके पीछे बैठे शख़्स ने कहा, 'कंबल ले लियो महाराज.' कंबल ओढ़कर जब ये दोनों चंबल नदी की ओर जाने के लिए कच्चे रास्ते पर बढ़े तो चतुर्वेदी के लिए मोटर साइकिल पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो रहा था रास्ते में इतने गड्ढे थे कि मोटर साइकिल की गति 15 किलोमीटर प्रति घंटे से आगे नहीं बढ़ पा रही थी.
वो लोग छह किलोमीटर चले होंगे कि अचानक पीछे बैठे शख़्स ने कहा, 'रोकिए महाराज.'
वहां उन्होंने अपनी मोटर साइकिल छोड़ दी. गाइड ने टॉर्च निकाली और वो उसकी रोशनी में घने पेड़ों के पीछे बढ़ने लगे. अंतत: कई घंटों तक चलने के बाद ये दोनों लोग एक टीले के पास पहुंचे.
चतुर्वेदी ये देख कर दंग रह गए कि वहां पहले से ही आग जलाने के लिए लकड़ियाँ रखी हुई थीं. उनके साथी ने उसमें आग लगाई और वो दोनों अपने हाथ सेंकने लगे.
राजेंद्र चतुर्वेदी ने अपनी घड़ी की ओर देखा. उस समय रात के ढाई बज रहे थे. थोड़ी देर बाद उन्होंने फिर चलना शुरू किया.
अचानक उन्हें एक आवाज़ सुनाई दी, 'रुको.' एक व्यक्ति ने उनके मुंह पर टॉर्च मारी. तभी उनके साथ वहाँ तक आने वाला गाइड गायब हो गया और दूसरा शख्स उन्हें आगे का रास्ता दिखाने लगा.
वो बहुत तेज़ चल रहा था और चतुर्वेदी को उसके साथ चलने में दिक़्क़त हो रही थी. वो लगभग छह किलोमीटर चले होंगे. पौ फटने लगी थी और उन्हें बीहड़ दिखाई देने लगे थे.

राजेंद्र चतुर्वेदी याद करते हैं, ''उस जगह का नाम है खेड़न. वो टीले पर चंबल नदी के बिल्कुल किनारे है. पौ फट रही थी. हमारे साथ का आदमी आगे बढ़कर करीब 400 मीटर तक गया. उसने मुझसे कहा कि मैं ऊपर पहुंच कर आपको लाल रुमाल दिखाउंगा. जब आप यहाँ से चलना शुरू करना.''
चतुर्वेदी ने कहा, ''कुछ देर बाद उसका हिलता हुआ लाल रुमाल दिखाई दिया. मैंने धीरे-धीरे चलना शुरू किया. जब मैं टीले के ऊपर पहुंचा तो बबूल के झाड़ के पीछे से एक लंबा शख़्स बाहर निकला. उसकी शक्ल बिल्कुल जीसस क्राइस्ट से मिलती जुलती थी. उसने मान सिंह कह कर अपना परिचय कराया. उसने आगे आकर मेरे पैर छुए और मुझे आगे बढ़ने का इशारा किया.''

''तभी झाड़ से नीले रंग का बेलबॉटम और नीले ही रंग का कुर्ता पहने हुए एक महिला सामने आईं. उनके कंधे तक के बाल थे जिसे उन्होंने लाल रुमाल से बाँध रखा था. उनके कंधे से राइफ़ल लटक रही थी. उनकी शक्ल नेपाली की तरह लग रही थी. पूरी दुनिया में दस्यु संदरी के नाम से मशहूर फूलन देवी ने मेरे पैर पर पांच सौ एक रुपए रख दिए.''
चतुर्वेदी ने बात शुरू की, ''मैं आप के घर होकर आ रहा हूँ.' कब? फूलन ने झटके में पूछा. पिछले महीने, राजेंद्र चतुर्वेदी ने जवाब दिया. मुन्नी मिली? फूलन का सवाल था. राजेंद्र चतुर्वेदी ने जवाब दिया- न सिर्फ़ आपकी बहन मुन्नी बल्कि मैं आपकी मां और पिता से भी मिलकर आ रहा हूँ.
उन्होंने फूलन को पोलोरॉएड कैमरे से ली गई अपनी और उसके परिवार की तस्वीरें दिखाईं. उन्होंने ये भी कहा कि वो उनकी आवाज़ें भी टेप करके लाए हैं. जैसे ही फूलन ने टेप रिकॉर्डर पर अपनी बहन की आवाज़ सुनी, उनका सारा तनाव हवा हो गया.
अचानक फूलन ने पूछा, 'आप मुझसे क्या चाहते हैं?' चतुर्वेदी ने कहा, ''आप को मालूम है मैं यहाँ क्यों आया हूँ. हम चाहते हैं कि आप आत्मसमर्पण कर दें. इतना सुनना था कि फूलन आग बबूला हो गई. चिल्ला कर बोली, ''तुम क्या समझते हो, मैं तुम्हारे कहने भर से हथियार डाल दूँगी. मैं फूलन देवी हूँ. मैं इसी वक़्त तुम्हें गोली से उड़ा सकती हूँ.''
पुलिस अधीक्षक राजेंद्र चतुर्वेदी को लगा कि नियंत्रण उनके हाथ से जा रहा है. फूलन के रौद्र रूप को देखते हुए मान सिंह ने तनाव कम करने की कोशिश की. उसने चतुर्वेदी से कहा, आइए मैं आपको गैंग के दूसरे सदस्यों से मिलवाता हूँ. एक-एक कर मोहन सिंह, गोविंद, मेंहदी हसन, जीवन और मुन्ना को चतुर्वेदी से मिलवाया गया.
अचानक फूलन का मूड फिर ठीक हो गया. जब दोपहर हुई तो फूलन ने उनके लिए खाना बनाया. रोटी सेंकते हुए ही उन्होंने पूछा, ''अगर मैं हथियार डालती हूँ तो क्या आप मुझे फाँसी पर चढ़ा दोगे?' चतुर्वेदी ने कहा, ''हम लोग हथियार डालने वालों को फाँसी नहीं देते. अगर आप भागती हैं और पकड़ी जाती हैं तो बात दूसरी है."
फूलन ने उन्हें बाजरे की मोटी-मोटी रोटियाँ, आलू की सब्ज़ी और दाल खाने के लिए दी. चतुर्वेदी ने सोचा कि अगर वो पोलेरॉयड कैमरे से फूलन की तस्वीर खींचे तो शायद उसे अच्छा लगे. उन्होंने तस्वीर खींच कर जब उसे फूलन को दिखाया तो वो चहक कर बोलीं, ''आप तो जादू करियो.''
फूलन ने गैंग के सभी सदस्यों को चिल्ला कर बुला लिया और पोलेरॉयड कैमरे से खींची गई अपनी तस्वीर दिखाने लगीं. चतुर्वेदी वहाँ 12 घंटे रहे. उन्होंने फूलन और उनके साथियों की तस्वीर खींची.

फूलन ने उन्हे अपनी माँ के लिए एक अंगूठी दी थी जिसमें एक पत्थर हकीक लगा हुआ था. चलते-चलते फूलन के दिमाग़ ने फिर पलटी खाई. वो बोलीं, ''इस बात का क्या सबूत है कि आपको मुख्यमंत्री ने ही भेजा है.''
चतुर्वेदी याद करते हैं, ''मैंने उनसे कहा कि आप मेरे साथ अपना एक आदमी कर दीजिए. मैं उसे ख़ुद मुख्यमंत्री के पास ले जाकर उनसे मिलवाऊंगा. फूलन ने एक व्यक्ति को मेरे साथ लगा दिया.''
''शाम को हमने वहाँ से चलना शुरू किया और दो बजे रात को हम भिंड पहुंचे. मैंने तुरंत मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को फ़ोन मिलाया. वो मेरे फ़ोन का इंतज़ार कर रहे थे. मैंने सिर्फ़ इतना कहा, 'सर टू डाउन डन.''
टू डाउन हमारा कोड वर्ड था. मैंने उनसे कहा, सर मैं सुबह छह बजे ग्वालियर से दिल्ली की फ़्लाइट पकड़ रहा हूँ. मैंने फूलन के उस साथी के लिए भी टिकट ख़रीदा. इंडियन एयरलाइंस के अधिकारियों से अनुरोध किया कि हमें बिज़नेस क्लास में अपग्रेड कर दें. दिल्ली हवाई अड्डे से हम टैक्सी में बैठकर मध्य प्रदेश भवन पहुंचे.

चतुर्वेदी ने बताया, ''वहां मैंने अपने और फूलन के साथी के लिए कमरा बुक करा दिया था. अर्जुन सिंह ने अपनी दाढ़ी तक नहीं बनाई थी. वो अपने कमरे में बैठे चाँदी के गिलास में संतरे का जूस पी रहे थे. मैंने उन्हें पोलोरॉएड कैमरे से खीचीं गई फूलन की तस्वीरें दिखाईं. मैंने कहा उनके एक आदमी मेरे साथ आए हैं और मेरे कमरे में बैठे हुए हैं.''
उन्होंने फ़ौरन उन्हें बुलवा लिया. उन्होंने देखते ही अर्जुन सिंह के पैर छुए. मैंने उन्हीं के सामने उनसे कहा कि अब तो आपको विश्वास हो गया कि मुझे मुख्यमंत्री ने ही भेजा था.'
उसके बाद फूलन के उस आदमी को वापस एक गार्ड के साथ वापस फूलन के पास भिजवाया गया. एक बार अर्जुन सिंह चतुर्वेदी को ले र दिल्ली पहुंचे. उन्होंने राजीव गांधी को संदेश भिजवाया कि उनके पास उनके लिए एक अच्छी ख़बर है.
राजेंद्र चतुर्वेदी को अभी तक याद है, ''हम लोग उनसे मिलने एक, सफ़दरजंग रोड गए थे. राजीव गाँधी ने ये समाचार सुनते ही मेरे कंधे थपथपाए और हमें अंदर के कमरे में ले गए. वहां प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी गुलाबी रिम का पढ़ने का चश्मा पहने बैठी हुई थीं.''
चतुर्वेदी ने कहा, ''मैंने उन्हें देखते ही सेल्यूट किया. अर्जुन सिंह ने उनसे मेरा परिचय कराया और बोले ये आपके लिए कुछ लाए हैं. जैसे ही उन्होंने फूलन के साथ मेरी तस्वीरें देखी, वो बोलीं, 'शी इज़ नॉट वेरी गुड लुकिंग.' फिर वो बोलीं आप आगे बढ़िए. हम आपके साथ हैं.''

इस बीच राजेंद्र चतुर्वेदी की फूलन देवी से कई मुलाक़ातें हुईं. एक बार वो अपनी पत्नी और बच्चों को फूलन देवी से मिलाने ले गए. फूलन देवी अपनी आत्मकथा में लिखती हैं, ''चतुर्वेदी की पत्नी बहुत सुंदर और दयालु थीं. वो मेरे लिए शॉल, कपड़े और कुछ तोहफ़े लेकर आई थीं. वो अपने साथ घर का बना खाना भी लाई थीं. '
मैंने राजेंद्र चतुर्वेदी से पूछा कि अपनी पत्नी को फूलन के सामने ले जाने की वजह क्या थी ? उनका जवाब था, ''फूलन को दिखाना चाहता था कि मैं उन पर किस हद तक विश्वास करता हूँ. बदले में क्या वो भी मुझ पर इतना विश्वास करेंगीं? बहरहाल वो उनसे मिल कर बहुत ख़ुश हुई थीं.''
चतुर्वेदी ने फूलन से पूछा, कब समर्पण करने जा रही हैं आप? फूलन का जवाब था, ''छह दिनों के भीतर.'' चतुर्वेदी की नज़र कैलेंडर पर गई. छह दिनों बाद तारीख थी, 12 फ़रवरी 1983.
समर्पण वाले दिन फूलन ने घबराहट में कुछ नहीं खाया और न ही एक गिलास पानी तक पिया. पूरी रात वो एक सेकंड के लिए भी नहीं सो पाईं. अगली सुबह एक डॉक्टर उन्हें देखने आया. फूलन के साथी मान सिंह ने उनसे पूछा, ''फूलन को क्या तकलीफ़ है?' डाक्टर का जवाब था तनाव. इसको वो बर्दाश्त नहीं कर पा रही हैं.
कार में बैठते ही फूलन ने चतुर्वेदी से अपनी राइफ़ल वापस माँगी. चतुर्वेदी ने कहा, नहीं फूलन अपने आप को ठंडा करो. फूलन इतनी परेशान थीं कि उन्होंने चतुर्वेदी के बॉडीगार्ड से उसकी स्टेन गन छीनने की कोशिश की. उसने फूलन को समझाया कि ऐसी हिमाकत दोबारा न करें, नहीं तो चतुर्वेदी और उनकी दोनों की बहुत बदनामी होगी.
डाक बंगलों के बाथरूम में फूलन ने अपने बालों में कंघी की. अपने माथे पर लाल कपड़ा बांधा और अपने मुंह पर ठंडे पानी के छींटे मारे. पुलिस की ख़ाकी वर्दी पहन कर उसके ऊपर लाल शॉल ओढ़ी.जब वो बाहर आईं तो पुलिस वालों ने उन्हें उनकी राइफ़ल वापस कर दी. उसमें कोई गोली नहीं थी. लेकिन उनकी गोलियों की बेल्ट में सभी गोलियां सलामत थीं. वो चाहतीं तो एक सेकेंड में अपनी राइफ़ल लोड कर सकती थीं.
तभी राजेंद्र चतुर्वेदी ने अर्जुन सिंह के आगमन की घोषणा की. फूलन मंच पर चढ़ीं उन्होंने अपनी राइफ़ल कंधे से उतार कर अर्जुन सिंह के हवाले कर दी. फिर उन्होंने कारतूसों की बेल्ट उतार कर अर्जुन सिंह के हाथ में पहना दी.
बगल में खड़े एक पुलिस अफ़सर ने फूलन को इशारा किया. उसने अपने दोनों हाथ जोड़ कर माथे के ऊपर उठाया. पहले उसने अर्जुन सिंह को नमस्कार किया और फिर सामने खड़ी भीड़ को. अफ़सर ने फूलन को फूलों का एक हार दिया. फूलन ने वो हार अर्जुन सिंह के गले में पहना दिया.
जब वो ऐसा कर रही थीं तो उस अफ़सर ने उन्हें रोक कर कहा कि हार उन्हें गले में न पहना कर उनके हाथ में दिया जाए. फूलन ने सवाल किया, क्यों? अर्जुन सिंह मुस्कराए और बोले, ''उन्हें गले में हार पहनाने दीजिए.' फिर फूलन ने एक और हार उठाया और मेज़ पर रखे दुर्गा के चित्र के सामने रख दिया.....



गुरुवार, 16 मार्च 2023

रुअर की पटिया

===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
                  भाग-१०९
          ★रुअर की पटिया★    
          
बीहड़..!!!
हां वही बीहड़,जिनकी तुलना हम बीहडियो-गंवारों के लिए किसी चमत्कृत धाम से कम नही है।हम मैदानी बीहडियो के पूर्वजो की यंहा कर्मठ आभा बिखरी पड़ी है।उसी आभा से मस्तक पर अभिषेक कर हम मलेक्षों को कई बार रौंद चुके हैं।इसी बीहड़ की माटी में सिर्फ लड़ाके ही नही अपितु धर्मध्वजा के साथ-साथ सनातन आस्था के भी अकूत किस्से सुनने को मिल जाते है ।

 आज कुछ ऐसा ही किस्सा एक पाषाणकालीन शिला का जो कभी न्याय का प्रतीक हुआ करती थी,और आज भी यंहा के लोग अपनी बात की सत्यता प्रमाणित करने को इस शिला पर चलकर शपथ उठाने की बोलने से नही चूकते हैं। जो आज एक कहावत के रूप में प्रायः जुबान पर आ ही जाती है ।
"चलो रुअर की पटीआ पे कसम खाई लें!"
 
किस्सा लगभग 700-800 वर्ष पूर्व का है,अम्बाह-पिनाहट मुख्य राजमार्ग से 5 किलोमीटर उत्तर-पक्षमी बीहड़,चम्बल तलहटी की तरफ एक ग्राम स्थिति है। 'रुअर' सघन क्षत्रिय बाहुल्य आवादी का यह गांव आज सेकड़ो छोटे-छोटे मझरों(पुरों,भागों)में विभक्त हो चुका है।कालांतर में इस का बहुत नाम रहा है,फिर चाहे क्रांति में अथवा 'भडीआई'(चोरी का क्षेत्रीय नाम)में ख्यात कुख्यात रहा है। सिंधिया  रियासत काल में अगर कोई लश्कर से ऊंट-घोड़े साज-सामान चुराने का जिगर रखता था ,तो वह 'रुअर के भडीआ' ही थे।जो तात्कालीन रियासत को चुनोती देकर 'पनिहाई' (लुटे गए माल को बापस लौटाने की एवज में मिला/दिया धन)ले लिया करते थे।
इस गांव की कुछ पृकृति ही ऐसी है कि यंहा गुप्त को लुप्त होते देर नही लगती थी।इसी बीहड़िया गांव के हटी ग्रामीणों ने सिंधियाओ के 'नाक में कोड़ी' पहना रखी थी ।

ज्येष्ठ माह के दशहरे का समय था।जैसा कि प्रचलन है,हर कोई नदीस्नान अथवा पर्व को जाता है। ठिकाने से कुछ बच्चे पर्व लेने चम्बल किनारे गए,बालसुलभ जलक्रीड़ा करते-करते उनको एक शिला जल में तैरती हुई मिली...जिसे वह टनों भारी बजन की परवाह किये बिना कन्धों पर गांव तक ले आये।जब ग्रामीणों ने यह देखा कि छोटे-छोटे बालक इतना भारी पत्थर किस तरह रख लाये?सावधानी बस उन्होंने बच्चों से शिला लेनी चाही तो नही ले पाए और इसे चमत्कार ही कहिये या संयोंग दो खड़े पत्थरों पर वह शिला रख दी ,जिसे आजतक कोई टस-मस नही कर पाया है।वह अठिग शिला आज भी वंही आधी सदी से अधिक समय बाद भी अडिग है।
जैसा कि प्रचलन है,कोई भी असाधारण बात प्रायः चमत्कार से जोड़कर देखने की हम सनातनियों पृकृति रही है।अतः यह शिला आस्था का केंद्र बन गयी और इस के स्थान पर धीरे-धीरे सच-झूठ की कसमें उठाये जाने लगी। बुजुर्ग कहते हैं कि इस 'पटिया' पर जिसने भी झूठी सपथ ली उसका तत्तक्षण दुष्प्रभाव भुगतना पड़ा था। धीरे-धीरे, चलते-चलते यह स्थान इसी तरह बातो से प्रशिद्ध हुआ और कुछ जनहानि भी हुई तो ब्रिटिश कालीन 'जिला तंवरघार'  सेशन जज द्वारा इस स्थान पर कसम उठाने पर पाबन्दी लगा दी। जिससे धीरे-धीरे कसम उठाने की बात बन्द हो गयी।

आम जनश्रुति है कि शपथ लेने से पूर्व इस स्फटिक को गाय के दुग्ध से स्नान कराया जाता था।ततपश्चात अगर किसी ने मिथ्यासपथ ली तो यह स्फटिक रक्तवर्णीय होकर संकेत देती थी,अगर सपथ सच है तो शिला प्रतिक्रिया विहीन रहती थी।
यह चमत्कारी शिला आज भी उन्ही पत्थरों के आधार पर टिकी है और आस्था व जनश्रुतियों का केंद्र है।जिसपर ग्रामीणों द्वारा एक छोटा मन्दिर भी निर्मित है ।
शिला पर टँगे हुए सैकड़ों बागी/दस्युओं के बड़े-बड़े घण्टे घड़ियाल आज भी हैं,प्रतिवर्ष मेले लगतें हैं। अब लोग शपथ की सत्यता तो नही परखते किन्तु मन की मनोकामनाएं आज भी अनवरत जारी हैं।

आज भी इस शिला के पूर्वकालिक यश व सम्मति की झलक प्रचलित कहावत "में तो अपनी बात सांची साबित करबे को रुअर की पटिया पे कसम उठाए लेगों" में स्पष्ट दिखती हैं।

यह इस क्षेत्र का दुर्भाग्य है कि यंहा चम्बल में जलीय जीवों पर सेकड़ो मीडिया के कैमरे प्रायः घूमते रहते हैं।किंतु सनातन आस्था व न्याय की प्रतीक यह शिला आज भी किसी आखर अथवा चलचित्रीय धनलोलुप मीडिया के कैमरे या आर्टिकल से बाहर है।

यहाँ जब-जब कोई जवान वीरगति को प्राप्त होता है,बड़े-बड़े अधिकारी, लेते,बड़े-बड़े पेट लेकर इधर से बिना डकारे गुजर जाते रहें हैं।किन्तु न्यायिक आस्था के केंद्र से आजतक सभी का व्यवहार उपेक्षित ही रहा है ।

जय गोपाल जी की 🙏
(शिला का चित्र साभार भैया दीपक सिंह जी तोमर 'उसेद'! प्रस्तुत विवरण बुजुर्गों से सुनी बातों व प्रचलित जनश्रुतियों पर आधारित)
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जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

मेरी गजलें

ये महीना भी गया,वह साल भी गुजर जाएगा,,
रंगमंच के पर्दे से हर किरदार नजर आएगा!

घटती रहेंगी सांस-दर-सांस उम्र की नजाकते ,
सांस,सांस-साँसों का काफिला गुजर जाएगा!

राह चलते आईने में अक्स निहार गुजरी दुनिया,
एकदिन अक्स से रूह का भरम भी हट जाएगा!

वक्त ने सौगात की खुशियां हँसे-हंसकर के दिल,
वक्त बदला,ले खुशी से,ये वक्त भी निकल जाएगा!

हो सके संजों लो जिंदगी के सुनहरे पल कशिश से,
जज्बा-जज्बात और जन्नत,एक पल में पा जाएगा!

बड़ा अनुख है जिंदगी का पल ,नायाक-नालायक,
कभी सर्द कभी उष्ण बन फिर तपायेगा-सताएगा!!
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'अ'सफल

बुधवार, 18 जनवरी 2023

चम्बल एक सिंह अवलोकन भाग 108

अम्बाह कस्बे के पूठ गांव से करीब 100 मीटर पहले ही एक लगभग 500 वर्ष या उससे पुरानी जग्गा (शैवमत की उपमठ) है। यह जग्गा अपने-आप में ऐतिहासिक-प्रागेतिहासिक महत्वों के साथ-साथ श्रद्धा व सनातन साधकों जीवंत प्रमाण भी है ।
प्रथम दृष्टि में देखने पर वास्तुशिल्प व निर्मित ढांचे के अनुसार यह स्थान,लोक प्रचलित स्थापना से कंही हटकर ८०० अथवा इससे कहीं अधिक वर्ष पूर्व का प्रतीत होता है। क्योंकि इसमें और प्रतिहार कालीन ग्वालियरगढ़ वास्तुकला,वास्तुशिल्प व वास्तु शिल्प सामग्री सेंकडो समानताएं मिल जाएंगी  ।
अस्तु!
करीब 25 एकड़ जगह पर अडिग खड़े हुए इस तपोमढ़ मे सैकड़ों कक्ष व दक्षिण-पश्चिमी भाग के मध्य में श्रीराम-जानकी-लक्ष्मण जी की संयुक्त मूर्तियां है।जिनपर पुरातन समयातीत  कई ऐतिहासिक महत्व के उल्लेखित ताम्रपत्र महंत श्री नारायण दास जी के पास सुरक्षित हैं।
कभी शैव साधकों से लेकर क्रान्तिकारियों व सिंधियाओं की अगाध श्रद्धा केंद्र रहा मठ आज उपेक्षित सा खड़ा है। लोग आते हैं और 500 वर्षों से सतत धुनित अखण्ड धूनी आभा की परिक्रमा कर मनोती करते हैं और अतिशीघ्र लाभ प्राप्तकर विस्मरण कर देते हैं ।
एक प्रचलित जनश्रुति व बुजुर्गों के अनुसार सिंधिया सामन्त से रियासतदारी तक दत्तक सन्तान  मुक्ति का प्रमाणिक किस्सा बड़ा रोचक है।इसको जानने-समझने हेतु थोड़ा संक्षिप्त सा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उल्लेख करना मुझे आवश्यक लगता है ।

ग्वालियर का सिंधिया 'राजवंश' राणोजी सिंधिया द्वारा स्थापित किया गया था।यह महाराष्ट्र स्थिति सतारा जनपद में कान्हेरखेड़ गांव के जानकोजीराव  के पुत्र थे । सिंधिया 'शिंदे' का ही   ब्रिटिशों की वाक शैली द्वारा उतपन्न अपभ्रंसित 'सरनेम' है। सन 1818 के तीसरे मराठा युद्ध मे ब्रिटिश भारतीय शाशन के गवर्नर-जनरल लाडहेगेन्स्टिन द्वारा मराठाशक्ति पूरी तरह तहस-नहस कर दीया था,और सिंधियाओं कि बागडोर दौलतराव सिंधिया के हाथ आ गयी।दौलतराव  बिट्रिशो के समक्ष घुटने टेके व भारत के भीतर अंग्रेजी रियासत के रूप रहने को तैयार हो गए।मराठा सरदारों में दौलतराव सिंधिया ने अंग्रेजों के साथ मिलकर,उज्जैन से लश्कर होते हुए ग्वालियर पर आधिपत्य करते हुए,राजधानी बना लिया गया ।
दौलतराव सिंधिया की मृत्यु उपरांत उनकी बिधवा रानी बैजाबाई ने साम्राज्य चलाया और बिट्रिश सत्ता  हस्तांतरण से बची रही। 
एक बड़ी रौचक बात हैं की वाडियार वंश की तरह ही सिंधिया वंश भी सन्तानोतपत्ति से वंचित था।बैजाबाई के दत्तकपुत्र जानकोजीराव ने सत्ता संभाली,1843 जानकोजीराव की मृत्युपरांत पुनः एक दत्तक पुत्र लिया गया।जयाजीराव द्वारा कुल 4 विवाह कृमशः1848 चिमनाराजे,1852 लक्ष्मीबाई राजे,1873 बायूबीबाई राजे, व मृत्यु से कुछ दिन पूर्व ही रानी साक्याराजे के साथ...जिन्ही से एक सन्तान बाबा श्री मंगलाचार्य जी की आशीषभरी गालियों से प्राप्त हुआ।

किस्सा यह की श्रीटीलाद्वारपीठनामक,श्रीरामन्दमहापीठाचार्य श्री श्री ११०८ मंगलचार्य जी ख्याति उस समय इतनी हुआ करती थी,की लोग दूर-दूर से -उनके द्वारा प्रकट की अग्नि से उतपन्न धूनी की धोक लगाने आया करते थे। चंहुओर से हताश सिंधिया जब अपनी चौथी पत्नी से विवाह कर चुके तो उनको भी किसी ने महाराज जी द्वारा धुनि व उसकी परिकृमा का वक्तव्य कह सुनाया। राजा-रानी हाथी आदि फ़ौज के साथ आये तो बाबा जी ने 'कायर' व दुष्ट-पापी जैसे कटुशब्दो से नबाजकर भगा दिया।
ग्रामीणों के अनुसार पुनः सिंधिया दम्पत्ति दण्डबत करते हुए करीब 500 मीटर की दूरी तह करके आये तब मन्दिर में प्रवेश करने दिया था। पग-पखारन व आजन्म ईश्वरभक्ति में तल्लीन रहने के उपरांत महाराज ने उपहार स्वरूप एक गाली दी 'जा निपूत जाई,अब कभी अपना भोंडा(मुंह) मत दिखाना!'
कहते हैं कि इस वाकये के कुछ समय उपरांत रानी गर्भिणी तो हुई किन्तु राजा चल बसे। साकयाराजे से सिंधिया परिवार पहली उतपन्न सन्तान मिली और लगातार दत्तक पुत्रो का सिलसिला टूटा,आगे चलकर इसी सन्तान का नाम 'जीवाजी राव' रखा गया।

इस समस्त क्षेत्र में महाराज मङ्गलाचार्य जी से हजारों किस्से-किबदन्ति व जनश्रुतियां है।किंतु उनकी आयु ठीक से किसी को ज्ञात नही है।
महाराज जी द्वारा प्रकट की गई अखण्ड धूनी आज भी करीब 500 वर्षों से रमी हुई है,वंही पास में उनका चीमटा,त्रिशूल भी स्थापित है। जिससे हजारों लोगों की मंशाएं पूर्ण हो चुकी है ।
सनद रहे यह वही उपमठ है ,जिसमे विनोद खन्ना-कबीर बेदी अभिनीत 'कच्चे धागे' फ़िल्म व डाकू पुतली बाई से लेकर कई दस्यु आधारित फिल्म फिल्माई जा चुकी है। इसी मठ पर विनोदखन्ना कभी घण्टो भजन करके नृत्य भी कर चुके थे।

इस मठ के कुछ भागो का अधूरा निर्माण से पुनर्निर्माण व जीर्णोद्धार भी किया गया था,मन्दिर न्यास से करीब 51 बीघे पुख्ता जमीन जुड़ी हुई है। यह मंदिर न्यास्ट्रस्ट अंतर्गत आता है,जो कि जिलाधाकारी द्वारा संरक्षित है।
सन 1999 में इस मठ को पुरातत्व संरक्षित स्थान भी घोसित किया जा चुका है,...किन्तु यह हताश करने बाली बात है कि जगह-जगह उखड़ती हुई मन्दिर विशाल प्रवेश द्वार की ककैया ईंटें व पुरातन समय का मसाला अपनी बुनियादों से लगातार चूना छडा रँहा है। 

लोग आते हैं,चले जांते है..अखण्डधूनी से मनोकामना भी रखते हैं और पूर्ण होने पर आभार व्यक्त करने भी आते हैं,किन्तु नही आता कोई इस तपोस्थल,ऐतिहासिक स्थान व 'मङ्गलाचार्य जी महाराज ' तपोस्थल की सुधि लेने ...!!

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जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...