===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
भाग-१०९
★रुअर की पटिया★
बीहड़..!!!
हां वही बीहड़,जिनकी तुलना हम बीहडियो-गंवारों के लिए किसी चमत्कृत धाम से कम नही है।हम मैदानी बीहडियो के पूर्वजो की यंहा कर्मठ आभा बिखरी पड़ी है।उसी आभा से मस्तक पर अभिषेक कर हम मलेक्षों को कई बार रौंद चुके हैं।इसी बीहड़ की माटी में सिर्फ लड़ाके ही नही अपितु धर्मध्वजा के साथ-साथ सनातन आस्था के भी अकूत किस्से सुनने को मिल जाते है ।
आज कुछ ऐसा ही किस्सा एक पाषाणकालीन शिला का जो कभी न्याय का प्रतीक हुआ करती थी,और आज भी यंहा के लोग अपनी बात की सत्यता प्रमाणित करने को इस शिला पर चलकर शपथ उठाने की बोलने से नही चूकते हैं। जो आज एक कहावत के रूप में प्रायः जुबान पर आ ही जाती है ।
"चलो रुअर की पटीआ पे कसम खाई लें!"
किस्सा लगभग 700-800 वर्ष पूर्व का है,अम्बाह-पिनाहट मुख्य राजमार्ग से 5 किलोमीटर उत्तर-पक्षमी बीहड़,चम्बल तलहटी की तरफ एक ग्राम स्थिति है। 'रुअर' सघन क्षत्रिय बाहुल्य आवादी का यह गांव आज सेकड़ो छोटे-छोटे मझरों(पुरों,भागों)में विभक्त हो चुका है।कालांतर में इस का बहुत नाम रहा है,फिर चाहे क्रांति में अथवा 'भडीआई'(चोरी का क्षेत्रीय नाम)में ख्यात कुख्यात रहा है। सिंधिया रियासत काल में अगर कोई लश्कर से ऊंट-घोड़े साज-सामान चुराने का जिगर रखता था ,तो वह 'रुअर के भडीआ' ही थे।जो तात्कालीन रियासत को चुनोती देकर 'पनिहाई' (लुटे गए माल को बापस लौटाने की एवज में मिला/दिया धन)ले लिया करते थे।
इस गांव की कुछ पृकृति ही ऐसी है कि यंहा गुप्त को लुप्त होते देर नही लगती थी।इसी बीहड़िया गांव के हटी ग्रामीणों ने सिंधियाओ के 'नाक में कोड़ी' पहना रखी थी ।
ज्येष्ठ माह के दशहरे का समय था।जैसा कि प्रचलन है,हर कोई नदीस्नान अथवा पर्व को जाता है। ठिकाने से कुछ बच्चे पर्व लेने चम्बल किनारे गए,बालसुलभ जलक्रीड़ा करते-करते उनको एक शिला जल में तैरती हुई मिली...जिसे वह टनों भारी बजन की परवाह किये बिना कन्धों पर गांव तक ले आये।जब ग्रामीणों ने यह देखा कि छोटे-छोटे बालक इतना भारी पत्थर किस तरह रख लाये?सावधानी बस उन्होंने बच्चों से शिला लेनी चाही तो नही ले पाए और इसे चमत्कार ही कहिये या संयोंग दो खड़े पत्थरों पर वह शिला रख दी ,जिसे आजतक कोई टस-मस नही कर पाया है।वह अठिग शिला आज भी वंही आधी सदी से अधिक समय बाद भी अडिग है।
जैसा कि प्रचलन है,कोई भी असाधारण बात प्रायः चमत्कार से जोड़कर देखने की हम सनातनियों पृकृति रही है।अतः यह शिला आस्था का केंद्र बन गयी और इस के स्थान पर धीरे-धीरे सच-झूठ की कसमें उठाये जाने लगी। बुजुर्ग कहते हैं कि इस 'पटिया' पर जिसने भी झूठी सपथ ली उसका तत्तक्षण दुष्प्रभाव भुगतना पड़ा था। धीरे-धीरे, चलते-चलते यह स्थान इसी तरह बातो से प्रशिद्ध हुआ और कुछ जनहानि भी हुई तो ब्रिटिश कालीन 'जिला तंवरघार' सेशन जज द्वारा इस स्थान पर कसम उठाने पर पाबन्दी लगा दी। जिससे धीरे-धीरे कसम उठाने की बात बन्द हो गयी।
आम जनश्रुति है कि शपथ लेने से पूर्व इस स्फटिक को गाय के दुग्ध से स्नान कराया जाता था।ततपश्चात अगर किसी ने मिथ्यासपथ ली तो यह स्फटिक रक्तवर्णीय होकर संकेत देती थी,अगर सपथ सच है तो शिला प्रतिक्रिया विहीन रहती थी।
यह चमत्कारी शिला आज भी उन्ही पत्थरों के आधार पर टिकी है और आस्था व जनश्रुतियों का केंद्र है।जिसपर ग्रामीणों द्वारा एक छोटा मन्दिर भी निर्मित है ।
शिला पर टँगे हुए सैकड़ों बागी/दस्युओं के बड़े-बड़े घण्टे घड़ियाल आज भी हैं,प्रतिवर्ष मेले लगतें हैं। अब लोग शपथ की सत्यता तो नही परखते किन्तु मन की मनोकामनाएं आज भी अनवरत जारी हैं।
आज भी इस शिला के पूर्वकालिक यश व सम्मति की झलक प्रचलित कहावत "में तो अपनी बात सांची साबित करबे को रुअर की पटिया पे कसम उठाए लेगों" में स्पष्ट दिखती हैं।
यह इस क्षेत्र का दुर्भाग्य है कि यंहा चम्बल में जलीय जीवों पर सेकड़ो मीडिया के कैमरे प्रायः घूमते रहते हैं।किंतु सनातन आस्था व न्याय की प्रतीक यह शिला आज भी किसी आखर अथवा चलचित्रीय धनलोलुप मीडिया के कैमरे या आर्टिकल से बाहर है।
यहाँ जब-जब कोई जवान वीरगति को प्राप्त होता है,बड़े-बड़े अधिकारी, लेते,बड़े-बड़े पेट लेकर इधर से बिना डकारे गुजर जाते रहें हैं।किन्तु न्यायिक आस्था के केंद्र से आजतक सभी का व्यवहार उपेक्षित ही रहा है ।
जय गोपाल जी की 🙏
(शिला का चित्र साभार भैया दीपक सिंह जी तोमर 'उसेद'! प्रस्तुत विवरण बुजुर्गों से सुनी बातों व प्रचलित जनश्रुतियों पर आधारित)
------------
जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें