गाँव में महीनो बाद आने पर दिखाई देती है मेरी मातृभूमि! धानी चुनरिया ओढे दुलार देती हुयी सी!!अपने शावक को अंक में लेकर दुलारने को आतुर नयन देख बरबस ही यह नयन भी सजल हो उठते हैं..।
बाजरे की बालियों का रंग जैसे चाँदी की जरिकारी किये हुए लहराता हुआ किसी का आँचल,कहीं कनखियों से निहारकर आलम्बन कि प्रतीक्षा में न जाने कितने समय की दूरियों का शिकवा-गिला जताकर अभी फफक पड़ेगा..!
अभी-अभी दुग्ध कटोरा देते हुए बो लाल चूड़ियों से भरा हाथ,अपने चेहरे पर आई ,आधी धवल हो चुकी लटों को..लाल देख हटाना भूल चुका है। अभी दुलार से माथे पर सहलाते हुए कहेगा कि,
"कितना दुबला हो गया है रे तू ...?
"कुछ खाता भी है वहाँ ,जा मात्र जोड़ने-जोड़ने की ही सोचता है ??"
" ले ये तेरा पसंदीदा मीठा दूध ,जब तक रुका है, छक के पी ।आज देर से क्यों आया..तनिक जल्दी आ जाता तो तेरे पसन्द की खीर न बना लेती...!"
खाना खिलाते माँ प्रायः सदा की भांति अपनी पढ़ाई भूल जाती है,चार की संख्या उन्हें दो नजर आती है ।
ना-नुकुर करने पर डपट देती है
"अभी खाया ही क्या जो इतरा रहा है ?,क्या तुझे माँ से बेहतर कोई खाना खिलाने बाला भा रहा है !"
"चल झट बात करा ...देखु-सुनु-समझु तेरे व्यक्तित्व के अर्द्धभाग को!,अगर जरा चूक हुई तो क्या कोसूँगी बाद अपने भाग को ..!"
लाडले की लजाती नजर को अनदेखा करके खीर का कटोरा भर देती है,दोनों हथेलियो के मध्य बत्सलता का सूर्य सन्मुख कर लाडले की थाली कचौड़ियों से भर देती है...!
समझ नही पाता हूँ...!!!
खाते-खाते जड़वत होकर सोच उठता हुँ....!!!!
पहले इस स्नेह-बात्सल्यता के प्रतीक स्नेहसागर के दर्श के नयन अघाउँ या उन नयनो के आदेश पर इस उदर को अघाउँ...!!!!!
पुरवाई भी क्या खूब मन महक से भरती है।जब शिवालय में मधुर शंखझालर बजती है न,मन मयुर एकाकी जीवन में बिताये एकाकी क्षद्म स्वांतन्त्र के नीरस पलो को धिक्कारता है।
आ अब लौट चले सुवर्ण माटी की महक में मुझे मेरा गाँव पुकारता है ।
फिर अवकाश खत्म होने का भय पुरजोर स्मरण आ रहा है।कुछ घण्टों अथवा प्रहरों का ही तो समय शेष बचा है...!इन शेष प्रहरों में उन पेड़ों की शाखाओं पर गोदकर उकेरे हुये,खोटियों के साथ झड़ते हुये,अपने नामों को देखकर आह भर लूं....!या उन पुराने घरों का एक चक्कर लगा लूं...जहां न जाने कितनी शैतानियों की गवाह दीवारों में आज इश्क की महक नमी पाकर तेजी से पुकारती प्रतीत होती है।
क्या निकल लूँ...?
उन विश्वविद्यालयी दिवसों के सतरंगी सपनो के सागर किनारे,जहां एक रेडियोसेट की सरसराती फ्रीक्वेंसी उसके पसन्द के गीत को बरबस ही उसकी याद में ले जाया करती थी।
या उन काल्पनिक परछाइयों के बढ़ते-कम होते कदों के साथ,उसका अक्स उकेरने की तमन्ना पूरी कर लूं..!!
कभी-कभी प्रतीत होता है कि,में बड़े होने की मरीचिका में कितना कुछ अपना ...उन दरख्तों पे गोद डाले गए नामों और समय के साथ उखड़ति खोटियों के माध्यम से मिटता सा अपना सब कुछ इस उन्नति की चाह में स्वतः ही मिटाकर ....कितना आगे निकल आया हूँ....!!!!!!
काश!वह व्यतीत सब कुछ एक बार पुनः त्रुटि रहित प्रारम्भ कर सकता!!
जिसका पटाक्षेप कल्पनातीत था .......।।
(7 वर्ष पूर्व की मेमोरी का अपडेट वर्जन)
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~जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'
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