सोमवार, 28 सितंबर 2020

भगत सिंह जी

अमर वीरगति की प्रेरणापुंज और युवाओ के प्रेरणा स्त्रोत भगतसिंह,सुखदेव,राजगुरु,चन्द्रशेखर 'आजाद', रामप्रसाद 'बिस्मिल',असफाख,मंगलपांडे,राणा बेनीमाधव सिंह,बाबू कुँअर सिंह,महाबीर सिंह,दीक्षित जी जैसे महायोद्धाओं का कहि भी दस्ताबेजो में उल्लेख नही है। यह तो भारतीय जनता की भावना है कि उन्हें 'शहीद ए आजम,आजाद,पंडित बिस्मिल जैसी उपाधियों से अलंकृत किया जाता है ।

क्या कारण है कि आज भी भारत की राष्ट्रीय भाषा हिन्दी और  लिपि देवनागरी के साथ-साथ इन महाबीरो को प्रपत्रो में 'शहीद' का उद्बोधन नही मिला....?
अकबर ,शाहजंहा,हुमायु,टीपू की क्रूरता को महान बताने बाले   इस देश में हजारों,करोड़ो अन्तर्वाही कीड़े है और उन्हें विभिन्न राष्ट्रीय पारितोषिको से सम्मानित भी किया जाता रहा है ।

भारत मे जातिवाद खत्म करने की बात तो की जाती है पर चुनाव आते ही जाती और धर्म आधारित मतो का वर्गीकरण आखिर क्यों होता है ...क्यों कि देश से जुड़े आंतरिक तन्त्र में प्रतिभा नही प्रजाति देखना है ही लोकतंत्र है।

छोटूराम के नाम के साथ जुड़ी 'सर' उपाधि उस ब्रितानी चरण चुम्बन का प्रत्यक्ष प्रमाण है जो सिंधिया को 'वाइसराय' बनाती है। भले ही वीरगति प्राप्त क्रांतिकारियों को लोकतंत्र भूल जाये पर ब्रितानी सरकार के रीछ हमेशा से सर्वोपरि रखे गए ।

भारतरत्न,भारत विभूषण जैसे  पारितोषिक सम्मान आज लाई की तरह नङ्गे बॉलीबुड को बाटे जाते है और जो कुछ बच  जाए वह लेतो की खंडपीठ में बन्दरबाट कर लिए जाते है। पटेल के बुत हर जगह है किंतु 552 रियासतों के दानदाताओ का कहि नाम नही ...क्या यही भारत को ठेके पर हेंडल करने बालो की कृत्यगता ?
राष्ट्रीय खेल हॉकी ओर उसके जादूगर ध्यानचंद्र जी आज भी उपेक्षित है। क्योंकि उन्होंने हिटलर के समक्ष सीना तान कर बोला था.......'भारत का हूं और क्षत्रिय हूं सिक्को से स्वाभिमान नही तौला जा सकता है !"

पंडित गैंदालाल दीक्षित जी उम्रभर क्रांति की मशाल प्रज्वल्वित करके धन और आयुध उपलब्ध कराते रहे किन्तु आज देश मे 60 %को पता ही न होगा। तरकुली माता के अनन्य भक्त अंगरोजो की बलि चढाते रहे किन्तु उप्र से सटे मप्र,बिहार को भी पता नही होगा !

आईपीएल में बिकते क्रिकेटर ओर ऑनलाइन जुआ व मदिरा प्रचार करते क्रिकेटर ही अगर भारतरत्न है तो नङ्गे मानसिक वेश्यालय की दुनिया मे भारतरत्न खोजने की नीति कैसे प्रारम्भ हुई ....इन दलालो ने कोनसा तीर मारा है !

राष्ट्रीय बापू,राष्ट्रीय चाचा,राष्ट्रीय गुरु, जैसे सम्मान किस किधर परस्पर बटे वह हर कोई जानता है पर निर्पेक्षय की अति तो तब हुई थी, जब डा राजेन्द्र प्रसाद जी को सोमनाथ मंदिर जाने  से नेहरू ने रोका था !!

आज देश का बच्चा-बच्चा परिचित है कि जिन्होंने भारतभूमि को लहू से सींचा उनको उपेक्षित कर दिया गया है और हमे आजादी देने में 'असहयोग आंदोलन' का रट्टा लगाया गया। इतिहास की बात की जाए तो महान दूरदृष्टा ओर प्रजा बत्सल शाशक जयचन्द ओर मानसिंह को गद्दार प्रचारित किया किन्तु  माधव भट्ट,राघव चेतन,वातायन खत्री,आदि भेदियो पर मौन साधा गया ।


आज भगत सिंह जी को स्मरण करके उनको श्रद्धा सुमन अर्पित तो किये जायेंगे किन्तु उनको वलिदान को सर्वोचित उल्लेखनीय सम्मान दिलाने पर लेटे मौन साध लेंगे। असल मे यह जो लोकतंत्र है न सब बॉलीवुडिया सिल्वर स्क्रीन का ही वास्तविक रूप है जंहा वर्जित दृश्य भी अभिनय  प्रतिभा बनाकर परोसे जाते है। ओर देह दर्शन कराके संस्कृति सभ्यता के सभी बंध खोले जाते है ।

पूज्य भगत सिंह जी अच्छा हुआ लगभग दशक उपरांत भी आपका पुनर्जन्म नही हुआ क्योंकि यह देश तो कल फिरंगियों की शाश्कता का गुलाम था ....और आज हरामियों की मानसिकता का है ।

अमर शहीद भगत सिंह जी को एक भारतीय की तरफ से अश्रुपूरित श्रद्धा सुमन व नमन 🙏 

'इंकलाब जिन्दावाद' 💪
'वन्देमातरम' 
'जय भवानी'
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जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

बुधवार, 23 सितंबर 2020

तीर्थयात्रा (हास्य)

#भदेस_वार्ता
सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ 😂😂
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एक गाँव से कुछ बुजुर्ग एकबार तीर्थाटन को निकले ...विधीवत सबकी आरक्षित टिकिट थी और सबकी सीट्स संग-साथ बना रहने के लिए एक ही बोगी में क्रमानुसार नजदीक थी...
चलते-चलते सफर में चर्चाये आम होती हे और सहमति-असहमति,आलोचक-प्रशंशक दो समूह सदैव बनते आये हे,कुछ ऐसा ही वाक्या इधर भी था ।

रामआसरे-
" भैया तीरथ को तो जाय रहे हे पर बड़ी टेंसन में जान डरी हे,कुआ पे दो बीघा चरी और 6 बीघा कछवारि लगाई हे पर जा कदुआ घ्नसमा समवीरा की गैया कहु रोज न चरे!"
यह कहते हुए बुजुर्ग देवता ने धुंए से पीली हो चुकी  मुछो में अंतर्ध्यान हुए होठो के मध्य फटाफट करके 10 नम्बर ख़ेनि सरकाई ही थी की बपरिते बोल पड़े !

"अरे दद्दा जी बात तो एक और बेर कहो,जा सारे घ्नसमा ने सिग हार चराय डारो न तो लुगाई बाँध पाओ और न गैया...भोजाई उ तो दिनरात बाजार में जायके टिकिया-भल्ला में जड्ड देत रहे !"

यह कहते-कहते बपरीते ने बड़ी चुलबुली अदा में वांयी आँख झपकाई ई थी की गुस्से से तमतमाते 'घ्नसमा लाल' तेरही के मालपुआ के जेसे लाल हो उठे ।

"सुनि सारे बप्रीते तू तो सारे दोगला ई रहेगो जाकी बीड़ी पी लई बाकी की लुगाई बन जातु हे,और रही बात गैया की तो ऎसे ई चरेगी !"
"काहू के झाड़ .में दम होय तो गैया रोक के दिखाय .....मारे मुंडा के चाँद भोपाल न बनाई तो हमते उ को घनसमे कहेगो !!"

रमासरे को यह सुनते ही ततैया लग गयी और बपरीते को बगल में हटाके घनसमे के सामने आ बेठे और बोले ।

"काये रे घ्नसमा तेरी गैया काय हमाये खेत में  धसेगी?"
"भें कछु तेरे बाप को लगि गओ हे का, जो जा तरे ते बतरामन कर रहो हे !!"
"ज्यादा वाइसराय न बनि,मारे पनाह के चांद हाल खरोंच जागी!!!"

इतना सुनते ही घ्नसमे के टिकासरे में भूत झोलकिया लग गयी  ..
"सुनो ज्यादा चु चपर न करो अगर कछवारि होगी तो अब गैया जरूर चरेगी,तुम सिग हमाये झुनझुना झराय लियो और कराय दियो फांसी। तुमसे हमाये मुंडन में डरे रहे ..!"

रमासरे कुछ कहते उससे पहले ही बपरीता एक झोला उठा लाया और बड़ी जोर से बोल  उठा ...

"सुनो सिग अभाल ई तोर-तिया करे देत हे, जी हे गओ दद्दा को खेत और अब तुम अपनी गैया धसाय् के देखो अभाल ई भुभरो न फूटे तो कहियो !"

घ्नसमे भी ताव में आ गए और चारो तरफ नजर मारी लेकिन गाय का प्रतीक  जैसा कुछ न मिला तो बपरीते की जेब से गोविन्दबीड़ी का बण्डल निकाल कर गाय बना कर  रख दिया और छाती 56 इंच करते हुए बोल उठा ....

"लेयो तिहाये खेत मे गैया नई पुरो सांड घेर के ऐसे ई चरेगो,काट लियो हमाये कदुआ!"

फिर क्या ...बातो में बतबढ ओर तरण-तारणा आरम्भ हो गया ......दोनों तरफ मुंडा फटाफट खोपड़ियों पर बजने लगे। दोनों तत्वज्ञानी बड़ी श्रद्धा से परस्पर माँ-बहिनो को स्मरण कर रहे थे ।

ऊधम, हाय-पुकार,चिल्ल-पो सुनकर टीटी rpf बाले भी आये ओर तीनों को यह बोलकर झांसी उतार दिया कि ....तुम तीनो को तीर्थ जाने की नही संसद भवन जाने की आवश्यकता है जिसके लिए गाडी उल्टी तरफ जाएगी ...!

मामला रफा-दफा भी हो गया और मुरैना से नासिक जाने बाले यात्री झांसी में एक साथ बैठकर एक ही बीड़ी को पी रहे थे ...!किन्तु बपरीते अपने बीड़ी-बण्डल के पैसे दोनों लोगो से रोते हुए बसूल करना चाह रहे थे ।😀



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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

बुधवार, 9 सितंबर 2020

मुखाग्नि प्रेम की

हाथ मे ली हुई बीड़ी से सुट्टा खीचकर ढेर सारा धुंआ फिजाओ में छोड़ते रामआसरे चाचा कहि दूसरी दुनिया मे   गुम है !
अभी कल की ही तो बात है जब रामजानकी काकी का डोला लेकर आये थे, ओर आज काकी के सफेद होते बालो के साथ बढ़ती हुई झुर्रियों से  चेहरे भरे चेहरे पर उनका आकर्षण बिल्कुल भी खत्म नही हुआ था ।
सिर पर बंधे अंगोछे से पसीना मिश्रित आँशु जब-जब वह पोंछते है ,तब-तब उन्हें अपनी 'मुह पूछाई' रस्म स्मरण हो आती है और हृदय में उठते हुए दर्द में सहसा एक मुस्कुराहट आकर कहि गुम हो जाती है ।
लोगो के भारी कोलाहल के मध्य रामआसरे काका का मष्तिष्क व्यतीत में चला गया और बीते कल का चलचित्र  इतना स्पष्ट हुआ कि वह निश्चेत से होकर अपलक गुमनाम मुहब्बत में चले गए !


घुंघुरू बजाते बेलो के साथ एक किशोर हंकार-हंकार कर बैलों को उत्साहित कर रहा था कि पूरा 4 बीघा खेत जल्दी लग जाये तो गांव में जो रमैया आई है ...उसके साथ हंसी ठिठोली करेंगे और दोपहर भर सुस्ताएँगे पर उन्हें नही पता था कि रमैया आज घर चली जायेगी ।
भोली-गोपी भी अपने साथी के साथ दुगने जोश में चल रहे थे .....ओर 4 बीघा सितम से पहले जुत गया ।
जल्दी-जल्दी नारे बदल हल को खेत मे छोड़ रमसा काका घर पहुचे ओर चिल्लाए....

"ओ री रमैया जरा गुड़ के साथ पानी दे  दो बड़ी पियास लगी है !"

किन्तु न प्रतिउत्तर आया और नाही उम्मीद का मूर्तिरूप रमैया!
घर सूना था .....न वह खिलखिलाहट थी न वह चहल-पहल !
एक रमैया के जाते ही रमसा काका जैसे फुट-फुट कर रोने को आतुर थे ।

बात आई-गयी हुई और रमसा-रमैया की कहानी भी अतीत की परतों में कही दब गई ..!

कुछ वर्षों उपरांत रमसे का पाणिग्रहण हुआ और जब छिपते-छिपाते प्रथम भेंट को पहुंचे तो ....अवाक रह गए..!

दुल्हिन ने पाँव छूकर जब पहला शब्द बोला तो उसमें एक परिचित स्वर  सा लगा ...

" देखो जी पहले पहिचानिये फिर ही मुझे स्पर्श करना !"

परीक्षा की घड़ी ओर बालपन का स्नेह सजीब हो उठा ...कांपते होंठो से रमसा कह उठे

"रम....ममया ....रम ....रमैया..!"
ओर एक खिलखिलाहट से अटारी गूंज उठी


समय पंख लगाके उड़ता रहा .....किन्तु रमैया की गौद सुनी रही। जन्हा सुना वही दोनो दौड़े जाते ...हजार पत्थर पूज कर भी रमैया-रमसे  सन्तान सुख से वंचित थे!
 रमसे-रमैया की जोड़ी को लोग प्रातः देखना पसंद नही करने लगे ....कहते कि बांझ का मुह देखना निकृष्ठ होता है और लोग भूलके मिलते भी तो मुंह बनाकर जमीन पर ठुकथूका के चलते बनते ।

वंही रमैया ने अतिरिक्त बात्सल्य स्नेह को अपने रमसा ओर पालतू जांनंबरों को देना प्रारम्भ कर दिया ..
समय के साथ घर-जमीन सबका बंटबारा हुआ पर रमसे का दिल आज भी साझा था ....वह तो प्रेम का अशेष सागर था जो सदैव हिलोरों में रहता था ।
अपने खेतों की फसल ओर अपनी रमैया यही जीवन था !

कभी-कभी रमैया दुखी होती और रमसे के सिर को गोद का सिरहाना देकर कहती कि .....' अ जी तुम चाहते तो दूसरा विवाह कर सकते थे न,फिर क्यों सिर्फ मुझे ही निहारते रहे ?"

रमसे मोन रमैया की आंखों में निहारते हुए कहने लगे ....
"तूने क्यों इतने सम्बन्ध तोड़ सिर्फ मुझे ही साथी चुना !"

"साथी!"
रमैया सिर्फ इतना बोल पाई और हिचकियो के साथ हिलकारे ले उठी !

"तुम्हे याद नही होगा जब मे जिजी के साथ आई थी ,में ओर तुम दोनों खूब लड़ते थे !"
"....लेकिन तुमने उस दिन जान जोखिम में डालकर मुझे बचाया था।"

"याद है वह जंगली भेड़िये से तुम्हारा भिड़ना, मुझे परेह धकेल ...उसका निबाला बनने की आतुरता सिर्फ प्रेम में होती है !"

"वह निश्चल ,निःस्वार्थ प्रेम मेने तुम्हारे गज भर सीने के अंदर स्पंदित होते हृदय में स्पस्ट सुना था!"
"सुना था कि रक्त की हर वृन्द में सिर्फ रमैया बसति है फिर रमैया अपने प्रियतम मन से दूर कैसे रह सकती है ?"

"सुनो! जीवन मे कितने भी बदलाव आए पर में चाहूंगी कि में जब तन छोड़ू मेरा प्रियतम बस मुझे यू ही निहारे ..."
"उम्र का क्या है बालपन का प्रेम ,यौवन का समर्पण बना और प्रौढ़ आते-आते सहचर होने का प्रमाण भी !"

"में चाहूंगी कि में जब भी इस दुनिया को छोड़ू ,तुम मेरे सफेद बालों की लट से हमेशा मेरा चेहरा छुपने से बचाते रहो!"
"तुम कहते थे न!रमैया बालो की अलका से बड़ी जलन होती है जो मुझे तेरे दर्श के मध्य एक अवरोधक बनके बार-बार पूर्ण चन्द्र देखने से रोकती है !"
प्रेमभाव का सावन-भादो वर्ष पड़ा और रमैया के समर्पण का रमसे आभारी हो गया ।

"सुनो!"
'भगवान न करे कि कभी ऐसा समय आये में तुम्हे न पहिचान पाउ पर.....तुम मेरी पहिचान बने रहना !"
रमैया प्रेम चर्चा और रमसे प्रेम श्रोता बने उसकी गोद मे सिर रखे ही सो गए ...।


व्यतीत समय निकलता रहा और रमैया-रमसे का प्रेम प्रगाढ़ होता रहा किन्तु समय के प्रभाव से कोन बचा है......ओर एक दिन रमैया ऐसी गिरी की फिर उठ न पाई ....रीढ़ रमैया की क्षतिग्रस्त हुई थी और बाबले रमसे हो गए ...!!
बैलगाड़ी हांकते रमसे के शब्दों में हंकार नही थी और रेलगाड़ी की ध्वनि में उन्हें रमैया के नूपुर झनकते सुनाई दे रहे थे ..!

बड़े चिकित्सालय में रमैया के पास बैठे-बैठे रमसे काका बार उस अलका को पुनः रमैया के चेहरे पर देखने की लालसा में बैठे रहते की लट घूमे ओर वह उस लट को पुनः एक ओर कर पाए !


नजदीक बेड पर लेटा एक युवा यह रोज देखता ओर पूछता की .....
"बाबा क्यों आप इनके पास पूरा दिन-रात बेठे रहते हो ?"
'जबकि इनमे पहिचानना तो दूर कोई चेष्ठा भी शेष नही दिखती ...आप कुछ समय बाहर भी बैठ लिया कीजिये ...!"

रमसे...
"बेटा....यह मेरी वह सहचरी है जिसने मुझे  करोड़ो में पहिचाना था.....!"
"चलो ठीक आज मुझे नही जानती पर में तो इसे पिछले 6 दसको से जानता हूं न!"

"पता नही कब इसकी आंख खुले और में न होऊ तो इसको दर्द होगा क्योंकि हमने तो विवाह बाद भी साथ-साथ रहने के लाखों वादे किए थे !"

ओर अंतिम पिय दर्श को रमैया की आंखे गंगा-जमुना बन गयी ..।
वह जगी .....कांपते हाथ से रमसे का सिर अपने सीने पर  रख अपने अस्ताचल की राह को चली गयी ....!





श्मशान पर रमैया का पार्थिव शरीर रखा था ....रमेसर काका मुह से बीड़ी लगाए धुंआ उगल रहे थे ....!!
तमाम तैयारी उपरांत जब मुखाग्नि के लिए रमेसर काका को पुकारा वह पूर्व की तरह शांत थे ....
बुलाने पर जब न बोले तो हिलाने पर एक तरफ को लुढ़क गए ...
ओर मुंह से निकली बीड़ी की चिंगारी ने अंतिम धूम्र प्रकट किया .....देखते ही देखते ,रमेसर ओर रमैया की कहानी फिजाओ में घुलने लगी ...!!!!!!

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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

सोमवार, 7 सितंबर 2020

कथा-सरिता

===कथा सरिता===
बहुत पुराने समय की बात है।भारत वर्ष में  एक नृप का चक्रवर्ती शाशनथा, उनके कुलगुरु और कुलपुरोहित नीति और ज्ञान की बातें समझाते रहते थे। 
निरन्तर युद्ध में जीतने के बाद राजा का ध्वज अखण्ड भारत पर गर्व से लहराता जा रहा था ।
निरन्तर प्राप्त होती विजय श्री और बढ़ते शाशन क्षेत्र के प्रभुत्व ने राजन के मस्तिष्क में गर्व की भावना कब अभिमान में परिवर्तित हुई उनको स्वम अहसास न हुआ ।
एक बार राजा ने घमंड से चूर होकर कुलगुरु से कहा, 'गुरुदेव, आज  मैं अब चक्रवर्ती सम्राट हो गया हूं....
अब मैं हजारों-लाखों लोगों का रक्षक हूं....
 मेरे कंधों पर उन सब की जिम्मेदारी है।'
कुलगुरु समझ गए कि मेरे यजमान को सर्वसत्ताधीस  होने की अवभिव्यक्ति का घमंड हो गया है। यह घमंड उसकी संप्रभुताको हानि पहुंचा सकता है। इस घमंड को तोड़नेके लिए कुलगुरु ने एक उपाय सोचा...
जब एक दिन शाम को राजा और कुलगुरु भ्रमण कर रहे थे तभी राजा को एक बड़ा सा पत्थर दिखा। कुलगुरु ने उस पत्थर की ओर इशारा करते हुए कहा 'राजन! जरा इस पत्थर को तोड़ कर तो देखो।
'राजा ने अत्यंत नम्र भाव से अपने बल से वह पत्थर तोड़ डाला।
किन्तु यह क्या! 
पत्थर के बीच में बैठे एक जीवित मेंढक को एक पतंगा मुंह में दबाए देख कर राजा दंग रह गया।

कुलगुरु ने राजा से पूछा, 'पत्थर के बीच बैठे इस मेंढक को कौन हवा-पानी और खुराक दे रहा है? इसका पालक कौन है? कहीं इसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी तुम्हारे ही कंधों पर तो नहीं आ पड़ी है?'
राजा को अपने कुलगुरु के प्रश्न का आशय समझमें आ गया। वह इस घटना से पानी-पानी हो कर कुलगुरु के आगे नतमस्तक हो गया।
 तब कुलगुरुने कहा, 'चाहे वह तुम्हारे राज्य की प्रजा हो या दूसरे प्राणी, पालक तो सबका एक ही है- परमपिता परमेश्वर।हम-तुम भी उसी की प्रजा हैं, उसी की कृपा से हमें अन्न और जल प्राप्त होता है। एक शाशक के रूप में तुम उसी के कार्यों को अंजाम देते हो। इसीलिए हमारे भीतर पालनकर्ता होने का घमंड कभी नहीं आना चाहिए।'

#सारांश -: किसी भी कार्य के लिए हम सब मात्र निमित्त हे जिसका कर्ता स्वम को समझ सर्वश्रेठता का प्रदर्शन करना सबसे बड़ी भूल हे ।
क्योंकि धन्वन्तरि वैद्य को भी मृत्यु के समय औषधि प्राप्त न हुई थी ।

रविवार, 6 सितंबर 2020

सस्ती शायरी

किसी को सिर रख रोने के लिए एक कंधे की तलाश है,
कोई सेकड़ो कंधों में कांधा बनकर भी कांधे से उदास है!

किसी का सब्र छलकने  नही फुट फुट रोने को कयास है,
नित याद करता अपनो को किसी मेअपनो से खटास है!

अजनबियों का मेला है दिल कोई धंदा तो ग्राहक तलास है,
पल जोड़ स्वयं को लिखता हूं लोगो को स्वार्थ की आस है!

'असफल' जिंदगी के फलसफे इतने सस्ते नही मिलते है,
किसी इश्क में तन तो किसी को इश्क में धन की तलाश है!

तलाशे जिंदगी खत्म नही होगी खत्म ये सारा जन्हा होगा,
घमंड से उठे मष्तक एक दिन तेरा भी बाकी न निशां होगा !!!!

  

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...