मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

राजेश

तुझे मेने बचपन से देखा था...वही पुरविया बोली में लपेटा हुआ हंसमुख चेहरा..किसी भी नकल उतारने में जेसे तुझे महारथ हासिल थी। साले तू तो मुझसे वर्षो छोटा था...तुझे मेने नंगा घूमता देखा था पर कभी समझ नही पाया तुझे..! तू जितना जमीन के ऊपर था उससे कहि ज्यादा जमीन के नीचे भी था ..!!
तुझे सही से जाना जब तू दिल्ली और में दादरा-नगर हवेली की योजनो दुरी होकर भी घण्टो गप्पे मारा करते थे और मुझे तब पता हुआ की तुझे अपने भौतिक परिवर्तनों के कारण बढ़ते आकर्षण विषयो पर बात करने में बड़ा मजा आता था। में स्वप्न में भी अनुमान नही कर सकता था की मुझसे इतना छोटा होते हुए भी तू इतना मुखर था ...!
लगभग एक वर्ष तक तू मेंरे साथ भी रहा...एक सिगरेट से लेकर तुझे मेरा हर सीक्रेट तक पता था और उन्ही बातो को केंद्र में रखकर तू परिहास ही परिहास में मुझे कितना सुकून देता था....!!
जब बीमार हुआ तू मेरे साथ मेरा तीमारदार था निस्वार्थ प्रेम के वशीभूत तूने अपना वह दिन और रात दोनों मेरी सेवा में गुजार दिए थे ....माथे की पट्टी से लेकर ड्रिप बड़ल्वाने पर तूने जो हॉस्पिटल में हंगामा बरपा दिया था ...कैसे भूलूंगा.......कैसे भूलूंगा की तू डेढ़ पाव हड्डी,एक भोले से लड़के की आँखों में मेने ड्रिप की नली मेंआये खून से कहि सौगुना ज्यादा लहू था ।

कमीने वो तेरा मुझसे हक से पैसे छिनना कैसे भूलूंगा और कैसे भूलूंगा 

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

कुलदेवी योगेश्वरी माता

तोमर/तँवर राजवंस कुलदेवी ऐसाहगढ़ी
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जिला मुरैना(पूर्व का जिला तंवरघार) कभी तंवरघार की सीमाओ निर्धारण चम्बल की धार नहीं बल्कि उसके घनत्व से हुआ करता था। पूर्वी राजस्थान जिला धौलपुर से सटी चम्बल की हरियल धार और मध्यप्रदेश की किनारी पर बसे ऐसाह गाँव से कुछ ही दुरी पर स्तिथि हे 12 वी सदी कालीन महाराज अनंगपाल सिंह द्वितीय द्वारा स्थापित तोमरराज वंस की कुलदेवी माँ योगेश्वरी चिल्लाय माता का मन्दिर जो पुरातन कालीन मन्दिर के भग्नावेशो से थोड़ा पहले हे। 12 वी सदी का मन्दिर और किला चम्बल की अशेष जलराशि में कहि बिलुप्त हो चुका हे किन्तु किनारे कुछ अवशेष आज भी विद्यमान हे जो इसकी भव्यता की दास्ताँ खुद व्यान करते हे ।

इस स्थान को इसकी विशेष आकृति के कारण "भवेश्वरी" भी कहते हे। यंहा चम्बल की बीच धार प्राकतिक रूप से एक हरा-भरा टापू निर्मित करती हे। जिसकी आकृति स्टेलाइट व्यू अथवा वायुयान से देखने पर  स्त्री योनि की आकृति सुस्पष्ट करता हे। जो माँ कामख्या देवी की ही द्वितीय कृति हे ।

लोकश्रुतियो और इतिहास का अध्यन करने पर ज्ञात होता हे की 'ऐसाहगढ़' स्तिथि बट वृक्ष के नीचे ही तोमरवंस के गुम हुए मदनायक (कोहिनूर) हीरे की पुनर्प्राप्ति महाराज अनंगपाल को यही हुई थी। यह वही हीरा हे जो महाभारत काल में उर्वसी अप्सरा द्वारा अर्जुन को भेंट किया गया था और तन्त्र से अभिमन्त्रित महरोली स्तिथि किल्ली को हिलाते ही गायब हो गया था।
 बुजुर्ग कहते हे तोमरो के दिल्लीच्युत होने के बाद। ऐसाह को दूसरे गढ़ के रूप में स्थापित कर शाशन व्यवस्था पुनर्स्थापित की गयी और राव घाटम देव के 84 गाँव राव वीरमदेव के द्वारा 52 और 120 गाँवों की नीव रखकर 'तंवरघार' की नीव रखी गयी। वस्तुतः यह परिहार/प्रतिहार राजाओ का भूभाग था जो प्रतिहार कुमारी धारावती से राव वीरमदेव के विवाह उपलक्ष्य में सप्रेम भेंट स्वरूप प्राप्त हुआ था ।

योगेश्वर श्रीकृष्ण जी बहिन योगमाया के कारण कुलदेवी का नाम योगेश्वरी,भगेश्वर टापू के कारण यह तीर्थ भवेश्वरी और चील पक्षी की सवारी के कारण इन्हें चिल्लाय माता,कंस के समक्ष स्वम को योगमाया उच्चारित करने कारण मंशादेवी व सरुण्ड माता के नाम भी जानते हे ।
मन्दिर से चम्बल तक जाने के लिए पक्की सिंढीया और नीचे माँ गंगा का प्राकृतिक उद्गम कलकल निनादित हे। यंहा महिलाओ के स्नान के प्राकृतिक झरने का एक कक्ष रूप स्नानागार  हे तथा पुरुषो के लिए गोमुख झरना अपनी अलग ही छटा विखेरता हे। यही से आप भवेश्वरी पर्वत को निहार व नोका विहार कर सकते हे। 
जलराशि में तैरते सेकडो घड़ियाल और मगर आपका मन मोह लेंगे तो हजारो प्रवासी पक्षीयो का कलरव यंहा की छटा को और दर्शनीय बना देता हे ।
यु तो यंहा प्रतिदिन उप्र, राज,मप्र से आते सेकडो श्रद्धालुओं द्वारा प्रसादी-भण्डारण होते रहते हे किंतु प्रतिवर्ष 18 जून को हल्दीघाटी के शहीद तोमरकुल की तीन पीढ़ियों की स्मिर्ती में विशेष आयोजन 'तंवरघार एकता मंच' के तत्वाधान में होता हे ।

यंहा की विशेषता हे की चंद्रवंस,तँवर कुल देवी ध्वजा के ऊपर आकाशगंगा में कोई भी तिथि हो कोई भी प्रहर हो 'चन्द्र देव' सदा सर्वदा दर्शन किये जा सकते हे और यंहा स्नानुपरांत भोजन ग्रहण कर व माँ की आराधना करके इच्छित फल की प्राप्ति होती हे ...!

तो आइये आगामी मकर संक्रांति पर्व पर महाप्रयाण हुए पितामह देववृत 'भीष्म' को नमन कर श्रधांजलि अर्पित करने माँ कुल देवी योगेश्वरी चिल्लाय भवानी के सानिध्य में धर्म लाभ अर्जित करे !
जय माँ योगेश्वरी भवानी !!


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~कुं.जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र (स्टेट तंवरघार)

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

गेंदालाल जी दीक्षित

===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
                     भाग-७२
    ★बागी गुरु गेंदालाल जी दीक्षित★

बटेश्वर वाह के 'मई' गाँव को सभी जानते हे,जाने भी क्यों न!चूँकि इसी कालिंदी से घिरे छोटे गाँव में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व.अटलबिहारी बाजपेयी का जन्म स्थान हे। किन्तु इस पावन मारुभूमि की एक नीव की ईंट और हे जो कालांतर में स्मिर्ति से धुँधली होती जा रही हे और हम भूल जाते हे एक ऐसे महान क्रांतिकारी सूत्रधार गोलोक वासी पण्डित जी गेंदालाल दीक्षित जी को ।
इसी भूमि पर चम्बल के बागियों को 'क्रांति का गुरुमन्त्र' देने बाले इस चाणक्य सदृस् आचार्य के शिष्य थे प.रामप्रसाद तोमर 'बिस्मिल',अस्फाख् उल्ला खान,महावीर सिंह राठौर,ठाकुर रोशन सिंह लाहिड़ी,बरकत उल्ला खान,सेठ गयादीन प्रसाद के साथ ख्यात बागी मान सिंह राठौर,ठाकुर पंचम सिंह चौहान,बृह्मांनन्द 'बृह्मचारि जेसे बागी भी थे ।

एक समय था जब चम्बल में स्वम के मरते परिवार डूबते आत्मसम्मान के लिए लोगो बीहड़ का रास्ता अपनाया किन्तु उस रस्ते में बदले की भावना ज्यादा थी और इसी भावना को दीक्षित जी नया पथ दिया क्रांति का और इसी क्रोधक्रान्ति ने सेकडो डाके डाले। ब्रिटिस और सिंधिया फौजे मारी गयी तो ले चलते आपको इसी अद्भुत स्वप्न में जो क्रांति से प्रकट हुआ और क्रांति के लीन हो गया ...! जिस समय देश के लोगों को अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध खड़ा करने की जद्दोज़हद चल रही थी, उस समय इन्होंने डकैतों को इकट्ठा कर अंग्रेज़ी सरकार के खिलाफ़ ‘शिवाजी समिति’ का गठन किया। उनके इस संगठन ने अंग्रेज़ी सरकार की नींद हराम कर दी थी।
पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर 1888 को उत्तर-प्रदेश के आगरा जिले के मई गाँव में हुआ। मात्र 3 वर्ष की आयु में ही अपनी माँ को खो देने वाले गेंदालाल का बचपन बिना किसी वात्सल्य और सुख-सुविधा के बीता। शायद इसी वजह से वे शरीर और मन दोनों से ही मज़बूत बन गए थे।

घर की आर्थिक परिस्थिति ठीक न होते हुए भी गेंदालाल ने किसी तरह दसवीं तक की पढ़ाई पूरी की। आगे पढ़ने की इच्छा तो थी, परन्तु घर के खर्चों में हाथ बंटाने के लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश में औरैया जिले की डीएवी स्कूल में शिक्षक की नौकरी स्वीकार कर ली। इसी दौरान 1905 में हुए बंग-भंग के बाद चले स्वदेशी आन्दोलन का उन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। क्रांति के इस दौर में गेंदालाल को एक ऐसी योजना सूझी, जो शायद ही किसीको सूझती! उस वक़्त डैकेतों का बड़ा प्रहार था। ये डकैत बहादुर तो बहुत थे, पर केवल अपने स्वार्थ के लिए लोगों को लूटते थे। ऐसे में गेंदालाल ने ऐसा उपाय सोचा, जिससे इन डकैतों की बहादुरी और अनुभव का फ़ायदा स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए उठाया जा सकता था।
उन्होंने गुप्त रूप से सभी डकैतों को इकट्ठा कर अपनी ‘शिवाजी समिति’ बनाई और शिवाजी की ही भांति उत्तर-प्रदेश में ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ़ गतिविधियाँ शुरू कर दी। पंडित गेंदालाल भले ही अपनी गतिविधियाँ चोरी-छिपे करते थे पर क्रांतिकारी नेताओं में वे धीरे-धीरे मशहूर होने लगे। उनकी बहादुरी के किस्से जब महान क्रांतिकारी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल तक पहुंचे, तो उन्होंने गेंदालाल से अपने अभियान के लिए मदद मांगी।

गेंदालाल ने भी इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकृति दे दी। और जल्द ही गेंदालाल की शिवाजी समिति के साथ बिस्मिल ने ‘मातृवेदी’ की स्थापना की। इस संस्था के काम करने का मुख्य केंद्र मैनपुरी था। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया था कि इस केंद्र की किसीको कानो-कान ख़बर न हो पर दल के ही एक सदस्य दलपतसिंह अंग्रेज़ों का मुखबीर बन गया। इस गद्दार ने अंग्रेज़ों को यहाँ का पता दे दिया। ख़बर लगते ही अंग्रेज़ अधिकारियों ने इस अड्डे पर छापा मारकर, गेंदालाल और उनके कुछ साथियों को गिरफ़्तार कर लिया।

गेंदालाल को अपने बाकी साथियों से अलग कर, आगरा के किले ले जाकर कड़ी निगरानी में रखा गया। अंग्रेज़ उनसे अन्य लोगों का पता उगलवाने का भरसक प्रयास कर रहे थे।
उधर बिस्मिल ने अपने इस क्रांतिकारी साथी को मुक्त कराने की योजना बनानी शुरू कर दी थी। एक दिन गुप्त रूप से किले में आकर बिस्मिल ने गेंदालाल से मुलाकात की।

इन दोनों ने संस्कृत में बात की ताकि सिपाहियों को कोई शक न हो और गेंदालाल की जेल से फ़रार होने की योजना बनाई। योजना के अनुसार गेंदालाल ने पुलिस को सब कुछ बताने के लिए हामी भर दी। बयान देने के लिए उन्हें आगरा से मैनपुरी भेज दिया गया, जहाँ उनके बाकी साथियों को रखा गया था।
यहाँ पहुँचते ही गेंदालाल ने एकदम से पैंतरा बदला और पुलिस से नाटक करते हुए कहा कि ‘इन लड़कों को क्या पता, मैं इस कांड का सारा भेद जानता हूँ।’ पुलिस उनके झाँसे में आ गयी और उन्हें क्रांतिकारियों के साथ उसी बैरक में बंद कर दिया गया।बाकायदा चार्जशीट तैयार की गयी और मैनपुरी के स्पेशल मैजिस्ट्रेट बी॰एस॰क्रिस की अदालत में गेंदालाल दीक्षित सहित सभी नवयुवकों पर अंग्रेज़ो के विरुद्ध साजिश रचने का मुकदमा दायर किया गया। इस मुकदमे को भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में मैनपुरी षड्यन्त्र के नाम से जाना जाता है।
मुकदमा अभी चल ही रह था कि गेंदालाल ने एक और चाल चली। उन्होंने जेलर को यकीन दिला दिया कि क्रांतिकारियों के ख़िलाफ़ गवाही देने वाला सरकारी गवाह उनका अच्छा दोस्त है और अगर उन्हें इस सरकारी गवाह के साथ एक ही बैरक में रख दिया जाये, तो कुछ और षड्यन्त्रकारी गिरफ़्त में आ सकते हैं।
जेलर ने गेंदालाल की बात का विश्वास करके उन्हें सी॰आई॰डी॰ की देखरेख में सरकारी गवाह के साथ हवालात में भेज दिया। थानेदार ने एहतियात के तौर पर गेंदालाल का एक हाथ और सरकारी गवाह का एक हाथ आपस में एक ही हथकड़ी में कस दिया ताकि रात में वे हवालात से भाग न सकें। लेकिन गेंदालाल को कहाँ कोई जेल और हथकड़ी रोकने वाली थी। वे खुद तो जेल से फ़रार हुए ही साथ में उनके सरकारी गवाह को भी भगा ले गये। पूरी ब्रिटिश सरकार हका-बक्का रह गयी कि कैसे एक मामूली-सा स्कूल का मास्टर उनकी पूरी पुलिस फ़ोर्स को चकमा दे गया। एक निजी शोध अनुसार सबलगढ़ से ग्वालियर आते ब्रिटिस-सिंधिया खजाना लूट के 'प्रद्युमपुर जमीदार'  प्रद्युम्न सिंह और उनके द्वारा की गयी लूट और जेल तोड़ने से भी शोधकर्ता इन्हें जोड़ते हे किन्तु 1857 और 1911 में काफी अंतराल हे तो सबलगढ़ खजाना लूट में दीक्षित जी की सहभागिता शिद्ध नहीं होती हे ।

ब्रिटिश पुलिस ने हर एक हथकंडा आजमाया लेकिन कभी भी गेंदालाल को पकड़ न पाई। इस घटना के बाद, गेंदालाल दिल्ली पहुंचे और वहां अज्ञात नाम से आजीवन क्रांतिकारियों की मदद करते रहे।देश की सेवा में बिना रुके और बिना थके काम करने वाले इस क्रांतिकारी को आख़िर क्षय रोग ने हरा दिया और 21 दिसंबर 1920 को उन्होंने आख़िरी सांस ली।

भारत की आज़ादी की नींव रखने वाले ऐसे न जाने कितने ही क्रांतिकारी हैं, जिनका नाम कभी इतिहास हम तक न पहुंचा पाया। परन्तु देश सदा इन अनसुने, अनदेखे, गुमनाम क्रांतिकारियों का ऋणी रहेगा । नबम्बर में प्रकट हुए दिसम्बर में महाप्रयाण हुए इस महान क्रांति गुरु,एकात्म चिंतक,श्रीमद्भगवद्गीता के मर्मज्ञ और महान नीतिज्ञ को मेरा कोटिस नमन ...🙏
शब्द श्रधांजलि 💐
वन्दे मातरम् 🇮🇳
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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से' 
चम्बल मुरैना मप्र .


मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

भारत में कश्मीर की नींव

भारत की कश्मीर नींव
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सन 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हो रहा था तब मीरपुर भी तत्कालीन कश्मीर रियासत का एक हिस्सा था। इस दौरान पाकिस्तान वाले पंजाब से हजारों की संख्या में हिंदु मीरपुर पहुंचे रहे थे। वहीं मीरपुर के मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे। प्रतिवर्ष 25 नवंबर का दिन बंटवारे के दर्द को हरा कर देता है।जम्मू-कश्मीर सरकार के रिटायर्ड डिप्टी सेक्रेटरी सीपी गुप्ता बताते हैं कि वर्ष 1947 को हुई घटना में मीरपुर निवासियों का केवल इतना ही दोष था कि उन्होंने एक दृढ़ संकल्प कर रखा था कि जब तक उनके पास बंदूक की आखिरी गोली है, तब तक वे पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को मीरपुर शहर के अंदर प्रवेश नहीं करने देंगे, इसी प्रतीज्ञा के वशीभूत मीरपुर निवासियों ने अंतिम सांस तक आक्रमणकारियों का डट कर मुकाबला किया।दुर्भाग्यवश युद्ध खत्म होते ही आक्रमणकारियों ने 25 नवंबर 1947 के हत्याकांड में 18 हजार से भी ज्यादा बूढ़े, युवक-युवतियां तथा अल्प आयु वाले बच्चों को भी क्रूरता से मृत्यु के घाट उतार कर हमेशा की नींद सुला दिया।24 नवंबर 1947 के दिन मीरपुर के 25 हजार लोगों ने उनके पास मौजूद बारुद को खत्म होते देख खुद को असहाय महसूस किया। यह स्थिति इसलिए हुई क्योंकि उस समय की भारत सरकार और रियासत जम्मू व कश्मीर सरकार के बीच मतभेद के कारण फौजों को मीरपुर से दूर रखा।

मीरपुर शहर के अंदर शुरू में रियास्ती सरकार के केवल 800 सिपाही थे, जिन में लगभग आधे अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ पाकिस्तानी आक्रमणकारियों के साथ जा मिले। बाकी लगभग 400 सिपाहियों ने अपने अल्प संख्या में अस्त्रों के साथ चारों ओर से घिरे हुए मीरपुर नगर की चौकसी की।ऐसे मौके पर मीरपुर के लगभग एक हजार युवकों ने रक्षा चौकियों पर सिपाहियों के कंधे से कंधा मिलाकर पूरा सहयोग दिया। 6,10 तथा 11 नवंबर 1947 को शत्रुओं द्वारा किए गए हमलों का डटकर मुकाबला किया और शत्रुओं को बहुत हानि पहुंचाई, किंतु अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित बढ़ती हुई पाकिस्तानी सेना के सामने स्थानीय मदद के अभाव में उनका स्वप्न अधूरा रह गया।17 नवंबर 1947 के दिन मीरपुर के पुलिस कैंप में रखे हुए वायरलेस सेट में अचानक खराबी हो जाने के कारण जम्मू-कश्मीर रियासत तथा भारत सरकार के साथ रेडियो संपर्क पूरी तरह से टूट गया। मौके का फायदा उठाते हुए पाकिस्तानी सेना ने शहर की पूर्वी दिशा की ओर से आक्रमण किया।सात पठान आधी रात को शहर के भीतर प्रवेश करने में सफल हो गए। मीरपुर के आत्मघाती टोलों ने मिलकर पांच पठानों को मार गिराया और दो पठान भागने में सफल हो गए और बाकी शत्रु सेना को खदेड़ने में नगरवासी सफल हो गए।
इस भयानक स्थिति में जिला मीरपुर के वजीर बजारत राव रतन सिंह ने मीरपुर से जम्मू की ओर भागने का फैसला किया। मीरपुर के शासनिक हुक्मरान मीरपुर निवासियों को मौत के मुंह में छोड़कर स्वयं सुबह चार बजे कुछ पुलिस अफसरों के साथ घोड़ों पर बैठकर जम्मू की ओर भाग निकले। चौकियों पर तैनात बचे-खुचे सिपाहियों ने भी पुलिस अधिकारियों के भागने की सूचना पाकर चौकियों को छोड़ दिया।पुलिस के भागने का समाचार मिलते ही शत्रु ने एक भूखे भेड़िए की तरह सुबह आठ बजे शहर के अंदर प्रवेश कर के धावा बोल दिया और घरों को आग लगा दी। उन्होंने नागरिकों को शहर के एक कोने में धकेल दिया।  लोग भगने लगे तो शत्रु ने पैदल चलते हुए लोगों पर अंधा- धुंध गोलियां बरसाई, जिसके कारण लगभग 18 हजार से भी ज्यादा लोग मर गए। कुछ युवतियों ने तो शहर के गहरे कुओं में छलांगे लगाई और कुछ ने अपने पुरुष वर्गों को विवश किया कि वे अपने ही हाथों से उन को मार दें ताकि वे आक्रमणकारियों के हाथों में न पड़ें।

कुछ लोगों को तो जिंदा ही आग में जला दिया गया। लगभग 3500 नागरिक जो कि गंभीर रुप से घायल हो गए थे, उन को बंदी बना लिया गया। शेष लगभग 3500 लोग जीर्ण-हीन अवस्था में ठोकरें खाते हुए सात दिन भूखे और प्यासे पैदल चलते जम्मू पहुंचे, जिन की दर्दनाक कहानी को शब्दों में आज भी वर्णन करना असंभव है। मीरपुर शहर जो 650 सालों तक एखता और शांति का प्रतीक रहा, 25 नवंबर 1947 को कुछ ही घंटों में लाशों का मरघट बन कर रह गया।
उन्हीं सन 1947 के मीरपुर के शहीदों की स्मृति में गवर्नमेंट मेडिकल कालेज के सामने महेशपुरा चौक जम्मू में एक शहीदी स्मारक बनाया गया है। इस स्मारक का उद्घाटन कुमारी सुषमा चौधरी आईएएस एडिशनल चीफ सेक्रेटरी ने 25 नवंबर 1998 को किया था। मीरपुर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उस सड़क का नाम मीरपुर रोड रखा। जंहा प्रतिवर्ष उनके स्मरण स्वरूप प्रशिद्ध मेले का आयोजन किया जाता हे ।
प्रतिवर्ष सभी मीरपुरी, बक्शीनगर, गुड़ा रिहाड़ी, सरवाल, जम्मू शहर, गांधीनगर, शास्त्री नगर, त्रिकुटा नगर और जम्मू के आसपास की अन्य कालोनियों से एकत्रित होकर मीरपुर के उन शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखा....!!
...वन्देमातरम🇮🇳
सन्दर्भ:- 'कश्मीर के तीर१९४७' पुस्तक
दैनिक जागरण समाचारपत्र,बिकिपीड़िया के तुलनात्मक अध्यन से
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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

फेसबुक 1 साल पहले गजल

#ज्ञानदंडा
अगर पाना है कुछ, तो रोना जारी रखिये,
अपने चेहरे पे, दिखावे की लाचारी रखिये!

मक़सद हो जाये पूरा तो बदल लो चोला,
वरना तो अपनी, ये हिक़मतें जारी रखिये!

ज़िन्दगी जीना है तो सीख लो कुछ प्रपंच,
आँखों में कभी पानी, कभी चिंगारी रखिये!

एक जैसा आचरण सदा अच्छा नहीं होता,
कभी जुबान हलकी, तो कभी भारी रखिये!

जितना झुकोगे लोग तो झुकाते ही जाएंगे,
ज़रुरत पड़ने पे, अपनी बात करारी रखिये!

कोई आ जाये तुम्हारे दर पे मदद पाने को,
कैसे दिखानी है मजबूरी, पूरी तैयारी रखिये!

इस दुनिया में जीना भी एक कला है श्रीमन्,
मतलब की दुश्मनी, मतलब की यारी रखिये!!!!

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क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित जी

आगरा की बाह तहसील के मई गांव में जन्मे गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर सन् 1888 ई० को हुआ। श्री गेंदालाल दीक्षित औरैया के दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालय में अंग्रेजी के अध्यापक थे । वह 'बंगाल विभाजन' के विरोध में चल रहे बालगंगाधर तिलक के स्वदेशी आंदोलन से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने पहले शिक्षित जनों ( गिन्दन गुट) का संघटन बनाने का प्रयास किया परन्तु उसमें सफल न हो सके।  जब अंग्रेज प्रथम विश्व युद्ध में फंसे हुए थे, उसी दौरान गेंदालाल दीक्षित ने शिवजी समिति बना कर अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति शुरू कर दी। रामप्रसाद बिस्मिल को प्रेरणा देकर मातृवेदी की स्थापना की और चम्बल के बागी डाकुओं को क्रांति में उतरा।
गेंदालाल दीक्षित व बागी दुर्दांत डकैत लक्ष्मणानंद ब्रह्मचारी और डकैत ठाकुर पंचमसिंह के संगठित दल ने ग्वालियर तथा यमुना और चम्बल नदी के किनारे के भागों में सफलतापूर्वक अनेक डाके डाले और धन का उपयोग क्रांति के लिए हथियारों की व्यवस्था की, पर मुखबरी के कारण गेंदालाल दीक्षित के नेतृत्व में 'मैनपुरी षड़यन्त्र' की योजना असफल हो गयी।

गेंदालाल दीक्षित गिरफ्तार हुए और उन्हें ग्वालियर के किले की अँधेरी कोठरी में रखा गया, जहाँ उन्हें छय रोग हो गया पर वे जेल से भागने में सफल हो गये और किसी तरह अपने घर पहुंचे, वहां भी वे पुलिस की दबिश के करना नहीं रुक सके और सरदार के छद्दम भेष में दिल्ली पहुंचे, दिल्ली के आगरा रोड पर बने एक मंदिर में उन्होंने शरण ली और फरार हालत में जीवन-यापन के लिये उन्होंने एक प्याऊ में नौकरी कर ली, इस बीच क्षय रोग से हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी तो उन्हें दिल्ली के इर्विन अस्पताल में भर्ती कराया गया अंततः 12 दिसंबर 1920 को व अमर शहीद हो गए। उन्हें मैनपुरी षड्यंत्र केस में फरार घोषित किया और वे कभी पकडे न जा सके। दीक्षित जी उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों के द्रोणाचार्य कहे जाते है।

दीक्षित जी की १३२वी जयंती पर मई गांव से बटेश्वर खाँद तक उनके स्मारक के संकल्प में पदयात्रा का आयोजन कल ११ बजे है आप सभी वहां पहुंच कर श्रद्धा-सुमन अर्पित करे। 

#भदावरगौरव #FreedomFighter @GendalalDixit

रविवार, 24 नवंबर 2019

सस्ते में

भेड़ों का इक झुण्ड है जनता, जिसकी अपनी कोई डगर नहीं
आगे की भेड़ किधर जाती है, इसकी उनको कोई खबर नहीं.
आँख मूंद बस चल पड़ती हैं, परिणाम की उनको फिक्र नहीं
यूं ही खट जाती हैं मिट जाती हैं, फिर भी उनको अक्ल नहीं.
आंख खोलकर दुनियाँ देखो,परखो,तब अनुशरण करो
ये डगर कहाँ ले जायेगी, जी भर कर पहले मनन करो
नेता के लिये ये भोली जनता, केवल मात्र एक रस्ता है
उनके लिये तुम जीवन भी देदो, उनको दिखता सस्ता है

शनिवार, 5 अक्टूबर 2019

मातृ शक्ति


वो औरत है जिसने हमको, दुनिया में लाने का काम किया,
वो औरत ही है जिसने हमको, भाई होने का सौभाग्य दिया!


भूखे पेट सो गयी माता, पर हमको तो भर पेट खिलाया
रात रात भर जागी मां, पर लोरी गा गा कर हमें सुलाया!


इस पूज्यनीय औरत ने ही, सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन किया
वो ना होती तो कुछ ना होता, इस दुनिया पर अहसान किया !


ये औरत ही किसी की भगिनी है,औरत ही किसी की पत्नी है
ये औरत ही मां की ममता है, ये औरत ही किसी की बेटी है !


ममता की मूरत इस नारी ने, हमको जीवन का संदेश दिया
नफ़रत, गुलामी,जुल्मो सितम, ना सहने का अनुदेश दिया !


कुछ पापी, दुष्ट, दुराचारी, इसकी महिमा को भूल गए
उसके सम्मान को तार तार कर, अपनी मर्यादा भूल गए!


किसी ने इसकी अस्मत लूटी,किसी ने जला कर मार दिया
कुछ पापी मां बापों ने, इसे बस्तु समझकर बेच दिया !


इस उपकार के बदले में ,औरत को तो कुछ भी न मिला
भूखे रहना, खून पिलाना, इस ममता को कैसा सिला मिला ..!!

मंगलवार, 24 सितंबर 2019

हाइफा-युद्ध पर विशेष

#हाइफायुद्ध
( इजराइल में भारतीयो का युद्ध)

पराजय का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने बड़ी सफाई से भारतीय योद्धाओं की अकल्पनीय विजयों को इतिहास के पन्नों पर दर्ज नहीं होने दिया। शारीरिक तौर पर मरने के बाद जी उठने वाले देश इजरायल की आजादी के संघर्ष को जब हम देखेंगे, तब हम पाएंगे कि यहूदियों को उनके  ईश्वर के प्यारे राष्ट्र का पहला हिस्सा भारतीय योद्धाओं ने जीतकर दिया था। वर्ष 1918 में हाइफा के युद्ध में भारत के अनेक योद्धाओं ने अपने प्राणों का बलिदान दिया। समुद्र तटीय शहर हाइफा की मुक्ति से ही आधुनिक इजरायल के निर्माण की नींव पड़ी थी। इसलिए हाइफा युद्ध में भारतीय सैनिकों के प्राणोत्सर्ग को यहूदी आज भी स्मरण करते हैं।

इजरायल की सरकार आज तक हाइफा, यरुशलम, रामलेह और ख्यात के समुद्री तटों पर बनी 900 भारतीय सैनिकों की समाधियों की अच्छी तरह देखरेख करती है। इजरायल के बच्चों को इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में भारतीय सैनिकों के शौर्य और पराक्रम की कहानियाँ पढ़ाई जाती हैं। प्रत्येक वर्ष 23 सितंबर को भारतीय योद्धाओं को सम्मान देने के लिए हाइफा के महापौर, इजरायल की जनता और भारतीय दूतावास के लोग एकत्र होकर हाइफा दिवस मनाते हैं। भारतीय सेना भी 23 सितंबर को हाइफा दिवस मनाती है। अब हम समझ सकते हैं कि भारत और इजरायल के रिश्तों में सार्वजनिक दूरी के बाद भी जो गर्माहट बनी रही, वह भारतीय सैनिकों के रक्त की गर्मी से है।

वह वर्ष 1918 था......!
इसी वर्ष नवंबर में प्रथम विश्व युद्ध खत्म हुआ था। पूरी दुनिया में बारूद की गंद फ़ैल चुकी थी। जंग की आग में पूरा विश्व झुलस पड़ा था। कोई भी देश एक-दूसरे पर विश्वास करने को तैयार नहीं था। जंग खत्म होने के बाद भी माहौल सुधरने में भी बहुत लंबा था।
ऐसे में फिलिस्तीन से सटे समुद्र किनारे में निवासी हाइफा शहर पर जर्मन और तुर्की सेना का कब्जा था। अपने रेल नेटवर्क और बंदरगाह की वजह से हाइफा का रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण स्थान था, जो युद्ध के लिए सामान भेजने के काम भी आता था ।
तुर्क साम्राज्य में बहाई समुदाय के आध्यात्मिक गुरु अब्दुल बहा के समर्थक तेजी से बढ़ रहे थे और इसी कारण से उनकी जान पर खतरा बन गया था। सेना ने उन्हें उसी वर्ष गिरफ्तार कर लिया। हाइफा के रहने वाले और बहाई समुदाय के लोग अब्दुलबहा को इसी आंधार बना कर रिहा करने की योजना बना रहे थे ।

भारत की आजादी से पहले एक बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक ब्रिटिश सेना के हिस्से थे। हाइफा को तुर्की सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेदारी ब्रिटिश सेना की थी। इस युद्ध को अंजाम देना दूभर था क्योंकि दुश्मन ज्यादा ताकतवर था और युद्ध के मुलबेस आधार सैनिक एवम् गोलाबारुद का अभाव था ।
यहाँ तुर्की, जर्मनी और ऑस्ट्रिया की संयुक्त सेना की चौकियाँ थी। सैनिकों के पास बंदूक, बंदूक, गोला-बारूद किसी चीज की कमी नहीं थी। ब्रिटिश सेना के लिए यह जंग किसी चुनौती से कम नहीं थी। ब्रिटिश अधिकारियों को सैनिकों की जरूरत थी। तब तक भारत की 3 रियासतों मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद से मदद की अपील की गई।रियासतों ने इस अपील को स्वीकार कर लिया और अपने लगभग 150,00 सैनिक संगठन को भेज दिया।
हैदराबाद रियासत के सैनिक मुस्लिम थे, इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें तुर्की के खलीफा युद्ध में भाग लेने से रोक दिया। निजाम के सैनिकों को युद्ध बंदियों के प्रबंधन और देखरेख का कार्य सौंपा गया। जबकि मैसूर और जोधपुर की राजधानी सैन्य टुकडिय़ों को मिलाकर एक विशेष इकाई बनाई गई थी ।

वहां सेना के पास भले ही झंडा ब्रितानी था। उनकी वर्दी 'ब्रिट्रेन की थी लेकिन वह सैनिक भारत के थे। उनके अंदर जो जज्बा था वह भारतीय था। वह नहीं जानता था कि यह जंग से ब्रिटिश को क्या फायदा होगा। वह बस मजबूर लोगों को बेकार की गुलामी से रिहा करवाना चाहते थे ।
भारतीय सैनिकों के पीछे कुछ संख्या अंग्रेजों के सैनिकों की भी थी। ब्रिगेडियर जनरल एडीए किंग को दुश्मन सेना के बारे में जानकारी मिली। उन्हें पता था कि यदि सेना अंदर गई तो उनका लौटने वाला नाम नामुमकिन है ... इसलिए उन्होंने सेना को जंग न लड़ने के लिए कहा।अंग्रेजी सैना पीछे हट गया। पीछे हटने का मौका भारतीय सैनिकों के पास भी था, किन्तु मेजर दलपत सिंह शेखावत की अगुवाई में कोई भी सैनिक अपने फर्ज से पीछे नहीं हटना चाहता था। सवाल यह था कि अगर आज पीछे हटे तो अपने देश, अपनी रियासत और परिवार को क्या मुंह दिखाएंगे?
इसलिए 1500 भारतीयों ने हाइफा शहर में दाखिल होना स्वीकार किया....!

भारतीय सैनिक घोड़ों पर सवार थे। उनके पास लड़ने के लिए केवल भाले और तलवारबाज थे। अंग्रेज सरकार ने पैदल चलने वाले कुछ सैनिकों को बन्दुके भी थमा दीं। भारतीय सेना के सैनिकों को हाईफा में मौजूद तुर्की सेना और घुड़सवार कार्मेल पर तैनात तुर्की तोपखाने को तहस-नहस कर जमीदोज करना था। जोधपुर लांसर्स ने अपने सेनापति मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्व में सबसे पहले शहर में कदम रखा...!
15 वीं (इम्पीरियल सर्विस) सेक्टर ब्रिगेड ने सुबह 5 बजे हाईफा की ओर बढ़ना शुरू किया और 10 बजे तक शहर के मुख्य द्वार पर पहुंच गए। इसके बाद सेना ने हाइफा पर धवा बोल दिया। इससे पहले कि तुर्की सैनिक अचानक इस हमले से सावधान हो पाते, भारतीय सैनिकों ने बंदूकों से गोलियां बरसाना शुरू कर दी।

जोधपुर के सैनिक घुड़सवार कार्मेल पर भालों से हमला कर रहे थे। वहाँ मैसूर के सैनिकों ने पर्वत के उत्तरी ओर से हमला किया। इसके बाद की तेजी से शहर में दाखिल हुए और एक-एक कर तुर्की सैनिकों को भाले से मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया।

सेना के कमांडर  कर्नल ठाकुर दलपत सिंह लड़ाई की शुरुआत में ही मारे गए। इसके बाद उनके डिप्टी बहादुर अमन सिंह जोधा आगे आए। शुरुआत में भले ही तुर्की सैनिक नहीं संभल पाए पर बाद में उन्होंने मोर्चा संभाला और मशीनगन से निरन्तर करके भीषण गोलीबारी प्रारम्भ कर दी ...!
यह दुनिया के इतिहास में यह पहला  घुसपैठ सेना का महान अभियान था। घोड़े घायल हो रहे थे पर रूक नहीं रहे थे। भारतीय सैनिकों पर चारों ओर से गोलीबारी शुरू हो गई। भारतीय सैनिक एक-एक कर मरते जा रहे थे और मारते भी जा रहे थे..!

मैसूर लांसर्स की एक स्क्वाड्रन 'शेरवुड रेंजर्स' ने दक्षिण की ओर से घुड़सवार कार्मल पर चढ़ाई की। सैनिकों ने कार्मल की ढलान पर दो नौसैनिक तोपों पर कब्जा कर लिया। इसके बाद के सैनिकों ने तुर्की सेना के सैनिकों से ही उन पर हमला शुरू कर दिया। उनके दुश्मन यह देख कर हैरान हो गए थे कि आखिर कैसे भारतीय सैनिकों ने अपने ही हथियारों से उन्हें मारना शुरु कर दिया था..!

'बी' बैटरी एचएसी के समर्थन से जोधपुर लांसर्स ने दोपहर 2 बजे के बाद शहर के बाहर से अपने बाकी सैनिकों को बुलाया। दोपहर 3 बजे तक सैनिकों ने तुर्की सेना की सबसे अधिक सेना को नष्ट कर दिया और बाकी पर कब्जा कर लिया। लगभग 4 बजे तक हाइफा शहर तुर्की सेना की गिरफ्त से आजाद हो चुका था !

हाइफा युद्ध में 900 भारतीय सैनिकों ने अपनी कुर्बानी दी। भारतीय शूरवीरों ने जर्मन-तुर्की सेना के 700 सैनिकों को युद्धबंदी बना लिया। इसके अलावा 17 तोपें, 11 मशीनगन और हजारों की संख्या में जिंदा कारतूस भी रखे गए हैं। साहस दिखाने वाले ठाकुर दलपत सिंह को ब्रिटिश हुकूमत ने मरणोपरांत मिलिटरी क्रॉस से सम्मानित किया। उनके अलावा कैप्टन अनूप सिंह और सेकैन्ड लेफ्टीनेंट सागत सिंह को भी मिलिटरी क्रॉस पदक दिया गया। ब्रिटिश हुकूमत ने कैप्टन बादल अमन सिंह जोधा और दारार जोर सिंह को भी उनकी बहादुरी के लिए भारतीय एयरलाइन ऑफ मेरिट पदक दिया।

हाइफा, यरुशलम, रामलेह और खटिक के बीच इजराइल के सात शहरों में इस युद्ध से जुड़े कुछ अवशेष आज भी सही सलामत रखे हुए हैं। इजराइल की जनता हर साल 23 सितंबर को 'हाईफा दिवस ' मनाती है। वहाँ के स्कूलों में हाइफ़ा युद्ध और भारतीय सैनिकों के शौर्य की गाथा पढ़ाई जाती है।

हाइफा युद्ध भारत के सैनिकों द्वारा लड़ा गया वह युद्ध था जिसे आज शायद कोई नहीं जानता होगा। इतिहास के पन्नों में यह कहानी न जाने कितने सालों से धुल खा रही है। यह युद्ध भले ही ब्रिटिश सेना ने लड़ा था लेकिन इसमें जीत भारतीय सैनिकों ने ही दिलाई थी। उन्होंने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि आखिर भारत के सैनिक कितने फौलादी हैं। यह योद्धिक इतिहास का वह युद्ध था जब मात्र हजार लगभग योद्धाओ ने तलवारो के बल पर बहुआयुधि लाखो की सेना को पराजित कर आत्मसमर्पण करने को मजबूर कर दिया था ।
इस अद्भुत और विस्मयकारी युद्ध की स्मरण स्वरूप "हाइफा विजय स्मारक" स्वरूप तीन सेनिको की प्रतिमा आज भी उस पराक्रम के प्रति इजराइल की कृतज्ञता दर्शाती है ।

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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
24/09/2019
चम्बल,मुरैना मप्र

सोमवार, 16 सितंबर 2019

गाँव चलिए

#गाँव_चलिए

मत समझो पत्थरों की दुनिया को सब कुछ,
गर तुमको देखनी है ज़िंदगी, तो गाँव चलिए !

मिटा डाला है जो क़ुदरत का सामान तुमने,
गर तुमको देखना है फिर से, तो गाँव चलिए !

तुम्हें कैसे रास आती हैं ये शहर की हवाएं,
गर सांस लेना है तुम्हें चैन की, तो गाँव चलिए !

क्यों घुमते फिरते हो तुम न जाने कहाँ कहाँ,
है देखना कुदरत का खज़ाना, तो गाँव चलिए !

न जानता है कोई इधर कि कोंन है पड़ोस में,
अगर देखने हैं दिलों के रिश्ते, तो गाँव चलिए !

सूरज की रौशनी भी न देख पाते कुछ लोग तो,
गर देखना है ऊषा का आँचल, तो गाँव चलिए !

यूं किस तरह से जीते हो इस शोरगुल में यारो,
गर सुननी है कूक कोकिल की, तो गाँव चलिए !

मिटा डाली है गरिमा ही तुमने हर त्यौहार की
गर तुमको देखने हैं ढंग असली, तो गाँव चलिए !

सोने चांदी से पेट भरता नहीं किसी का भी दोस्त,
गर तुमको देखना है अन्नदाता, तो गाँव चलिए !!!
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बुधवार, 3 जुलाई 2019

सहालग (2 हास्य्)

सहालग की विदाई
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देवोत्थानी एकादशी से प्रारम्भ हुआ कानपकड़  उठाबैठक लगाने बाला विवाहकप कुम्भ देवशयनी एकादशी का फायनल को आया और सपनो की दुनिया का विचित्र संयोग अपने अस्ताचल को हो आया। किन्तु कुछ कुँवारे-कुंवारियों के लिए यह 'सीजन' भी सुखा निकल गया।देवशयनी एकादशी क्या आई जिन्दगी 'जैठालाल' हो गयी और आश करते करते पता न चला की कब बालो में खिझाव लगने लगा....कब विवाह की एक्सपायरी डेट निकल जाए !

पूरी सोमवारी ब्रत की परिधि  2πr होते-होते πrवर्ग होगयी,आशाओ का घनत्व नवरात्रों के क्षेत्रफल में #टेसू बना गया और मीडियम वेव की फ्रीक्वेंसी फिर से सॉर्ट वेव पर FM होकर बेसुरी हो गयी ।

भोझियो की जी हजुरी करते करते देवर का घेवर हो गया पर क्या मजाल की भौजी ने छुटकी केलिए छुटकू की बात चलाई हो....!
इस सहालग में अनगिनत लोगो के भोंपे बज गए किन्तु अनगिनत लोगो की पीपनी भी न बज पायी,बजे भी कैसे बैमानो ने सहालग देवता महादेव और सहालग देवी नवदुर्गा के व्रतो में चाट-भल्ले जो खाये थे ।

कितनी मुहब्बतों के जज्बातों को लोंडो ने अपनी खुन्दक मिटाने के लिए 'अपनी बाली परायी' के विवाह में आँखों के साथ हाथो से खूब पानी परोसा। 'मुहब्बत' भी "अब तुम मुझे भूलने की कोशिस करना" बोलकर किसी और की साँझ तक बाट जोहने के लिए चौपाया गाडी में बेठ कर गाँवबाले 'जिगरी' को 'मामा' बनाने निकल गयी ...!!

वहीँ कुछ लोंडे कॉलेज की मिस को मिस करके नया क्रस आइटम ले आये। मिस अपने छोना बाबू के "थाना थाया" वाक्य को बहुत मिस कर रही हे और 'टिकटोक' पर दिल्फ़टे गानो,फेसबुक पर गालिव चच्ची की तरह अपडेट्स हो रही हे ।
टेंट बालो के डोंगे सुष्क होने के साथ-साथ डीजे बालो के डायस भी सुने हो गए....और तो और 24 घण्टे शोशल मिडिया पर भटकती लोंडो की रूहे अब 42 घण्टे ससुराल से मिली चायना आइटम की रिपेयरिंग में व्यस्त हो गए हे ।
कोई कोई मिस अपने फिस्स हुई मुहब्बत को हलीमुन की फोटो व्हाट्सऐप करके मुहब्बतहत्या को प्रेरित कर रही हे तो कुछ लोंडे अभी से फैलाउलि के चक्कर में परदेस को निकल गए। उन्हें डर हे की दहेज़ में मिली हुई वाशिंग मशीन का पहला शुभारम्भ उन्ही के करकमलो न करा दिया जाए...!
जिन जोड़ो के विवाह से पूर्व मधुरमण्डप के लिए सीने छप्पन हुआ करते थे वह खुद को मोदी के द्वारा हिंन्दुत्व के नाम ठगे हुए महसूस कर रहे हे।मायके बालो के लिए जो बेटिया गाय होती थी वही ससुराल के चार रोज में गोपी बहु से नजर की डायन में अपडेट हो गयी।
जिन लड़कियो को भोंपा से पहले कुल्दुड़ में एक केयरिंग,हेंडसम,डेशिंग और एक बेहतर पार्टनर दीखता था ...उन्हें भी डोसा में मख्खी निकलने का अहसास हो रहा हे....असल में अपनी-हैंडग्रेनेड के सेफ्टी पिन निकालने का अहसास जब जब होता हे तब तब रिंग सेरेमनी को गरियाने की,कोसने की बड़ी जोर से इच्छा होती हे ।

सहालगपर्व की अपार तपस्या में तल्लीन हुए जोड़े जब एक दूसरे को भोर में देखते हे तो सोचते हे की काश !कुछ और प्रतीक्षा कर ली होती तो शायद यह जो काले जामुन को सफेद पेंट करके रसगुल्ला बताकर उनके पल्ले बाँध दिया हे वह शायद रसमलाई के वर्जन में मिल सकता था !

सहालग बाद असली मुर्दायि तो रुठने में पीएचडी सर्टिफिकेट प्राप्त फूफा और जीजो के चेहरे पे देखा जाता हे। जिन्हें शादी बाद कम से कम अपने असितित्व के होने का  बोध विवाहो में ही मिलता हे।दूल्हे के सहवाला कम 35 ₹ मासिक टेरिफ पैक साथी और दुल्हन की ब्लॅककेट कमांडो सहेलियों  की अजब दुनिया हे। सहवाले वरात् में 35 के टेरिफ से 350 के अनलिमिटेड रिचार्ज की भ्रान्ति में जीते हे और दूल्हे का साथ देने की ओट में काली,पिली,हरी,नीली सुट बालियों में कौन सही सूट करती हे की जुगाड़ में दूल्हे के फेंटा-पनरस को बार ठीक करते हे ।
दुल्हन की शेडो कम कमांडो सहेलियों का अलग नखरा हे,बो चाये एक नजर में किसी सहबाले पर फ़िदा हो गयी लेकिन क्या मजाल की फेरो के बख्त एक फूल बहिन के देवर को फेंककर 'फूल' बनाये....वहा तो इशारो ही इशारो मोबाईल नम्बर फॉरवर्ड कर दिए जाते हे ।

समधियों में परस्पर सामने बाले को लोभी और धनलोलुप शिद्ध करने की जो होड़ होती हे उसका अगर कोई कप होता तो समधनो के गले में टांग दिया जाता।और खुद के प्रोडक्ट को ISO9002 सर्टिफाइड तो समधी के प्रोडक्ट को चायना आइटम की मुहरबन्दी से नवाज देते ।

विवाह पढ़ते पण्डित पुरोहितो को भी जाता हुआ साहलग अखर रहा है ....अब उनको कोण बार-बार दक्षिणा के नाम पर सुलभ धन देगा ...!!कुछ पण्डित जी तो हजारो विवाह पढ़कर भी खुद के विवाह में दूल्हा न बन पाने के मलाल में सुखकर काँटा हुए जा रहे हे। खुद भोंपा न रच पाने के लिए कमाऊ पंडिताई को ही गरिया रहे हे। काश एक पण्डिताइन मिल जाती तो अपनी भी जिन्दगी लीलावती कलावती के नाज नखरों में निकल जाती ..!

समाचार पत्र बाले इकलौते ऐसे दिव्य मनुष्य हे जो सहालग की सप्लीमेंट्री में फ़ैल हुए कुवारों के सीने पर सव्र की सिला यह लिखकर रखते हे की "विवाह के 2 माह बाद विवाहिता प्रेमी संग फुर्र हो गयी!"
कभी-कभी तो पत्नी पूजन करते पतियो की फोटो भी सहालग में सूखे हुए बबूलों को काँटो में आगरा के पेठे लगने का सुखद आनन्द देती हे ।

कल परसो देवशयनी एकादशी आ जायेगी,एक और ग्यारह होते-होते युवक-युवतियों को रिवर्स स्विंग करके आती डिलिवरी कोट &बोल्ड कर जाएगी! और कुछ कुँवारे-कुंवारियों के अरमान भी हरे होते होते सुख जाएंगे। वह फिर शिद्दत से जुट जाएंगे श्रवण माष के सोमवारों में वर और कुवार के नवरात्रो में बधु प्राप्ति के अखण्ड तप में .....किन्तु स्मरण रहे चाट-भल्ले, दशहरा का दिव्य पेय आपकी तपस्या में नोटबन्दी बाद GST न लगा जाये ......और आगामी सहालग कुम्भ फिर से बगैर पर्व लिए न निकल जाए ....!!

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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'

शनिवार, 22 जून 2019

गजल


लगता नही है दिल मेरा उजड़े दयार मे,
किसकी बनी है आलमे नापायदार मे।

उम्रे दराज मांग कर लाए थे चार दिन,
दो आरजू मे कट गए दो इंतजार मे।

बुलबुल को पासबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत मे कैद लिक्खी थी फसले बहार मे।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहां है दिले दागदार मे।

एक शाखे गुल पै बैठ के बुलबुल है शादमा,
कांटे बिछा दिए हैं दिले लालाजार मे।

दिन जिंदगी के खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कंजे मजार मे।

कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए,
दो गज जमीन भी न मिली कू ए यार मे।

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बहादुर शाह जफर

डायरी भाग 1

             ★यादो के कद★
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कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता हे की आपकी यादे आपसे कही आगे चलती हे।आप जिन्हें बारम्बार भूलने का प्रयास करते हे,वह आपके समक्ष आपसे अपना कद बड़ा करते हुए दिख जाती हे। और आप गहरे विसाद की स्तिथि से दो-चार करते हुए स्वम को पाते हे,किन्तु आपकी अविजित पराजय का मूल होती हे वह गलतिया जिन्हें आप बार-बार दोहराते जाते हे ।

मेने भी कुछ गलतिया की,उनको डायरी में अंकित भी किया किन्तु अंकन उपरांत भी चुके होती रही! डेस्टिनी हे की आपका पीछा नहीं छोडती, वह आपके साथ साये की तरह साथ चलती हे ।
एक गलती हुई थी साइंस कॉलेज के दिनों में जिसका भरपाई सम्भवतः कभी नहीं होगी,वहा करियर की ऊँची उड़ान 'धर्म निर्वहन' के चलते स्वाहा हो गयी ।

उसका मेरा सम्बन्ध ही क्या था,वह तो बणिक थी न...! सम्भवतः मेरी  सम्बोधन में अपनत्व बनाने की भावनाये और उसके प्रति निर्वहन की हटता ही थी की एक क्लासमेट  के साथ हुए अभद्र व्यवहार पर वर्षो से सुप्त हुआ 'ठाकुर' जाग गया और ...और  डिग्री से अंतिम कुछ पलो पूर्व सिर में ६टाँके थे........जगह-जगह से कपड़े फ़टे थे किन्तु किये पर तनिक भी मलाल न था ...!सहयोगी मित्रो पर गर्व था....।
हम अपने नजदीकी जनपदों से कुल 18 थे  6 लडकिया .और 12 लड़के, एक परिवार सा ही परिवार वहां भी था।..परस्पर कभी वह भाव न था जो उम्र के उस पड़ाव में प्रायः होता हे।हम एक विद्यालय परिवार के 18 भाई-बहिनो की तरह जो टिपिंन, केन्टीन,ग्रुप स्टडी से लेकर लेव के उस सुर्ख प्रकाश में भी साथ ही रहते थे ।
एक अजीव सा रिस्ता था परस्पर लड़ने से लेकर पढ़ने तक का ,और उन्हें अपना उत्तरदायित्व समझ छात्रावास तक छोड़ने का !
बहुत ही भोली सी थी वह "बड़की दी" जो आयु में मात्र 3 माह बड़ी थी किन्तु 17 लोगो की दीदी नहीं दादी की तरह व्यवहार करती थी।सबको प्रिप्रेसन से लेकर प्रजेंटेसन और खाने से लेकर जागने तक के लिए फटकार दिया करती थी ...!उस के द्वारा  सिर में हल्की चपत लगाने का स्नेह उस समय कितना स्नेहिल हुआ करता था। वह किसी के हल्के बीमार होने पर एक प्रशिक्षित नर्स बन जाती थी फिर चाहे सुभह का कॉलेज मिस हो जाए अथवा कालांस ...उन्हें चिंता थी तो अपने अनुज-अनुजाओ की...!
करुणा नाम था उन दीदी का और यथा नाम तथो गुणः की सूक्ति जैसा स्वभाव ...!

उस दिन वह हम सभी से कुछ सो मिटर की दुरी पर रह गयी....कॉलेज गेट के बाहर स्टेशनरी की दूकान से कुछ नोट्स के लिए रजिस्टर्स जो लेने थे ....किन्तु उस उनके कन्धों से पहली बार मर्यादा का पट नहीं था! वह वस किसी निर्जीव शरीर की भाँती थके-हारे,निष्प्राण कदमो से आती दिखी....हम सब हत प्रभ थे कि सदा समय से आगे चलने बाली करुणा जीजी आज इतनी मन्थर कैसे हो गयी ?

शेलजा के झिझोड़ने पर जेसे करुणा जीजी का कृदन और भावुकता का ठाठे मारता सागर फुट पड़ा....वह जिसे देखती वस रोती और बहुत जोर से रोटी,जेसे कोई बड़ा रहष्य उनकी आत्मा से निकलना चाहता हो किन्तु उसे अंदर ही अंदर पी जाने का असफल प्रयास कर रही हो ...और एक साथ अठारह भाई-बहिनो का दामन अश्रुओं से तर हो गया....उस दिन की कॉलेज का किसी को ध्यान ही कब था,जब कॉलेज का समय बताने बाली दीदी ही कस्ट में थी....!शैलजा,कविता,रोहिणी,अमन, हरिओम सब बार-बार पूछ रहे थे किन्तु मेरी निगाये दीदी का दुपट्टा खोज रही थी। पूर्वाभाष हो रहा था की,वह दुपट्टा सम्भवत किसी के मलिन हाथो से  मैला होकर बंधू के धर्म निर्वहन को पुकार रहा था। उस दुपट्टे का ऋण था जो कितनी ही बार गर्म माथे की पट्टी बन जाया करता था..! उस दुपट्टे का ऋण था जो कितनी बार मेरे माथे का दर्द छीन लिया करता था। उस दुपट्टे का ऋण था जो बिन बहन हुए भी निस्वार्थ अनुज को दुलारता था ...!
आज किसी ने उसी दामन को मलिन करने का प्रयास किया था और उसी भ्रात धर्म निर्वहन में बो हो गया जिसके पूर्वाभाष से करुणा दीदी सिर्फ कृंदन के हलाहल को पि रही थी ।
अमन बो लड़का था जो नजदीकी जनपद का ना होकर बेहद नजदीकी था,उसके शब्द "पवन भिया में जनता हु उस कमीन को जिसने अपनी दीदी को रुलाया हे,भइओ आज आप 12 नहीं 13 भाई हे,चलो सालो के हाथ ही काट देते हे !"
शब्द नहीं बो तलाश थी जिसके लिए हम सब पिछले 2 घण्टो में 2 हजार बार मरे थे और जेसे दीदी की 'सप्तमसुधि' जागृत हुई ।
"छुटकू तू कुछ मत करना,भला तेरे साथ तेरे 18 भाई बहिनो का उत्तरदायित्व भी हे। उन्हें कोन सम्भाल पायेगा!मत जा मेरे वीर !"
जब युद्ध अथवा लड़ाई आवश्यकता बन जाए तब दीदी तब मुँह फेरना,अपनी कुल मर्यादा के बिपरीत हे।यंहा तो धर्म की बात हे,में सुप्त सैनिक नहीं हूँ दीदी.....जितने आपके आसु इस केम्पस में गिरे हे मुझे उतना ही उसका लहू गिराना हे ताकि फिर से किसी करुणा दी की तरफ कोई 'कमीन' नजर भर न देखे ।
फिर बो हुआ जो अपनी मिटटी में रोज होता हे,दोनों तरफ से लात,घूंसे,पत्थर,ब्रेंच के पाये और उसकी निम्न जात को दर्शाते मेरे बीहड़िया शब्दों को किसी ने नोकिया 6600 पर रिकार्ड किया ।
ये कोई फ़िल्मी सीन नहीं जो में बच जाता सर में 6 टाँके,पीठ पे अनगिनत नील निशाँ  मुझे मेरे धर्म निर्वहन में उत्तीर्नांक दे रहे थे जबकि मलिंमुखी धूर्त के पैर को तोड़ चुका था....उसकी फ़टी हुई हथेली और कन्धे से टपकता लहू मुझे असीम सुख दे रहा था। में नहीं समझता उस दिन रक्त को देख दर्द क्यों न महसूस हो रहा था,महसूस तो मात्र उसकी दर्द भरी चीखो में एक लक्ष्यवेदन को कर रहा था ।।

केम्पस से कुछ ही फलांग पर रहने बाले पुलिस जवानो ने बूथ पे बिठा क्रास केस पंजीबद्ध किया,जिसके कुछ समय बाद ही स्वम प्रिंसिपल महोदया ने ...मुझे पुत्रवत स्नेह करती थी ..आवश्यक जमानती पत्र दाखिल कराये ..!

किन्तु नियति को कुछ और मंजूर था .....उसे तो मेरी असफलता की दूसरी कहानी लिखनी थी ....एक कॉलेज टॉपर और उसके सहयोगियों की धर्मनिर्वहन संगत लड़ाई पर 'एस्ट्रोसिटी एक्ट' के मामला पंजीबद्ध हुआ। शायद जीवन में पहली बार भारतीय दण्ड प्रक्रिया में निहित लचक को इतनी नजदीकी से देखा था और सुदूर बीहड़ो में बसी चम्बल मिटटी की सेकड़ो दास्ताने चलचित्र हो चुकी थी ।

पहले कॉलेज एक्जाम्स छूटे फिर छूटा सफल होने का स्वर्णिम सपना जिसमे माँ,पिता,भाई और सम्बन्धियो के सेकड़ो सपने निहित थे।कही न कहि मेरे एक के कारण 18 परिवारो का सपना एक ही दिन में कांच किरचों की तरह बिखर गया।मेरे कॉलेज छूटने के साथ उन सभी कॉलेज छोडा जो कही न कहि उनकी भावनाओ के वस हुआ ।
इस जीवन का वह सबसे बड़ा अपराधबोध था जिसके कारण सेकड़ो लोगो की आश पर मुझ दम्भी ने एक ही क्षण में तुषारापात कर दिया ।
करुणा दीदी अनुजा बहिने जब भी मिलती हे न जाने क्यों मुझे गर्वित नजरो से देखती हे।जबकि में स्वम को उन सबका अपराधी आज भी मानता हूँ ...!
18 बहिन-भाइयो का साझा परिवार कॉलेज पहुचा तो अलग-अलग था किन्तु घर साथ-साथ आया
में आज तक उन 18 परिवारो से नहीं मिला क्योंकि मुझे स्वम से घृणा होने जा रही हे जबकि उन 18 माँ ओ की नजर में 'पवनप्रताप' आज भी एक हीरो हे और उनका पूत हे ।

परछाइयों के कद बढ़ते गए और पवनप्रताप,जितेन्द्र हो गए ......
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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...