★यादो के कद★
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कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता हे की आपकी यादे आपसे कही आगे चलती हे।आप जिन्हें बारम्बार भूलने का प्रयास करते हे,वह आपके समक्ष आपसे अपना कद बड़ा करते हुए दिख जाती हे। और आप गहरे विसाद की स्तिथि से दो-चार करते हुए स्वम को पाते हे,किन्तु आपकी अविजित पराजय का मूल होती हे वह गलतिया जिन्हें आप बार-बार दोहराते जाते हे ।
मेने भी कुछ गलतिया की,उनको डायरी में अंकित भी किया किन्तु अंकन उपरांत भी चुके होती रही! डेस्टिनी हे की आपका पीछा नहीं छोडती, वह आपके साथ साये की तरह साथ चलती हे ।
एक गलती हुई थी साइंस कॉलेज के दिनों में जिसका भरपाई सम्भवतः कभी नहीं होगी,वहा करियर की ऊँची उड़ान 'धर्म निर्वहन' के चलते स्वाहा हो गयी ।
उसका मेरा सम्बन्ध ही क्या था,वह तो बणिक थी न...! सम्भवतः मेरी सम्बोधन में अपनत्व बनाने की भावनाये और उसके प्रति निर्वहन की हटता ही थी की एक क्लासमेट के साथ हुए अभद्र व्यवहार पर वर्षो से सुप्त हुआ 'ठाकुर' जाग गया और ...और डिग्री से अंतिम कुछ पलो पूर्व सिर में ६टाँके थे........जगह-जगह से कपड़े फ़टे थे किन्तु किये पर तनिक भी मलाल न था ...!सहयोगी मित्रो पर गर्व था....।
हम अपने नजदीकी जनपदों से कुल 18 थे 6 लडकिया .और 12 लड़के, एक परिवार सा ही परिवार वहां भी था।..परस्पर कभी वह भाव न था जो उम्र के उस पड़ाव में प्रायः होता हे।हम एक विद्यालय परिवार के 18 भाई-बहिनो की तरह जो टिपिंन, केन्टीन,ग्रुप स्टडी से लेकर लेव के उस सुर्ख प्रकाश में भी साथ ही रहते थे ।
एक अजीव सा रिस्ता था परस्पर लड़ने से लेकर पढ़ने तक का ,और उन्हें अपना उत्तरदायित्व समझ छात्रावास तक छोड़ने का !
बहुत ही भोली सी थी वह "बड़की दी" जो आयु में मात्र 3 माह बड़ी थी किन्तु 17 लोगो की दीदी नहीं दादी की तरह व्यवहार करती थी।सबको प्रिप्रेसन से लेकर प्रजेंटेसन और खाने से लेकर जागने तक के लिए फटकार दिया करती थी ...!उस के द्वारा सिर में हल्की चपत लगाने का स्नेह उस समय कितना स्नेहिल हुआ करता था। वह किसी के हल्के बीमार होने पर एक प्रशिक्षित नर्स बन जाती थी फिर चाहे सुभह का कॉलेज मिस हो जाए अथवा कालांस ...उन्हें चिंता थी तो अपने अनुज-अनुजाओ की...!
करुणा नाम था उन दीदी का और यथा नाम तथो गुणः की सूक्ति जैसा स्वभाव ...!
उस दिन वह हम सभी से कुछ सो मिटर की दुरी पर रह गयी....कॉलेज गेट के बाहर स्टेशनरी की दूकान से कुछ नोट्स के लिए रजिस्टर्स जो लेने थे ....किन्तु उस उनके कन्धों से पहली बार मर्यादा का पट नहीं था! वह वस किसी निर्जीव शरीर की भाँती थके-हारे,निष्प्राण कदमो से आती दिखी....हम सब हत प्रभ थे कि सदा समय से आगे चलने बाली करुणा जीजी आज इतनी मन्थर कैसे हो गयी ?
शेलजा के झिझोड़ने पर जेसे करुणा जीजी का कृदन और भावुकता का ठाठे मारता सागर फुट पड़ा....वह जिसे देखती वस रोती और बहुत जोर से रोटी,जेसे कोई बड़ा रहष्य उनकी आत्मा से निकलना चाहता हो किन्तु उसे अंदर ही अंदर पी जाने का असफल प्रयास कर रही हो ...और एक साथ अठारह भाई-बहिनो का दामन अश्रुओं से तर हो गया....उस दिन की कॉलेज का किसी को ध्यान ही कब था,जब कॉलेज का समय बताने बाली दीदी ही कस्ट में थी....!शैलजा,कविता,रोहिणी,अमन, हरिओम सब बार-बार पूछ रहे थे किन्तु मेरी निगाये दीदी का दुपट्टा खोज रही थी। पूर्वाभाष हो रहा था की,वह दुपट्टा सम्भवत किसी के मलिन हाथो से मैला होकर बंधू के धर्म निर्वहन को पुकार रहा था। उस दुपट्टे का ऋण था जो कितनी ही बार गर्म माथे की पट्टी बन जाया करता था..! उस दुपट्टे का ऋण था जो कितनी बार मेरे माथे का दर्द छीन लिया करता था। उस दुपट्टे का ऋण था जो बिन बहन हुए भी निस्वार्थ अनुज को दुलारता था ...!
आज किसी ने उसी दामन को मलिन करने का प्रयास किया था और उसी भ्रात धर्म निर्वहन में बो हो गया जिसके पूर्वाभाष से करुणा दीदी सिर्फ कृंदन के हलाहल को पि रही थी ।
अमन बो लड़का था जो नजदीकी जनपद का ना होकर बेहद नजदीकी था,उसके शब्द "पवन भिया में जनता हु उस कमीन को जिसने अपनी दीदी को रुलाया हे,भइओ आज आप 12 नहीं 13 भाई हे,चलो सालो के हाथ ही काट देते हे !"
शब्द नहीं बो तलाश थी जिसके लिए हम सब पिछले 2 घण्टो में 2 हजार बार मरे थे और जेसे दीदी की 'सप्तमसुधि' जागृत हुई ।
"छुटकू तू कुछ मत करना,भला तेरे साथ तेरे 18 भाई बहिनो का उत्तरदायित्व भी हे। उन्हें कोन सम्भाल पायेगा!मत जा मेरे वीर !"
जब युद्ध अथवा लड़ाई आवश्यकता बन जाए तब दीदी तब मुँह फेरना,अपनी कुल मर्यादा के बिपरीत हे।यंहा तो धर्म की बात हे,में सुप्त सैनिक नहीं हूँ दीदी.....जितने आपके आसु इस केम्पस में गिरे हे मुझे उतना ही उसका लहू गिराना हे ताकि फिर से किसी करुणा दी की तरफ कोई 'कमीन' नजर भर न देखे ।
फिर बो हुआ जो अपनी मिटटी में रोज होता हे,दोनों तरफ से लात,घूंसे,पत्थर,ब्रेंच के पाये और उसकी निम्न जात को दर्शाते मेरे बीहड़िया शब्दों को किसी ने नोकिया 6600 पर रिकार्ड किया ।
ये कोई फ़िल्मी सीन नहीं जो में बच जाता सर में 6 टाँके,पीठ पे अनगिनत नील निशाँ मुझे मेरे धर्म निर्वहन में उत्तीर्नांक दे रहे थे जबकि मलिंमुखी धूर्त के पैर को तोड़ चुका था....उसकी फ़टी हुई हथेली और कन्धे से टपकता लहू मुझे असीम सुख दे रहा था। में नहीं समझता उस दिन रक्त को देख दर्द क्यों न महसूस हो रहा था,महसूस तो मात्र उसकी दर्द भरी चीखो में एक लक्ष्यवेदन को कर रहा था ।।
केम्पस से कुछ ही फलांग पर रहने बाले पुलिस जवानो ने बूथ पे बिठा क्रास केस पंजीबद्ध किया,जिसके कुछ समय बाद ही स्वम प्रिंसिपल महोदया ने ...मुझे पुत्रवत स्नेह करती थी ..आवश्यक जमानती पत्र दाखिल कराये ..!
किन्तु नियति को कुछ और मंजूर था .....उसे तो मेरी असफलता की दूसरी कहानी लिखनी थी ....एक कॉलेज टॉपर और उसके सहयोगियों की धर्मनिर्वहन संगत लड़ाई पर 'एस्ट्रोसिटी एक्ट' के मामला पंजीबद्ध हुआ। शायद जीवन में पहली बार भारतीय दण्ड प्रक्रिया में निहित लचक को इतनी नजदीकी से देखा था और सुदूर बीहड़ो में बसी चम्बल मिटटी की सेकड़ो दास्ताने चलचित्र हो चुकी थी ।
पहले कॉलेज एक्जाम्स छूटे फिर छूटा सफल होने का स्वर्णिम सपना जिसमे माँ,पिता,भाई और सम्बन्धियो के सेकड़ो सपने निहित थे।कही न कहि मेरे एक के कारण 18 परिवारो का सपना एक ही दिन में कांच किरचों की तरह बिखर गया।मेरे कॉलेज छूटने के साथ उन सभी कॉलेज छोडा जो कही न कहि उनकी भावनाओ के वस हुआ ।
इस जीवन का वह सबसे बड़ा अपराधबोध था जिसके कारण सेकड़ो लोगो की आश पर मुझ दम्भी ने एक ही क्षण में तुषारापात कर दिया ।
करुणा दीदी अनुजा बहिने जब भी मिलती हे न जाने क्यों मुझे गर्वित नजरो से देखती हे।जबकि में स्वम को उन सबका अपराधी आज भी मानता हूँ ...!
18 बहिन-भाइयो का साझा परिवार कॉलेज पहुचा तो अलग-अलग था किन्तु घर साथ-साथ आया
में आज तक उन 18 परिवारो से नहीं मिला क्योंकि मुझे स्वम से घृणा होने जा रही हे जबकि उन 18 माँ ओ की नजर में 'पवनप्रताप' आज भी एक हीरो हे और उनका पूत हे ।
परछाइयों के कद बढ़ते गए और पवनप्रताप,जितेन्द्र हो गए ......
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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'
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