मंगलवार, 24 सितंबर 2019

हाइफा-युद्ध पर विशेष

#हाइफायुद्ध
( इजराइल में भारतीयो का युद्ध)

पराजय का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने बड़ी सफाई से भारतीय योद्धाओं की अकल्पनीय विजयों को इतिहास के पन्नों पर दर्ज नहीं होने दिया। शारीरिक तौर पर मरने के बाद जी उठने वाले देश इजरायल की आजादी के संघर्ष को जब हम देखेंगे, तब हम पाएंगे कि यहूदियों को उनके  ईश्वर के प्यारे राष्ट्र का पहला हिस्सा भारतीय योद्धाओं ने जीतकर दिया था। वर्ष 1918 में हाइफा के युद्ध में भारत के अनेक योद्धाओं ने अपने प्राणों का बलिदान दिया। समुद्र तटीय शहर हाइफा की मुक्ति से ही आधुनिक इजरायल के निर्माण की नींव पड़ी थी। इसलिए हाइफा युद्ध में भारतीय सैनिकों के प्राणोत्सर्ग को यहूदी आज भी स्मरण करते हैं।

इजरायल की सरकार आज तक हाइफा, यरुशलम, रामलेह और ख्यात के समुद्री तटों पर बनी 900 भारतीय सैनिकों की समाधियों की अच्छी तरह देखरेख करती है। इजरायल के बच्चों को इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में भारतीय सैनिकों के शौर्य और पराक्रम की कहानियाँ पढ़ाई जाती हैं। प्रत्येक वर्ष 23 सितंबर को भारतीय योद्धाओं को सम्मान देने के लिए हाइफा के महापौर, इजरायल की जनता और भारतीय दूतावास के लोग एकत्र होकर हाइफा दिवस मनाते हैं। भारतीय सेना भी 23 सितंबर को हाइफा दिवस मनाती है। अब हम समझ सकते हैं कि भारत और इजरायल के रिश्तों में सार्वजनिक दूरी के बाद भी जो गर्माहट बनी रही, वह भारतीय सैनिकों के रक्त की गर्मी से है।

वह वर्ष 1918 था......!
इसी वर्ष नवंबर में प्रथम विश्व युद्ध खत्म हुआ था। पूरी दुनिया में बारूद की गंद फ़ैल चुकी थी। जंग की आग में पूरा विश्व झुलस पड़ा था। कोई भी देश एक-दूसरे पर विश्वास करने को तैयार नहीं था। जंग खत्म होने के बाद भी माहौल सुधरने में भी बहुत लंबा था।
ऐसे में फिलिस्तीन से सटे समुद्र किनारे में निवासी हाइफा शहर पर जर्मन और तुर्की सेना का कब्जा था। अपने रेल नेटवर्क और बंदरगाह की वजह से हाइफा का रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण स्थान था, जो युद्ध के लिए सामान भेजने के काम भी आता था ।
तुर्क साम्राज्य में बहाई समुदाय के आध्यात्मिक गुरु अब्दुल बहा के समर्थक तेजी से बढ़ रहे थे और इसी कारण से उनकी जान पर खतरा बन गया था। सेना ने उन्हें उसी वर्ष गिरफ्तार कर लिया। हाइफा के रहने वाले और बहाई समुदाय के लोग अब्दुलबहा को इसी आंधार बना कर रिहा करने की योजना बना रहे थे ।

भारत की आजादी से पहले एक बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक ब्रिटिश सेना के हिस्से थे। हाइफा को तुर्की सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेदारी ब्रिटिश सेना की थी। इस युद्ध को अंजाम देना दूभर था क्योंकि दुश्मन ज्यादा ताकतवर था और युद्ध के मुलबेस आधार सैनिक एवम् गोलाबारुद का अभाव था ।
यहाँ तुर्की, जर्मनी और ऑस्ट्रिया की संयुक्त सेना की चौकियाँ थी। सैनिकों के पास बंदूक, बंदूक, गोला-बारूद किसी चीज की कमी नहीं थी। ब्रिटिश सेना के लिए यह जंग किसी चुनौती से कम नहीं थी। ब्रिटिश अधिकारियों को सैनिकों की जरूरत थी। तब तक भारत की 3 रियासतों मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद से मदद की अपील की गई।रियासतों ने इस अपील को स्वीकार कर लिया और अपने लगभग 150,00 सैनिक संगठन को भेज दिया।
हैदराबाद रियासत के सैनिक मुस्लिम थे, इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें तुर्की के खलीफा युद्ध में भाग लेने से रोक दिया। निजाम के सैनिकों को युद्ध बंदियों के प्रबंधन और देखरेख का कार्य सौंपा गया। जबकि मैसूर और जोधपुर की राजधानी सैन्य टुकडिय़ों को मिलाकर एक विशेष इकाई बनाई गई थी ।

वहां सेना के पास भले ही झंडा ब्रितानी था। उनकी वर्दी 'ब्रिट्रेन की थी लेकिन वह सैनिक भारत के थे। उनके अंदर जो जज्बा था वह भारतीय था। वह नहीं जानता था कि यह जंग से ब्रिटिश को क्या फायदा होगा। वह बस मजबूर लोगों को बेकार की गुलामी से रिहा करवाना चाहते थे ।
भारतीय सैनिकों के पीछे कुछ संख्या अंग्रेजों के सैनिकों की भी थी। ब्रिगेडियर जनरल एडीए किंग को दुश्मन सेना के बारे में जानकारी मिली। उन्हें पता था कि यदि सेना अंदर गई तो उनका लौटने वाला नाम नामुमकिन है ... इसलिए उन्होंने सेना को जंग न लड़ने के लिए कहा।अंग्रेजी सैना पीछे हट गया। पीछे हटने का मौका भारतीय सैनिकों के पास भी था, किन्तु मेजर दलपत सिंह शेखावत की अगुवाई में कोई भी सैनिक अपने फर्ज से पीछे नहीं हटना चाहता था। सवाल यह था कि अगर आज पीछे हटे तो अपने देश, अपनी रियासत और परिवार को क्या मुंह दिखाएंगे?
इसलिए 1500 भारतीयों ने हाइफा शहर में दाखिल होना स्वीकार किया....!

भारतीय सैनिक घोड़ों पर सवार थे। उनके पास लड़ने के लिए केवल भाले और तलवारबाज थे। अंग्रेज सरकार ने पैदल चलने वाले कुछ सैनिकों को बन्दुके भी थमा दीं। भारतीय सेना के सैनिकों को हाईफा में मौजूद तुर्की सेना और घुड़सवार कार्मेल पर तैनात तुर्की तोपखाने को तहस-नहस कर जमीदोज करना था। जोधपुर लांसर्स ने अपने सेनापति मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्व में सबसे पहले शहर में कदम रखा...!
15 वीं (इम्पीरियल सर्विस) सेक्टर ब्रिगेड ने सुबह 5 बजे हाईफा की ओर बढ़ना शुरू किया और 10 बजे तक शहर के मुख्य द्वार पर पहुंच गए। इसके बाद सेना ने हाइफा पर धवा बोल दिया। इससे पहले कि तुर्की सैनिक अचानक इस हमले से सावधान हो पाते, भारतीय सैनिकों ने बंदूकों से गोलियां बरसाना शुरू कर दी।

जोधपुर के सैनिक घुड़सवार कार्मेल पर भालों से हमला कर रहे थे। वहाँ मैसूर के सैनिकों ने पर्वत के उत्तरी ओर से हमला किया। इसके बाद की तेजी से शहर में दाखिल हुए और एक-एक कर तुर्की सैनिकों को भाले से मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया।

सेना के कमांडर  कर्नल ठाकुर दलपत सिंह लड़ाई की शुरुआत में ही मारे गए। इसके बाद उनके डिप्टी बहादुर अमन सिंह जोधा आगे आए। शुरुआत में भले ही तुर्की सैनिक नहीं संभल पाए पर बाद में उन्होंने मोर्चा संभाला और मशीनगन से निरन्तर करके भीषण गोलीबारी प्रारम्भ कर दी ...!
यह दुनिया के इतिहास में यह पहला  घुसपैठ सेना का महान अभियान था। घोड़े घायल हो रहे थे पर रूक नहीं रहे थे। भारतीय सैनिकों पर चारों ओर से गोलीबारी शुरू हो गई। भारतीय सैनिक एक-एक कर मरते जा रहे थे और मारते भी जा रहे थे..!

मैसूर लांसर्स की एक स्क्वाड्रन 'शेरवुड रेंजर्स' ने दक्षिण की ओर से घुड़सवार कार्मल पर चढ़ाई की। सैनिकों ने कार्मल की ढलान पर दो नौसैनिक तोपों पर कब्जा कर लिया। इसके बाद के सैनिकों ने तुर्की सेना के सैनिकों से ही उन पर हमला शुरू कर दिया। उनके दुश्मन यह देख कर हैरान हो गए थे कि आखिर कैसे भारतीय सैनिकों ने अपने ही हथियारों से उन्हें मारना शुरु कर दिया था..!

'बी' बैटरी एचएसी के समर्थन से जोधपुर लांसर्स ने दोपहर 2 बजे के बाद शहर के बाहर से अपने बाकी सैनिकों को बुलाया। दोपहर 3 बजे तक सैनिकों ने तुर्की सेना की सबसे अधिक सेना को नष्ट कर दिया और बाकी पर कब्जा कर लिया। लगभग 4 बजे तक हाइफा शहर तुर्की सेना की गिरफ्त से आजाद हो चुका था !

हाइफा युद्ध में 900 भारतीय सैनिकों ने अपनी कुर्बानी दी। भारतीय शूरवीरों ने जर्मन-तुर्की सेना के 700 सैनिकों को युद्धबंदी बना लिया। इसके अलावा 17 तोपें, 11 मशीनगन और हजारों की संख्या में जिंदा कारतूस भी रखे गए हैं। साहस दिखाने वाले ठाकुर दलपत सिंह को ब्रिटिश हुकूमत ने मरणोपरांत मिलिटरी क्रॉस से सम्मानित किया। उनके अलावा कैप्टन अनूप सिंह और सेकैन्ड लेफ्टीनेंट सागत सिंह को भी मिलिटरी क्रॉस पदक दिया गया। ब्रिटिश हुकूमत ने कैप्टन बादल अमन सिंह जोधा और दारार जोर सिंह को भी उनकी बहादुरी के लिए भारतीय एयरलाइन ऑफ मेरिट पदक दिया।

हाइफा, यरुशलम, रामलेह और खटिक के बीच इजराइल के सात शहरों में इस युद्ध से जुड़े कुछ अवशेष आज भी सही सलामत रखे हुए हैं। इजराइल की जनता हर साल 23 सितंबर को 'हाईफा दिवस ' मनाती है। वहाँ के स्कूलों में हाइफ़ा युद्ध और भारतीय सैनिकों के शौर्य की गाथा पढ़ाई जाती है।

हाइफा युद्ध भारत के सैनिकों द्वारा लड़ा गया वह युद्ध था जिसे आज शायद कोई नहीं जानता होगा। इतिहास के पन्नों में यह कहानी न जाने कितने सालों से धुल खा रही है। यह युद्ध भले ही ब्रिटिश सेना ने लड़ा था लेकिन इसमें जीत भारतीय सैनिकों ने ही दिलाई थी। उन्होंने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि आखिर भारत के सैनिक कितने फौलादी हैं। यह योद्धिक इतिहास का वह युद्ध था जब मात्र हजार लगभग योद्धाओ ने तलवारो के बल पर बहुआयुधि लाखो की सेना को पराजित कर आत्मसमर्पण करने को मजबूर कर दिया था ।
इस अद्भुत और विस्मयकारी युद्ध की स्मरण स्वरूप "हाइफा विजय स्मारक" स्वरूप तीन सेनिको की प्रतिमा आज भी उस पराक्रम के प्रति इजराइल की कृतज्ञता दर्शाती है ।

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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
24/09/2019
चम्बल,मुरैना मप्र

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