बुधवार, 28 मार्च 2018

एक वर्ष पहले एक सत्य पर

#अपनों_से_दूर_अपनी_विरासत

जीवन में एक समय आता हे जब हम स्वम की सोच रखने वाले दूरस्थ इंसानो में अपने आप का प्रतिबिम्ब देखते हे ।
किन्तु प्रतिबिम्ब अधिकतर आभासी होता हे और मन मष्तिष्क की कल्पनायें बास्तविक ।
शनै शनै समय के थपेड़ो के साथ पड़ती हवा के आभाषी प्रतिबिम्ब की गर्त जब हटती हे ।

मन खिन्नता से ग्रषित होता हे क्योंकि हम कुछ ऐसा सोच रखते हे जो की वास्तविकता होता नही और कोमल मन बेफिजूल भावना में अपनत्व का चक्र बना लेता हे ।

बो चक्र चक्र न होकर एक व्यूह होता हे जिसे तोड़ने के लिए श्रीकृष्ण जी जेसे पथ प्रदर्शक की बगैर उपस्तिथि के तोड़ना क्या तोड़ने की कल्पना मात्र बैमानि हे ।

जीवन में कितने ही लोगो से मिले किन्तु जो अपनत्व अपनों में आपको मिलेगा बो कही दूर खोजने पर आभास हो सकता हे लेकिन यथार्त में आप एक विकृत मनुष्यता से जुड़ रहे होते हे ।
सोच दायरे व्यापक करना जीवटता हे वही आपकी सोच के साथ किसी का निरन्तर बने रहना आपकी संकीरता हे ।

क्या जरूरी हे की आप की सोच हर समय वजन रखती हो?
अहम का बहम मत रखिये जिस संस्कृति को आपने सिर्फ अक्षरो में सूना पढ़ा हो उस संस्कृति पर अपना सिकुड़ा हुआ मत कभी मत रखिये ।

एक कहाबत हे दूर के ढोल सुहावने नजदीकी रत जगावने ।।
दुरी का आकर्षण बना रहे काफी हे ,नजदीकियां हमेशा कष्ट कारक होती हे ।

सब के साथ रहे नित्य ईश्वर भजन करे व्यस्त रहे ।
क्योंकि ज्यादा अपेक्षाएं सदैव पीड़ाकारी होती हे ।
                   जितेन्द्र सिंह तोमर

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