सोमवार, 27 नवंबर 2017

★चम्बल एक सिंह अवलोकन★भाग 11

===चम्बल एक सिंह अबलोकन===
                भाग -११
        ●रूपा पण्डित' दीक्षित'●
"खेड़ा राठौड़"..............!
ये नाम आपको जाना पहचाना लग रहा होगा.... ऐसे हर आदमी को जिसका चंबल से जरा सा भी रिश्ता है उसको ये नाम कभी भूल ही नहीं सकता है।
और कभी न भूलने का एक तगड़ा कारण भी हे किवदंतियों ,किस्सों,नोटंकियो के बिभिन्न माध्यमो के द्वारा आम जनमानस के मस्तिष्क पटल में एक अमित छाप जो हे इस बीहड़ी गाँव की ।हम लाख कोशिश करे की स्मरण विस्मरण हो जाए किन्तु इस ठिकाने में बने हुए दो बागि मन्दिरो के घड्याळ और नित्य शांध्य् कालीन भजन पूजन हमे कुछ सोचने को मजबूर कर ही देती हे ।कि जब जब ये डाकू थे तो इन मन्दिरो का असितित्व क्यों ?
जी बागी सम्राट् राजा मानसिंह मन्दिर से थोड़ा हटकर एक और बागी का मन्दिर हे और दस्यु का नाम था 'रुपा महाराज उर्फ़ रुप्पे पण्डित बिल्लोरी आँखों बॉला चम्बल का एक सरदार जिसने T Quin (कोड नेम) जेसे अधिकारी से मित्रता की और इसी मित्रता के पाश में बंधकर चम्बल के झलावे के रूप मशहूर लाखन सिंह का एनकाउंटर करवाना चाहां और पुलिस व्यूह में स्वम फस गया । आइये काफी समय वाद पुनः "चम्बल एक सिंह अबलोकन" श्रंखला की अगली कड़ी में रूबरू होते हे रुपा महाराज से ।
ये गांव  राजा मानसिंह का गांव है। टूटे-फूटी गढ़ी में मानसिंह की कहानी आपको सुनाई दे सकती है लेकिन इस गढ़ी के सामने  बिखरे पड़े मिट्टे के टीलों में भी ये किस का घर हे ये कोई आसानी से नहीं बता सकता।दशकों के मौसम की मार झेलता हुआ एक घर अब टीला बन चुका लेकिन इस टीले से निकली एक आवाज अब भी चंबल के बीहड़ों में गूंजती है।जब भी मानसिंह का नाम गूंजता है तो एक और आवाज साथ में फूट पड़ती है वो है रूपा पंडित की आवाज।  मानसिंह की गढ़ी के ठीक सामने उसके आंगन में एक छोटा सा घर कभी के रूप्पे पंडित का घर था।  रूपा के पुरखे मध्यप्रदेश में रहते थे लेकिन  मानसिंह के परिवार वाले कुल पुरोहिताई के लिए उनको मध्यप्रदेश से बुला कर लाए थे और रहने के लिए अपने ही हिस्से से थोड़ी  सी जमीन दे दी थी। रूपा का परिवार इसी पुरोहिताई और थोड़ी सी खेती के सहारे अपने दिन काट रहा था।

मानसिंह के परिवार की दुश्मनी गांव के पंडित तलफीराम से शुरू हुई तो आंच रूपा महाराज के परिवार पर आनी शुरू हो गई।30जुलाई1928गांव में कत्ल हुए तो रूपा के पिता छविराम का नाम भी मानसिंह के साथ ही लिखा दिया ।
मामले में मानसिंह के साथ छविराम को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।  छविराम जेल से बाहर नहीं आ पाया। उसके चार लड़के रूपनारायण,कन्हाई,लक्ष्मीनारायण और दुल्ला  पूरे तौर पर मानसिंह के परिवार पर ही निर्भर थे। रूपनारायण उर्फ रूप्पा उस वक्त महज12साल का था। छविराम की तबीयत जेल में खराब रहने लगी। और फिर एक दिन छविराम ने आखिरी सांस लेते हुए मानसिंह से वचन लिया कि वो रूप्पे का अपने बेटे की तरह से ख्याल रखेंगा।

छविराम का परिवार सदमे में दिन गुजार रहा था कि एक और हादसा इस परिवार के साथ हो गया।एक दिन पुलिस गांव में पहुंची और रूपा के चाचा मुरारीराम को पकड़ कर ले गई। और उसके कुछ देर बाद लाश बीहड़ों में पड़ी मिली.................
मुरारीराम का किसी से कोई झगड़ा नहीं था। रूपा लाश की हालत देखकर रोता हुआ पुलिस के पास पहुंचा और हत्यारों को पकड़ कर सजा दिलाने की गुहार लगाई। किस्सा है ये कि थाने में रूपा को बजाय मदद के एक किक मिली और थाने से बेईज्जत कर बाहर कर दिया।चंबल में जब भी कानून से किसी को निराशा मिलती है उसकी आशा बीहड़ों में सिमट आती है। रूपा के लिए तो चंबल वैसे भी जाना-पहचाना था।
किशोर वय रुपा अभी मात्र 14 वर्षीय था और चम्बल की शरण में एक शातिर बिल्लोरी आँखों बाला रहस्य भी बाज की मांनीद जवान होता गया उम्र के साथ अपराध भी परवान चड़ने लगे .........

शुरूआत में गांव में आने वाले गैंग के लिए पहरे पर खड़े होने वाले रूपा की दिलेरी मानसिंह के दिल में घर करने लगी।रूपा को सिर्फ बाहर से नहीं भीतर से चंबल को देखना था। बंदूकों की रखवाली नहीं करनी थी बल्कि बंदूकें चलानी थी। रूपा ने बंदूकों का साथ देते देते एक दिन खुद ही बंदूक थाम ली। और अब वो चंबल में मानसिंह गैंग का एक मैंबर हो गया। एक ऐसा मेंबर जिसको मानसिंह बेटे जैसा मानते थे।रूपा का निशाना काफी तेज था। पुलिस की फाईलों में रूप्पा का नाम दर्ज हो गया रूपापंडित के तौर पर। मानसिंह के गैंग में उनका बड़ा भाई नवाबसिंह,बेटा सूबेदार सिंहऔर तहसीलदार सिंह थे। लेकिन रूपा अपनी पहचान बनाने में सफल रहा था।
रूपा ने अपने बाप की मौत के बाद सिर्फ मानसिंह को ही अपना सगा मान लिया था। मानसिंह के इशारे परकिसी भी जान लेने के लिये तैयार रूपा उसके एक इशारे पर अपनी जान देने के लिए भी तैयार रहता था।रूपा अपने सरदार मानसिंह की तरह ही पूजा पाठी था। और किसी भी वारदात से पहले शगुन का विचार करता था। यहां तक कि मानसिंह की आखिरी मुठभेड़ से पहले भी उसने मानसिंह से गैंग को उस दिशा में ले जाने से मना किया था।  लेकिन होनी को कौन टाल सकता है इतने शगुन विचार वाले रूपा पंडित को भी पुलिस कीगोलियों का ही निशाना बनना था।
मानसिंह के गैंग में लोग बढ़ने लगे थे। और गैंग में एक और डकैत था जिस पर गैंग को नाज था और वो था लाखन सिंह तोमर। लाखन सिंह और रूपा गैंग में एक दूसरे से होड़ करते थे। दोनो बेहद शातिर और तेज निशानेबाज,और दोनो पर ही गैंगकी नजर। ऐसे में मानसिंह को लगने लगा था कि इन दोनों की दोस्ती गैंग को लेकर कभी भी दुश्मनी में बदल सकती है। और ऐसे में एक दिन मानसिंह ने गैंग को दो हिस्सों में बांट दिया। एक हिस्सा लाखन सिंह को देकर दूसरे हिस्से में रूपा को रख लिया।लाखन सिंह ने अलग गैंग बना लिया। और रूपा मानसिंह के साथ रह कर वारदात करने लगा। इसीबीच एक मुठभेड़ में मानसिंह का लड़का तहसीलदार सिंह घायल होकर गिरफ्तार हो गया।तहसीलदार सिंह के खिलाफ कुछ लोगो ने गवाही दी। तहसीलदार सिंह को फांसी की सजा से बचाने के लिए मानसिंह और रूपा ने चंबल में तबाही मचा दी। हर उस गवाह या उसके रिश्तेदारों को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया जिसकी गवाही से तहसीलदार सिंह के गले पर फांसी का फंदा कस सकता था।
एक दिन मानसिंह गैंग लौट रहा था कि उसकी पुलिस से मुठभेड हो गई। मुठभेड़ में मानसिंह पुलिस के जवान गोविंद सिंह थापा की गोलियों का निशाना बन गया।  गोलियों से जख्मी मानसिंह ने रूपा को देखा और दम तोड़ दिया। रूपा अपने मुखिया की लाश को वहां छोड़ना नहीं चाहता था।100किलो वजनी मानसिंह की लाश को कंधें पर उठाकर रूपा ने दो किलोमीटर तक दौड़ लगाई लेकिन सैकड़ों की तादाद में पुलिस की गोलियां गैंग पर भारी पड़ रही थी। गैंग के लोगो ने रूपा से लाश को वही छोड़कर निकलने को कहा। निराश रूपा ने लाश को वहां रखा और हाथ जोड़कर सबके सामने कसम खाई कि वो इस खून का बदला लेगा।
गैंग लौट चुका था। मानसिंह के साथ उसका बड़ा बेटा सूबेदार सिंह भी मारा जा चुका थाऔर तहसीलदार सिंह जेल में था। ऐसे में गैंग की कमान किसको दी जाए। मानसिंह का बड़ा भाईनवाबसिंह जिंदा था लेकिन गैंग को एक ऐसे मुखिया की जरूरत थी जो टूटे हुए मनोबल को ऊंचा उठा सके और गैंग का रुतवा बनाएं रखे। सबकी निगाहें टिकी रूपा पंडित पर। और चंबल में मानसिंह के बाद उसके गैंग की कमान संभाल ली रूपा पंडित ने।  रूपा पंडित अब रूपा महाराज बन चुका था। और वक्त था उसकी कसम पूरी करने का।रूपा महाराज चंबल में खौंफ का नया नाम बन चुका था। गैंग की कमान संभालते ही उसने दुश्मनों से हिसाब किताब करना शुरू कर दिया। लाखन सिंह का गैंग भी चंबल में बड़ा गैंग बन चुका था। पहले तो मानसिंह की मौत के बाद सुलह सफाई हुई। लेकिन जल्दी ही चंबलकी बादशाहत को लेकर दोनो में दुश्मनी ने एकनया रंग ले लिया।पहले लाखन ने कुछ लोगो को परेशान किया रूपा के फिर रूपा नेलाखन के लोगो को मारना शुरू कर दिया।दोनों गैंग का आमना-सामना भी होने लगा।
लाखन सिंह के साथ के लोग आसानी से रूपा महाराज या उसके गैंग पर गोलियां चलाने से इस लिये भी पीछे हट जाते थे कि ये मानसिंह का गैंग है यानि राजा मान सिंह का गैंग जिसको चंबल में किसी ने चुनौती नहीं दी थी।चंबल में रूपा ने जल्दी ही मानसिंह की तरह से ही दरबार लगाना शुरू कर दिया। चंबल के गांवों में रूपा का कहा कानून बन गया। कानून से निराश लोगों ने रूपा के दरबार मेंगुहार लगाना शुरू कर दिया। रूपा हर किसी काइंसाफ अपने अंदाज में करता था। उसके फैसले के खिलाफ कही अपील नहीं थी। जिसको भी दोषी पाया गया उसकी सजा मुकर्रर थी। एक गोली की आवाज और सांस जिस्म से बाहर।मानसिंह की मौत के बाद उसके दुश्मनों ने फिर से सिर उठाया। मानसिंह की जमीन को जोतना शुरू कर दिया। मानसिंह की पत्नी रूकमणी देवी हताश थी क्योंकि तहसीलदार सिंह जेल में था और पूरे गांव में पहरा। मानसिंह के दुश्मन  दीवाली का त्यौहार जोरो-शोरो के साथ मनाने जा रहे थे। गांव में शाम हो चुकी थी। और कुछ पटाखों की आवाज आई। लेकिन ये पटाखें दीवाली के पटाखे नहीं थे ये मौत के पटाखे थे और मौत रूपा महाराज के नाम से आई थी।रूपा ने ये ऐलान कर दिया था कि जब तक वो जिंदा है मानसिंह के परिवार की ओर आंख उठाने वाले को गोलियों से भून दिया जाएगा।
रूपा का आतंक चंबल में फैलता जा रहा था। रूपा के गैंग में35से40लोग थे। और पुलिसके मुताबिक हर रोज का खर्च200रूपए था। गैंग के पास सबसे अत्याधुनिक हथियार थे।  टेलीस्कोपिक राईफल तो रूपा की पहचान थी तो उसके गैंग के पास शक्तिशाली दूरबीन,हैंडग्रेनेड,टीएमसी,ब्रेनगन और वॉयरलैस सेट तक थे।  रूपा ने दशको तक पकड़ कर उनके परिवारवालों से लाखों रूपए इकट्ठा किए । पुलिस रूपा का कुछ नहीं बिगाड पा रही थी। गैंग अपहरण करता और रूपा का नाम घर तक पहुंचता था और घर वाले पैसा पहुंचा दिया करते थे।
एक बार चंबल के एक गांव से रूपा केगैंग ने पकड़ की और लड़के के बाप को फिरौती की खबर भिजवा दी गई। लेकिन लड़के के बाप ने ये खबर पुलिस को दे दी। ये बात रूपा तक पहुंची तो रूपा ने घात लगाकर बाप को भी उठा लिया। उसके बाद चंबल के बीहड़ों में बाप बेटे को ऐसी यातनाएं दे कर मौत के घाट उतारा कि सुनने वालों की रूह कांप उठे। इसके बाद चंबल में रूपा का विरोध करने की हिम्मत किसी की नहीं रही।चंबल में रूपा का नाम आंतक और खौंफ का नाम बन चुका था।. अब यदि पुलिस को किसी पकड़ के बारे में जानकारी मिलती और वो पूछताछ के लिए भी पहुंचती तो पकड़ के परिवार वाले ही पकड़ से इंकार कर देते थे।
चंबल में रूपा महाराज का नाम तो गूंज रहा था लेकिन बेताज बादशाह बनने की इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी। और ये ही कारण था कि रूपा और लाखन की दुश्मनी बढने लगी।चंबल में एक तरफ रूपा की बंदूकें गरज रही थी तो उसी  वक्त लाखन सिंह भी पुलिस को नाकों चने चबवा रहा था। लगातार डकैतियों और कत्ल की वारदात से पुलिस हैरान-परेशान हो उठी।  चंबल का बादशाह बनने के लिए छटपटा रहे रूपा महाराज ने अपने गैंग के लोगो से वादा किया कि वो लाखन को खत्म कर के रहेगा। दोनों गैंग कई बार आपस में टकराए लेकिन हर बार लाखन बच कर निकलने में कामयाब हो गया।लाखन सिंह से बुरी तरह नाराज रूपा भी चाहताथा कि किसी तरह से लाखन सिंह का सफाया हो जाए तो फिर चंबल में उसके सामने बोलने वाला कोई नहीं बचेगा। रूपा को बादशाहत पसंद थी। वो किसी को भी मार गिराने में पल भर भी नहींलगाता था।
चंबल के किस्सों में एक बहुत मशहूर किस्सा है कि1946में रूपा अपने मुखिया मानसिंह से कहकर चंबल से बाहर कोलकाता गया था। महीनो बाद लौटे रूपा से मानसिंह ने पूछा कि तुमने कोलकाता क्या किया तो उसने जवाब दिया था कि दाऊ एक दर्जन से ज्यादा लोगो का सफाया।रूपा इस दौरान चंबल में वारदात भी कर रहा था। चंबल में उसने सैकड़ों पकड़ की थी,और सैकड़ों डकैतियों से उसको लाखों का माल हासिल हुआ था। खुद गांव के लोग भी सामान पहुंचाते थे। ऐसे में इतनी रकम का रूपा क्या करता था ये सवाल भी पुराने पुलिस अधिकारियों की डायरियों मिलता है।
बाप का कत्ल कर उसके बेटे को पैसा थमा देने जैसी सनक का शिकार था रूपा। किसी पर खुश होकर उसके पैसा थमा देना उसके लिए रोजमर्रा की बात थी।  मध्यप्रदेश पुलिस ने1958में कहाकि वो रूपा का इस साल के आखिर तक सफाया कर देंगी। और रूपा ने पुलिस के इस बयान का अपने अंदाज में जवाब दिया।

क्रमश:
सलग्न चित्र उसैद घात चम्बल

★चम्बल एक सिंह अवलोकन★भाग 10

===चम्बल एक सिंह अबलोकन===
               भाग -१०(द्वितीय)
            ●डाकू पुतली बाई ●
गतान्क से आगे -:
इस बार पुतली का चम्बल के बीहड़ो का पदार्पण हैरतअंगेज व् विषमय कारी रहा जो नृत्यग्ना कभी हारमोनियम, तबला ,घुंघरु की लय पर लोगो का मनोरंजन किया करती थी आजबो रायफलों से गोलियों का संगीत निकाल जन्ममानष को तिगुनी का नाच नचाने बाली थी । इस बार उसको उठाकर नहीं लाया गया था बल्कि वो दुनिया से नाराज होकर खुद लौटी थी।
गैंग में काफी खुशी मनाई गई ,जश्न हुआ और धीरे-धीरे वो इस काम में हिस्सा लेने लगी। और गैंग में उसको पहली जिम्मेदारी दी गई गैंग की लूट का बंटवारा करने की। गैंग की डकैती के बाद लूट का बंटवारा करने की इंचार्ज बन गई थी पुतली।
लेकिन सुल्ताना उसको पूरे तौर पर डकैत बनाना चाहता था। ऐसी डकैत जो हर किस्म का हथियार चलाना जानती हो।
उपलब्ध हर अश्त्र शस्त्र का प्रशिक्षण सुल्ताना द्वारा  दिया गया और फिर एक दिन पुतली को गन देकर एक आदमी पर गोली चलाने को कहा गया। शुरूआती हिचक के बाद पुतली ने गोली चला दी। और चंबल की कहानियों ने दर्ज किया कि जिस शख्स को गोली मारी गई वो पुलिस का आदमी था।
पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हुआ कि “ आल्हा जैसे वीरोचित गीतों को गाने वाले पुतलीबाई के दिमाग में वो गीतचढ़ गए थे। गीतों में गाई गई बहादुरी को उसने कुछ और मान लिया और उसके बाद तो जैसे कानून तोड़ने में उसको मजा आने लगा।
अब वो चंबल की डाकू बन चुकी थी जिसके लिए कानून एक कच्चे धागे से ज्यादा कुछ भी नहीं था।“पुतली बाई "लूट और कत्ल के खेल में शामिल हो चुकी थी। कई कत्ल और लूट कर गैंग के एक्टिव मेंबर में शामिल हो चुकी थी पुतली। लेकिन पुतली को अपनी बेटी (जो बीहड़ कूदने पहले ही जन्म ले चुकी थी)की याद सताने लगी थी वो चाहती थी एक दिन बेटी से मिलकर वापस लौट आएंगी। 
किन्तु  सुल्ताना इसके लिए कभी तैयार नहीं होगा तो उसने सोचा कि जब गैंग लूट के लिए बाहर के इलाके में जाएंगा तब वो सुल्ताना की गैरहाजिरी में अपनी बेटी से मिलकर लौंट आएँगी।
एक दिन मौका मिला  गैंग धौलपुर जिले के रजई गांव में टिका हुआ था। गैंग निकलने ही वाला था कि अचानक गोलियों की बौंछार हो गई।
पुलिस की एक बड़ी बटालियन ने गैंग को घेर लिया था। "सुल्ताना चिल्लाया छिप जाओं पुतली पुलिस आ चुकी है।"
फायरिंग वारिस की तरह हो रही थी  और गैंग ने जल्दी ही इलाका छोड़कर निकला। बीहड़ो में छिपी पुतली बाहर निकली तो वो टीम सामने थी। पुतलीबाई ने आत्मसमर्पण कर दिया उसका ख्याल था कि पुलिस उसको सीधे नहीं फंसाएंगी और कुछ दिन जेल में बीताकर वापस अपनी बच्ची के पास चली जाएगी।
पुतली को ताजगंज आगरा ले जाया गया। वहां से धौलपुर की जेल। और फिर जमानत पर बाहर। लेकिन पुलिस वालों के लिए वो एक कठपुतली बन चुकी थी। पुलिस उसको मुरैना भी नहीं भेजना चाहती थी। पुलिसने दो शर्त रखी कि अगर वो मुरैना जाएंगी तो उसकी बहन को धौलपुर रखना होगा और खुद पुतली को सुल्ताना की मुखबरी करनी होगी। पुतली दोनो शर्तों के लिए तैयार नहीं थी। लेकिन  पुलिस अधिकारी रोज अपनी नाजायज मांगों के साथ पुतली के ठिकाने पर आ धमकते। और एक दिन दिन पुतली ने कहा कि वो तैयार है ।

पुलिस अधिकारी ने खुशी में पहरा हटाया और शाम को शराब पार्टी की शर्त रख दी। शाम को पुलिस अधिकारी शराब और अपने दो दोस्तों के साथ पुतली के ठिकाने पर पहुंचा तो वहां कोई नहीं था। पुतली हवा हो चुकी थी। इस बार पुतली फरार हो गई।पुतली वापस सुल्ताना के पास पहुंची। लेकिन बाबू लुहार ने सुल्ताना के कान भर दिए थे। और सुल्ताना को ये यकीन दिला दिया कि रजई में गैंग की मुखबरी पुतली ने की थी। सुल्ताना ने पुतली से कहा कि वो वापस जाएं। लेकिन पुतली भूखी-प्यासी रह कर भी गैंग में बनी रही तब सुल्ताना पसीज गया और फिर से पुतली को अपने साथ रखने को राजी हो गया। और पुतली इस बार बदला लेने के मूड से गैंग में शामिल हुई थी।
पुतली ने बदला लेना शुरू कर दिया।  पुतली का पहला निशाना वो पुलिसवाले और उनके परिवार बने जिन्होंने पुतली के साथ रंगरेलियां मनाई थी। पुतली घर में डाका डालती जो मिलता मार डालती और उसकी उंगली भी काट लेती थी, घर की महिलाओं के कुंडल के लिए कान उखाड़ देती थी। अब पुतलीबाई की क्रूरता की कहानियां चंबल के गारों में गूंजने लगी थी।इसी बीच चंबल में अपने गैंग को बड़ा करने के लिए सुल्ताना ने लाखन को अपने गैंग में शामिल होने केलिए बुला लिया।
'नगरा 'के लाखन सिंह चंबल में सबसे खूंखार डाकूओं मे गिना जाता था। पुतली ने पहली ही मुलाकात में ताड़ लिया था कि लाखन इस गैंग के लिए खतरा बन जाएंगा।और पुतली ने लाखन गैंग का विरोध कर वीहड़ी सल्तनतों में आपसी वैर कर दिया ।
  पुतली की जिंदगी फिर से करवट ले रही थी। दोनो गैंग के लोग एक दूसरे को फूटी आंख नहीं देख  रहे थे लेकिन सुल्ताना को लाखन पर यकीन था।
२५मई १९५५को थाना नगरा जिला मुरैना के गांव अर्जुनपुर में दोनों गैंग के मतभेद खत्म करने के  बातचीत होनी थी कि पुलिस ने गैंग को घेर लिया। ब्रेनगन और स्टेनगन से लैस पुलिस की फायरिंग से गैंग के पांवउखड़ने लगे। सुल्ताना का सबसे वफादार साथी मातादीन मारा गया।  सुल्ताना ने पुतली को बाबू लुहार को सौंपा और कहा कि इस सुरक्षित जगह ले जाओं।  पुतली एक टीले से छिपी मुठभेड़ देख रही थी।  और मैगजीन निकालने भरने के चक्कर में भूले सुल्ताना के जिस्म में पिघल शीशा अपनी जगह बना चूका था ....सुल्ताना मारा गया।चम्बल में किश्मत के धनी लाखन के साथ किस्मत यहां भी साथ दे गयी भरा हुआ गठीले शरीर के स्वामी लाखन का भोंपू यहां काम आया और दूर से पुलिस पार्टी पर ग्रेनेड फेंक उडी हुई धूल में लाखन बोतल से निकले हुए भुत की तरह गायव थे और भोंपू के मुह से बन्धी यही पकड़ बचाओ बचाओ की युक्ति काम कर चुकी लाखन गायव था लेकिन उसके पीछे छूटी सुल्ताना की लाश और कुछ रसद का सामान के साथ जीवित एक पकड़ ...

पुतली के लिए ये आसमान टूटने से कम नहीं था क्योंकि उसकी पूरी जिंदगी फिर से राख में बदलने वाली थी मुठभेड़ के बाद पुलिस को मरे हुए डाकुओं में सुल्ताना की लाश मिली थी। पुलिस ने दावा किया कि सुल्ताना उसकी गोलियों का निशाना बना.••••

कहा जाता है कि पुतली ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक खत लिखा और कहा कि सुल्ताना को पुलिस की गोलियों ने नहीं गैंग की गोलियों ने मारा है। हालांकि पुलिस ने इस बात का खंडन किया था। लेकिन सुल्ताना किसी की भी गोलियों से मरा लेकिन पुतली का सुल्ताना मारा जा चुका था और अब उसकी जिंदगी बिना डोर की पतंग हो गई जिसको जो चाहे लूट ले।सुल्ताना की लाश जली भी नहीं थी कि बाबू लुहार गैग का मुखिया बन गया। और उसी रात पुतली के साथ उसने सबके सामने बलात्कार कर अपने अपमान का बदला लेने की घोषणा की। बाबू लुहार के साथ ही गैंग का दूसरे नंबर का सरदार पहाड़ा गुजर भी पुतली के साथ बलात्कार करने लगा। बेबस पुतली अपने वक्त का इंतजार कर रही थी। और मौका ज्यादा दूर नही था। चार महीने के भीतर मुरैना के  ही एक दूसरे इलाके में 'थानकी भूमिया "उसैद" की गारो 'में पुलिस के साथ गैंग की मुठभेड़ हो गई. चारों और से गौलियों की आवाज ही आवाज थी। गांव  के रास्ते से गैंग निकलकर भागना चाहता था। पुतली ने दिमाग लगाया और बाबू से कहा कि उस तरफ टीले से देख लोग कि पुलिस उस तरफ है या नहीं। बाबू ने जैसे ही उधर मुडा इधर पुतली की राईफल गरज गई। और बाबू ढेर हो गया।पुतली का पहला बदला पूरा हुआ। पुलिस ने इस मुठभेड़ पर भी अपना दावा जताया तो पुतली ने फिर से एक खत देश के प्रधानमंत्री को लिख दिया। खबरों की सुर्खियों में ये विवाद रहे। इसके बाद पहाडा ने पुतली से समझौता कर लिया और उसके साथ रहने लगा। इन दोनो से एक और बच्चा हुआ जिसका नाम सुर्रा  रखा गया। लेकिन पहाडा का साथ भी ज्यादा नहीं चला और एक दिन पुलिस की गोलियों ने पहाड़ा की जिंदगी की गिनती भी पूरी कर दी।
इसके बाद कल्ला पुतली के साथ गैंग का सरदार बना। इस बार पुतली गैंग की सरदार थी। कल्ला ने पुतली को अपना सरदार मान लिया था। यहां तक कि कल्ला ने कहा कि यदि पुतली चाहे तो वापस अपनी दुनिया में लौट सकतीहै। पुतली बाई जानती थी कि चंबल में मुड़े कदम श्मशान जाने के लिए लिए ही निकलते है। इस कशमकश में कहते है कि पुतलीबाई ने फिर एक चिट्ठी देश के प्रधानमंत्री को लिखी। नंबवर १९५६ में लिखी इस चिट्ठी में एक औरत की चंबल की जिदगी के बारे में बताते हुए कहा कि क्या कानून पुतली को माफ करेगा अगर वो वापस लौटना चाहे तो। चिट्टी का कोई जवाब नहीं आया औ पुतली बस चंबल की डाकू रानी बनी रही।
इस बार गैंग कल्ला पुतली का गैंग था और चंबल को इस गैंग ने थर्रा कर रख दिया। लेकिन किस्मत ने सारी कहानी पुतली की जिंदगी के लिए ही बचा रखी थी। एक दिन भिंड जिले के गोरमी में पुलिस की मुठभेड़ पुतली के गैंग से हो गई। पुलिस बल के लोगो ने देखा पुतली अपने बेटे को गोद में लेकर पुलिस वालों पर सीधे राईफल से गोलियां दाग रही थी। इसी बीच पुलिसकी गोली ने पुतली का जिस्म खोज लिया। एक गोली कंधें के पार हो गई। कल्ला ने पुतली को कंधे पर उठाया और सीधे दौड़ लगा दी।
पुलिस दो महीने तक चंबल में खून के निशान के सहारे पुतली की लाश खोजती रही लेकिन कही कोई सुराग नहीं मिला। फिर एक दिन पुलिस को सूचना मिली कि गैंग 'खतौली' में रूका हुआ है। चाल प्लाटूनों ने गांव घेर लिया। गांव की तलाशी शुरू हुई। अभी दो घरों की तलाशी पूरी हुई थी और जैसे ही पुलिस तीसरे घर में घुसी कि अचानक फायरिंग शुरू हो गई। एक गोली पुलिस ऑफिसर का सीना चीर गई. मरने से पहले पुलिस अधिकारी ने बताया कि उसको पुतली ने गोली मारी है और उसका एक हाथ कट चुका है। दाए हाथ से गोली चला रही पुतली का बाया हाथ अब कटा हुआ है। गैंग साफ बच निकला। लेकिन किसी क यकीन नहीं  आ रहाथा कि एक हाथ से कोई औरत सीधे पुलिस पर हमले कर रही हो। कुछ ही दिन बाद कनारी पुरा गांव में एक और मुठभेड़ हुई। दोपहर में गैंग के खाना खाते वक्त पुलिस ने धावा बोला और वहां से गैंग बच निकला लेकिन मौके से पुतली की लिपिस्टिक मिली और भागती हुई पुतलीबाई को कई पुलिस अधिकारियों ने देखा कि उसका एक हाथ गायब है। बाद पुलिस ने तहकीकात की तो पता चला कि मुठभेड़ में घायल पुतली ग्वालियर गई और वहां एक सर्जन को २०००० रूपए देकर अपनी घायल हाथ को कोहनी से कटवा दिया था पुतली की बाह कटी तो जैसे उसके अंदर की औरत भी मर गई। बचा-कुचा दर्द भी गायब होगया। पुतली ने अब कत्लोगारत शुरू कर दी।
पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक दिसंबर १९५७ में दो ही डकैतियों ने कल्ला पुतली गैंग ने ७५००० रूपए की रकम लूट ली थी।
भिंड, मुरैना, शिवपुरी और ग्वालियर जिले पुतली गैंग के आतंक से कांप उठे थे। उधर लाखन गैंग भी इलाके में लूट और कत्ल का सिलसिला बनाएं हुए था। सरकार ने फैसला किया कि लाखन का पहले सफाया और फिर पुतली गैंग का।
समय की भी अपनी कहानी होती है। पुतली की उम्र लगभग २७ साल की हो चुकी थी... ये उम्र भले ही कम हो लेकिन इतने मोड़ों से बहती हुई पुतली की कहानी का आखिरी पन्ना अब लिखा जाना था।

२३ जनवरी १९५८ को पुलिस को सूचना मिली थी कि लाखन गैंग मुरैना के कोंथर गांव में पहुंचा हुआ है । एक बड़ी तादाद में पुलिस बल तैनात कर दिया गया ।  गैग के भागने के सभी रास्ते बंद कर दिए गए।  पुलिस की घेराबंदी पूरे तौर पर मुकम्मल करने के लिए क्वारी नदीं के दूसरे किनारों के गावों मे भी प्लाटून तैय्यार करदी गई थी। अरूसी,सिहोनिया, लेपा, सांगोली, तरसमा, और दूसरे सभी गांवों में हथियार बंद पुलिस थी। पुलिस अब इंतजार कर रही थी। एक एक पल एक एक युग के बराबर लग रहा था। तभी पुलिस को तरसमा के इलाके से एक दर्जन लोग आते दिखाई दिए। एक प्लाटून उस तरफ भेजी लेकिन तभी गैंग की तरफ से पहला फायर हुआ।
पुलिस चौंक उठी कई वर्षो से लंबे डाकू  जीवन में लाखन गैंग जो पुलिस के जिन्द बना हुआ था आज कैसे सामने आ गया ?
अचानक पुलिस दल कप्तान  के कानों में आवाज आई पुतली।अरे ये तो पुतली की गैंग है। कैलाश सिंह ने समय नहीं गवाया और चारो ओर से गैंग को घेरना शुरू कर दिया। कल्ला ने मौके की नजाकर देखी। गैंग दो हिस्सों में बांट दिया। पांच आदमियों के साथ एक और बढ़ा और गैंग से दस निशानेबाज पुतली को देकर क्वारी नदी की ओर बढ़ने को कहा। पुतली और क्वारी नदी के बीच एक चने का खेत था। पुतली को लगा कि खेत से होते हुए यदि वो नदी पार कर लेती है तो फिर बीहड़ में निकल जाएंगी पुलिस की गोलियों से दूर। लेकिन किस्मत का फैसला हो चुका था। गैंग के सारे निशानेबाज पुलिस के निशाने पर आकर मर चुके थे और अकेली पुतली खेत में इधर से उधऱ भाग रही थी। गोलियों के बीच से पुतली ने जेब में पड़े नोट उडाने शुरू कर दिए और पानी में उतरते ही पहनी हुई जैकेट और पेंट उतार कर फेंक दी। एक हाथ से नदी चीरती हुई पुतली ने जैसे ही दूसरे किनारे पर सर उठाया तो उसको दिख गया कि आज का दिन आखिरी दिन है और आज की महफिल मौत की महफिल है। क्योंकि दूसरी तरफ इंतजार कर रही प्लाटून ने फायर ओपन कर दिया और पुतली की जिंदगी की डोर टूट गई।  कहते है पुलिस टैक्टर के पीछे बांध कर डाकूओं की लाश खींचती हुई गांव तक गई और वहां से इन लाशों को मुरैना शहर में ले जाया गया। भारी भीड़ देखने आई डकैतो की मलिका पुतलीबाई की आखिरी सांस.....
जिसने अपने पीछे छोड़े घुंघरू की झनकार ,आल्हा के गीत,समारोहों शिरकत करती गोहरबानो ,तो बीहड़ी पहली महिला दस्यु "पुतली बाई "की कहानी ..........
सुल्ताना की बेटी तन्ना और पहाडा से बेटा सुर्रा .जिनका कोई अता पता नहीं ...
     
(मिलते हे कुछ समय बाद अगली किसी नए बीहड़ी किरदार के साथ  )

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...