#क्रांतिनायक_राजाराव_रामबख्शसिंह
वह 17 दिसम्बर 1859 का दिन था,जब क्रांतिकारी राजा की मुश्के जंजीरों से पग बेड़ियों से जकड़े हुए थे। अंग्रेज जज हेमिल्टन जॉर्ज कचहरी में आया तो सब खड़े हुए किन्तु वह अभियुक्त गजभर सीने को और चौड़ाकर एक पग जमीन तो एक पग ब्रेंच पर सिंहमुद्रा की यथास्थिति से रत्तीभर भी न बदला और नाममात्र दिखावे दण्ड व्यबस्था ने अभियुक्त को "हैंग टिल डेथ!" की सजा बोल दी ।
वह कोई फांसीघर नही था जँहा मृत्युदण्ड हेतु फांसी दी जाए,वह तो आम आबादी के मध्य गंगा तीर खड़ा एक वृक्ष था जँहा ब्रितानी से बगावत करने बालो मन मे भय व्याप्त करने हेतु फांसी दी जा रही थी ।
चेहरे पर नकाब नही डाला गया,जल्लाद ने फंदा डाला और दूसरा छोर खींचा की मोटी बत्त का फंदा टूट गया ..!
पुनः फंदा बना प्रक्रिया दोहराई गयी किन्तु पुनः फंदा टूट गया ..!!
फांसी पाने बाले सिंह व्यक्ति ने एक निश्छल मुस्कान लेते हुए अंगड़ाई ली ओर गले मे पड़ी हुई रुद्राक्ष माला उतारते हुए कहा ..."है माँ गंगे अब मुझे अपनी स्नेही अंक में बुला लो,में तैयार हूं !"
फांसी फंदा प्रक्रिया पूनः दोहराई गयी और एक छोर खिंचा गया एक माँ भारती का सपूत अपने आत्मोत्सर्ग उपरांत घण्टो वृक्ष ओर फांसी पर लटका रहा ।
असिस्टेंड कमिश्नर सी के क्रेमलिन की उपस्थिति में यह फांसी हुई थी व वह खुद हतप्रभ हुआ जब दो बार फांसी का फंदा टूट गया था, अंततः उसने करीब एक घण्टे तक राव जी लटकाये रखा और जब पूर्ण सन्तुष्ट हो गया तब मृत्युप्रमाण पत्र जारी कर लिखा ..'आज दिसम्बर 28 1859 राजा राव रामबक्श सिंह को जब तक फांसी पर लटकाया की वह मृत नही हो गए !'
यह कहानी है बैसबारा के अमर बलिदानी राजा राव रामबक्श सिंह जी की जो 1857 की क्रांति यज्ञ में आहूत हुए तमाम बागियों की तरह अंग्रेजो के काल बने थे।
बैसवारा के क्रांतिकारी राव राम बख्श सिंह को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। उन्हें एक घंटे तक फांसी पर लटकाने का आदेश हुआ था। 17 दिसंबर 1858 को फांसी पर लटकाने के आदेश के एक साल 11 दिन बाद 28 दिसंबर 1859 को राव साहब को उसी जगह पर फांसी दी गई, जहां उन्होंने अंग्रेजों को मारा था।
दरअसल 29 जून 1857 को राव राम बख्श सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारी जान बचाने के लिए डिल्लेश्वर मंदिर में घुसे थे। परिस्थिति ऐसी बनी कि 12 अंग्रेज जिंदा जला दिए गए। इसमें जनरल डीलाफौस समेत आठ की मौत हो गई थी। इसी के बाद राव साहब को फांसी की सजा सुनाई गई थी। किवदंती है कि राव साहब को फांसी देते वक्त दो बार फंदा टूट गया। इस पर राव साहब ने गले में पड़ी भोले शंकर के नाम की माला खुद से अलग की। तब जाकर अंग्रेज उन्हें फांसी दे पाए थे। राव साहब की इच्छा पर फांसी के दिन ही बक्सर के लंबरदार देशराज सिंह को उनका शव सौंप दिया गया।
महंत शोभन सरकार के स्वप्न ओर तात्कालिक शाशको के द्वारा पुरातत्व विभाग द्वारा गढे हुए स्वर्ण खजाने की दिलचस्प चर्चा में आये ढोढ़ीयाखेड़ा गढ़ दिसम्बर2016 की आम चर्चाओ में चर्चित रह चुका है,यह त्रिलोकचंदी बैसो वंश का किला है जिसके विषय मे कहाबत है कि यह किला तिलिसम से भरा है व यंहा सोने का अकूत खजाना छिपा है ।
डौंडियाखेड़ा को प्राचीनकाल में द्रोणिक्षेत्र या द्रोणिखेर भी कहा जाता था। अंग्रेजों ने अंतिम राजा राव रामबख्श सिंह को फांसी देने के बाद इस किले पर हमला करके तहस नहस कर दिया। बाद में टूटे फूटे किले को एक दूसरे बैंस राजा दिग्विजय सिंह (मुरारमऊ ) को सौंप दिया। यह किला उन्नाव जिले से 33 मील दूर दक्षिण पूर्व में है, जो 50 फुट उंचे विशाल टीले पर बना था। पश्चिम की ओर गंगा नदी की धारा टीले को छूती बहती है। किले का मुख्य द्वार पूर्व की ओर था। किले की सामने से लंबाई लगभग 385 फुट थी और पीछे का हिस्सा इससे कुछ और अधिक चौड़ा था !
1857 की क्रांति के अमर नायक राजा राव रामबक्श सिंह,तात्या टोपे,राणा बेनीमाधव सिंह,रानी लक्ष्मी बाई,कुँअर सिंह आउबा,राजा निम्बा सिंह तंवर,कुँअर सिंह इत्यादि जैसे वह युग युगांतर के योद्धा है जिनमे कुछ जनमानस को स्मरण है ओर कुछ विस्मृत ..!
राजा राव रामबक्श सिंह जी के बलिदान दिवस पर कोटिस नमन है ।🙏
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जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र