सोमवार, 28 दिसंबर 2020

राजा राव रामबक्श सिंह जी डोडियाखेड़ा उन्नाव

#क्रांतिनायक_राजाराव_रामबख्शसिंह

वह 17 दिसम्बर 1859 का दिन था,जब क्रांतिकारी राजा की मुश्के जंजीरों से पग बेड़ियों से जकड़े हुए थे। अंग्रेज जज हेमिल्टन जॉर्ज कचहरी में आया तो सब खड़े हुए किन्तु वह अभियुक्त गजभर सीने को और चौड़ाकर एक पग जमीन तो एक पग ब्रेंच पर सिंहमुद्रा की यथास्थिति से रत्तीभर भी न बदला और नाममात्र दिखावे दण्ड व्यबस्था ने अभियुक्त को "हैंग टिल डेथ!" की सजा बोल दी ।
वह कोई फांसीघर नही था जँहा मृत्युदण्ड हेतु फांसी दी जाए,वह तो आम आबादी के मध्य गंगा तीर खड़ा एक वृक्ष था जँहा ब्रितानी से बगावत करने बालो मन मे भय व्याप्त करने हेतु फांसी दी जा रही थी ।

चेहरे पर नकाब नही डाला गया,जल्लाद ने फंदा डाला और दूसरा छोर खींचा की मोटी बत्त का फंदा टूट गया ..!
पुनः फंदा बना प्रक्रिया दोहराई गयी किन्तु पुनः फंदा टूट गया ..!!
फांसी पाने बाले सिंह व्यक्ति ने एक निश्छल मुस्कान लेते हुए अंगड़ाई ली ओर गले मे पड़ी हुई रुद्राक्ष माला उतारते हुए कहा ..."है माँ गंगे अब मुझे अपनी स्नेही अंक  में बुला लो,में तैयार हूं !"
फांसी फंदा प्रक्रिया पूनः दोहराई गयी और एक छोर खिंचा गया एक माँ भारती का सपूत अपने आत्मोत्सर्ग उपरांत घण्टो वृक्ष ओर फांसी पर लटका रहा ।
असिस्टेंड कमिश्नर सी के क्रेमलिन की उपस्थिति में यह फांसी हुई थी व वह खुद हतप्रभ हुआ जब दो बार फांसी का फंदा टूट गया था, अंततः उसने करीब एक घण्टे तक राव जी लटकाये रखा और जब पूर्ण सन्तुष्ट हो गया तब मृत्युप्रमाण पत्र जारी कर लिखा ..'आज दिसम्बर 28 1859 राजा राव रामबक्श सिंह को जब तक फांसी पर लटकाया की वह मृत नही हो गए !'

यह कहानी है बैसबारा के अमर बलिदानी राजा राव रामबक्श सिंह जी की जो 1857 की क्रांति यज्ञ में आहूत हुए तमाम बागियों की तरह अंग्रेजो के काल बने थे। 
बैसवारा के क्रांतिकारी राव राम बख्श सिंह को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। उन्हें एक घंटे तक फांसी पर लटकाने का आदेश हुआ था। 17 दिसंबर 1858 को फांसी पर लटकाने के आदेश के एक साल 11 दिन बाद 28 दिसंबर 1859 को राव साहब को उसी जगह पर फांसी दी गई, जहां उन्होंने अंग्रेजों को मारा था।

दरअसल 29 जून 1857 को राव राम बख्श सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारी जान बचाने के लिए डिल्लेश्वर मंदिर में घुसे थे। परिस्थिति ऐसी बनी कि 12 अंग्रेज जिंदा जला दिए गए। इसमें जनरल डीलाफौस समेत आठ की मौत हो गई थी। इसी के बाद राव साहब को फांसी की सजा सुनाई गई थी। किवदंती है कि राव साहब को फांसी देते वक्त दो बार फंदा टूट गया। इस पर राव साहब ने गले में पड़ी भोले शंकर के नाम की माला खुद से अलग की। तब जाकर अंग्रेज उन्हें फांसी दे पाए थे। राव साहब की इच्छा पर फांसी के दिन ही बक्सर के लंबरदार देशराज सिंह को उनका शव सौंप दिया गया।

महंत शोभन सरकार के स्वप्न ओर तात्कालिक शाशको के द्वारा पुरातत्व विभाग द्वारा गढे हुए स्वर्ण खजाने की दिलचस्प चर्चा में आये ढोढ़ीयाखेड़ा गढ़ दिसम्बर2016 की आम चर्चाओ में चर्चित रह चुका है,यह त्रिलोकचंदी बैसो वंश का किला है जिसके विषय मे कहाबत है कि यह किला तिलिसम से भरा है व यंहा सोने का अकूत खजाना छिपा है ।

डौंडियाखेड़ा को प्राचीनकाल में द्रोणिक्षेत्र या द्रोणिखेर भी कहा जाता था। अंग्रेजों ने अंतिम राजा राव रामबख्श सिंह को फांसी देने के बाद इस किले पर हमला करके तहस नहस कर दिया। बाद में टूटे फूटे किले को एक दूसरे बैंस राजा दिग्विजय सिंह (मुरारमऊ ) को सौंप दिया। यह किला उन्नाव जिले से 33 मील दूर दक्षिण पूर्व में है, जो 50 फुट उंचे विशाल टीले पर बना था। पश्चिम की ओर गंगा नदी की धारा टीले को छूती बहती है। किले का मुख्य द्वार पूर्व की ओर था। किले की सामने से लंबाई लगभग 385 फुट थी और पीछे का हिस्सा इससे कुछ और अधिक चौड़ा था !

1857 की क्रांति के अमर नायक राजा राव रामबक्श सिंह,तात्या टोपे,राणा बेनीमाधव सिंह,रानी लक्ष्मी बाई,कुँअर सिंह आउबा,राजा निम्बा सिंह तंवर,कुँअर सिंह इत्यादि जैसे वह युग युगांतर के योद्धा है जिनमे कुछ  जनमानस को स्मरण है ओर कुछ विस्मृत ..!

राजा राव रामबक्श सिंह जी के बलिदान दिवस पर कोटिस नमन है ।🙏

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 जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र

शनिवार, 26 दिसंबर 2020

इतिहास

---भारत का अंतिम जौहर/शाका---

  -------घासेड़ा का युद्ध------

---25 राजपूतो ने किया 25 हजार मुगल-जाट फौज का मुकाबला---

भारत का अंतिम जौहर/शाका हरियाणा की धरती पर हुआ जिसमे 25 राजपूतो ने 25 हजार सैनिकों की मुगल-जाट संयुक्त फौज का मुकाबला करते हुए 1500 जाट-मुगलो को मार गिराया। 

गुड़गाव में प्रतिहार राजपूत वंश की शाखा राघव वंश के राजपूत निवास करते हैं। इन्ही में ढाना गांव के हाथी सिंह(हठी सिंह)राजपूत औरंगजेब के समय बड़े बागी हुआ करते थे। मेवात से लेकर दिल्ली तक मुगल शासन उनकी बगावत से परेशान था। इससे निबटने के लिए मुगल प्रशासन ने उनसे संधि करना बेहतर समझा और एक मेव लुटेरे सांवलिया की गर्दन काट के लाने के इनाम के बदले हठी सिंह को मेवात के घासेड़ा में नूह मालब समेत 12 गांव की जागीर देने की पेशकश की। हठी सिंह के पुत्र राव बहादुर सिंह राघव बेहद वीर और योग्य हुए जिन्होंने अपनी जागीर का विस्तार घासेड़ा के अलावा, कोटला, सोहना और इन्दोर परगनो तक कर लिया जिनसे जनश्रुतियो के अनुसार करीब 52 लाख का राजस्व प्राप्त होता था। अपनी योग्यता के बल पर वो कोल(अलीगढ़) के फौजदार भी बन गए। 

वही भरतपुर के जाट सूरजमल की मुगल वजीर सफदरजंग से दोस्ती जगजाहिर थी। सूरजमल वजीर सफदरजंग के साथ मुगल बादशाह के दरबार में पेश हुआ जहाँ उसे बादशाह से 'कुंवर बहादुर राजेन्द्र' और उसके पिता बदन सिंह को 'राजा महेन्द्र' की उपाधि प्राप्त हुई। सूरजमल को वजीर की अनुशंसा पर बादशाह से मथुरा की फौजदारी और खालसा जमीन पर शाही जागीर प्राप्त हुई। 

इसी समय सूरजमल और वजीर सफदरजंग में राजपूत राव बहादुर सिंह राघव को सबक सिखाने को लेकर मंत्रणा हुई। दोनो ही राव बहादुर सिंह राघव के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंतित थे। वजीर सफदरजंग मराठो के खिलाफ मोर्चे में बहादुर सिंह राघव द्वारा साथ ना देने के कारण उनसे शत्रुता रखता था और सूरजमल मेवात और ब्रज क्षेत्र में बहादुर सिंह राघव की बढ़ती ताकत को ईर्ष्या से देखता था। 

परिणामस्वरूप मुगल वजीर सफदरजंग ने शाही फरमान निकलवा कर सूरजमल को राव बहादुर सिंह पर हमला कर उन्हें मारने या गिरफ्तार करने का आदेश देकर दिल्ली से बड़ी फौज देकर रवाना किया। सूरजमल भारी फौज लेकर कोल(अलीगढ़) पहुँचा और वहां कब्जा कर लिया। सूरजमल का बेटा जवाहर सिंह भी भरतपुर से बड़ी जाट फौज लेकर आ मिला। उस समय राव बहादुर सिंह कुछ साथियों के साथ जमुना के खादर में शिकार खेलने गए थे। सूरजमल ने षडयंत्र के तहत राव बहादुर सिंह को पुरानी मित्रता के नाम पर संधि के बहाने अपने शिविर में बुलाया। बहादुर सिंह मित्रता के भरोसे पर सिर्फ 4 सहयोगियों के साथ सूरजमल के शिविर में गए। वहां सूरजमल ने राव बहादुर सिंह से उनकी प्रसिद्ध तलवार को देखने की इच्छा जाहिर की। सूरजमल ने तलवार लेकर अपने सहयोगीयो को पकड़ा दी। बहादुर सिंह को सूरजमल की मंशा पर संदेह हुआ और उन्होंने वहां से निकलना ठीक समझा। 

राव बहादुर सिंह वहां से किसी तरह निकल के अपनी पैतृक जागीर घासेड़ा में आए और गढ़ी(छोटा किला) में मोर्चाबंदी कर ली। उनके साथ उनके परिवार के 24 पुरूष और अन्य महिलाएं एवं बच्चे थे। मुगल सेनापति सूरजमल के पास 20 हजार जाट और मुगलो की सेना थी, साथ में मुगल वजीर सफदरजंग 5 हजार मुगल सेना और दर्जनों तोप लेकर उससे आ मिला और उन्होंने घासेड़ा की गढ़ी को घेर लिया। उत्तर की दिशा से सफदरजंग के साथ जवाहर सिंह, दक्षिण की दिशा से बक्शी मोहन राम, सुल्तान और वीर नारायण, रिज़र्व फौज का नेतृव बालू राम जाट को दिया और सूरजमल खुद ने 5 हजार सैनिक और तोपो को लेकर अपने मामा सुखराम और मीर मुहम्मद पनाह के साथ पूर्वी दिशा में मोर्चाबंदी की। 

3 महीने तक विशाल मुगल-जाट फौज मात्र 25 राजपूतो द्वारा रक्षित गढ़ी(छोटे किले) को घेर कर हमला करती रही लेकिन तब भी सूरजमल की विशाल सेना गढ़ी में घुस नही पाई। इस बीच राव बहादुर सिंह के भाई जालिम सिंह और पुत्र अजीत सिंह घायल हो गए। युद्ध को इतना लंबा खिंचते देख सूरजमल ने संधि का प्रस्ताव भेजा जिसकी शर्तो को राव बहादुर सिंह राघव ने मानने से इनकार कर दिया। इसी बीच जालिम सिंह की मृत्यु हो गई। कुछ दिन बाद सूरजमल ने दोबारा संधि प्रस्ताव भेजा लेकिन हठी राव बहादुर सिंह ने दोबारा इसे ठुकरा दिया। 

17 अप्रैल 1753 की रात को सूरजमल ने चारो तरफ से भीषण हमला करने का आदेश दिया, अगले दिन भीषण गोलाबारी और लड़ाई में मीर मुहम्मद पनाह समेत 1500 मुगल-जाट सैनिक मारे गए लेकिन तब भी मुगल फौज गढ़ी(किले) में नही घुस पाई। इसके बाद राव बहादुर सिंह ने शाका-जौहर करने का निश्चय किया। उनके परिवार की महिलाओं ने बारूद में आग लगाकर खुद को उड़ा लिया। राव बहादुर सिंह अपने पुत्र अजीत सिंह और 24 अन्य परिवारजनों और सहयोगियों के साथ शाका करने के लिए गढ़ी से बाहर निकले और बहादुरी के साथ आखिरी दम तक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। यह मंजर देख कर मुगल-जाट फौज का दिल दहल गया। मुगल सेनापति सूरजमल ने घासेड़ा पर कब्जा जरूर कर लिया लेकिन वहां उसे राख के अलावा कुछ भी प्राप्त नही हुआ। 

सूरजमल का दरबारी कवि सूदन इस युद्ध का चश्मदीद था और उसने सूरजमल की जीवनी सुजान चरित में राव बहादुर सिंह और उनके सहयोगी राजपूतो की बहादुरी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। यह भारतीय इतिहास का आखरी प्रमुख जौहर/शाका माना जाता है। इतिहास में ऐसे उदाहरण भी शायद ही कही हो जहाँ 25 लोगो ने अपने से हजार गुना बड़ी, सुसज्जित, हर तरीके से ताकतवर एवं सुविधा सम्पन्न फौज का एक छोटे से किले में कई महीनों तक मुकाबला किया और मात्र 25 लोगो ने 1500 लोगो को मार गिराया हो। सूरजमल और उसके मुगल सहयोगियों को ये अंदाजा बिलकुल भी नही था कि राव बहादुर सिंह और उनके अन्य राजपूत सहयोगी अपने आत्मसम्मान और इज्जत की रक्षा के लिए इस हद तक जा सकते हैं। 18वी सदी के संक्रमण काल में जब अव्यवस्था का फायदा उठाकर अनेक लूटेरे वर्ग उत्तर भारत की राजनीति में उभर आए थे और राजनीती बहादुरी और स्वाभिमान के बजाए लूट और धोखे के इर्द गिर्द सिमट गई थी, पुरानी स्वाभिमानी, इज्जतदार और बहादुर वर्ग इस लूट, फरेब और भ्रष्टाचार के तंत्र में किनारे हो चुकी थे, ऐसे समय राव बहादुर सिंह के नेतृत्व में मुट्ठीभर राजपूतो ने राजपुत्रो की शताब्दियों पुरानी आत्मबलिदान की परंपरा का प्रदर्शन कर उस समय की राजनीति में हलचल पैदा करने का काम किया। 

संदर्भ- 
          1. सुजान चरित, सूदन
          2. तारीख ए अहमदशाही
          3. गुड़गांव गज़ेटियर
          4. दी फॉल ऑफ मुगल एम्पायर, जे एन सरकार

साभार पुष्पेंद्र राणा जी 

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

आचार्य श्रेष्ठ श्री त्रिलोचननाथ तिवारी जी की कृति

जिस स्थान पर कभी भी 

ह वर्ण दिखे न!

एक क्षण ठहरो और विचार करो!

ह वर्ण स्वयं में पूर्ण है और शिव-वाच्य है।

हंकार का अर्थ शिवाकार! 
शिव-स्वरूप!
अतः अहं, अ हं का अर्थ है 
जो शिव से वियुक्त है।

और जब तक कोई शिव से वियुक्त है तभी तक उसका स्व जीवित है।

अतः तन्त्र कुण्डलिनी शक्ति को 
अहं शक्ति कहता है। क्योंकि वह मूलाधार में शिव से वियुक्त पड़ी है।

अतः 
अहंकार शब्द का अर्थ है शिव-वियुक्त शिवा!

जब यह अहं जागृत होता है तो कुण्डलिनी जाग्रत होती है और फिर शिव की ओर, शुभ की ओर उन्मुख होती है।

तन्त्र कुण्डलिनी को भुजंगिनी कहता है। सर्पिणी की तरह होती है। कुटिल रेखा पर चलायमान, फुफकारती, डंसने को तत्पर!

कौन है जिसको अहं नहीं?

जिसका अहं नष्ट हुआ वह शिव सायुज्य प्राप्त कर चुका! 

किन्तु तब वह या तो 

सो हं

हुआ

या

फिर हं सः!

सोहं - वही है शिव!
हंसः - शिव है वही!!

स शक्ति वाच्य है। 

अतः जो अहं से इन्कार करता है वह

या तो जीवित नहीं, या फिर पाखण्डी है।

उसको कुछ काम आ पड़ा होगा!
वरना झुक कर मिला नहीं होता!!

अपना अहं छिपाने वाला स्वार्थी होता है।

अहं का दूसरा अर्थ है शक्ति! शिव-शक्ति! अर्थात् स!
अर्थात् शक्ति!
अर्थात् शिव से अलग छिटकी पड़ी
मूलाधार में साढ़े तीन फेरों में सिकुड़ी साक्षात शिवानी!

और घमण्ड?

पहले तो घ को समझो!

घकारं चञ्चलापाङ्गि ! चतुष्कोणात्मकं सदा।
पञ्चदेवमयं वर्णमरुणादित्यसन्निभम् ॥
निर्गुणं त्रिगुणोपेतं सदा त्रिगुणसंयुतम् ।
सर्व्वगं सर्व्वदं शान्तं घकारं प्रणमाम्यहम् ॥

सृष्टिरूपा वामरेखा किञ्चिदाकुञ्चिता ततः।
कुण्डलीरूपमास्थाय ततोऽधोगत्य दक्षतः॥
अत ऊर्द्ध्वं गता रेखा शम्भुर्नारायणस्तयोः।
ब्रह्मस्वरूपिणी देवि ! 
मात्राशक्तिः प्रकीर्त्तिता॥

मालतीपुष्पवर्णाभां षड्भुजां रक्तलोचनाम् ।
शुक्लाम्बरपरीधानां शुक्लमाल्यविभूषिताम्॥
सदा स्मेरमुखीं रम्यां लोचनत्रयराजिताम् ।
एवं ध्यात्वा घकारन्तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत्॥

निर्गुंणं त्रिगुणोपेतं सदा त्रिगोलसंयुतम् ।
सर्व्वगं सर्व्वदा शान्तं घकारं प्रणमाम्यहम्॥

ऐसे घ का जो मण्ड है, घ को उबालने पर गाढ़ा सा तैरता,

वह घमण्ड है!

छड यार!

अरण्ये रोदनं वृथा!

ए भिया! ब्लॉक करो न!

मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

अजब शौकीन दशयु

#शौकीन_बागी/दस्यु/डकैत

"शौख बड़ी चीज है..!"
किसी उत्पातन की यह चन्द पंक्तिया जैसे ढाई आखर की इश्किया भावनाओ सम्पूर्ण मूर्तिरूप देती हुई सी प्रतीत होती है।शौख और शोखी जब   कहि जाकर संगम करती है तब कहि जाकर एक  शोखिया किबदन्ति बनती है,जैसे प्रशिद्ध अभिनेता स्व. राजकुमार हर किसी को अपनी रील और रियल जिंदगी में "जानी" बोलकर सम्बोधित किया करते थे ...जबकि उनके कुत्ते का नाम जानी था !
कुछ ऐसा ही अजीबो-गरीब किस्सा हमारे बीहड़ के पूर्व दस्युओं का था,अपनी-अपनी पसंद की सनक और वह भी इतनी आश्चर्यपूर्ण की विश्वास ही न हो...किन्तु यह एक ऐसा सत्य है जो कंही बीहड़ो में गुम हो गया अथवा बीहड़ो में ही दफन है ।

ददुआ मानसिंह राठौर-
आजादी से पहले ओर आजादी के बाद का एक ऐसा बागी जिसके नाम कितने अंलकार है और मन्दिर में किसी देव नही बागी सम्राट को देवता की तरह पूजा जाता है.कहते है कि इन्हें विवाहों में भात(मामेलापक्ष की रश्म) भरने का बड़ा शौख था जो इनके जीवन मे भक्त नरसी की नोट नक़ी देख लगा था और अपने पूरे बीहडी जीवन हजारो भात भरे व लड़कियों के कन्यादान लिए ।

माधो सिंह भदौरिया -
एक ऐसा बीहड़ी किरदार जिसका जीवन ही सेकड़ो किरदारो का रोल अदा करते हुए निकला एक सैनिक, डॉक्टर,मास्टर ओर जादूगर के करतब दिखाने बाला बागी रीयल दुनिया से रिल दुनिया मे भी अपना किरदार खुद बना। इसके साथ ही इन्हें गाना-गीत बजाने सुनने का शोख था ,माधोसिंह के गैंग प्रायः लोकगीत ओर फिल्मी गीत अपहरण करके लाये लोगो से सुनते थे व उन्हें इनाम स्वरूप रुपये भी दिया करते थे। एक वाकये अनुसार 50 हजार मोटी रकम की पकड़ का गीत सुनकर 1100 पुरुष्कार देकर उन्हें ऐसे ही छोड़ दिया था ।कहते है कि माधो आंखों पर पट्टी बांध मिर्च को गोली फोड़ दिया करते थे ।

मोहर सिंह-मलखान सिंह-
बीहड़ी अपराध इतिहास में इन्हें 2M बोला जाता  है इन्होंने भी रियल  से रील दुनिया तक का सफर तय किया,पर इन्हें शोख था 3 राजपुताना रेजिमेंट की तरह बड़ी बड़ी रोबीली मुछे रखने का..लोग कहते है कि इनकी मुच्चो में रोज पौआ -पौआ घी लगा करता था !रमेश सिकरवार,हरिसिंह,टुंडा आदि भी मुच्छड़ दशयु थे ।

छिद्दा-माखन-
डायलोगों की दुनिया के जीवंत किरदार छिद्दा-माखन ममेरे-फुफेरे भाई थे और बचपन सहपाठी के साथ जीवन के साथी भी थे ...यह बचपन परस्पर प्रशन्नता की कुशलक्षेम "साहिब सलाम" बोलकर लिया करते थे।इनदोनो को दो जिस्म एक जान ओर अपनी सेकेंडो में लांगुरिया लोकगीत बनाने की अद्भुत शोख थी ..कहते है कि माखन महाभारत का पूरा विवरण इन लोकेगीतो में गा दिया करता था तो छिद्दा के बगेर वह कभी गा नही पाते थे ..असल मे माखन की मौत छिद्दा को जब पता चली जब "साहिब सलाम" का प्रतिउत्तर नही मिला था !

मध्यप्रदेश में चंबल के बीहड़ों में पनपने वाले दस्यु गिरोह के कई सरगना अपने अजीबोगरीब शौक के कारण दंत कथाओं के पात्रों की तरह हमेशा चर्चित रहे हैं।इनमें से कुछ दस्यु गिरोह शिवपुरी जिले के जंगलों में सक्रिय रहे हैं। आजादी के पूर्व कुख्यात दस्यु सरगना टुन्डा अपने साथियों के साथ एक आकर्षक जलप्रपात पर रहता था इसलिए यह स्थान उसके नाम से 'टुन्डा भरखा खो' के नाम से जाना जाने लगा। शिवपुरी के पास घने जंगल में स्थित यह स्थल अब प्रसिद्ध पर्यटक स्थल बन गया है।

पचास से साठ के दशक में भी शिवपुरी के जंगलों में कुख्यात डाकू सरदार अमृतलाल अपने गिरोह के साथ सक्रिय रहा... अमृतलाल ने लोगों का अपहरण करके उनसे फिरौती वसूलने की शुरुआत की थी जो आज के डकैत गिरोह भी कर रहे हैं।इसे अजीव तरह लोगो वेवकूफ बनाने का शोख था..ओर यह वहसी तरीके महिलाओ के कान फाड़कर कुंडल खींचने सायको शौकीन था।डाकू सरदार अमृतलाल के बारे में क्षेत्र के बुजुर्गों में चर्चा रहती है कि वह एक से सवा लाख रुपए की फिरौती उस समय भी लेने की सनक से ग्रसित था, जबकि उस जमाने में यह बहुत ही बडी रकम होती थी।

हरीसिंह को लोंगों की नाक काटने की सनक थी। जब वह किसी से भिड़ता तो सबसे पहले उसकी नाक काटने से नहीं चूकता था।उसने कई नागरिकों व ठसक बाले लोगो साथ-साथ पुलिस बालो की भी नाक पर हाथ साफ  किया था ।

कालांतर में यहाँ के जंगलों में दयाराम, रामबाबू गडरिया, हजरत रावत, कमल सिंह जैसे खूँखार दस्यु गिरोह सक्रिय हो गए, जिनमें सबसे ज्यादा खतरनाक इनामी एवं चर्चित दयाराम रामबाबू गडरिया गिरोह था।
रामबाबू और दयाराम को देशी घी खाने और अपहृतों को खिलाने का शौक था। वे घी के इतने दीवाने थे कि अपनी बंदूकों की सफाई भी तेल की जगह घी से किया करते थे..!
इस गिरोह में रामबाबू सबसे ज्यादा क्रोधी और सनकी था। जब किसी अपहृत की फिरौती समय पर नहीं पहुँच पाती तो यह उसे गोली मारने को सबसे ज्यादा उतावला रहता था।
दयाराम और रामबाबू के बारे में कहा जाता है कि उन्हें एक हजार एवं पाँच सौ रुपए के नोटों और सोने के आभूषण से लगाव था और वे अपने साथ हमेशा बड़ी राशि रखते थे ...।

#चम्बल_सिंह_अबलोकन

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जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...