शुक्रवार, 13 जून 2025

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम। 
जो शहीद हुये है उनकी......
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर्णायक युद्ध में अवध की सेना का नेतृत्व करते हुये 600 से अधिक रणबांकुरो के साथ, मात्र 18 बर्ष की आयु मे रक्त की अंतिम बूंद तक संघर्ष करते हुये वलिदान चहलारी नरेश राजा बलभद्र सिंह के बलिदान दिवस पर (10 जून 1840  - 13 जून 1858  ) उनके मां भारती के अखंड अनुराग और महत्वपूर्ण योगदान का पुण्यस्मरण कर शत-शत वीरोचित नमन।
सर कटने के बाद भी अंग्रेजों से लड़ता वाले,अल्पज्ञात मां भारती के अमर सपूत के बारअतुल अवस्थी जी द्वारा वर्णित जानकारी के आधार पर चर्चा करते है।
भारत मां को दासता की बेंड़ियों से मुक्त कराने के लिए हुए महासमर के सैकड़ों ऐसे कई योद्धा हैं, जिन्होंने अपने शौर्य, पराक्रम, देशभक्ति और बलिदान से स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष को ऊर्जा दी और भावी पीढ़ियों के लिए आदर्श बन गये। लेकिन अवध में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ संघर्ष में विद्रोहियों का नेतृत्व कर रहे चहलारी रियासत के राजा बलभद्र सिंह ऐसे वीर आजादी के दीवाने थे, जिन्होंने मात्र 18 वर्ष की आयु में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए। कहा जाता है वह सर कटने के बाद भी अंग्रेजों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

स्वतंत्रता आंदोलन में राजा बलभद्र सिंह और उनकी चहलारी रियासत का प्रमुख स्थान है। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ युद्ध में बलभद्र सिंह के अदम्य साहस की अंग्रेज सेनानापति ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की और ब्रिटेन की महारानी ने अपने महल में उनका चित्र लगवाया। इसी से वे अवध ही नहीं पूरे देश में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ लड़ाई के नायक बन गये थे। उनके त्याग और बलिदान की गौरव गाथा आज भी अवध के मन मस्तिष्क में गौरव को संरक्षित किए हुए है।

स्वतंत्रता संग्राम के तराई के हीरो राजा बलभद्र सिंह का जन्म 10 जून सन 1840 को बहराइच के चहलारी राज्य (अब बहराइच ज़िले के महसी तहसील क्षेत्र) में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा श्रीपाल सिंह और मां का नाम महारानी पंचरतन देवी था। चहलारी रियासत पर कश्मीर से आए रैकवार राजपूतों का शासन होता था। राजा श्रीपाल साधु प्रवृत्ति के थे और अल्पायु में ही कुंवर बलभद्र का राज्याभिषेक कर राज्य कार्य से विरत हो जाना चाहते थे। लेकिन बलभद्र उन्हें समझा-बुझाकर उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते थे। अंततः बलभद्र सिंह किशोरावस्था में ही चहलारी के राजा बने। बाल्यकाल से ही निडर और पराक्रमी बलभद्र सिंह युद्ध कौशल में भी महारथी थे। उदारता और संवेदनशीलता के कारण ही राज्य की जनता पूरी तरह से शोषण मुक्त होकर सुख शांति से जीवन यापन कर रही थी। सेना में प्रत्येक जाति धर्म के बहादुर युवकों को भर्ती किया गया, जिसका नेतृत्व अमीर खां कर रहे थे। भिखारी रैदास जैसे बहादुर योद्धा भी सेना में ओहदेदार थे।

इतिहास के पन्ने पलटे तो पता चलता है कि सन 1450 में बालदेव रामनगर रियासत के राजा हुए तो उन्होंने अपने भाई शालदेव को घाघरा नदी के उस पार बौंडी (बहराइच) रियासत का राजा बना दिया। शालदेव के बाद उनके पुत्र लखन देव और पौत्र धर्मदेव व प्रपौत्र हरिहर देव ने बौंडी पर राज किया। प्रतापी राजा हरिहर देव और कश्मीर में रैकवारों किए गए वीरतापूर्ण कार्य से प्रसन्न होकर तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर ने हरिहर देव बहराइच जिले के बहुत बड़े भूभाग को सौगात के रुप में दे दिया। यही नहीं परम प्रतापी हरिहर देव को बांसी जैसे अजेय राज्य पर विजय प्राप्त करने के लिए बादशाह जहांगीर ने पुरस्कार नौ परगनों का राज्य प्रदान किया। हरिहर देव के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र जितदेव राजा हुए तो कनिष्ठ पुत्र संग्राम सिंह के लिए हरिहर पुर के नाम से अलग रियासत की स्थापना की गई। जितदेव के ज्येष्ठ पुत्र परशुराम सिंह को बौंडी और दूसरे पुत्र गजपति सिंह को नई रियासत रेहुआ का शासन मिला। इन्हीं गजपति सिंह के पुत्र मानसिंह के छोटे पुत्र धर्मधीर सिंह ने 1630 ई. में चहलारी रियासत की स्थापना की। धर्मधीर के पुत्र हिम्मत सिंह के बड़े पुत्र मदन सिंह को बौंडी की रानी द्वारा गोद लेने के कारण छोटे पुत्र देवी सिंह राजा बने। उनके बाद पुत्र उदित सिंह, पौत्र पृथ्वी सिंह, प्रपौत्र रणजीत सिंह तथा बरियार सिंह ने राज्य का प्रबंध संभाला। बरियार के पुत्र पृथ्वीपाल सिंह के बाद श्रीपाल चहलारी के राजा हुए। राजा श्रीपाल के ज्येष्ठ पुत्र बलभद्र सिंह राजा हुए और 13 जून को अंग्रेज सेना से लड़ते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए और चहलारी राज्य ईस्ट इण्डिया कम्पनी में मिला लिया गया।

रैकवार क्षत्रियों के शासनाधीन चहलारी रियासत घाघरा नदी के दोनों ओर दूर तक फैला था। इसके पास वर्तमान सीतापुर और बहराइच जिले का विस्तृत भूभाग था। चहलारी राज्य में तब सीतापुर के 87 और बहराइच के 33 गांव शामिल थे। क्षेत्र में घाघरा नदी के तटवर्ती इलाके में स्थित गोलोक कोंडर गोचरण क्षेत्र में पांच हजार साल पहले राजा विराट की गायों का निवास रहा। यहां की भव्य गढ़ी भवन के पास ही मनमोहक सुगंध बिखेरने वाला केंवड़े का वन था। इसी वन में राजा रणजीत सिंह द्वारा बनाए गए ठाकुरद्वारा में भगवान राम, माता जानकी और हनुमान समेत कई देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित कराई गईं थीं। आज भी विजय दशमी व अन्य त्यौहारों पर यहां उत्सव मनाया जाता है।

बौंडी में अंग्रेजों के खिलाफ की थी मंत्रणा

10 मई 1857 को मेरठ में स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला प्रकट होने पर जहां अंग्रेजों ने भारी दमन चक्र प्रारंभ किया वहीं सम्पूर्ण उत्तर भारत में स्वातन्त्र्य चेतना जाग्रत हुई। इस मुक्ति संग्राम को प्रारम्भिक दौर में आंशिक सफलता मिली। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अवध में बहराइच को मुख्यालय बनाकर विंग फील्ड कमिश्नर और कैप्टन बनबरी को डिप्टी कमिश्नर नियुक्त किया था। इन दोनों ने सत्ता संभालते ही दमन चक्र चलाना शुरू कर दिया। तब अंग्रेजी शासन के खिलाफ बहराइच में बिगुल फूंका गया। इस महाक्रान्ति की अंतिम लड़ाइयां अवध की बेगम हजरत महल के नेतृत्व में लड़ी र्गइं। गजेटियर के अनुसार लखनऊ पर कब्जे के बाद अंग्रेजों ने अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद उनकी बेगम हजरत महल ने अपने शहजादे बिरजिस कद्र और मम्मू खां जैसे कुछ विश्वास पात्र सैनिकों के साथ लखनऊ से भागकर बहराइच में बौड़ी नरेश हरदत्त सिंह के किले में शरण ली। वहां उन्होंने 40 दिन बिताए और उसी को संघर्ष की रणनीति का केन्द्र बनाया। अवध की राजधानी लखनऊ को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए उन्होंने वहां अपने विश्वासपात्र राजाओं, जमींदारों तथा स्वाधीनता सेनानियांे की बैठक बुलाकर सबको इस महासंग्राम में कूदने का आह्नान किया। बौंड़ी के किले में हुई बैठक में राजा हरिदत्त सिंह के साथ गोंडा नरेश राजा देवी बख्श सिंह, भिठौली (सीतापुर) के गुरु बख्श सिंह, रायबरेली के राणा बेनी माधव सिंह, रुइया (हरदोई) के राजा नरपति सिंह, फैजाबाद के विद्रोही मौलवी अहमद उल्ला, इकौना के राजा उदित प्रकाश सिंह, चरदा के राजा जगजोत सिंह, रेहुआ के राजा रघुनाथ सिंह, शाहगंज के राज मान सिंह, ईसानगर के राजा जांगड़ा, कमियार गोंडा के तालुकेदार शेर बहादुर सिंह और फीरोजशाह बेरुआ के गुलाब सिंह मौजूद रहे। भयारा (बाराबंकी) के जागीरदार यासीन अली किदवई के अलावा भिनगा, राम नगर, और पयागपुर के राजाओं ने भी बैठक में लिए गए निर्णय का स्वागत किया। सभी की उपस्थिति में मात्र 18 साल के आयु में पराक्रमी योद्धा चहलारी नरेश बलभद्र सिंह ने सेना के नेतृत्व का जिम्मा उठाया तो बेगम हजरत महल समेत सभी क़ी आंखें नम हो गईं। बेगम ने अंगूठा चीरकर अपने रक्त से तिलक लगाया और 100 गांवों की जागीर देने की घोषणा करते हुए रानी कल्याणी देवी को उपहार स्वरुप अपना दिव्य हार प्रदान किया। मात्र कुछ दिन पहले ही बलभद्र और कल्याणी का विवाह की जानकारी मिली तो बेगम के आंखों में वात्सल्य के आंसू छलक आए।

बाराबंकी ओबरी में हुआ अंतिम महासमर

जब बलभद्र सिंह सेना के साथ प्रस्थान करने लगे तो उनकी पत्नी रानी कल्याणी ने उनके माथे पर रोली-अक्षत का टीका लगाया और अपने हाथ से कमर में तलवार और कलाई में रक्षासूत्र बांध कर विदा किया। राजमाता ने भी बेटे को आशीर्वाद देकर अन्तिम सांस तक अपने वंश और देश की मर्यादा की रक्षा करने को कहा। तयशुदा कार्यक्रम के तहत अंग्रेजी सेना से युद्ध के लिए निकली बेगम हजरत महल और दर्जनों देशभक्त राजाओं समेत 20 हजार सैनिकों की भारी भरकम सेना का पहला पड़ाव बहराइच घाघरा के उस पार भयारा (बाराबंकी) में यासीन अली किदवई के गांव में हुआ। अगले दिन सेना नावाबगंज के जमुरिया नाले को पारकर रेठ नदी के पूरब ओबरी गांव के मैदान में युद्ध के लिए पहुंची। सेनापति जनरल होप ग्राण्ट के नेतृत्व में सुसज्जित अंग्रेजी सेना में मेजर हडसन, कर्नल डैली, विलियम रसेल, कालिन कैम्पवेल, हार्षफील्ड जैसे दक्ष सेना नायकों और सिख सेना के साथ नेपाल के जंग बहादुर राणा समेत उनके बड़ी संख्या में गोरखा सैनिक भी थे। अंग्रेज सेना में 10 हजार घुड़सवार, 15 हजार पैदल सेना के साथ भारी संख्या में इनफील्ड गनें और तोपखाना भी था। जबकि क्रान्तिकारी सेना के पास पुरानी तोपें और घिसे पिटे हथियार थे। मातृभूमि के इस महासमर में सर्वस्व न्यौछावर का जज्बा ही उनका मुख्य संबल था। 12 जून 1858 को युद्ध प्रारम्भ हुआ और 16 हजार सैनिकों के साथ बलभद्र सिंह ने फिरंगी सेना पर हमला कर दिया। अवध के जांबाज फुर्तीले सैनिकों और बलभद्र सिंह ने देखते ही देखते युद्ध के मैदान में लाशों का अंबार लगा दिया तो अंग्रेज सैनिकों में भगदड़ मच गई और सेनापति होप भाग गया।

सिर धड़ से अलग हुआ फिर भी शीश काटती रही तलवारें
पराजय से आहत होप ने बड़ी संख्या में तोपें और रायफलें मंगाई और 13 जून को पुनः युद्ध के लिए आ डटा। अंग्रेजी सेना के जबरदस्त तैयारियों को देखकर बेगम चिंतित हुईं और उन्होंने बलभद्र की कम उम्र को देखते हुए हुए उन्हें एक दिन विश्राम करने की सलाह देते हुए स्वयं नेतृत्व की इच्छा जताई। उन्होंने स्वयं को उनकी मां बताते हुए नववधू रानी के भविष्य का वास्ता दिया तो वीर बलभद्र ने 'युद्ध में सेनापति का आदेश चलता है मां का नहीं' कहकर उन्हें निरुत्तर कर दिया। तब विवश होकर बेगम ने सुरक्षा कवच पहनाकर आर्शीवाद देकर विदा किया। सेना को तीन भागों में बंाटकर 'खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का और हुक्म सेनापति बलभद्र सिंह का' नारे के साथ सेना फिरंगियों पर टूट पड़ी। बलभद्र सिंह चीते की भांति फिरंगी सैनिकों को काट रहे थे। युद्ध क्षेत्र में लाशों का अंबार लग गया। लेकिन बलभद्र के काका वीर योद्धा हीरा सिंह मारे गए। राजा देवी बख्श सिंह की मार से कैम्पवेल, बलभद्र की तलवार से घायल हडसन और राना बेनी माधव के वार से रसेल का घोड़ा मरा तो रसेल भाग खड़ा हुआ। अंततः बलभद्र और सेनापति होपग्राण्ट आमने सामने आ गए। बलभद्र के वार से होपग्राण्ट का युनियन जैक कटकर गिर गया और वह बेहोश हो गया, किन्तु तभी तोप के गोले ने उनके हाथी को धराशायी कर दिया। महावत सुभान खां ने बच निकलने की सलाह दी तो बलभद्र ने फटकार लगाई और घोड़े पर बैठकर नरसंहार शुरु कर दिया। लेकिन भाग्य ने फिर धोखा दिया और गोला लगने से उनका घोड़ा भी चल बसा। तब बलभद्र पैदल ही दोनों हाथों में तलवार लेकर अंग्रेज सैनिकों का संहार करने लगे। इसी बीच होपग्राण्ट ने घोखे से पीछे से वार किया और उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। कहा जाता है कि सिर कट जाने के बाद भी उनका शरीर आठ घंटे तक लड़ता रहा, दोनों हाथों की तलवारें लगातार वार कर रहीं थीं। इस दृश्य को देखकर होपग्राण्ट के भी होश उड़ गए। चहलारी नरेश का यह रूप देख 800 क्रान्तिकारी सैनिक अंतिम सांस तक लड़े और मातृभूमिकी बलिबेदी पर न्यौछावर हो गए। इस युद्ध में चहलारी के प्रत्येक परिवार का लाल वीरगति को प्राप्त हुआ।
अंग्रेज सेनापति ने की प्रशंसा, बकिंघम पैलेस में लगा चित्र
ओबरी युद्ध के अप्रतिम योद्धा बलभद्र के साहस और शौर्य की प्रशांसा करते हुए अंग्रेज सेनापति जनरल होपग्राण्ट ने 'दि सिपाय वार इन इंडिया' शीर्षक से अपनी डायरी में लिखा कि 'मैंने तमाम युद्ध और वीर योद्धाओं को देखा लेकिन बलभद्र सिंह जैसा शानदार सैनिक, जांबाज योद्धा और अनूठा सेनापति नहीं देखा। इस लम्बे चौड़े और निर्भीक योद्धा को मृत्यु का भय भी नहीं झुका सका।' ओबरी के युद्ध में नायक रहे राजा बलभद्र सिंह के करिश्माई वीरता का समाचार लंदन टाइम्स और न्यूयार्क टाइम्स में छपा तो वे दुनिया भर में चर्चित हुए। विद्वान लेखक परमेश्वर सिंह ने अपनी पुस्तक राजपूत में लिखा है कि इसी वीरता से प्रभावित होकर महारानी विक्टोरिया ने चहलारी नरेश बलभद्र सिंह का भव्य और दिव्य चित्र अपने राज महल बकिंघम पैलेस में सम्मान के साथ लगवाया। भारत के इतिहास में बलभद्र सिंह की कालजयी गौरवा गाथा स्वर्णाक्षरों में सदैव अंकित रहेगी। एक कवि ने ठीक ही कहा है-'कालचक्र के मस्तक पर जो पौरुष की गाथा लिखते, उनकी मृत्यु कभी न होती वे केवल मरते दिखते।'

ऐसे हुआ चहलारी रियासत का अंत

ओबरी के महासमर में राजा बलभद्र के वीरगति प्राप्त होते ही का्रन्तिकारी भागने पर विवश हुए और अंग्रेजों की विजय हुई। बेगम हजरत महल उनके पुत्र बिरजिस, राजा सवाई हरिदत्त सिंह, गोंडा नरेश राजा देवी बख्श सिंह, रायबरेली के राणा बेनी माधव सिंह समेत तमाम क्रातिन्कारी नेपाल के दुर्गम पहाड़ियों में स्थित दांग-देवखर चले गए। पूरे अवध पर कब्जा करके अंग्रेजों ने बौंड़ी का किला ध्वस्त करा दिया और चहलारी राज्य को चार भागों में विभाजित कर 52 गांव का जंग बहादुर राणा, 08 गांव थानगांव के भया, तीसरा भाग में 2200 बीघा मुनुवा शिवदान सिंह और शेष चौथा भाग पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के वंशजों को दे दिया। राज बलभद्र सिंह की महारानी कल्याणी देवी ने अंग्रेजों का अनुग्रह अथवा सहायता स्वीकार नहीं था इसलिए वे अपने मायके चली गईं। उनके भाई छत्रपाल भी घाघरा पार करके सुरक्षित स्थान मुरौवा डीह चले गए। चहलारी राज्य के निकट सम्बन्धी मुनुवा शिवदान सिंह ने उनका पालन पोषण किया। वैसे चहलारी के कई बार बसाने का प्रयास किया गया लेकिन हर बार घाघरा ने आबाद हिस्से को नदी में समाहित कर लिया।

अवध की ऐतिहासिक धरोहरों में चहलारी रियासत का नाम सबसे पहले आता है। हालांकि बाराबंकी जिला मुख्यालय पर कांग्रेस कार्यालय परिसर में चहलारी नरेश बलभद्र सिंह की प्रतिमा स्थापित है किन्तु युद्ध के मैदान में जहां उन्हें वीरगति मिली थी वहां घने जंगलों के बीच उनकी मिट्टी की समाधि 162 साल से अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही है। समाधि तक पहुंचने के लिए कोई मार्ग तक नहीं है। ऐसे में आजादी के नायकों को समर्पित यह कविता 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा' भी बेमानी साबित हो रही है। इसी प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन का गवाह होने के बावजूद महसी में घाघरा नदी के तट पर स्थित बौंडी किला पूरी तरह उपेक्षित है। किले के समीप से ही घाघरा नदी बह रही है। किले के अवशेष भी नदी में समा कर विलुप्त हो रहे हैं। लेकिन सुरक्षा के लिए कोई इंतजाम नहीं किया गया। चहलारी नरेश के खानदान के आदित्यभान का कहना है कि उन्होंने किले की सुरक्षा व संरक्षा के लिए कई बार शासन व प्रशासन को पत्र लिखा। राजा बलभद्र सिंह की तलवार अभी भी सुरक्षित है। उसे लखनऊ स्थित म्यूजियम को सौंपने का प्रयास किया गया। लेकिन पुरातत्व विभाग की उपेक्षा से यह भी संभव नहीं हो सका। 
सादर

शुक्रवार, 17 मई 2024

अखातीज

अखातीज (अक्षय तृतीया)

अखातीज निकले अभी सप्ताह भी नही हुआ है,यह लोक  -उस लोक के उस पावन पर्व को लगभग बिसरा ही चुका है। अब मिट्टी के चार ढलो के ऊपर,मिट्टी का कलश स्थापित करके बरखा होने के पूर्व अनुमान की शकुन अथवा युक्ति ज्ञात ही किस स्त्री को है?

अब इस लोक की संस्कृति सनै-सनै संस्कारी मातृशक्ति के अभाव में संक्षारित जो हो रही है।अब कनिक की खीखडी मूँझ की सींक में पिरोकर रखना पसंद ही कौन करता है ?
अब न वृषभों की जोड़ियां रही हैं और ना ही हरायतो के लिये पाग बांधते किसान!हल-जुअट,बखर-पटेला जैसे किबदन्ति सी प्रतीत होते हैं।बस बचा है वृद्धा होती माताओं के द्वारा एक अमिट संस्कृति को कुछ और साँसे देकर,मंगलगान करके अपनी दिवंगत माँ-सासुमाँ के सिखाये हुये गीतों में पल्लवित भारत की यशोगाथा को स्मरण करना !

पुनः तीज आई थी...भुरारे से माँओ के पल्लू सिरपर क्या आधे माथे तक थे।घी में कनक भुनाती माँ पुनः भगवान बलराम व माँ कात्यायनी को गुनगुनाकर प्रसन्नचित थी। पुत्रबधुओं को अपनी सास के किस्से से मनोरंजित करती...ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे..महीनों से शुष्क पड़ी पीली माटी में बरखा की चंद बूंदों ने सम्पूर्ण आभामण्डल को पल्लवित कर दिया हो ।
एक कोने में संजोकर रखे हल को अर्घ देकर,गुलगुले उसकी फाल में पिरोकर पुनः धन्य-धान्य भण्डार अक्षत रहने की कामना की गई।
माँ बताती हैं कि प्रातःकाल किसी भी स्त्री का खुला सिर व पुरुष का सूर्योदय उपरांत जागते देखना भारी अपशकुन होता है!अब तो हर स्त्री के सिर पर पल्लू क्या बेटी के कांधे से दुपट्टा तक उड़ गया है !!
सत्यता में भोली माँ को पता ही नही कि उनका सतयुगी समय निकलकर कलियुगी समय कुण्डली बनाके सबके सिर पर बिराजमान हो चुका है ।

टिटहरी ने अबकी उच्च स्थान पर अपने अन्डजो को जना है,अबकी बरखा भरपूर होने का यह पूर्वानुमान जो है। ऐसी मान्यता है कि टिटहरी को वरदान मिला था।जहां वह अण्डे जनेगी वह स्थान बरखाजल भराव से दूर रहेगी। टिटहरी के चार अण्डे देख हर कृषक प्रसन्नता से आषाडी 'हरायतो' की प्रतीक्षा कर रहा है। यह किसानी भी आश्चर्य चकिताओं से परिपूर्ण कर्म है। उसी टिटहरी के चार अण्डज देख प्रसन्न हो रहा है,जिसके गांव में बोलने पर बिन थूके-अपशकुन मिटाये नही रहता !
इन सबसे दूर टिटहरी अपनी कल्पनाओं में लम्बी-लम्बी टांगे ऊपर करके चित्त लेटकर गगन (आसमान)को गिरने से रोकने को किसी ऊसड धरा पर सोयी होगी।(जैसी कि लोक क़िबदन्ती है)

और!!

इधर भीषण ग्रीष्म की तप्तता में पुनः कोई स्वाभाविक आद्र हो उठा होगा !!!
पुनः बरखा आएगी,पुरवाई चलेगी और जितने भी घाव लगे हैं.. पुनः रिसकर कसक उठेंगे ...!!!!!

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जितेन्द्र सिंह तौमर '५२से'
  चम्बल मुरैना मप्र.

रविवार, 24 मार्च 2024

पूर्वाभास

#नेह..

जब नेह पर अशेष भावनाओं का सम्मान व समान एकीकार स्वरूप 'स' का अर्द्धभाग संयुक्त होता है।वहाँ ठाठे मारते सागर की तरह,विकार रहित 'स्नेह' प्राप्त होता है।असीम सम्भावनाओ और अद्वैत भावनाओं का ऐसा मंथन जिसमे कुछ प्राप्त करने के भाव से अधिक कुछ खोने की परिकल्पना अधिक प्रभावी होती है। जहां कुछ प्राप्त करने भाव जागृत हुआ वह लक्ष्य अधिक प्रतीत होता है,प्रेम का अर्द्धनकार युक्त-संयुक्त भाव ही कुछ खोने का स्वरूप है ।

स्नेह जब भाषाई सभ्यता में परिवर्तित होकर उर्दू से होकर  गुजरती है ,तब यह मीठी जुवां की गजल बनकर बह उठती है।गजल उम्दा लफ्जों व खूबसूरत अहसांसो वह दरिया है जो यकायक अहसांसो में नफासत के साथ साँसों का हमसफ़र बनकर लरज उठती है ।

जैसे किसी ने श्वसन के वेग को फेंफड़ों में खीचकर रोक लिया हो और श्वसनतंत्र दृश्यनुभूत भाग एकाएक अधिक आकर्षक हो उठा हो!
जैसे किसी ने, सप्तस्वर ऊँचाई से गिरते जलप्रपात के जल को अधर में दिव्यता से अस्थिर को स्थिरता में परिणीत कर दिया हो!
जैसे किसी ने,उन्मुक्त गगन में विहार करते पखेरूओं कि गति को सम्मोहित करके कलरव के साथ कुंडली की तरह गौलाकर कर दिया हो!

प्रेम में प्रायः एक विचित्र और विलक्षण अनुभति-अनुभूत करने का अनुभव हुआ है।
'शून्य में एकटक अशेष प्राप्तता के साथ अप्रत्यक्ष का प्रत्यक्ष हो उठना।'
सम्मोहन का इतना विलक्षण प्रभाव होता है कि सामने कब-कौन-क्या हो गया अनुभूत ही नही होता। खुले नयनों जागृत अवस्था मे स्वप्न की सुंदरता तलाशना ही प्यार है ।

इश्क में सीमायें,बन्धन,स्तर इत्यादि अपना परिमाप खो बैठते हैं।इसकी अनुभूति जितनी सुखद व लालायित करने बाली है,वहीं इसकी अभिव्यक्ति उतनी ही दुस्कर है ।इश्क करिये..जीवन का अद्भुत अनुभव है किंतु इसको प्राप्तता या लक्ष्य बना लेना इसकी क्षीणता है ।

प्रस्तुत पंक्तियों में 'सायरा जंहा' के सैरों में लफ्जों के साथ चेहरे पर आते अहसासों को लफ्जो के दरमियाँ महसूस करिये ,इश्क की खूबसूरती में 'चार चांद लगना' शायद इसी को कहते होंगे!!
         ❤️
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सोचा था ए साहिबान मुहब्बत के दौर से निकल जाएंगे,
फिर से दोहरा के मुहब्बत को फिर न कभी आजमाएंगे!

अहसासों का दरिया दहक उठा यादों के शोले पाकर,
 इश्क हमशक्ली के चेहरों से नकाब सभी उतर पाएंगे !!

इश्क असफल रस्सी में पड़े बल जैसे तबस्सुम शाम,
शायद जलकर भी  बलरस्सी बनकर बिखर जाएंगे!!

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JVS.

मंगलवार, 12 मार्च 2024

कुछ नही बस यूं ही


    
लड़का बीती को बिसार जीवन के नये लक्ष्य को लेकर आगे के धागे बुनने में मस्त हो गया,पर उसके अंग-अंग में बस चुकी जीवन शैली को बिसारने में उतना ही असफल भी हो गया था।अब वह बीती बात में लिए कठिन परिश्रम के साध्य प्रशिक्षण को इतनी शीघ्रता में भूल भी कैसे सकता था भला??
वह सर्वोत्तम प्रशिक्षु था, कम बोलना अधिक सुनना और अच्छे काले घने बाल होते हुए भी छोटे-छोटे बाल रखना जेसे उसे सबसे प्रिय था ।

वह अपने घर का छोटा किन्तु सबसे बड़ा शैतान हुआ करता था...उससे कोई नही बचता था कि जिसे वह तंग न करता हो!किन्तु जिस तरह मरखा से मरखा बैल पशु हाट में जाकर सारी हेकड़ी भूल जाता है। उसी तरह उसे भी प्रशिक्षण केंद्र जाकर अपनी शैतानियों से मुह मोड़ना पड़ा था। उसे पसंद था 90 और उससे पहले के गीत सुनना और किताबों से  बेइंतहा मोहब्बत करना,गर्मी की छुट्टियों में वह अपने बड़े भाइयों के सिलेबर्स की किताबें पहले ही चट कर लिया करता था..।और वह मुहब्बत के माह में किताबो की मुहब्बत शिद्दत से निभा रहा था। 
फरबरी में सौगात से प्राप्त हुई हरक्युलिस साइकिल चलाने को मिली...।.कॅरियर में बंधे बैग और उसकी साइकिल का वेग...उसकी हवा से पैराशूट बनती सर्ट मापा करती थी ।

वह फ़रवरी और फाल्गुन के प्रिय सरगम की शाम थी,पेड़ो से छरते पात और और कॉलेज केम्पस में बौराये दशहरी से लड़के को कोई आकर्षण न था।वह तो सायकल और  किताबो में जो डूबा रहता था....!
सायकल की चैन कुछ लूज थी जो प्रायः ब्रेकर पे उतर जाया करती थी।लेकिन  फ्रिव्हील से उतरी हुई चैन को बापस पीछे पैडल मार बापस चढ़ा लेना जैसे उसके लिए आम बात थी....और एक दिन बारिस में केम्पस के पास बने स्टॉपेज पर चेन उतरी! घनघोर बारिस......झमाझम बारिस...पर लड़के के कई पेड़ल  उलट मारने पर भी चैन न चढ़ी। चैन स्टेण्ड  और कल्पम्स के बीच  जो फंस चुकी थी।वह  देख न जाने क्या सोच मुस्कुरा उठा,जैसे सोचा हो कि कुछ जगह और करतब नही किस्मत का भी खेल होता है ।
वह स्टॉपेज के रेस्टसेल्टर में जा बैठा....!जहां पहले से एक जोड़ी अक्स छिपाये वह स्वप्निल आंखे  बैठी थी...।
पिंक सूट में  सिमटी हुईऔर हल्के मेहरून स्कार्फ से ढके चेहरे में दो आँखे दिखी ..।.उसने पहली बार महसूस किया कि ,क्यों आँखों में आकर्षण की बात शायर- कवि  लिखते आये है...आखिर होता क्या है,यह आँखों का सम्मोहन  ??

बारिश जेसे प्रकृति का वह संयोग था जो निरन्तर होते हुए भी अपनी मध्यस्थता में उन दोनों केव परिचायक बनने पर आमदा थी।केम्पस लॉन की जलती स्ट्रीट लाइट के साथ उन दोनो को अहसास हुआ की आज बरखा न रुकेगी ....!लड़का प्रतीक्षा का सब्र खो बेठा और सर से रुमाल बाँध उलझी हुई सायकल चेन को अलग करने  में व्यस्त हो गया ...।
."सर मुझे हॉस्टल तक ड्राप कर देंगे..प्लीज...प्लीज !!,अब ऑटो भी न मिलेगा !" 
कहते हुए लड़की ने स्कार्फ खोला तो लड़का स्तब्द्ध था और सोचने लगा की कही देखा है!! फिर स्वयं की स्मरण शक्ति के सुप्त हुये सूक्ष्म तन्तुओं में वह छवि खोजने लगा,बार-बार जोर देने पर जब कुछ यकीनी न मिला तो ,काल्पनिक और पूर्व स्थापित भ्रांति में मष्तिष्क ने उत्तर दिया ....इसी कॉलेज की तो है, दिख ही गयी होगी,तू ही किसी पर कहा ध्यान देता है !
मस्तिष्क को सोचने से स्वतंत्र कर वह पुनः चैन निकालने में तल्लीन हो गया।तभी उसने वह देखा जो आजतक न देखा,इतने दिन में शायद उसने कुछ न देखा था जो आज दिखा और चिहुंका ....!!
  जून से लेकर फरबरी भी निकल ही तो चुकी थी फिर उसने आजतक देखा क्यों नहीं ?
अंतर्द्वन्द में चलता प्रश्न-प्रश्न ही रह गया! जब लड़की ने उसे पुनः प्रासंगिक किया.....वह भी नाम लेकर !
इससे पहले की वह कुछ सोचता,उसने चेन को फ्री-व्हील पर चढ़ा पैडल घुमाके तसल्ली की...अब ठीक है न ??
और उसकी ओर बिना देखे ही सायकल के पहिये का मुआयना करते हुये उससे मुखातिब हुआ ।

जी आपको किधर चलना में एरोड्रम रोड बाले हॉस्टल तक ही जाऊंगा...।आप अकेली है तो पहले आपको ड्राप कर दूंगा फिर निकलूंगा ...!
लड़की बगैर प्रतिउत्तर दिए बोली आप चलिए और उसके कन्धे लटका बेग लेते हुए बोली ..."कुछ भीगने बाला तो बता दीजिये में लाइब्रेरी से एक बढ़ी चिल्ली(पॉलीथिन) साथ लाई हूँ " 
लड़के ने खामोस रहते हुए पॉकेट रेडियो उसकी और बड़ा दिया ।

लड़का चाहते हुए भी लड़की से बात नहीं कर पा रहा था...।साइंस की पढ़ाई में पढ़ी शिरायें और धमनियों के मध्य संचारित रक्त बहाव की अधिकतम गति क्या होती है..वह आज अनुभूत कर रहा था ।
उसने मीठे और धीमे स्वर में जब कहा "अब चलो भी,कब तक भिगोगे...और भिगाओगे ?
उसका पहला अनुभव था किसी के प्रति आकर्षण में और वह बार-बार सोचता की सपना है या सच !!

कॅरियर पर पहली बार कोई था, जिससे लड़का शैतान होते हुए भी  कोई भी शैतानी करना जैसे भूल गया था। कभी वह जब भी गले में पड़े स्कार्फ को व्यवस्थित करती थी  तो जो महक वह महसूस करता। वह उसे बार-बार एक अनजान अहसास की अनुभति कराता देता और लड़का सायकल के पैडल चलाते हुए सीटी बजाना भूल चुका था...।उसे अहसास ही न हुआ की कब एरोड्रम रोड निकल थॉमसन क्रासिंग आ चुकी थी...!

"रुको-रुको,हम आगे आ गए,बापस चलिए आपका एरोड्रम तो पीछे रह गया !" 
वह अपनी तल्लीन तन्द्रा से निकला और लौट चला पर उसने लड़की के ओठों के मध्य मुस्कान देख ली थी ।
उन दोनों के हॉस्टल के बीच किलोमीटर भर का ही फर्क था।
एक ही रोड पर ....
लड़की ऊँगली से बता रही थी आगे बाली स्ट्रीट लाइट ...।गन्तव्य आ चुका था.....।।
लड़का बैग बाली थैली लेते हुए पहली बार उसको निहारा ओर लज्ज़ा से दोहरा हो गया ....उसने वह देखा जो आजतक उसने नहीं देखा और अपनी सर्ट उतार पकडाते हुए बोला ,यह लीजिये आप भीगी हुई अव्यवस्थित दिख रही हैं। इसे पहन लीजिये मुझेें सुबह या कॉलेज में लौटा दीजिये ...।
उसे लड़के द्वारा सर्ट देने का जब मन्तव्य आभास हुआ तो वह लज्जा और  दोहरी होती हुई वहीं बेठ गयी पर उसके हाथ में थी लड़के की हल्की काली सर्ट....!

उस रात वह सो नहीं पाया,आँखों के समक्ष केम्पस से लेकर एरोड्रम तक का चलचित्र चलता रहा...और वह बार-बार सोचता की कहाँ देखा है ...?फिर बुद्धि कहती की कॉलेज में रोज ही देखा होगा पर आशवस्त नही हो पा रहा था और सुबह जब आँख लगी तो 11 बजे खुली...!घड़ी की दो सुइयां एक नियत आकर -मिलकर गुजर गईं।अलार्म पिंग-पिंग करता रहा वह सोता रहा ....!

उसने महसूस किया की वह बुखार में है और पोर-पोर दुःख रहा है...।कुछ पिल्स पड़ी थी..नास्ते बाद निगल ली और झटपट तैयार हो ऑटो ली क्योंकि सायकल चलाने को बॉडी तैयार न थी ।
लंच ब्रेक में पहुँचा और केन्टीन में जाकर पंडित जी से कुछ स्लाइस और उसके बाली कड़क चाय बोल दिया ...।उसने वहां देखा की वही लड़की किसी को उत्सुक नजरो से खोज रही है, और वह उसके सामने आ बेठी ...।मुस्कुराते हुये उसको देखा।
उसका मुस्कान बिखेरना जेसे लड़के की त्योरी पुनः भंग कर गया...वह उसे अपलक निहार रहा था !

"सुनो दीदी के लाडले.....तुमसे आज में परिचय कर ही लेती हूँ क्योंकि तुम हो निरे बुद्धू,पढ़ाकू !"
"इन किताबों से फुर्सत पाओ तो कुछ जानो,सम्बन्धियों को   भी यूँ न पहिचानना कोई तुमसे सीखे!"
इससे पहले की वह कुछ समझता ..वह खिलखिला उठी ...।
लड़का जेसे जलतरंग की स्वरलहरी में डूब गया..! 
उसने उसके चेहरे पर चुटकी बजाई और वह हड़बड़ाहट में बोल गया ....में-में...में...में समझा नही ?

लड़की बेतिहासा हंसती रही और लड़का अवाक सा खोया रहा...इसी मध्य उसने लड़के की तह की हुई सर्ट देते हुए बोला की "कल के लिए आभार व्यक्त करके में यह भूलना नहीं चाहुगी! पर यह आपका कर्तव्य था...हम परस्पर सम्बन्धी हैं किन्तु आपको पिछले 8 माह से यह बताते हुए झिझकती थी,सोचा करती थी कि पता नही आप क्या अनुमान लगायें। "
"कल जब बर्षात के अँधेरे में बिजली कड़कती थी,में डर से काँप रही थी...मुझे न बिजली कौंध से बड़ा डर लगता है।"
"आप आये तो हॉस्टल तक पहुंची,न तो मर ही जाती ..थोड़ी और देर में ..!"
अब लड़के का चित्त जाग्रत हुआ,याद  आया की उसकी पड़ोस बाली भाभी जी की छोटी बहिन भी तो यही किसी कॉलेज में दाखिला ली,पर उसके कालेज में होगी ,यह अनुमानित कल्पना से भी परेह की बात है !!

भाभी जी दिवाली पर बता रहीं थी की उनकी बहिन भी उसी शहर में कहीं हैं, जरा मिल आना उससे।आखिर सुदूर    भीड़ से भरे 'नितांत शहरों' में कोई अपने हैं तो उनसे मिलना और परस्पर खोज-खैर ओ खबर रखना हमारी संस्कृति के दायित्व हैं।
एक ही शहर में हो,एक-दूसरे को जानते हो तो  फिर तो टाइमपास भी होता रहेगा ! हम भी फिक्रमंद नही रहेंगे कि शहर में लड़की अकेली है ।
पर उसे क्या पता था की उसका परिहास उसको बदल देगा और जो परिलक्षित होगा वह उसे शैतान से परिपक्वता में बांध लेगा ।

समय के साथ पता ही न चला की वारिस में परिचय हुए दो प्राणी कब परस्पर परछाई बन गए...।कितनी ही बार साथ खाना खाये और कितनी ही बार एक-दूजे को सिखाते भी रहे ....।दोनों के दोस्त कहते थे की यह दोनों कितनी समानता लिए हैं, अगर बेलेंस किया जाए तो अंश भर भी फर्क न निकलेगा ...??
एक्जाम्स में लड़का 2 अंक से आगे आया ...वह बोल उठी की "लड़के थोड़े श्रेष्ठ ही अच्छे होते है,न तो इकवल्टी से लडाईया अधिक होती हैं !"

वह अंतिम वर्ष का अर्द्ध था.....।
दिवाली अवकाश से पूर्व दोनों ने साथ-साथ घूमा और एक पाम वृक्ष की छाँव में, लड़की ने स्नेहभूत होकर  लड़के के बालों में उंगलियों के पोरों से स्नेह अथवा बात्सल्य की अनुभूति  क्या दी। लड़का उसके अंक में सोता रहा ...।
घण्टो निकल गये, धूप आई तो उसने अपने स्कार्फ की छाँव कर दी ताकि नींद न टूटे .....।
यह करीव 31 माह में यह उनका पहला और निश्छल स्पर्स था ...वह सोता रहा और वह उसके सिर को ममता के साथ सहलाती रही ....दींन दुनिया से बेखबर...बेपरवाह होकर !!

वह जागकर  पूछता है,कि मुझे जगाया क्यों नही इतना समय  हो गया ?
वह किसी दूसरी दुनिया में बिचरण करती हुई कहती है की "आज जब तुम्हे पहली छुआ तो मेरा ममत्त्व जागृत हो गया ...और तुम्हारी ये निश्छल भोली सूरत निहारते-निहारते मेरी आँखे तृप्त नहीं हो रही  थी।"
"ऐसा प्रतीत हो रहा था,मेरे मातृत्व की सारी सुप्त प्रकृति  सिमट कर तुम्हारे में आ स्थिर हो गयी है,तुम्हे पता भी है???
"तुम सोते समय कितना खूबसूरती से मुस्कुराते हो,जब मुस्कुराते हो तो ऐसा लगता है, जेसे पलक झपकाते ही अद्भुत बालदृश्य- वह दृश्य कही चला न जाए !!"
"हम स्त्रियों में यह अलग ही अनुभूति होती है,प्रेम में समर्पण और समर्पित स्नेही में बात्सल्यबोध हम सहज ही अनुभूत कर लेती हैं।"
पता नही क्या था वह....??
वह यह सब बताते-बताते पता नही क्यों फफक पड़ी और उसके मोटे तीखे नयनो से कुछ भावविहलता की ओस सहज ही लड़के के ललाट को आलिंगनबद्ध कर गयी।
यंत्रवत सा लड़का भी भावबिभोरता में कुछ अश्रुदान करते हुये उसके समक्ष अपने सीने को भुजाओ से समांतर करते हुऐ गले लग गया ।

अगले दिन उनका पूरा ग्रुप्स साथ-साथ अपने-अपने गन्तव्य की गाड़ी पकड़ता है।राह में होती अंताक्षरी और गले मिलकर कुछ समय के लिए विदा होते सभी खुश थे, पर कहीं कुछ दो जोड़ी आँखे समन्दर हो रही थी ।

समय आता है और लड़के का रिम प्रीपेड रोज रिचार्ज होता है...।बातो में पुनर्वृत्ति दोहराई जाती है,कुछ दिन के शेष अवकाश जेसे युग बने प्रतीत होते है। 
एक दिन लड़के को खबर मिलती है की एक दुर्घटना में वह अधूरा रह गया ,जाते-जाते उसके सांस तोड़ते-.कॉंपते ओठों  पर उस लड़के का अधूरा नाम रह गया .....!!

लड़का कुछ समय विक्षिप्त सा रहा...पोरो पर दिन गिनता रहा पर उसका एक टुकड़ा दूर क्षितिज से उसे जेसे आज भी पुकार रहा है...उसको बार-बार निहार रहा है। सफलता की छांव से टूटा स्नेह जब-जब उसपर बरसता है,वह सफलता को स्पर्श करके भी असफल कहानी ही लिखता है ।
वह लड़का आज भी उस साइकल के करियर को निहारता है,केरियर-केरियर रिक्त  जेसे खोया हुआ समय पुनः आएगा और पुकारेगा .....
"मुझे होस्टल तक ड्राप कर दीजिये सर !"

---------
जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
    आगरा,उप्र.
      282007
   29/02/2016

रविवार, 18 फ़रवरी 2024

गज़ल

रश्म ओ गारित हर एक मंजर दिखाई देता है,
मुझको जलता हुआ मेरा घर दिखाई देता है !

जीवन निकला खुशियो का कैदखाना बुनते-बुनते,
देखा टूटा हुआ फूंस का आशियाना दिखाई देता है !

हर शै यहाँ चेहरे पर नया चेहरा लगाये खड़ी है,
फिर से कोई मासूमियत का खरीदार दिखाई देता है!

शामे ख्वाव के तृणआशियाने उजड़े जा रहे हैं दोस्त ,
क्या करना और क्या कर बेठे में खोया दिखाई देता है !

उड़ते हुए धुएं सी थी जेहन में मंजिले कभी अशेष ,
आज बेरंग बादल सा गगन में भटकता दिखाई देता है !

सोचा था उन्मुक्त गगन सी गरिमा बन यशोभित होंगे 
आज खड़ा चौराहे की तरह एक राह दिखाई देता है !

फ़क्त सजाने को जिन्दगी,एक मन्ज़र सजाया था,
कत्ल ओ गारत यहाँ हर एक मन्ज़र दिखाई देता है !!

   
      ~JVS•

रविवार, 11 फ़रवरी 2024

सिकरवार

#श्रीरामकुल

वैसे तो श्रीराम के विषय में कौन नहीं जानता लेकिन उनके कुछ विशिष्ट पूर्वजों व कुटुंब और वंशजों के विषय में लोग कम ही जानते हैं। 

#पूर्वज

-श्रीराम का कुल वैवस्वत मनु के इक्ष्वाकु कुल से प्रारंभ हुआ जिनकी वंशावली पुराणों व रामायण में अलग-अलग है। 
-
#  ऐसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकु वंश की कई शाखाएं स्थापित हुई जो एक गणसंघ के रूप में संगठित थीं, जिसकी राजधानी थी #अयोध्या। इन शाखाओं में प्रमुख थीं-

-उत्तर-पश्चिम में मांधाता
-सौराष्ट्र में बसे शार्यात और मधु जिनका हैहय गणसंघ में विलीनीकरण हो गया। 
-दक्षिण में दक्षिण कोशल 
-उत्तर में उत्तर कोशल 

मांधाता, हरिश्चन्द्र, सगर, भगीरथ, मुचकुंद आदि इक्ष्वाकुओं की विभिन्न शाखाओं से संबंधित प्रतीत होते हैं जिन्हें पुराणों में एक ही वंशरेखा में जोड़ दिया गया। 

# उत्तर कोशल की मुख्य शाखा में दिलीप के  प्रतापी पुत्र रघु ने अयोध्या में स्थाई राजतंत्र की नींव डाली इसलिये उनके वंशज 'रघुवंशी' या 'राघव' भी कहलाने लगे।
 श्रीराम के प्रपितामह यही चक्रवर्ती रघु थे। 

# पितामह:- महाराज अज
# पितामही:- विदर्भ राजकुमारी इंदुमती

# पिता:-  महाराज दशरथ जिनके पराक्रम के कारण देवराज इंद्र स्वयं उनसे मित्रता रखते थे। 
# माताएं:- श्रीराम की जननी कोशल्या व विमाताएँ कैकई, सुमित्रा थीं जिनमें कोशल्या पटरानी और  कोशल्या व कैकई मुख्य रानियां थीं। 
कोशल्या व कैकई के वास्तविक नामों का पता नहीं चलता हालांकि कोशल्या दक्षिण कोशल की राजकुमारी और कैकई कैकय की राजकुमारी थीं। सुमित्रा के बारे में अलग अलग विवरण हैं। कुछ के अनुसार वह मगध की राजकुमारी थीं और कुछ के अनुसार काशी की।
इसके अलावा महाराज दशरथ की अन्य सामान्य पत्नियां भी थीं। 

# पितृव्य:- श्रीराम के किसी पितृव्य का उल्लेख नहीं मिलता परंतु महाराज दशरथ के घनिष्ठ मित्र काशी नरेश प्रतर्दन और अंग नरेश रोमपाद को श्रीराम जीवन भर पितृव्य का ही सम्मान देते रहे। 

# नाना व मामा:- श्रीराम के नाना जी का नाम महाराज भानुमान था जो दक्षिण कोशल के राजा थे जिसे आजकल का छत्तीसगढ़ कहा जाता है। 
मामा का उल्लेख नहीं मिलता लेकिन भरत के मामा आनव नरेश युधाजित का उल्लेख मिलता है जो झेलम व चेनाब क्षेत्र में राज्य करते थे। लक्ष्मण व शत्रुघ्न के नाना मामा का पता नहीं लगता। 

# कुलगुरु:- वसिष्ठ पीठ के तत्कालीन कुलपति वसिष्ठ जिनके पुत्र सुयज्ञ श्रीराम के समवयस्क और मित्र थे। 

# अन्य गुरु:- महर्षि विश्वामित्र जिन्होंने श्रीरा म को दुर्लभ दिव्यास्त्र और क्रांतिदीक्षा दी। महर्षि अगस्त्य उनके तीसरे गुरु थे जिन्होंने श्रीराम को वैष्णवी धनुष, अक्षय बाण भंडार और स्वयं का बनाया नवीनतम दिव्यास्त्र एन्द्रास्त्र प्रदान किया। उन्होंने श्रीराम को महारुद्र द्वारा विकसित कलारी की वदक्कन शैली की शिक्षा भी प्रदान की जिसके द्वारा उन्होंने कबन्ध का वध किया। 

# भाई:- भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न। इनमें भरत कैकई के और शत्रुघ्न तथा लक्ष्मण सुमित्रा के पुत्र थे। 

# बहन:- श्रीराम की एक बड़ी बहन शांता का भी उल्लेख मिलता है जो  एक अल्पज्ञात विमाता से उत्पन्न हुईं थीं। इस कन्या को दशरथ ने अपने मित्र अंग नरेश रोमपाद को दे दिया था। इस कन्या का विवाह श्रृंगी ऋषि से हुआ जिन्होंने महाराज दशरथ का पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। अर्थात श्रृंगी ऋषि दशरथ जी के जामाता लगते थे। 

# पत्नी:- राजर्षि जनक की पालित पुत्री सीता। 

# अनुजपत्नियाँ:- भरत की मांडवी, शत्रुघ्न की श्रुतकीर्ति पत्नियां मिथिला नरेश सीरध्वज के भाई कुशध्वज की पुत्रियां थीं। लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला स्वयं महाराज सीरध्वज जनक व महारानी सुनयना की सगी पुत्री थीं।

(अगले अंक में श्रीराम के प्रसिद्ध वंशजों के विषय में।)

#श्रीराम_के_वंशज 2

 श्रीराम के अपने वंश में कुश के वंशज मूल अयोध्या पर राज्य करते रहे। राक्षसों द्वारा कुश की हत्या के पश्चात उनके पुत्र अर्थात श्रीराम के पोते अतिथि ने न केवल पूरा पूरा प्रतिशोध लेकर राक्षसों का रहा सहा नामोनिशान मिटा दिया बल्कि अपने दादा श्रीराम के साम्राज्य को फिर जीवित किया। 

कालांतर में सुदर्शन के बाद उनके विलासी पुत्र अग्निवर्ण के पश्चात अयोध्या सम्राज्य का पतन होता गया और उसी अनुपात में हस्तिनापुर प्रगति करता गया। 

अंततः श्रीराम का वंशज बृहद्वल अन्यायी कौरवों के पक्ष में लड़ता हुआ अभिमन्यु के हाथों यश विहीन वीरगति को प्राप्त हुआ। 

प्रसेनजित और फिर उसका पुत्र विदूदभ अंतिम उल्लेखनीय रघुवंशी थे और प्रसेनजित ने श्रावस्ती को राजधानी बनाकर अयोध्या को और उपेक्षित कर दिया।

इसके बाद का राम के वंशजों का इतिहास पंडों, भाटों व चारणों की बहियों व प्रशस्तियों में मिलता है। 

ऐसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकुकुल के क्षत्रिय पूरे भारत में बिखर गए और फिर स्कन्दगुप्त के काल में भट्टार्क के उल्लेखनीय रूप में प्रकट होते हैं। 

तत्पश्चात प्रतिहार राजपूतों के रूप में व उनके नेतृत्व में एक बार फिर राम के वंशज एकत्रित होना प्रारंभ हुए। 

कच्छप टोटम के नागों का विनाश करने वाले कुश वंशीय कच्छपघात पहले ग्वालियर क्षेत्र में और फिर आमेर क्षेत्र में 'कछवाहों' के रूप में प्रकट हुए। 

लक्ष्मण के पुत्र मल्ल व उनके वंशज 'मालवी'  के पुत्र  'मालव' आबू के यज्ञ के बाद 'परमारों के रूप में प्रतिष्ठित हुये। 

मेवाड़ में ही श्रीराम के वंशजों की एक शाखा गुह के वंशजों के रूप में 'गुहिलोत' व 'सिसोदियो' के रूप में पद प्रतिष्ठित हुई। 

अयोध्या से रावी किनारे श्रीराम द्वारा लव के नाम पर बनाई गई सैन्य छावनी 'लवपुर' जिसे आज 'लाहौर' कहा जाता है, जाकर बसे श्रीराम के वंशजों में एक उल्लेखनीय वंशज हुये 'कनकसेन'। 

उन्हीं कनकसेन के वंशजों की एक शाखा आठवीं शताब्दी के आसपास शेखावटी क्षेत्र में आ बसी और फिर अपने ही बांधव 'कछवाहों' से परास्त होकर रेत अर्थात 'सिकता' के क्षेत्र में आ बसी जिसे कहा गया 'विजयपुर सीकरी' और अकबर ने नाम बदलकर कहा 'फतेहपुर सीकरी'। 

1527 में राणा सांगा के साथ ये 'सीकरी वाले' राजपूत भी आये थे राव धम्मदेव सिंह के नेतृत्व में खानवा के मैदान में मातृभूमि की वेदी पर अपना रक्त अर्पण करने लेकिन तोपों के विरुद्ध वज्र वक्ष भी चूर चूर हो गए। 

राणा सांगा के साथ पूरे के पूरे 'सीकरीवाले' राजपूत निकल पड़े मुगलों से शाश्वत संघर्ष का संकल्प लिए। 

वे बंटे तीन हिस्सों में-

एक हिस्सा गया झारखंड के गहनतम वनों की ओर और  गांव बसाकर आसपास के इलाके को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। यह गांव आज एशिया का सबसे बड़ा गांव 'गहमर' कहलाता है। 

दूसरा हिस्सा आगरा के जंगलों में छिप गया ताकि छापामार युद्ध चला सके। यह क्षेत्र 'बड़ी सिकरवाली' कहलाता है। 

तीसरा हिस्सा चंबल के बीहड़ों में जा बसा जिसकी दुर्भेद्य घाटियां मुगलों के लिए सदैव अभेद्य रहीं। 

चंबल का यह क्षेत्र भी कहलाया 'सीकरवाली' और उसके ये निवासी कहलाये 'सिकरवार'। 

इसी चंबल क्षेत्र में एक सूर्यवंशी योद्धा 'सहजराम' ने बसाया एक गांव 'सहजपुरा' और प्रण लिया 'वैष्णव सम्प्रदाय, शाकाहार' व प्राणी कल्याण का लेकिन एक वंशज के दलितों पर अत्यचारों के कारण शाप मिला कि हर तीसरी पीढ़ी पर तुम्हारा गाँव उजड़ेगा। 

उस शाप को ढोते हुये नवीं पीढ़ी में भी यह गांव तीसरी बार उजाड़ हुआ और दसवीं पीढ़ी के एक बालक ने आजीवन उसकी त्रासदी झेली। 

भगवान श्रीराम की तीन सौ दसवीं(+) पीढ़ी के इस बालक की अब यही कामना है कि हर हिन्दू एक दूसरे को भाई माने और उसका सम्मान कर्म से करे न कि जातिगत जन्म से ताकि फिर किसी तीसरी पीढ़ी को ऐसा विनाश न झेलना पड़े। 

इति!
#श्रीराम_के_वंशज 2

 श्रीराम के अपने वंश में कुश के वंशज मूल अयोध्या पर राज्य करते रहे। राक्षसों द्वारा कुश की हत्या के पश्चात उनके पुत्र अर्थात श्रीराम के पोते अतिथि ने न केवल पूरा पूरा प्रतिशोध लेकर राक्षसों का रहा सहा नामोनिशान मिटा दिया बल्कि अपने दादा श्रीराम के साम्राज्य को फिर जीवित किया। 

कालांतर में सुदर्शन के बाद उनके विलासी पुत्र अग्निवर्ण के पश्चात अयोध्या सम्राज्य का पतन होता गया और उसी अनुपात में हस्तिनापुर प्रगति करता गया। 

अंततः श्रीराम का वंशज बृहद्वल अन्यायी कौरवों के पक्ष में लड़ता हुआ अभिमन्यु के हाथों यश विहीन वीरगति को प्राप्त हुआ। 

प्रसेनजित और फिर उसका पुत्र विदूदभ अंतिम उल्लेखनीय रघुवंशी थे और प्रसेनजित ने श्रावस्ती को राजधानी बनाकर अयोध्या को और उपेक्षित कर दिया।

इसके बाद का राम के वंशजों का इतिहास पंडों, भाटों व चारणों की बहियों व प्रशस्तियों में मिलता है। 

ऐसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकुकुल के क्षत्रिय पूरे भारत में बिखर गए और फिर स्कन्दगुप्त के काल में भट्टार्क के उल्लेखनीय रूप में प्रकट होते हैं। 

तत्पश्चात प्रतिहार राजपूतों के रूप में व उनके नेतृत्व में एक बार फिर राम के वंशज एकत्रित होना प्रारंभ हुए। 

कच्छप टोटम के नागों का विनाश करने वाले कुश वंशीय कच्छपघात पहले ग्वालियर क्षेत्र में और फिर आमेर क्षेत्र में 'कछवाहों' के रूप में प्रकट हुए। 

लक्ष्मण के पुत्र मल्ल व उनके वंशज 'मालवी'  के पुत्र  'मालव' आबू के यज्ञ के बाद 'परमारों के रूप में प्रतिष्ठित हुये। 

मेवाड़ में ही श्रीराम के वंशजों की एक शाखा गुह के वंशजों के रूप में 'गुहिलोत' व 'सिसोदियो' के रूप में पद प्रतिष्ठित हुई। 

अयोध्या से रावी किनारे श्रीराम द्वारा लव के नाम पर बनाई गई सैन्य छावनी 'लवपुर' जिसे आज 'लाहौर' कहा जाता है, जाकर बसे श्रीराम के वंशजों में एक उल्लेखनीय वंशज हुये 'कनकसेन'। 

उन्हीं कनकसेन के वंशजों की एक शाखा आठवीं शताब्दी के आसपास शेखावटी क्षेत्र में आ बसी और फिर अपने ही बांधव 'कछवाहों' से परास्त होकर रेत अर्थात 'सिकता' के क्षेत्र में आ बसी जिसे कहा गया 'विजयपुर सीकरी' और अकबर ने नाम बदलकर कहा 'फतेहपुर सीकरी'। 

1527 में राणा सांगा के साथ ये 'सीकरी वाले' राजपूत भी आये थे राव धम्मदेव सिंह के नेतृत्व में खानवा के मैदान में मातृभूमि की वेदी पर अपना रक्त अर्पण करने लेकिन तोपों के विरुद्ध वज्र वक्ष भी चूर चूर हो गए। 

राणा सांगा के साथ पूरे के पूरे 'सीकरीवाले' राजपूत निकल पड़े मुगलों से शाश्वत संघर्ष का संकल्प लिए। 

वे बंटे तीन हिस्सों में-

एक हिस्सा गया झारखंड के गहनतम वनों की ओर और  गांव बसाकर आसपास के इलाके को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। यह गांव आज एशिया का सबसे बड़ा गांव 'गहमर' कहलाता है। 

दूसरा हिस्सा आगरा के जंगलों में छिप गया ताकि छापामार युद्ध चला सके। यह क्षेत्र 'बड़ी सिकरवाली' कहलाता है। 

तीसरा हिस्सा चंबल के बीहड़ों में जा बसा जिसकी दुर्भेद्य घाटियां मुगलों के लिए सदैव अभेद्य रहीं। 

चंबल का यह क्षेत्र भी कहलाया 'सीकरवाली' और उसके ये निवासी कहलाये 'सिकरवार'। 

इसी चंबल क्षेत्र में एक सूर्यवंशी योद्धा 'सहजराम' ने बसाया एक गांव 'सहजपुरा' और प्रण लिया 'वैष्णव सम्प्रदाय, शाकाहार' व प्राणी कल्याण का लेकिन एक वंशज के दलितों पर अत्यचारों के कारण शाप मिला कि हर तीसरी पीढ़ी पर तुम्हारा गाँव उजड़ेगा। 

उस शाप को ढोते हुये नवीं पीढ़ी में भी यह गांव तीसरी बार उजाड़ हुआ और दसवीं पीढ़ी के एक बालक ने आजीवन उसकी त्रासदी झेली। 

भगवान श्रीराम की तीन सौ दसवीं(+) पीढ़ी के इस बालक की अब यही कामना है कि हर हिन्दू एक दूसरे को भाई माने और उसका सम्मान कर्म से करे न कि जातिगत जन्म से ताकि फिर किसी तीसरी पीढ़ी को ऐसा विनाश न झेलना पड़े। 

इति!

बुधवार, 27 दिसंबर 2023

कच्ची डोर (कहानी)

पावस ऋतु के प्रचंड वेग के समय एक सैनिक घनघोर जंगलों में अपनी चिर-परिचित राह से क्या भटका,जैसे दुरूह और स्याह रात की मुसलाधार वर्षा भी उससे कोई पुराने परिबाद का बदला लेने पर उतारू हो चुकी थी।

सर्द मेघ की बूंदों ने सैनिक की तमाम अस्थियों के मेरूरज्जु तक शीत पहुँचा दी थी। किन्तु राह भटका पथिक चलता रहा-चलता रहा और शीत व क्षुदा से त्रस्त होकर कोई आश्रय तलाशने लगा।


चंहुओर तलाश करने पर भी उसको कंही भी कोई आशा किरण नजर नही आई तो एक विशाल वटवृक्ष पर चढ़कर जीवन बचने की आशा में ,दूर तक देखकर कोई आशा की किरण खोजने लगा।कंही दूर से उसको एक आलोक होता दिखा तो मरा हुआ साहस पुनः जागृत हो उठा।


तड़ित  प्रकाश में वह एक मनोरम कुटिया में बिखरी डिभरी की आभा में गृहस्वामिनी तरुणी को देख ठिठक गया।फूलती सांस,सतत होती शारीरिक ऊर्जा क्षय और कांपते जिगर से आश्रय पाकर भी निराश्रित सा लोटने को उध्दृत हो उठा। किन्तु तरुणी की तीक्ष्ण दृष्टि व बादलों में कड़कती तड़ित के आलोक से वह न बच सका।

तरुणी ने कहा कि देखो इस घनघोर बहित्काल में मेरे आश्रय तो ले सकते हो किन्तु मेरे पिता-माता ननिहाल गए तो मुझे तुम्हारे कारण मेरे शील मर्यादा का भय न  हो !

वह बलबीर द्रवित हो उठा...!

'भद्रे!,में एक क्षत्रिय हूँ और शील-मर्यादा,धर्म की रक्षा मेरे लिए इस जीवन से अधिक प्रिय है। में बाहर औलाती के सहारे प्रहरी बनकर बैठा रहूंगा।''किन्तु!तुम्हे कोई क्षति नही आने दूंगा!!'

तरुणी आश्वस्त हुई और कुटी के पट से परेह हटकर आगन्तुक को अंदर आने की क्रियात्मक स्वीकृति दी ।

प्रायः ऐसा ही होता है,की आश्रय मिल जाये तो क्षुदा आग्रह भी मेजबान के समक्ष प्रस्तुत करना ही पड़ता है।और आगन्तुक भी आमंत्रित से बरबस ही बोल पड़ा।

'कृपया कुछ क्षुदा निवारण हेतु उपलब्ध हो तो मेरी प्राण रक्षा कीजिये,चार घड़ी से इस निर्जन में भटक रहा हूँ।'

तरुणी द्वारा सैनिक को कुछ सत्तू व कन्द इत्यादि खिलाकर तृप्त किया और अपने लिए जमीन पर बिछावन करने लगी। 

इस बरसात में चलती तेज वायु और सतत धरा की शीतलता में शयन  की सोच सैनिक बरबस ही बोल उठा।"

देवि!आप इस चारपाई पर शयन करिये में सैनिक हूं और इस भूमि पर शयन करने का अभ्यस्त भी हुँ।,कृपया आप चारपाई ग्रहण करिये। में बड़े आराम से सो लूंगा!"

तरुणी ने भृकुटि तानी और थोड़े से बनाबटी गुस्से के साथ बोली..."अतिथि को भूमि पर और स्वयं सुलाकर,में आतिथ्य सत्कार में हुई चूक की हकदार क्यों बनूगी ?"

दोनो और से "आप-आप" होते-होते एक शायिका पर दोनों के मध्य एक कच्ची सूत की डोर की मर्यादा बांध दी गयी और दोनों अपनी-अपनी करबट सोने का प्रयास करने लगे।

भोर में लड़की पहले जागी और बोलने लगी.....

"तुमने कितने समुहे रिक्त करके युद्ध किये हैं..?"

सैनिक -भद्रे इस जीवन काल मे सैकड़ों युद्ध किये और कभी पराजित नही हुआ हूँ,एक-एक दुश्मन के ओहदों पर अपनी ढाल और सिरोही की धमक से धावे पर धावा बोला है।"


प्रतिउत्तर में तरुणी रक्तिम आंखे और खा लेने बाली नजरों में से देखते हुये बोली...

"चल नामर्द,झूठे...इससे पहले की तुझपर शीलभंग का आरोप लगाकर तुझे मरबा दूँ।निकल जा इधर से ..!!"

"रात में एक यौवना तरुणी की धधक शांत करने के लिए तुझसे एक कच्चे सूत की डोर तो लांघी नही जा सकी।बड़ा आया युद्ध जीतने-पराक्रम दिखाने की बाते बनाने बाला।"

"जा. !ओझल हो जा,जो एक स्त्री के मन की बात और बाह्य दिखावे को नही समझ सकता।उससे सौर्य की बातें शोभा नही देती!!"

मेने,तुझे...

आश्रय किसी पथिक को आतिथ्य सत्कार के लिए ही नही,वरन स्वयं की आवश्यकता के लिए दिया था।एक डोर तो टूटी नही,किसी की सैया क्या तोड़ पायेगा..पौरुष हीन।


सैनिक ..किंकर्तव्य विमूढ़ होकर सिर धुनने लगा कि,आखिर उससे चूक अपना धर्म निर्वहन करके हुई अथवा अधर्म न करके...!!

वह पहली बार जीवन मे धर्म निर्वहन करके सात्विक रहकर,शौष्ठव शरीर होकर भी स्वयं को पौरुषहीन अनुभूत करता हुआ।धराशायी पगों से अपनी पगडंडी को चलता बना ।

आखिर चूक कहाँ हुई.. ??

सोमवार, 27 नवंबर 2023

चार वर्ष ♥️🥰

सुना है..!
तुम बहुत दूर जाने बाले हो,अपनो से कहीं विस्तृत होकर,नया सम्बोधन लेकर,विरक्त से होकर अपनी शास्वत दुनियाँ में पदार्पण करने...जैसा कि हर कोई एक स्वप्न में सजा के रखा करता है।
अब वह तुम्हारा मेरे से तमाम प्रश्न रखना और अनायास ही चिंतित होकर लताड़ना कदाचित ही हो पायेगा।शायद ही वह दिव्य ध्वनियों से अभिगुंजित होती स्वर सरिता पुनः अपने कर्णों के माध्यम पुनः अपने मन मस्तिष्क में लहरा सकूंगा !

में नही जानता कि हम किसको-कितना स्मरण रख पायेंगे,किन्तु जब-जब यारी-दुनियादारी,ईमानदारी व परस्पर स्वभावों की तुलना करने की बारी आएगी...मुझे-तुम्हारी और शायद तुम्हे भी मेरी सूरत।उजली न सही,धुंधली तो अवश्य याद आएगी न?
क्या तुम्हें याद रहेगा,मेरा तुम्हारे ओजस्वी चौड़े भाल पर संस्कृति की बिंदी के लिए बाध्य कर देना?और तुम्हारा मुझे "प्राचीन खड़ूस बुढ़ऊ दोस्त " कहकर 'बिंदी' स्वीकार कर लेना  ।
 
सच कहुँ यार...!!
मेरे 'शब्द' तुम्हारे स्वर के बिना बहुत नीरस हो चुके हैं,प्रायः अब वह लिखने की अकुलाहट व मेरी सदैव की टंकण त्रुटि पर तुम्हारी झल्लाहट का न होना बहुत खलेगा।बहुत याद आएगा तुम्हारा शब्दों में प्राण सजीव करने का अद्भुत सामर्थ्य।पर मेरे सामर्थ्य से तुम बहुत दूर अपने स्वर्णिम सपनो में सदैव गतिमान रहना। प्रायः इस संसार की गति में आकर सबको अपनी गति पकड़नी होती है ।

हम प्रत्यक्षय कभी भेंट नही कर सके,कभी तुम्हारे आग्रह पर में उपलब्ध नही हो सका तो कभी मेरे आग्रह पर तुम।शायद कुछ आत्मीय बंधन बनते ही इस लिये हैं कि,उनकी रिक्तियां सदैव भावाव्यक्तियों से कहीं सर्वोच्य होकर सदैव चिर स्मृतियों में स्थायित्व प्रदान करके स्मरण की जा सकें ।

सम्भवतः यह मेरा तुम्हारे लिए लिखा पहला और अन्तिम भावासक्त विदाई भाव हो।क्यों कि तुम्हारे को संस्कारस्वरूप प्राप्त हुए।नूतन जीवनशैली,नूतन उत्तरदायित्व एवं नवनूतन भावप्रवणता मुझे भावरहित होने पर बाध्य कर देती है।

लोग कहते हैं कि,एक समय अंतराल उपरांत हर कोई अपनी स्मृतियों को विस्मृत कर देता है।किन्तु में बिलुप्त होती उस मानव सभ्यता का प्राणी ठहरा जो अपनी जीवनी को बड़े समीप से चलचित्रित होते प्रायः देखा करता हुँ।अपनी इसी विप्लब क्षमता के कारण कितनी ही बार स्वयं के द्वारा ठगा जाता हूँ ।
मुझे विदित नही कि लोग क्या समझेंगे?
सम्भवतः स्नेह से अनुरिक्त करके जोड़े।जैसा की आम अवधारणा पूर्व से निहित है। किन्तु यह स्नेह की भावना उस आम जनमानस की भावना से कहीं सो कोटि सर्वदा प्रथक है ।
यार!!
तुम न,मेरी जिन्दगी के वह अभिसिंचित अमूल्य धरोहर थे,जो कभी न कभी उसके धारक को दिव्य रश्मो के साथ देने ही थे।
माँ भगवती तुम्हारे पावन आँचल में सदैव उन्नति-प्रगति व बात्सल्य की दिव्य 'रश्मियां' सदैव पल्लवित रखे ।
तुम जिधर जाओ उधर मधुर श्रवनमाष की दिव्य सुसंस्कृतिया सदैव 'अभिगुंजित' होकर गुंजार करती रहे ।

सदैव प्रशन्न व आनन्दित रहकर नवजीवन की असीम शुभकामनायें प्रिय ...!!
सुखद विदाई,अँकवार स्नेह ...अलविदा !!

सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

डाक दिवस

#डाक_तार

पता नही कि खुद के पते पर आई अन्तिम डाक की अन्तिम तिथि क्या थी..??
अब तो अपनी खाकी गणवेश में सायकल से डाक लाने बाले छुट्टे चाचा का चेहरा भी ढंग से याद नही है।याद तो बस रह गया है,कि मेरी उन तमाम जी गयी जिंदगियों की अक्स सिहाईयों के माध्यम से भरी डायरियों में सबके डाक व्यवहार की एक छोटी-छोटी स्मर्णीका!प्रथम भेंट,प्रथम सन्देश की एक छोटी सी पुर्जी को मैने अपनी जीवन की उन अमूल्य थातियों के रूप में संजों रखा है ।

आज  उन सबके पत्राचार का सूत्र मैंने अपने पास संजो रखा है,जिनका मुझसे तनिक सा भी सम्पर्क कभी रहा हो..!पता नही क्यों आज भी उन पत्र व्यवहारी पतों को क्यों सतत फेहरिस्त में जोड़े जाता हूँ?
जबकि मुझे पता है कि कभी किसी को पत्र व्यवहार के माध्यम से वह अमूल्य भाव भेंट नही कर पाऊंगा।जिस भाव से डायरी के पेजों को नीलवर्णों से सजा लेता हूँ।

अब न शब्दों की सारंगी दुनिया में , "थोड़ा लिखो अधिक समझों...आप अधिक समझदार हो!"
समझने बाले लोग बचे हैं,और ना ही खतों-खतूत की दुनिया के वह प्रतिक्षिक लोग ...!!

बचा है बस...चंद अल्फाजों में सिकुड़ती दुनिया का खत्म हुआ बजूद!जो कभी खतों को भी सिकोड़कर-सहेजकर रख लिया करती थी..!

पता नही...! किस पते पर...?
किस नायक-नायिका,पिता-पुत्र,बहिन-भाई,पूत-माई,सखा-सम्बन्धी,देवर-भौजाई का आखिरी खत तन्मयता के साथ नयनो में नमी लेकर बाँचा अथवा पढ़कर सुनाया गया होगा ...!!

जगजीत सिंह जी के 'चिट्ठी न कोई सन्देश'  से लेकर  सोनू निगम-रूपकुमार राठौर के " संदेशे आते हैं .." और पंकज उदास की "चिट्ठी आई है,आई है..!" 
एक नम आंखों की दास्तान है,जो एकात्म हुए भावों के भंवर में बरवस पाशवित कर ही लेती है ।

आज कुछ खतों पर समय की मार के कारण तह की हुई यादों का रंग हल्का पीला सा पड़कर भी कितना सजीव सा है..!
इस दुनिया को भले ही हम असीमित भावों को लेकर अपनो आप को  'पोस्टकार्ड' की तरह पेश करें.....किन्तु चहुँ ओर से बन्द 'अन्तर्देशीय' से चित्त हो ही जाते हैं ।

खैर चलो...!
खतों-खतूत की दुनिया की तरह ही इस दुनिया का भी पराभव होना सुनिश्चित है।पोस्टकार्ड हो या अन्तर्देशीय एक दिन सबके लिखे हर्फ सनै-सनै समझ आ जाते हैं ।

हाँ याद आया ... !!!!!
डाक आती तो है.. ..! बहिना की राखी लेकर किन्तु उसमे भी वह शब्दों का संजोये जाना बाला 'इंद्रजाल' नही पढ़ने को मिलता .....!!!
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विश्व डाक दिवस है आज....♥️

"क़ासिद तेरी हड़ताल पे, कुर्बान जाइये;
वो आ गये हैं खुद, मेंरे खत के जबाब में।"

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जितेंद्र सिंह तौमर '५२से' 
चम्बल मुरैना मप्र.

बुधवार, 4 अक्टूबर 2023

यादों का इडियट बॉक्स 2

गाँव में महीनो बाद आने पर दिखाई देती है मेरी मातृभूमि! धानी चुनरिया ओढे दुलार देती हुयी सी!!अपने शावक को अंक में लेकर दुलारने को आतुर नयन देख बरबस ही यह नयन भी सजल हो उठते हैं..।

बाजरे की बालियों का रंग जैसे चाँदी की जरिकारी किये हुए लहराता हुआ किसी का आँचल,कहीं कनखियों से निहारकर आलम्बन कि प्रतीक्षा में न जाने कितने समय की दूरियों का शिकवा-गिला जताकर अभी फफक पड़ेगा..!

 अभी-अभी दुग्ध कटोरा देते हुए बो लाल चूड़ियों से भरा हाथ,अपने चेहरे पर आई ,आधी धवल हो चुकी लटों को..लाल देख हटाना भूल चुका है। अभी दुलार से माथे पर सहलाते हुए कहेगा कि,
 "कितना दुबला हो गया है रे तू ...?

"कुछ खाता भी है वहाँ ,जा मात्र जोड़ने-जोड़ने  की ही  सोचता है ??"

" ले ये तेरा पसंदीदा मीठा दूध ,जब तक रुका है, छक के पी ।आज देर से क्यों आया..तनिक जल्दी आ जाता तो तेरे पसन्द की खीर न बना लेती...!"

खाना खिलाते माँ प्रायः सदा की भांति अपनी पढ़ाई भूल जाती है,चार की संख्या उन्हें दो नजर आती है ।
ना-नुकुर करने पर डपट देती है
 "अभी खाया ही क्या जो इतरा रहा है ?,क्या तुझे माँ से बेहतर कोई खाना खिलाने बाला भा रहा है !"

"चल झट बात करा ...देखु-सुनु-समझु तेरे व्यक्तित्व के अर्द्धभाग को!,अगर जरा चूक हुई तो क्या कोसूँगी बाद अपने भाग को ..!"

 लाडले की लजाती नजर को अनदेखा करके खीर का कटोरा भर देती है,दोनों हथेलियो के मध्य बत्सलता का सूर्य सन्मुख कर लाडले की थाली कचौड़ियों से भर देती है...!
समझ नही पाता हूँ...!!!
खाते-खाते जड़वत होकर सोच उठता हुँ....!!!!
पहले इस स्नेह-बात्सल्यता के प्रतीक स्नेहसागर के दर्श के नयन अघाउँ या उन नयनो के आदेश पर इस उदर को अघाउँ...!!!!!

पुरवाई भी क्या खूब मन महक से भरती है।जब शिवालय में मधुर शंखझालर बजती है न,मन मयुर एकाकी जीवन में बिताये एकाकी क्षद्म स्वांतन्त्र के नीरस पलो को धिक्कारता है।
आ अब लौट चले सुवर्ण माटी की महक में  मुझे मेरा गाँव पुकारता है ।

फिर अवकाश खत्म होने का भय पुरजोर स्मरण आ रहा है।कुछ घण्टों अथवा प्रहरों का ही तो समय शेष बचा है...!इन शेष प्रहरों में उन पेड़ों की शाखाओं पर गोदकर उकेरे हुये,खोटियों के साथ झड़ते हुये,अपने नामों को देखकर आह भर लूं....!या उन पुराने घरों का एक चक्कर लगा लूं...जहां न जाने कितनी शैतानियों की गवाह दीवारों में आज इश्क की महक नमी पाकर तेजी से पुकारती प्रतीत होती है।

क्या निकल लूँ...?
उन विश्वविद्यालयी दिवसों के सतरंगी सपनो के सागर किनारे,जहां एक रेडियोसेट की सरसराती फ्रीक्वेंसी उसके पसन्द के गीत को बरबस ही उसकी याद में ले जाया करती थी।
या उन काल्पनिक परछाइयों के बढ़ते-कम होते कदों के साथ,उसका अक्स उकेरने की तमन्ना पूरी कर लूं..!!

कभी-कभी प्रतीत होता है कि,में बड़े होने की मरीचिका में कितना कुछ अपना ...उन दरख्तों पे गोद डाले गए नामों और समय के साथ उखड़ति खोटियों के माध्यम से मिटता सा अपना सब कुछ इस उन्नति की चाह में स्वतः ही मिटाकर ....कितना आगे निकल आया हूँ....!!!!!!

काश!वह व्यतीत सब कुछ एक बार पुनः त्रुटि रहित प्रारम्भ कर सकता!!
जिसका पटाक्षेप कल्पनातीत था .......।।

(7 वर्ष पूर्व की मेमोरी का अपडेट वर्जन)
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~जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'
   चम्बल मुरैना मप्र.

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...