रविवार, 11 फ़रवरी 2024

सिकरवार

#श्रीरामकुल

वैसे तो श्रीराम के विषय में कौन नहीं जानता लेकिन उनके कुछ विशिष्ट पूर्वजों व कुटुंब और वंशजों के विषय में लोग कम ही जानते हैं। 

#पूर्वज

-श्रीराम का कुल वैवस्वत मनु के इक्ष्वाकु कुल से प्रारंभ हुआ जिनकी वंशावली पुराणों व रामायण में अलग-अलग है। 
-
#  ऐसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकु वंश की कई शाखाएं स्थापित हुई जो एक गणसंघ के रूप में संगठित थीं, जिसकी राजधानी थी #अयोध्या। इन शाखाओं में प्रमुख थीं-

-उत्तर-पश्चिम में मांधाता
-सौराष्ट्र में बसे शार्यात और मधु जिनका हैहय गणसंघ में विलीनीकरण हो गया। 
-दक्षिण में दक्षिण कोशल 
-उत्तर में उत्तर कोशल 

मांधाता, हरिश्चन्द्र, सगर, भगीरथ, मुचकुंद आदि इक्ष्वाकुओं की विभिन्न शाखाओं से संबंधित प्रतीत होते हैं जिन्हें पुराणों में एक ही वंशरेखा में जोड़ दिया गया। 

# उत्तर कोशल की मुख्य शाखा में दिलीप के  प्रतापी पुत्र रघु ने अयोध्या में स्थाई राजतंत्र की नींव डाली इसलिये उनके वंशज 'रघुवंशी' या 'राघव' भी कहलाने लगे।
 श्रीराम के प्रपितामह यही चक्रवर्ती रघु थे। 

# पितामह:- महाराज अज
# पितामही:- विदर्भ राजकुमारी इंदुमती

# पिता:-  महाराज दशरथ जिनके पराक्रम के कारण देवराज इंद्र स्वयं उनसे मित्रता रखते थे। 
# माताएं:- श्रीराम की जननी कोशल्या व विमाताएँ कैकई, सुमित्रा थीं जिनमें कोशल्या पटरानी और  कोशल्या व कैकई मुख्य रानियां थीं। 
कोशल्या व कैकई के वास्तविक नामों का पता नहीं चलता हालांकि कोशल्या दक्षिण कोशल की राजकुमारी और कैकई कैकय की राजकुमारी थीं। सुमित्रा के बारे में अलग अलग विवरण हैं। कुछ के अनुसार वह मगध की राजकुमारी थीं और कुछ के अनुसार काशी की।
इसके अलावा महाराज दशरथ की अन्य सामान्य पत्नियां भी थीं। 

# पितृव्य:- श्रीराम के किसी पितृव्य का उल्लेख नहीं मिलता परंतु महाराज दशरथ के घनिष्ठ मित्र काशी नरेश प्रतर्दन और अंग नरेश रोमपाद को श्रीराम जीवन भर पितृव्य का ही सम्मान देते रहे। 

# नाना व मामा:- श्रीराम के नाना जी का नाम महाराज भानुमान था जो दक्षिण कोशल के राजा थे जिसे आजकल का छत्तीसगढ़ कहा जाता है। 
मामा का उल्लेख नहीं मिलता लेकिन भरत के मामा आनव नरेश युधाजित का उल्लेख मिलता है जो झेलम व चेनाब क्षेत्र में राज्य करते थे। लक्ष्मण व शत्रुघ्न के नाना मामा का पता नहीं लगता। 

# कुलगुरु:- वसिष्ठ पीठ के तत्कालीन कुलपति वसिष्ठ जिनके पुत्र सुयज्ञ श्रीराम के समवयस्क और मित्र थे। 

# अन्य गुरु:- महर्षि विश्वामित्र जिन्होंने श्रीरा म को दुर्लभ दिव्यास्त्र और क्रांतिदीक्षा दी। महर्षि अगस्त्य उनके तीसरे गुरु थे जिन्होंने श्रीराम को वैष्णवी धनुष, अक्षय बाण भंडार और स्वयं का बनाया नवीनतम दिव्यास्त्र एन्द्रास्त्र प्रदान किया। उन्होंने श्रीराम को महारुद्र द्वारा विकसित कलारी की वदक्कन शैली की शिक्षा भी प्रदान की जिसके द्वारा उन्होंने कबन्ध का वध किया। 

# भाई:- भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न। इनमें भरत कैकई के और शत्रुघ्न तथा लक्ष्मण सुमित्रा के पुत्र थे। 

# बहन:- श्रीराम की एक बड़ी बहन शांता का भी उल्लेख मिलता है जो  एक अल्पज्ञात विमाता से उत्पन्न हुईं थीं। इस कन्या को दशरथ ने अपने मित्र अंग नरेश रोमपाद को दे दिया था। इस कन्या का विवाह श्रृंगी ऋषि से हुआ जिन्होंने महाराज दशरथ का पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। अर्थात श्रृंगी ऋषि दशरथ जी के जामाता लगते थे। 

# पत्नी:- राजर्षि जनक की पालित पुत्री सीता। 

# अनुजपत्नियाँ:- भरत की मांडवी, शत्रुघ्न की श्रुतकीर्ति पत्नियां मिथिला नरेश सीरध्वज के भाई कुशध्वज की पुत्रियां थीं। लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला स्वयं महाराज सीरध्वज जनक व महारानी सुनयना की सगी पुत्री थीं।

(अगले अंक में श्रीराम के प्रसिद्ध वंशजों के विषय में।)

#श्रीराम_के_वंशज 2

 श्रीराम के अपने वंश में कुश के वंशज मूल अयोध्या पर राज्य करते रहे। राक्षसों द्वारा कुश की हत्या के पश्चात उनके पुत्र अर्थात श्रीराम के पोते अतिथि ने न केवल पूरा पूरा प्रतिशोध लेकर राक्षसों का रहा सहा नामोनिशान मिटा दिया बल्कि अपने दादा श्रीराम के साम्राज्य को फिर जीवित किया। 

कालांतर में सुदर्शन के बाद उनके विलासी पुत्र अग्निवर्ण के पश्चात अयोध्या सम्राज्य का पतन होता गया और उसी अनुपात में हस्तिनापुर प्रगति करता गया। 

अंततः श्रीराम का वंशज बृहद्वल अन्यायी कौरवों के पक्ष में लड़ता हुआ अभिमन्यु के हाथों यश विहीन वीरगति को प्राप्त हुआ। 

प्रसेनजित और फिर उसका पुत्र विदूदभ अंतिम उल्लेखनीय रघुवंशी थे और प्रसेनजित ने श्रावस्ती को राजधानी बनाकर अयोध्या को और उपेक्षित कर दिया।

इसके बाद का राम के वंशजों का इतिहास पंडों, भाटों व चारणों की बहियों व प्रशस्तियों में मिलता है। 

ऐसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकुकुल के क्षत्रिय पूरे भारत में बिखर गए और फिर स्कन्दगुप्त के काल में भट्टार्क के उल्लेखनीय रूप में प्रकट होते हैं। 

तत्पश्चात प्रतिहार राजपूतों के रूप में व उनके नेतृत्व में एक बार फिर राम के वंशज एकत्रित होना प्रारंभ हुए। 

कच्छप टोटम के नागों का विनाश करने वाले कुश वंशीय कच्छपघात पहले ग्वालियर क्षेत्र में और फिर आमेर क्षेत्र में 'कछवाहों' के रूप में प्रकट हुए। 

लक्ष्मण के पुत्र मल्ल व उनके वंशज 'मालवी'  के पुत्र  'मालव' आबू के यज्ञ के बाद 'परमारों के रूप में प्रतिष्ठित हुये। 

मेवाड़ में ही श्रीराम के वंशजों की एक शाखा गुह के वंशजों के रूप में 'गुहिलोत' व 'सिसोदियो' के रूप में पद प्रतिष्ठित हुई। 

अयोध्या से रावी किनारे श्रीराम द्वारा लव के नाम पर बनाई गई सैन्य छावनी 'लवपुर' जिसे आज 'लाहौर' कहा जाता है, जाकर बसे श्रीराम के वंशजों में एक उल्लेखनीय वंशज हुये 'कनकसेन'। 

उन्हीं कनकसेन के वंशजों की एक शाखा आठवीं शताब्दी के आसपास शेखावटी क्षेत्र में आ बसी और फिर अपने ही बांधव 'कछवाहों' से परास्त होकर रेत अर्थात 'सिकता' के क्षेत्र में आ बसी जिसे कहा गया 'विजयपुर सीकरी' और अकबर ने नाम बदलकर कहा 'फतेहपुर सीकरी'। 

1527 में राणा सांगा के साथ ये 'सीकरी वाले' राजपूत भी आये थे राव धम्मदेव सिंह के नेतृत्व में खानवा के मैदान में मातृभूमि की वेदी पर अपना रक्त अर्पण करने लेकिन तोपों के विरुद्ध वज्र वक्ष भी चूर चूर हो गए। 

राणा सांगा के साथ पूरे के पूरे 'सीकरीवाले' राजपूत निकल पड़े मुगलों से शाश्वत संघर्ष का संकल्प लिए। 

वे बंटे तीन हिस्सों में-

एक हिस्सा गया झारखंड के गहनतम वनों की ओर और  गांव बसाकर आसपास के इलाके को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। यह गांव आज एशिया का सबसे बड़ा गांव 'गहमर' कहलाता है। 

दूसरा हिस्सा आगरा के जंगलों में छिप गया ताकि छापामार युद्ध चला सके। यह क्षेत्र 'बड़ी सिकरवाली' कहलाता है। 

तीसरा हिस्सा चंबल के बीहड़ों में जा बसा जिसकी दुर्भेद्य घाटियां मुगलों के लिए सदैव अभेद्य रहीं। 

चंबल का यह क्षेत्र भी कहलाया 'सीकरवाली' और उसके ये निवासी कहलाये 'सिकरवार'। 

इसी चंबल क्षेत्र में एक सूर्यवंशी योद्धा 'सहजराम' ने बसाया एक गांव 'सहजपुरा' और प्रण लिया 'वैष्णव सम्प्रदाय, शाकाहार' व प्राणी कल्याण का लेकिन एक वंशज के दलितों पर अत्यचारों के कारण शाप मिला कि हर तीसरी पीढ़ी पर तुम्हारा गाँव उजड़ेगा। 

उस शाप को ढोते हुये नवीं पीढ़ी में भी यह गांव तीसरी बार उजाड़ हुआ और दसवीं पीढ़ी के एक बालक ने आजीवन उसकी त्रासदी झेली। 

भगवान श्रीराम की तीन सौ दसवीं(+) पीढ़ी के इस बालक की अब यही कामना है कि हर हिन्दू एक दूसरे को भाई माने और उसका सम्मान कर्म से करे न कि जातिगत जन्म से ताकि फिर किसी तीसरी पीढ़ी को ऐसा विनाश न झेलना पड़े। 

इति!
#श्रीराम_के_वंशज 2

 श्रीराम के अपने वंश में कुश के वंशज मूल अयोध्या पर राज्य करते रहे। राक्षसों द्वारा कुश की हत्या के पश्चात उनके पुत्र अर्थात श्रीराम के पोते अतिथि ने न केवल पूरा पूरा प्रतिशोध लेकर राक्षसों का रहा सहा नामोनिशान मिटा दिया बल्कि अपने दादा श्रीराम के साम्राज्य को फिर जीवित किया। 

कालांतर में सुदर्शन के बाद उनके विलासी पुत्र अग्निवर्ण के पश्चात अयोध्या सम्राज्य का पतन होता गया और उसी अनुपात में हस्तिनापुर प्रगति करता गया। 

अंततः श्रीराम का वंशज बृहद्वल अन्यायी कौरवों के पक्ष में लड़ता हुआ अभिमन्यु के हाथों यश विहीन वीरगति को प्राप्त हुआ। 

प्रसेनजित और फिर उसका पुत्र विदूदभ अंतिम उल्लेखनीय रघुवंशी थे और प्रसेनजित ने श्रावस्ती को राजधानी बनाकर अयोध्या को और उपेक्षित कर दिया।

इसके बाद का राम के वंशजों का इतिहास पंडों, भाटों व चारणों की बहियों व प्रशस्तियों में मिलता है। 

ऐसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकुकुल के क्षत्रिय पूरे भारत में बिखर गए और फिर स्कन्दगुप्त के काल में भट्टार्क के उल्लेखनीय रूप में प्रकट होते हैं। 

तत्पश्चात प्रतिहार राजपूतों के रूप में व उनके नेतृत्व में एक बार फिर राम के वंशज एकत्रित होना प्रारंभ हुए। 

कच्छप टोटम के नागों का विनाश करने वाले कुश वंशीय कच्छपघात पहले ग्वालियर क्षेत्र में और फिर आमेर क्षेत्र में 'कछवाहों' के रूप में प्रकट हुए। 

लक्ष्मण के पुत्र मल्ल व उनके वंशज 'मालवी'  के पुत्र  'मालव' आबू के यज्ञ के बाद 'परमारों के रूप में प्रतिष्ठित हुये। 

मेवाड़ में ही श्रीराम के वंशजों की एक शाखा गुह के वंशजों के रूप में 'गुहिलोत' व 'सिसोदियो' के रूप में पद प्रतिष्ठित हुई। 

अयोध्या से रावी किनारे श्रीराम द्वारा लव के नाम पर बनाई गई सैन्य छावनी 'लवपुर' जिसे आज 'लाहौर' कहा जाता है, जाकर बसे श्रीराम के वंशजों में एक उल्लेखनीय वंशज हुये 'कनकसेन'। 

उन्हीं कनकसेन के वंशजों की एक शाखा आठवीं शताब्दी के आसपास शेखावटी क्षेत्र में आ बसी और फिर अपने ही बांधव 'कछवाहों' से परास्त होकर रेत अर्थात 'सिकता' के क्षेत्र में आ बसी जिसे कहा गया 'विजयपुर सीकरी' और अकबर ने नाम बदलकर कहा 'फतेहपुर सीकरी'। 

1527 में राणा सांगा के साथ ये 'सीकरी वाले' राजपूत भी आये थे राव धम्मदेव सिंह के नेतृत्व में खानवा के मैदान में मातृभूमि की वेदी पर अपना रक्त अर्पण करने लेकिन तोपों के विरुद्ध वज्र वक्ष भी चूर चूर हो गए। 

राणा सांगा के साथ पूरे के पूरे 'सीकरीवाले' राजपूत निकल पड़े मुगलों से शाश्वत संघर्ष का संकल्प लिए। 

वे बंटे तीन हिस्सों में-

एक हिस्सा गया झारखंड के गहनतम वनों की ओर और  गांव बसाकर आसपास के इलाके को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। यह गांव आज एशिया का सबसे बड़ा गांव 'गहमर' कहलाता है। 

दूसरा हिस्सा आगरा के जंगलों में छिप गया ताकि छापामार युद्ध चला सके। यह क्षेत्र 'बड़ी सिकरवाली' कहलाता है। 

तीसरा हिस्सा चंबल के बीहड़ों में जा बसा जिसकी दुर्भेद्य घाटियां मुगलों के लिए सदैव अभेद्य रहीं। 

चंबल का यह क्षेत्र भी कहलाया 'सीकरवाली' और उसके ये निवासी कहलाये 'सिकरवार'। 

इसी चंबल क्षेत्र में एक सूर्यवंशी योद्धा 'सहजराम' ने बसाया एक गांव 'सहजपुरा' और प्रण लिया 'वैष्णव सम्प्रदाय, शाकाहार' व प्राणी कल्याण का लेकिन एक वंशज के दलितों पर अत्यचारों के कारण शाप मिला कि हर तीसरी पीढ़ी पर तुम्हारा गाँव उजड़ेगा। 

उस शाप को ढोते हुये नवीं पीढ़ी में भी यह गांव तीसरी बार उजाड़ हुआ और दसवीं पीढ़ी के एक बालक ने आजीवन उसकी त्रासदी झेली। 

भगवान श्रीराम की तीन सौ दसवीं(+) पीढ़ी के इस बालक की अब यही कामना है कि हर हिन्दू एक दूसरे को भाई माने और उसका सम्मान कर्म से करे न कि जातिगत जन्म से ताकि फिर किसी तीसरी पीढ़ी को ऐसा विनाश न झेलना पड़े। 

इति!

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