सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

डाक दिवस

#डाक_तार

पता नही कि खुद के पते पर आई अन्तिम डाक की अन्तिम तिथि क्या थी..??
अब तो अपनी खाकी गणवेश में सायकल से डाक लाने बाले छुट्टे चाचा का चेहरा भी ढंग से याद नही है।याद तो बस रह गया है,कि मेरी उन तमाम जी गयी जिंदगियों की अक्स सिहाईयों के माध्यम से भरी डायरियों में सबके डाक व्यवहार की एक छोटी-छोटी स्मर्णीका!प्रथम भेंट,प्रथम सन्देश की एक छोटी सी पुर्जी को मैने अपनी जीवन की उन अमूल्य थातियों के रूप में संजों रखा है ।

आज  उन सबके पत्राचार का सूत्र मैंने अपने पास संजो रखा है,जिनका मुझसे तनिक सा भी सम्पर्क कभी रहा हो..!पता नही क्यों आज भी उन पत्र व्यवहारी पतों को क्यों सतत फेहरिस्त में जोड़े जाता हूँ?
जबकि मुझे पता है कि कभी किसी को पत्र व्यवहार के माध्यम से वह अमूल्य भाव भेंट नही कर पाऊंगा।जिस भाव से डायरी के पेजों को नीलवर्णों से सजा लेता हूँ।

अब न शब्दों की सारंगी दुनिया में , "थोड़ा लिखो अधिक समझों...आप अधिक समझदार हो!"
समझने बाले लोग बचे हैं,और ना ही खतों-खतूत की दुनिया के वह प्रतिक्षिक लोग ...!!

बचा है बस...चंद अल्फाजों में सिकुड़ती दुनिया का खत्म हुआ बजूद!जो कभी खतों को भी सिकोड़कर-सहेजकर रख लिया करती थी..!

पता नही...! किस पते पर...?
किस नायक-नायिका,पिता-पुत्र,बहिन-भाई,पूत-माई,सखा-सम्बन्धी,देवर-भौजाई का आखिरी खत तन्मयता के साथ नयनो में नमी लेकर बाँचा अथवा पढ़कर सुनाया गया होगा ...!!

जगजीत सिंह जी के 'चिट्ठी न कोई सन्देश'  से लेकर  सोनू निगम-रूपकुमार राठौर के " संदेशे आते हैं .." और पंकज उदास की "चिट्ठी आई है,आई है..!" 
एक नम आंखों की दास्तान है,जो एकात्म हुए भावों के भंवर में बरवस पाशवित कर ही लेती है ।

आज कुछ खतों पर समय की मार के कारण तह की हुई यादों का रंग हल्का पीला सा पड़कर भी कितना सजीव सा है..!
इस दुनिया को भले ही हम असीमित भावों को लेकर अपनो आप को  'पोस्टकार्ड' की तरह पेश करें.....किन्तु चहुँ ओर से बन्द 'अन्तर्देशीय' से चित्त हो ही जाते हैं ।

खैर चलो...!
खतों-खतूत की दुनिया की तरह ही इस दुनिया का भी पराभव होना सुनिश्चित है।पोस्टकार्ड हो या अन्तर्देशीय एक दिन सबके लिखे हर्फ सनै-सनै समझ आ जाते हैं ।

हाँ याद आया ... !!!!!
डाक आती तो है.. ..! बहिना की राखी लेकर किन्तु उसमे भी वह शब्दों का संजोये जाना बाला 'इंद्रजाल' नही पढ़ने को मिलता .....!!!
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विश्व डाक दिवस है आज....♥️

"क़ासिद तेरी हड़ताल पे, कुर्बान जाइये;
वो आ गये हैं खुद, मेंरे खत के जबाब में।"

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जितेंद्र सिंह तौमर '५२से' 
चम्बल मुरैना मप्र.

बुधवार, 4 अक्टूबर 2023

यादों का इडियट बॉक्स 2

गाँव में महीनो बाद आने पर दिखाई देती है मेरी मातृभूमि! धानी चुनरिया ओढे दुलार देती हुयी सी!!अपने शावक को अंक में लेकर दुलारने को आतुर नयन देख बरबस ही यह नयन भी सजल हो उठते हैं..।

बाजरे की बालियों का रंग जैसे चाँदी की जरिकारी किये हुए लहराता हुआ किसी का आँचल,कहीं कनखियों से निहारकर आलम्बन कि प्रतीक्षा में न जाने कितने समय की दूरियों का शिकवा-गिला जताकर अभी फफक पड़ेगा..!

 अभी-अभी दुग्ध कटोरा देते हुए बो लाल चूड़ियों से भरा हाथ,अपने चेहरे पर आई ,आधी धवल हो चुकी लटों को..लाल देख हटाना भूल चुका है। अभी दुलार से माथे पर सहलाते हुए कहेगा कि,
 "कितना दुबला हो गया है रे तू ...?

"कुछ खाता भी है वहाँ ,जा मात्र जोड़ने-जोड़ने  की ही  सोचता है ??"

" ले ये तेरा पसंदीदा मीठा दूध ,जब तक रुका है, छक के पी ।आज देर से क्यों आया..तनिक जल्दी आ जाता तो तेरे पसन्द की खीर न बना लेती...!"

खाना खिलाते माँ प्रायः सदा की भांति अपनी पढ़ाई भूल जाती है,चार की संख्या उन्हें दो नजर आती है ।
ना-नुकुर करने पर डपट देती है
 "अभी खाया ही क्या जो इतरा रहा है ?,क्या तुझे माँ से बेहतर कोई खाना खिलाने बाला भा रहा है !"

"चल झट बात करा ...देखु-सुनु-समझु तेरे व्यक्तित्व के अर्द्धभाग को!,अगर जरा चूक हुई तो क्या कोसूँगी बाद अपने भाग को ..!"

 लाडले की लजाती नजर को अनदेखा करके खीर का कटोरा भर देती है,दोनों हथेलियो के मध्य बत्सलता का सूर्य सन्मुख कर लाडले की थाली कचौड़ियों से भर देती है...!
समझ नही पाता हूँ...!!!
खाते-खाते जड़वत होकर सोच उठता हुँ....!!!!
पहले इस स्नेह-बात्सल्यता के प्रतीक स्नेहसागर के दर्श के नयन अघाउँ या उन नयनो के आदेश पर इस उदर को अघाउँ...!!!!!

पुरवाई भी क्या खूब मन महक से भरती है।जब शिवालय में मधुर शंखझालर बजती है न,मन मयुर एकाकी जीवन में बिताये एकाकी क्षद्म स्वांतन्त्र के नीरस पलो को धिक्कारता है।
आ अब लौट चले सुवर्ण माटी की महक में  मुझे मेरा गाँव पुकारता है ।

फिर अवकाश खत्म होने का भय पुरजोर स्मरण आ रहा है।कुछ घण्टों अथवा प्रहरों का ही तो समय शेष बचा है...!इन शेष प्रहरों में उन पेड़ों की शाखाओं पर गोदकर उकेरे हुये,खोटियों के साथ झड़ते हुये,अपने नामों को देखकर आह भर लूं....!या उन पुराने घरों का एक चक्कर लगा लूं...जहां न जाने कितनी शैतानियों की गवाह दीवारों में आज इश्क की महक नमी पाकर तेजी से पुकारती प्रतीत होती है।

क्या निकल लूँ...?
उन विश्वविद्यालयी दिवसों के सतरंगी सपनो के सागर किनारे,जहां एक रेडियोसेट की सरसराती फ्रीक्वेंसी उसके पसन्द के गीत को बरबस ही उसकी याद में ले जाया करती थी।
या उन काल्पनिक परछाइयों के बढ़ते-कम होते कदों के साथ,उसका अक्स उकेरने की तमन्ना पूरी कर लूं..!!

कभी-कभी प्रतीत होता है कि,में बड़े होने की मरीचिका में कितना कुछ अपना ...उन दरख्तों पे गोद डाले गए नामों और समय के साथ उखड़ति खोटियों के माध्यम से मिटता सा अपना सब कुछ इस उन्नति की चाह में स्वतः ही मिटाकर ....कितना आगे निकल आया हूँ....!!!!!!

काश!वह व्यतीत सब कुछ एक बार पुनः त्रुटि रहित प्रारम्भ कर सकता!!
जिसका पटाक्षेप कल्पनातीत था .......।।

(7 वर्ष पूर्व की मेमोरी का अपडेट वर्जन)
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~जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'
   चम्बल मुरैना मप्र.

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...