सोमवार, 15 अगस्त 2022

कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया जी

लाल सेना के संस्थापक - महान क्रान्तिकारी कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया

ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध लाल सेना तैयार कर एक युवक अर्जुन सिंह भदौरिया ने न केवल इटावा जनपद बल्कि सीमावर्ती जिलों को भी आजादी के संघर्ष की चेतना से ऐसा जोड़ा कि घर-घर में स्वतंत्रता का बिगुल बज उठा

10 मई 1910 को बसरेहर के लोहिया गांव में जन्मे अर्जुन सिंह भदौरिया ने 1942 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ बिगुल फूंक दिया था . 1942 में उन्होंने सशस्त्र लालसेना का गठन किया. बिना किसी खून खराबे के अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिए. 

1940 के दशक में, कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया ने तीन साल (1941-44) तक चंबल की घाटियों के किनारे यमुना के किनारे रहने और पनपने वाले ब्रिटिश अधिकारियों को निशाना बनाते हुए एक सशस्त्र समूह लाल सेना का गठन किया था। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय सेना की तर्ज पर भारत छोड़ो आंदोलन के समय लाल सेना बनाने के बाद 'कमांडर' की उपाधि अर्जित की।  

आजादी के योद्धा कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया ने चंबल घाटी में हजारों क्रांतिकारियों को ट्रेनिंग देकर फिरंगी सरकार की चूलें हिलाने के लिए सशस्त्र क्रांति का सबसे उम्दा प्रयोग किया था. करो या मरो आंदोलन के दौरान कमांडर को 44 वर्ष की सजा हुई और अपने पूरे जीवनकाल में वह करीब 52 बार जेल गए.

उन्होंने दो स्तरों पर काम किया - एक ओर वे एक गांधीवादी थे, लेकिन दूसरी तरफ उन्होंने लाल सेना की स्थापना की, जिसने लोगों को राजस्व, खाद्यान्न और हथियार जैसी ब्रिटिश संपत्ति लूटने के लिए प्रशिक्षित किया।  जबकि पैसे और हथियारों का कुछ हिस्सा समूह चलाने और खाद्यान्न खरीदने के लिए इस्तेमाल किया गया था, शेष पैसे का इस्तेमाल गरीबों को खिलाने के लिए किया गया था, ”।

अर्जुन सिंह के साहस से ब्रिटिश शासन तंग आ चुका था, लिहाजा जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो उन्हें बेडिय़ों से बांधकर रखा गया था। कोर्ट में मुकदमा चला और उन्हें 44 साल की कड़ी सजा सुनाई गई। आचार्य नरेंद्र देव चंबल के इस क्रांतिकारी संगठन से प्रभावित हुए और उन्होंने ही पहली बार अर्जुन सिंह भदौरिया को 'कमांडर' कहकर संबोधित किया। करो या मरो के आंदोलन में उन्हें 44 साल की कैद हुई. अंग्रेज इनसे इतने भयभीत थे कि उन्हें जेल में हाथ-पैरों में बेड़ियां डालकर रखा जाता था.

यही कारण रहा की आजाद भारत में कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया 1957, 1967 और 1977 में इटावा से लोकसभा सांसद चुने गए. इटावा मे शैक्षिक पिछड़ेपन की समस्या, आवागमन के लिए पुलों का आभाव जैसी तमाम सरोकारी समस्याओं को वे सदन में प्रमुखता से उठाते रहे. कमांडर ने इसी जज्बे से आजाद भारत में आपातकाल का जमकर विरोध किया. तमाम यातनाओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी, जिससे प्रभावित क्षेत्र की जनता ने सांसद चुन कर उन्हे सर आंखों पर बैठाया. वे आपातकाल में पुनः जेल भेज दिए गए। उन्होंने किसान पंचायत के संगठन में विशेष रुचि ली और स्वामी भगवान, गेंदा सिंह, मुलखी राज, सूरजदेव, रामधारी शास्त्री और बलवान सिंह के साथ मिलकर सशक्त किसान आंदोलन खड़ा किया। 🇮🇳

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

टेडी डे

रोजमर्रा ज़िंदगी की जूतम-लात से दो-चार, हम ख़ुद को अब कितना भी बड़ा-बुजु़र्ग क्यों ना महसूस करते हों....पर अयोध्या से लखनऊ की तरफ आते-जाते हुए हाइवे के किनारे-किनारे ऊंचे-नीचे, छोटे-बड़े तमाम कद-काठी के रंग-बिरंगे टेडीवेयर्स की वो बस्तियां...भले ही कुछ पल को सही, पर हम सबकी नोटिस में तो ज़रूर आईं होंगी।

तो बात यही 5-6 साल पुरानी है। जब लखनऊ से वापस आते हुए, एक ऐसी ही बस्ती के साइड से गुज़रते हुए, मैं बेसब्र हो पड़ी। भाई ने मुझे मचलते देख खासी दिलेरी दिखाई और गाड़ी को साइड लगाते हुए पूछा, "लेना है?" 
मैंने पलभर की देर किए बिना, भरसक मुस्कुराहट के साथ आंखें चमकाते हुए पूरा सिर 'हां' में हिलाया। उन्होंने पूछा, "कौन-सा लोगी?" मैंने झट से फुटपाथ पर काफी दूर तक नज़र डाली। 

'एक सबसे बड़े वाले टेडी पे नज़र गई, कितना बड़ा-सा...उसकी तो गोद में भी बैठा जा सकता है। फिर वो वाला बंदर दिखा, जो एक हाथ से रस्सियों से लटकते हुए चिढ़ा रहा था। फिसलती हुई नज़र उस झबरे बाल वाले डॉगी पे टिक गई, जिसके कान तो बिल्कुल खरगोश के जैसे लग रहे थे। वो पिंक आंखों वाले छोटे-छोटे टेडीवेयर्स की तो पूरी फैमिली ही रूम में सजाने के लिए है। वो सीने के पास दिल संभालता हुआ रेड वाला अगर ले भी लूं, तो उसके बगल में क्रीम कलर वाला रखने पे ही वो इतना जंचेगा।' एकाएक मुझे लगा कि मैं अब काफी असहाय हाल में पड़ चुकी हूं।😟

"अरे कोई लेना भी है।" और अब भाई बेसब्र होने लगे थे।  
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ता से जगते हुए एकदम से बोल गई, "हां, सब"!!
"अच्छा-अच्छा...मतलब कोई नहीं" कहते हुए भाई ने गाड़ी स्टार्ट कर ली और अगले घंटे भर में मैं खाली हाथ घर पे थी।🥺

वो दिन और आज का दिन...आज घर में हमारे समानांतर ही कई हेल्थ-हाइट के टैडियों की भी एक पूरी फैमिली का दबदबा है। और हां मजाल है, इनमें से कोई किसी नोना बाबू से साभार प्राप्त हो!!😎

सोचा था एकदिन जब सिलेबिट्टी बनूंगी, तो अपनी ये  कलेजाफाड़क सक्सेज-स्टोरी सुनाकर, नेहा कक्करजी जैसे किसी मासूम को रुलाऊंगी। ईश्वर की कृपा से आज वो मासूम लोग आप हो, और वो सिलेबिट्टी मैं।।😌🙏(सिलेबिट्टी ग्रुप से सर्टिफाइड)

#टेडी_डे

~RJ. रश्मि सिंह जी

शनिवार, 29 जनवरी 2022

इतिहास सोमनाथ युद्ध हमीर सिंह गोहिल

#वीर_हमीरसिंह_गोहिल
#सोमनाथ_का_शूरवीर

सोमनाथ मंदिर के ठीक सामने एक भाला धारी घुड़सवार की प्रतिमा तिराहे पर विद्यमान है, जिस पर लिखा है कि यह हमीर जी गोहिल की मूर्ति है जो सोमनाथ मंदिर की रक्षा के लिए शहीद हुए थे। वैसे तो सोमनाथ पर सत्रह से अधिक बार आक्रमण के कारण कई लोग शहीद हुए होंगे, जिन्होंने सोरठ की उर्वर धरा में सोमनाथ की रक्षार्थ आत्माहुति दी होगी, किंतु यह वीर कोई खास होगा यह मेरे मन में पैठ गया। चूंकि गजनवी, खिलजी, तुगलक ये तो मेरे दिमाग में घूम गए किंतु यह वीर किससे और कब लड़ा होगा यह ज्ञात करना जरूरी हो गया था। जानकारी लेने पर तो लगता है उस रण बांकुरे पर आज भी लोग बिछ जाने को तैयार है। सोरठ में एक दोहा है -
"जननी जणे तो भक्त जण जे, के दाता, के सूर।
नहीं तर रहेजे वांझणी, मत गुमावजे नूर।।"

हमीर जी गोहिल भीमजी गोहिल के पुत्र थे और तीन भाइयों में सबसे छोटे, उन्हे गढाली गांव की जागीर मिली थी, एक बार अपने मझले भाई अरजण जी के साथ मुर्गों की लड़ाई के चक्कर में उनके निकल जा कह देने पर सौराष्ट्र छोड़ मारवाड़ चले गए।

दिल्ली की गद्दी पर उस समय मोहम्मद तुगलक (द्वितीय) बैठा हुआ था, जूनागढ़ के सूबेदार शम्शुद्दीन की पराजय के बाद उसने जफरखान को नियुक्त किया था। जफरखान की सीधी नजर सोमनाथ की संपदा पर थी और साथ ही वह अपने मजहब की कुंठा के कारण बुत शिकन बनना चाहता था।

जफरखान ने इसके लिए आदेश जारी किया कि अधिक संख्या में सोमनाथ में दर्शनार्थी इकट्ठा न हो। शिवरात्रि पर्व के अवसर पर जनमेदिनी तो एकत्रित होनी ही थी। जफरखान के कारकून रसूल खान के दर्शनार्थियों को रोकने पर विवाद हुआ और विवाद इतना बढ़ा कि जनता ने सैनिकों सहित रसूल खान को समाप्त कर दिया। जफरखान का आग बबूला होना स्वाभाविक था। उसने इस बहाने तमाम दलबल के साथ सोमनाथ पर चढ़ाई करने की सोची।

सोमनाथ पर आक्रमण की आशंका के चलते गढाली से मझले भाई अरजण ने हमीर को ढूंढने के लिए माणसुर गांव के गढ़वी को भेजा। हमीर जी को भाई के दुखी होने की सूचना मिली जिसपर उनका मन तुरंत चलने को हुआ, अपने दो सौ राजपूत साथियों के साथ वे दरबार पहुंच गए। धामेल के जागीरदार उनके काका वरसंग देव और बड़े भाई दूदाजी आदि के साथ उनका समय बीतने लगा, वे दूदाजी की जागीर अरठिला आ गए। यहां उनका नित्य जीवन और खेलकूद जारी था, हमीर अभी कुंवारे थे। कड़ाके की भूख लगी थी और साथियों के साथ वे दरबारगढ़ आए और (दूदाजी की पत्नी) बड़ी भाभी से खाना मांगा, तब भाभी ने कहा कि - "क्यों देवर जी इतनी जल्दी क्यों कर रहे हो, क्या खाना खाकर सोमनाथ की रक्षा के लिए साका करने जाना है?" हमीर जी ने पूछा कि भाभी क्या सोमनाथ पर संकट है? तब भाभी ने बताया कि दिल्ली का कटक निकल चुका है और सूबेदार जफरखान का दल रास्ते में है। यह बात सुनकर हमीर औचक खड़े हो गए और पूछा -"भाभी क्या बात कर रहीं हो? क्या कोई राजपूत सोमनाथ के लिए मरने निकल पड़े ऐसा नहीं? विधर्मियों की फौज चढ़ाई करेगी और रजपूती मर गई है क्या? ऐसे कई प्रश्न उन्होंने किये जिस पर भाभी ने कहा कि राजपूत तो बहुत है मगर सोमनाथ के लिए साका करे ऐसा कोई नहीं, तुम खुद राजपूत नहीं हो क्या?

भाभी की बात पर हमीर झळहला उठे। व्यंग्य भीतर तक चुभ गया। उसी समय भाभी को कहा - "मेरे दोनों बड़े भाइयों को मेरा जुहार कहना, मैं सोमनाथ मंदिर के लिए साका करने निकल रहा हूँ।" भाभी ने पछताते हुए खूब समझाया, मगर वे न माने और अपने पीछे किसी को समझाने भेजने की दुहाई देकर अपने दो सौ साथियों के साथ निकल गए। जब क्षेत्र के क्षत्रप बड़े आक्रमण से दिग्मूढ़ बने हुए थे, रजवाड़े अंतर्कलह में डूबे हुए थे तब हमीर मृत्यु का मंडप पोखने के लिए निकल पड़े।

कुंवर हमीर जी कुंवारे थे और अपने दो सौ साथियों के साथ चल पड़े, नीरव अंधेरी आधी रात को एक जगह से गुजरते हुए, जहां वायु भी रूक चुकी थी ऐसी नीरवता को चीरती एक महिला के शोकगीत गाने की आवाज सुनाई दी। झोंपड़ी में एक वृद्धा चारण गा रही थी। हमीर ने वहां जाकर पूछा कि किसके लिए यह शोकगीत गा रही हो? वृद्धा ने कहा मैं एक विधवा हूं और पन्द्रह दिन पहले दिवंगत अपने पुत्र का शोकगीत गा रही हूँ। हमीर ने कहा - "मां पुत्र के मरने के बाद भी लाड़ लड़ा कर उसका मर्शिया गा रही हो क्या तुम मेरे लिए शोकगीत गाओगी?" "मुझे मेरा शोकगीत सुनना है!" उस लाखबाई चारण ने कहा कि - "बाप यह क्या बोल रहे हो, क्या तुम्हारा जीते जी शोकगीत गाकर मुझे पाप में पड़ना है?" हमीर ने कहा - "मां हम मरण के रास्ते पर निकल चुके हैं और सोमनाथ की रक्षा के लिए साका करने जा रहे हैं। इस रास्ते से लौटना संभव नहीं है।" चारण लाखबाई उस राजपूत युवा के शौर्य की बात सुनकर अभिभूत हो गई। उसने पूछा कि - "बेटा हमीर तुम विवाहित हो?" हमीर ने ना कहा। तब वृद्धा ने कहा -" रास्ते में जो मिले उससे विवाह कर लेना। क्योंकि कुंवारों को युद्ध में अप्सरा वरण नहीं करती।" हमीर ने कहा कि -" मां हम मृत्यु के लिए जाने वालों को कौन अपनी कन्या ब्याहेगा?"
वृद्धा ने कहा कि "बाप तुम्हारी सूर वीरता देख कोई तुम्हे अपनी पुत्री ब्याहने के लिए कहे तो मना मत करना। मेरा यह कहा जरूर निभा लेना।" यह कहकर वृद्धा सोमनाथ में राह जोऊंगी बताते हुए चल पड़ी।

हमीर को रास्ते में द्रोणगढड़ा गांव में वेगड़ा भील मिल गए जो गीर के जंगल का सरदार था उसके पास भील योद्धाओं की हजार बारह सौ की टुकड़ी थी। गीर से लेकर शिहोर और सरोड के पहाड़ तक वेगड़ा के तीरों की धाक जमी हुई थी। भील जनजाति सोमनाथ में गहरी आस्था रखते थे और जूनागढ़ के राजा की सत्ता स्वीकार करते थे। वेगड़ा के पास एक युवा कन्या थी। जिसका नाम था राजबाई। एक बार जेठवा राजपूत गीर के पूर्वी हिस्से में स्थित तुलसीश्याम के मंदिर की यात्रा पर जा रहे थे, वेगड़ा के साथ उनका सामना हो गया, युद्ध में जेठवा के मरने से पहले उसने वेगड़ा को अपनी नन्ही बालिका सौंपते हुए जिम्मेदारी दी कि इसका पालन करना और योग्य होने पर किसी राजपूत के साथ विवाह कर देना। वेगड़ा ने मरते हुए जेठवा को वचन दिया और राजबाई को पुत्री की तरह पाला।

संयोग से चारण वृद्धा लाख बाई का वेगड़ा की राह से गुजरना हुआ, वेगड़ा ने उसे रोका और किसी राजपूत की जानकारी चाही लाख बाई ने हमीर जी गोहिल के सोमनाथ के लिए साका करने निकले होने की बात बताते हुए कहा कि उसी को अपनी कन्या परणा दे।

लाखबाई के कहे अनुसार वेगड़ा ने अपने तीन सौ धनुर्धर योद्धाओं के साथ गिर के काळवानेस के निकट पड़ाव डाला। उधर से चले आ रहे हमीर जी काळवानेस के पास शिंगोड़ा नदी के किनारे पहुंचे।
बहती नदी देख हमीर जी के साथी नहाने के लिए उतर गए। नहाने के दौरान किल्लोल करते कुछ को देर हुई कुछ आगे के लिए निकल गये। नहाने वाले साथियों के बाहर आने पर देखते हैं कि घोड़े गायब थे। हमीर जी ने आदेश दिया कि समीप पहाड़ी पर चढ़कर देखो कि घोड़े ले जाने वाले कौन है? खबर मिली कि घोड़े पास के पड़ाव में हिनहिना रहे हैं। वहां जाकर पूछने पर वेगड़ा सामने आया और पूछा कि हमीर जी गोहिल आप हो क्या? हम तो आपकी बांट जोह रहे हैं। प्रत्युत्तर में हमीर ने पूछा कि वे लोग कौन है तब वेगड़ा ने अपना परिचय दिया। वेगड़ा का परिचय सुनकर हमीर गदगद हुए कहा की सोमनाथ का साका करने चले और आपका मिलाप हुआ। ॥

वेगड़ा ने हमीर को दो दिनों के लिए रोक लिया। इस बीच राजबाई को हमीर से विवाह का पूछा, जेठवा कुल की कन्या राजबाई ने स्वीकृति और संकोच के साथ लज्जा का आवरण धारण किया। हमीर जी ने भी स्वीकृति दी मगर एक समस्या आ खड़ी हुई कि जितने साका करने वाले साथी थे उनका भी विवाह नहीं हुआ था उन्होंने हमीर जी के विवाह की शपथ ली थी, उन सबके लिए भील कन्याएँ ढूँढ कर सभी के सामूहिक लग्न हुए। गिर की वादियां ढोल और बांसुरी से गूंज उठी। इस तरह मौत का वरण करने वाले योद्धाओं ने पहले उन भील कन्याओं का वरण कर सिर पर केसरिया बांध लिया। द्रोणगढड़ा का गिरी प्रांतर उस विवाह का साक्षी बना। कई बातें इतिहास के पन्नों से भले ही छूट रही हो लेकिन लोक मानस ने अपने हृदय में स्थान दिया है।

इस तरह गीर के जंगल में लग्न के दूसरे दिन सब के साथ वेगड़ा ने भी अपने साथियों के साथ प्रयाण किया। अरठीला गांव के साथी माणसुर गढ़वी भी रास्ते के छोटी बस्तियों के टिंबे आदि में अपनी बबकार लगा, योद्धा तैयार कर साथ ले चला। राजपूत, भील, काठी, अहीर, मेर, भरवाड़ और रबारी जाति के जवान सोमनाथ के लिए साका करने निकल पड़े।

वेगड़ा ने अपने खबरचियों के द्वारा जफरखान की फौज की जानकारी हासिल की। उधर दिल्ली की फौज सौराष्ट्र की सीमाएं रौंदती, राजाओं और ठाकोरों को दंडित करती आ रही थी, उसकी सेना को रोकने की सामर्थ्य न होने के कारण कोई उन्हें रोक नहीं रहा था। इधर हमीर और वेगड़ा सोमनाथ के प्रांगण में उन सेनाओं का रास्ता देखने लगे। पुजारी और प्रभास के नगरजन स्तब्ध होकर खड़े थे। जफरखान को तो जैसे सोमनाथ को रौंद डालना था। उसे समाचार मिला कि कोई सिरफिरे उसका रास्ता रोकने के लिए सोमनाथ में तैयार हैं। वेगड़ा का पड़ाव सोमनाथ और प्रभास के बाहर था। हमीर ने अंदर का मोर्चा सम्हाला था।

जफरखान उन्मत्त होकर वहां आ पहुंचा, बाहर के मोर्चे पर वेगड़ा भील के योद्धाओं के तीरों के हमले ने मुस्लिम आक्रांताओं की सेना को त्राहिमाम् करवा दिया। एक तरफ देवालय को तोड़ने का जुनून था तो दूसरी तरफ मंदिर रक्षा की विजीगिषा थी। हाथी पर बैठे जफर ने सेना का संहार देख तोपों को आगे करने का हुक्म दिया।

उस समय भील योद्धाओं ने जफरखान का इरादा भांप लिया। उन्होंने घनी झाड़ियों और वृक्षों की ओट से बाणों का संधान जारी रखा। सूबेदार के तोपची चित्कार कर गिरने लगे। जफर ने गुस्से में दूसरी पंक्ति को आगे कर दी, भील योद्धा भी खेत होते कम होने लगे। जफर ने कुशल हाथी के साथ एक सरदार को वेगड़ा के पीछे किया, हाथी ने सूंड में पकड़ कर उसे पटक दिया जिससे वेगड़ा वहीं सोमनाथ रक्षा यज्ञ में समिधा बनकर काम आए। दूसरी तरफ भीतरी सुरक्षा में रत हमीर जी सचेत थे जफर का हमला सोमनाथ गढ़ की ओर हुआ। सुलगते तीरों की वर्षा हमीर जी ने शुरू की। पत्थरों से भी आक्रमण हुआ। जो सैनिक गढ़ के पास थे उन पर उबलता तेल डाला गया। इस प्रकार पहला आक्रमण असफल हुआ। सांझ हुई मंदिर में आरती हुई। सभी साथियों को एकत्रित कर अगला व्यूह समझाया।

जफरखान ने सोमनाथ को तीन तरफ से घेर लिया चौथी तरफ समुद्र था। दूसरे दिन सुबह हमीर जी ने घुड़सवार होकर आक्रमण कर दिया और हाथियों को भालों से गोदकर त्राहि त्राहि करवा दी। जफर ने गढ़ में प्रवेश के लिए सुरंग खोद डाली जिसमें हमीर जी ने पानी भरवा कर प्रवेश को अवरूद्ध कर दिया। रोज नई योजना के साथ जफर का नौ दिन तक हमीर जी ने सामना किया।

सोमनाथ गढ़ के सामने नौ दिनों से जफरखान के सैनिकों से लड़ते हमीर जी के पास योद्धा खेत रहे, नौवें दिन की रात्रि शेष बचे योद्धाओं को इकट्ठा कर व्यूह समझाया, कि जैसे ही सूर्यनारायण पूर्व दिशा से निकले गढ़ के द्वार खुले छोड़कर 'केसरिया' कर लेना यानी आत्माहुति दे देना। "सभी सावधान हो जाओ" इतना कहते ही हर हर महादेव के घोष गुंजायमान हुआ। पूरी रात कोई योद्धा सोया नहीं, सोमनाथ के मंदिर में मृत्यु के आलिंगन की उत्तेजना की कल्पना ही की जा सकती है, उन वीरों ने रात भर अबीर गुलाल की होली खेली, भगवान शंकर को भी जैसे सोने न दिया।

भिनसारे नहा धोकर हमीर जी ने चंद्र स्थापित भगवान सोमनाथ की पूजा की, हथियारों से सुसज्ज होकर लाख बाई को चरण स्पर्श किया और आशीष मांगा साथ ही कहा कि 'आई अब मेरे कानों को मृत्यु के मीठे गीत सुनने की वेला आ पहुंची है। सोमनाथ के पटांगण में थोड़ी देर के लिए नीरवता फैल गई। पथारी पर बैठी 'आई' ने सुमीरनी फेरते हुए कहा - धन्य है वीर तुझको, तूने सोरठ की मरने पड़ी मर्दानगी का पानी रक्खा।' आई ने गाया -

वे'लो आव्यो वीर, सखाते सोमैया तणी।
हीलोळवा हमीर, भाला नी अणिए भीमाउत।
(વે'લો આવ્યો વીર, સખાતે સોમૈયા તણી;
હીલોળવા હમીર, ભાલાની અણીએ ભીમાઉત.)

माथे मुंगीपर खरू, मोसाळ वसा वीस।
सोमैया ने शीश, आप्यु अरठीला धणी।।
(માથે મુંગીપર ખરૂ, મોસાળ વસા વીસ;
સોમૈયાને શીષ, આપ્યુ અરઠીલા ધણી.)

गढ़ के दरवाजे खोल दिये और जफरखान की फौज पर योद्धा टूट पड़े। इस अचानक आक्रमण की कल्पना न होने से जफर अचकचा गया। उसने फौज को सावधान कर युद्ध आरंभ किया। इस ओर हमीर जी काला कहर बरसाते हुए लड़ रहे थे। सांझ होते होते दुश्मन फौज को बहुत पीछे धकेल दिया। हमीर जी ने देखा कि अब शेष बचे डेढ़ दो सौ योद्धाओं में किसी के हाथ, किसी के पैर, किसी की आँतें कट चुकी थी। हमीर जी ने निर्णय लिया कि अब युद्ध इसी परिसर में लड़ना है। सुबह होते ही जफरखान ने सामने से हमला किया, कारण कि वह ज्यादा समय कमजोर शत्रु को देने के लिए तैयार नहीं था। हमीर जी ने भगवान आशुतोष को जल अर्पण किया और सभी साथियों ने आपस में अंतिम जुहार करने के साथ रणांगण में उतर पड़े।

ग्यारहवें दिन की सांझ युद्ध में हमीर जी का शरीर क्षत विक्षत हो गया, तलवार का भयानक वार होने के बाद भी दुश्मन को बराबर प्रत्युत्तर दे रहे थे लेकिन ग्यारहवें दिन की सांझ शिव सेवा में उन्होंने स्वयं को अर्पित कर दिया। इस युद्ध को लाख बाई गढ़ की ड्योढ़ी से निहार रही थी और उस शूरवीर योद्धा की विरूदावली गा रही थी और गाया पहला शोकगीत -

रड़वड़िये रड़िया, पाटण पारवती तणा;
कांकण कमल पछे, भोंय ताहळा भीमाउत ।
(રડવડિયે રડિયા, પાટણ પારવતી તણા;
કાંકણ કમળ પછે, ભોંય તાહળા ભીમાઉત.)

वेळ तुंहारी वीर, आवीने उं वाटी नहीं ;
हाकम तणी हमीर, भेखड़ हुती भीमाउत।
(વેળ તુંહારી વીર, આવીને ઉં વાટી નહીં;
હાકમ તણી હમીર, ભેખડ હુતી ભીમાઉત.)

इधर चारण मां अपने शूरवीर पुत्रों के शोकागीत गा रही थी और जफरखान के सैनिकों के हाथों सोमनाथ का देवल लुट रहा था। हमीर जी इस तरह अपने अनुपम पराक्रम से इतिहास के पृष्ठ लाँघते हुए लोक जीवन के कंठ से होकर हृदय में विराजित हो चुके थे। जब सौराष्ट्र का शौर्य बिखरा हुआ था तब अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ स्वयं का बलिदान हमीर जी को लोकमन का नायक बना गया।

सोमनाथ मंदिर के बाहर वेगड़ा जी की और मंदिर के परिसर में हमीर जी की डेरी आज भी पूजी जाती है। सोमनाथ मंदिर की लूट में भले ही आक्रांताओं ने बहुत बार प्रयास किया हो मगर तत्कालीन वीरों ने अपने बलिदानों से इस धरा को अभिषिक्त किया है।

बुधवार, 26 जनवरी 2022

कुछ अपनी

मैं एक सनातनी हूँ, 
क्षात्र मेरा धर्म है, 

मेरा राष्ट्रीय ध्वज है,
 क्षात्र व सूर्य तेज युक्त वह केसरिया ध्वज,?
 जिसे कभी महान क्षत्रिय सम्राट विक्रमादित्य ने हिन्दुकुश से लेकर अरब की भूमि तक लहराया था।

अगर मैं कहूँ मेरी पहचान न मैं भारतीय हूँ, 
न आर्यावर्त, न जम्बूद्वीप?
 मेरी पहचान तो मेरे धर्म से जुडी है,
 क्योंकि राष्ट्र तो बनते है और बिगड़ते है,
अखंड होते है, खंडित होते है?
 पर मूल राष्ट्रीयता या मेरी असल पहचान तो मेरी वह संस्कृति है जो इस महान अपराजेय व कालजयी सनातन धर्म से मिली है?

मेरे आदर्श मेरे नायक तो सनातन धर्म ध्वज धारक उस धर्म पताका को विश्व में फहराने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर प्रभु श्री कृष्ण, चक्रवर्ती क्षत्रिय सम्राट विक्रमादित्य, क्षत्रिय सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार ,वीर शिवाजी महाराज, वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप,  सम्राट पृथ्वीराज चौहान , सम्राट अनंगपाल सिंह तोमर , वीर दुर्गादास राठौड़ , सम्राट हर्षवर्धन बैंस, राजा सुहेलदेव बैंस, बुंदेला वीर छत्रसाल महाराज , अप्रितम जुंझार योद्धा धीर सिंह पुण्डीर, राजमाता जिया रानी( मौला देवी पुण्डीर), भड़ माधो सिंह भंडारी , अपराजेय योद्धा आल्हा उधल, वीरवर गोरा बादल,  महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध ,गुरु गोविन्द सिंह, पंडित उपाधि धारक रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, ठाकुर महावीर सिंह राठौर, बाबू कुंवर सिंह, लेफ्टिनेंट जनरल हणुत सिंह राठौर, मेजर शैतान सिंह भाटी, जनरल बिपिन सिंह रावत जैसे अनेकों अनेक क्षात्र धर्म ध्वज धारक महापुरुष व युगपुरोधा है।

सनातन में क्षात्र धर्म के सिद्धांतों आदर्शों ने ही इस भारत देश की मातृ समान भूमि को संस्कृति के सर्वोच्च सिंहासन पर बिठाया था। 
यदि ये धर्म न हो तो राष्ट्रीयता का कैसा बोध ? 
धर्म नहीं रहेगा तो मैं भी भारत देश की इस भूमि को मातृभूमि न मान कर साधारण भूमि मानूँगा। 
अतः मेरे लिए मेरा धर्म सर्वोच्च है।

धर्म रहा तो इस पृथ्वी पर कही न कही राष्ट्र बन जाएगा। 
नाम भी भारत या आर्यावर्त रख लेंगे।
 पर धर्म न बचा तो राष्ट्र का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाएगा। 
इसलिए हमारे पूर्वजों ने धर्म को आधार बना कर इस राष्ट्र का निर्माण किया। 
जो कभी जम्बूद्वीप एशिया में फैला था। 
धर्म की सीमाएं सिमटी तो राष्ट्र भी आर्यावर्त (ईरान से इंडोनेशिया व मॉरीशस से मास्को) तक सिमट गया। 
धर्म और संकुचित हुआ तो आज का भारत रह गया। सनातन धर्म सिमटता गया और राष्ट्र भी खंड खंड में खण्डित होता गया।
 जो पाकिस्तान व बंगलादेश कभी हमारा भाग था वह आज खंडित हो गया क्योंकि वहाँ से धर्म लुप्त हुआ और राष्ट्रीयता का बोध समाप्त हो गया।

वर्तमान के राजनेताओं ने धर्म के स्थान पर राष्ट्र को प्रमुखता दी। 
धर्मविहीन राष्ट्र कैसा होता है ? 
ये आज के राष्ट्र को देखकर जान सकते हैं।
 पहले न कोई निर्धन था यदि था तो मन में संतोष था। 
धनी व्यक्ति दयालू तथा दानी प्रवृत्ति के थे। 
मन में न लोभ मोह था न ईर्ष्या एवं धर्म के प्रसार के कारण राष्ट्रीयता का भी बोध था। 
इतनी निष्ठा उस समय चोरों में भी होती थी। 
आज वह निष्ठा समाज के रक्षकों से भी लुप्त हो गई क्योंकि धर्म नहीं रहा।

आज अधर्म फैला हुआ है इसलिए समाज में भी असंतोष भय निराशा का बोध है।
 राष्ट्रीयता लुप्त है या किसी विशेष अवसर पर ही राष्ट्रभक्ति का बोध होता है।

ऐसे में यदि खंड खंड हो चुके राष्ट्र को बचाना है तो माध्यम धर्म को बनाना होगा।
 जब धर्म व संस्कृति बचेगी तो ही ये राष्ट्र भी बचेगा।

अतः धर्म सर्वोपरि है, सनातन संस्कृति ही राष्ट्र का उद्धार करने की क्षमता रखती है।

जय क्षात्र धर्म ।।

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

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