मंगलवार, 19 जनवरी 2021

यादों का इडियट बॉक्स

#यादों_का_इडियट_बॉक्स

ऐ सुनो! 
यह जो तुम...मुझे नित्य याद करते हो न,उसकी एक कसक तो मुझे भी होती है,पता ही नही चलता कि मर्म समझकर भी यह मर्मान्तक अहसास इतनी पुनरावृत्ति क्यों करता है?
आजकल हमारे वीराने में तुम्हारे साथ बिताये उन स्मृत पलो की एक-एक कड़ी सरसो के पौधों की तरह दक्षिणावृत्त होकर झुक सी गयी है,जैसे सजृन और फलन का दायित्व बढ़ गया हो..जैसे एक ऋण से उऋण होने के  लिये अपना सर्वस्व शनै-शनै क्षीण होते हुये मूकदर्शक बनकर निहार रहा होऊँ !
क्षीण होते वास्तविक दृश्य में सहसा तुम्हारी कल्पना भी दृश्य होती है!ठीक सरसो के फूलों की तरह...एक केशरिया छटा बनकर तुम्हारे पीत बस्त्रो में आने का बोधन कराती है और में गुम हो जाता हूँ कंही दूर वीराने में तुम्हे खोजता हुआ सा किन्तु तुम कस्तूरी की तरह उपवन महकाकर मुझे विस्मृतातीत कर चुके हो !!

यह जो गेंहू के नन्हे पौधों पर शबनमी बुंदे है न वह मुझे स्मरण दिलाती है,तुम्हारे ओष्ठ के वांयी तरफ कुदरत ने सजाये उस तिल की ,जिससे मुझे सबसे अधिक जलन होती थी,आखिर दमकती चेहरे की आभा पर वह आकर्षण अतिरेक का माध्यम जो बना था। 
हरितलबनी से परिपूर्ण पातों पर जब भुवनभास्कर की रश्मियां अपना तेज बिखेरती है न,तब मुझे आभाष होता है कि मैने भी 'सुगन्ध' को 'पाश' में संजोने का दुर्लभ प्रयास किया था!परन्तु हृदय से स्पंदन और आत्मा से परमात्मा बिलग करने का हठ जो था ..!!

आजकल हमारे यहाँ कुछ अलग सा आकर्षक कुहासा  होता है जैसे तुम्हारे बालो की चेहरे बाली लट परिपक्वता का शंदेश लाकर धबल हो गयी हो..नेत्र तीक्ष्णता ऐनक में लगी डंडी उसे आज भी सम्भाल पाती है....उसे तेजी से सम्भालते कंकन किंकिर हाथों की ध्वनि प्रेमातीत हुये हर स्मरण का आभास तो देती है किंतु बड़ा दुर्लभ है 'पानी' से 'पानी' पर "पानी" लिखना और कल की बातों को विस्मृत कर  आज की यादों को स्मृत रखना ... !

फागुन कल आएगा और भोरे अपना राग गाएंगे,हम तो मुसाफिर थे साथी रंग लगे न लगे अपना रंग न बदल पाएंगे।चलते रहेंगे उन्ही राहों में बार-बार ..अब तक न लौटे,अब क्या लौट के खाक जाएंगे ..?

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बुधवार, 13 जनवरी 2021

बाबा कीनाराम

-------:अघोर साधक बाबा कीनाराम:-------        ********************************
 यह घटना 1757 की है जब एक महान् अघोर साधक अपने गुरु को खोजते- खोजते गिरिनार की लम्बी यात्रा करते हुये काशी के हरिश्चन्द्र घाट के महाश्मशान पहुंचे। चुपचाप एक कोने में बैठे हुए अपने गुरु को निहार रहे थे। उनके नेत्र सहसा ही गीले हो गए थे। बस, वे जानना चाह रहे थे कि गुरु उन्हें पहचानते भी हैं या नहीं।
       प्रातःकाल का समय था। सर्द हवा पूरी तेजी से चल रही थी। भगवान् भास्कर धीरे-धीरे नीले आकाश में अपनी सिन्दूरी आभा बिखेर रहे थे। काशी का वह पूरा घाट स्वर्ण आभा से मण्डित हो गया था जिस कारण मानो गंगा की धारा में हज़ारों स्वर्ण कण बिखरे पड़े थे और अपनी चमक से अपनी असीम ऊर्जा बिखेर रहे थे। केदार घाट पर केदारेश्वर के मन्दिरोँ से घण्टों की गम्भीर आवाज़ एक प्रकार से आध्यात्मिक चेतना-सी जाग्रत  कर् रही थी। श्मशान की जलती चिताएं वायु के झोंकों से और भी विकराल हो रही थीं और कुछ बुझ चुकी थीं। श्मशान के चारों तरफ फैली बिखरी हड्डियां, मालाएं, मुर्दे के जलने से निकलती गन्ध--सब मिलकर एक मिला-जुला-सा रहस्यमय वातावरण उतपन्न हो रहा था। पीपल के पेड़ पर बैठे कौओं और गिद्धों की कर्कश ध्वनि वातावरण को और भी भयानक बना देती। ऐसा लगता था जैसे चिताओं में सुलगती आत्माएं मुक्ति की गुहार लगा रही हों। गंगा की उत्ताप तरंगें गतिमान वायु से टकराकर छप-छप कर् रही थीं, मानों व्याकुल चिताओं को शान्ति प्रदान करने की कोशिश कर् रही हों।
      एक ओर सृजन हो रहा है और दूसरी ओर महान् सत्य साकार हो रहा है। हरिश्चन्द्र घाट मुक्तिदायिनी काशी का प्रागेतिहासिक महाश्मशान है। जहाँ देवाधिदेव मृत्युंजय भगवान् शिव का प्रिय निवास है। कभी इसी शमशान घाट पर राजा हरिश्चंद्र डोम सरदार की चाकरी करते थे और उनकी पत्नी रानी तारा सर्प-दंश से मृत अपने पुत्र रोहिताश्व का अन्तिम संस्कार हेतु जब हरिश्चन्द्र के सामने उपस्थित हुई तो अपने कर्म के प्रति सजग हरिश्चन्द्र ने बिना शमशान का कर चुकाए अन्तिम संस्कार के लिए मना कर् दिया था।
      इसी महान् श्मशान में महाश्मशानेश्वर महादेव के समक्ष एक साधक अविचल मुद्रा में ध्यानस्थ था। तेजश्वी मुख, शुभ्र् श्वेत वस्त्र, ऊपर का भाग् निर्वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की माला, शरीर पर चिता की राख लपेटे घनी जटा- जूट। ऐसा लग रहा था मानों साक्षात् महा मृत्युंजय समाधिष्ठ हैं।

      सूर्य की रक्तिम आभा उस तेजस्वी के मुख को और भी रक्तिम कर रही थी। पास ही एक झोला पड़ा था और पड़ी थी सिन्दूर पुती हुई एक मानव खोपड़ी। धीरे-धीरे सन्यासी अपने नेत्र खोलता है, चारों तरफ सरसरी दृष्टि से लोगों को देखता है, फिर महादेव को प्रणाम कर कुछ मन्त्र पढ़ता है।
       जलती चिताओं के पास पहुँच कर, उसमें से भस्म लेकर शरीर में लगाकर, अपने गन्तव्य की ओर चलने से पहले ज़मीन पर पड़ी उसी सिद्ध खोपड़ी से बोलता है--चल रे ! काहे ज़मीन पर पड़े-पड़े सो रहा है ?
       ये थे महान् अघोरी साधक कालूराम। उनका रोज़ का काम था साधना करना, कभी-कभी शव-साधना करना। यही क्रम वर्षो से चलता आ रहा था। प्रातः उठते ही अपनी सिद्ध खोपड़ी को आवाज़ लगाते। खोपड़ी हवा में उछलकर बाबा के हाथों में आ जाती और फिर उसे हाथ में लेकर भद्रवन की ओर चल पड़ते। आज जहाँ #क्रीमकुण्ड है, वहां पहले घना वन था--औघड़ साधकों का साधना-स्थल। तमाम औघड़ साधक वृक्षों के नीचे बैठे साधना करते रहते। बाबा कालूराम का उसी भद्रवन में एक विशेष् स्थान था जो वर्तमान में क्रीमकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। इसी स्थान में आज उनकी समाधि भी है।
      खैर, वह मानव खोपड़ी आज रोज की तरह उछलकर बाबा के हाथों में नहीं आयी, जहाँ की तहाँ पड़ी रही।  बाबा कालूराम को पहले तो थोड़ा आवेश आ गया, उनका चेहरा तमतमा गया। लेकिन जब उन्होंने नज़र घुमाकर देखा--श्मशान के पास घने पीपल के वृक्ष के नीचे एक युवा साधक साधन-रत है। बीस-बाइस साल का युवक, हल्की-हल्की दाढ़ी-मूंछ, बड़े-बड़े घने घुंघराले काले बाल कंधों तक फैले हुए, शुभ्र् श्वेत वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की पतली माला, हाथ में कमण्डल--साक्षात् बाल शिव जैसा मोहक स्वरूप। बाबा कालूराम को तुरन्त आभास हो गया कि वह कोई साधारण युवक नहीं है, कोई सिद्ध युवा साधक है। इसी युवक ने मेरी सिद्ध मानव खोपड़ी को स्तंभित कर् रखा है।
      बाबा को अब किसी प्रकार का क्षोभ नहीं रहा, बल्कि उस साधक को देखकर उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ आया--जैसे कोई अपना वर्षों से बिछुड़ा हुआ अचानक सामने आ गया हो। बाबा कालूराम चलते हुए उस युवक के पास पहुंचे। युवक ने झुककर बाबा कालूराम का चरण स्पर्श किया और कहा--मैं कीनाराम और यह मेरा शिष्य बीजाराम है। बीजाराम ने भी बाबा का झुकाकर चरण स्पर्श किया। बाबा ने पूछा--काशी में कैसे आना हुआ ? 
        कीनाराम बोले--गिरिनार से आ रहा हूँ तपस्या पूर्ण करके अपने गुरु की तलाश में। अनुभूति हुई कि गुरुदेव का दर्शन  काशी में होगा, बस चला आया।
       इतना कहकर कीनाराम चुप हो गए। बाबा कालूराम बस मुस्करा दिए, फिर बोले--तेरा गुरु तो तुझे मिल जायेगा, पहले कुछ खिलाओ, बड़ी भूख लगी है।
        क्या खाएंगे ?--कीनाराम ने पूछा।
        मछली खाने की इच्छा हो रही है।--बाबा कालूराम बोले। कीनाराम गंगा की ओर मुंह करके खड़े हो गए, फिर भगवती गंगा को हाथ जोड़कर उन्होंने प्रणाम किया। फिर कोई मन्त्र बुदबुदाया--देखते ही देखते दर्जनों मछलियां गंगा से उछल- उछल कर सामने जलती हुई चिता की आग में गिरने लगी। धड़ाधड़ एक के बाद एक मछली जलती चिता में गिर रही थी। बाबा कालूराम चिल्लाये--अरे ! पूरी गंगा की मछली निकाल देगा क्या ? बस कर, कीनाराम, बहुत है।
       वहां पर खड़े लोगों ने देखा--चिता मछलियों से भर गई थी। कीनाराम बोले--बीजाराम, जा अच्छी-अच्छी भुनी हुई मछली ले आ बाबा के लिए। बीजाराम मछली निकाल कर ले आया।बाबा आनंद-मग्न होकर मछली खाने लगे। इसके बाद बाबा कालूराम, कीनाराम और बीजाराम एक साथ चल पड़े भद्रवन की ओर।--------:अघोर साधक बाबा कीनाराम:-------
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                         भाग--02
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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी के अध्यात्म-ज्ञानप्रवाह में पावन अवगाहन

पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन

         
       एकाएक बाबा कालूराम रुक गए और पलटकर गंगा की ओर देखकर बोले--कीनाराम, देख, कोई शव बहा जा रहा है। कीनाराम तुरन्त बोले--नहीं बाबा, वह जिन्दा है।
       तो बुला उसे।
       कीनाराम वहीँ से चिल्लाकर बोले--इधर आ, कहाँ बहता जा रहा है ? 
        तत्काल वह शव विपरीत दिशा में घूमा और घाट के किनारे आ लगा। फिर धीरे-धीरे उठा और फिर पूरी ताक़त बटोर कर खड़ा हो गया सामने आकर हाथ जोड़कर, मूकवत। कीनाराम बोले--खड़ा-खड़ा मेरा मुंह क्या देख रहा है ? जा अपने घर, तेरी माँ रो-रो कर पागल हो रही है।
       तत्काल वह दौड़ता हुआ घर की ओर भागा और माँ से अपनी जीवित होने की कथा सुना डाली। माँ को विश्वास नहीं हो  रहा था। वह उसी हाल में अपने बेटे को लेकर उलटे पांव घाट की ओर भागी। तब तक सभी लोग घाट की सीढ़ी चढ़कर सड़क पर आ गए थे। तभी कीनाराम की दृष्टि सामने पडी। देखा--वही बालक अपने माँ के साथ भागता हुआ चला आ रहा है।
       कीनाराम कुछ समझ पाते,  उस बालक की माँ आकर कीनाराम के पैरों पर गिर पड़ी। कीनाराम ने उसको उठाया, आने का कारण पूछा तो वह बोल उठी--बाबा ! आपकी कृपा से मेरा बेटा पुनः जीवित हो गया। इसके लिए मैं आपकी सदा ऋणी रहूंगी। लेकिन यह आप ही हैं जिन्होंने इसे जीवन दान दिया है। अब यह आपका ही है। मेरी दी हुई जिंदगी तो ख़त्म हो चुकी थी, बाबा, अब आप इसे अपने चरणों में स्थान दीजिए। इसे मैं आपको सौंपती हूँ। कीनाराम बाबा कालूराम की ओर प्रश्नभरी दृष्टि से देखने लगे। बाबा कुछ बोले नहीं, बस सिर हिलाकर उन्होंने अपनी सहमति दे दी। आगे चलकर बाबा ने उस बालक का नाम 'राम जियावन' रखा जो आगे चलकर सिद्ध अघोरी बने।
      सभी लोग भद्रवन पहुंच बाबा की कुटिया के पास पड़ी हुई चटाई पर बैठ गए। सभी लोग आराम करने लगे। रात्रि में श्मशान घाट जाना था साधना करने। 
       एक दिन कीनाराम से रहा नहीं गया।  बाबा कालूराम के पास पहुंचे और उनके पास चुपचाप बैठ गए। बाबा ने पूछा--कीनाराम, क्या बात है चुपचाप आकर बैठ गए हो मेरे पास। कोई जिज्ञासा तो नहीं है ? 
      कीनाराम कुछ पल किसी गहरे सोच में डूबे रहे। फिर बोले--बाबा बचपन से मेरा मन अशान्त था। हर पल एक खालीपन-सा परेशान करता रहता। कुछ समझ में नहीं आता तो 'राम-राम' की माला जपने लगता। गुरु बनाया, उनके सान्निध्य में साधना भी की, लेकिन मन नहीं लगा। भारत के सभी धर्म-स्थलों पर गया। फिर भी मन अशान्त रहा। जब गिरनार गया तो भगवान् दत्तात्रेय मन्दिर में रहकर कठोर साधना की। भगवान् दत्तात्रेय के दर्शन लाभ भी हुए और ऐसी अनुभूति हुई कि भगवान् दत्तात्रेय कह रहे हैं कि काशी जाओ, वहीँ तुम्हारा कर्मक्षेत्र मिलेगा। बस, फिर क्या था, काशी के लिए चल पड़ा। सर्वप्रथम गंगा स्नान कर् भगवान् विश्वनाथ का स्मरण कर् एक वृक्ष के नीचे बैठा रहा। बस, आपको देखा तो मन को बड़ी शान्ति मिली। इसके बाद की तो सारी कथा आपको पता ही है।
       बाबा कालूराम कुछ पल चुप रहे फिर बोले--कीनाराम ! अब समय आ गया है रहस्य बतलाने का...तो सुनो, तुम्हारा जन्म विशेष् कार्य प्रयोजन के लिए हुआ है। तुम तो जीवन-मुक्त जाग्रत अघोर साधक हो। पता नहीं, कितने जन्मों से तुम्हारी साधना चली आ रही हैं। आज तुम्हारे पास जो सिद्धियां हैं, वे जन्म-जन्मान्तरों से चली आ रही हैं। तुम्हें स्वयम् पता नहीं है। अघोर संप्रदाय अति प्राचीन है। अघोर साधक कभी भी जगत् के सामने नहीं आते। मुक्तावस्था को उपलब्ध् होने के लिए उनकी  साधना चलती रहती है। लेकिन इधर कुछ काल से अवैदिक मतों का काफी बोलबाला हो गया। साधना के नाम पर भोली-भाली जनता को ठगा जा रहा है जिससे हमारे देश का अति प्राचीन अघोर पन्थ भ्रष्ट हो रहा है। महादेव की इच्छा से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम्हें अघोर पन्थ की अलख जगानी है, अलग पहचान और चेतना जगानी है ताकि सारा संसार जान सके अघोर पन्थ का वास्तविक रहस्य और जहाँ तक गुरु की बात है, वह गुरु मैं ही हूँ तुम्हारा जन्म-जन्मान्तर से।

       बाबा कालूराम ने कीनाराम के सिर पर अपना हाथ रख दिया। जैसे ही हाथ रखा, कीनाराम के सामने सारा रहस्य खुल गया और जन्म लेने का उद्देश्य भी।
       समय अपनी गति से चलता रहा। बाबा कालूराम अब अपनी साधना में अधिक से अधिक लीन रहने लगे। बाकी के कार्य कीनाराम करने लगे। कीनाराम के चमत्कार और लोक-कल्याण के कार्य चारों ओर फैलने लगे। कोई दुःखी और निराश होकर नहीं जाता। जो लोग सच्चे मन से साधना करना चाहते थे, कीनाराम उन्हें सच्चा मार्ग बतलाते और जो आडम्बर करते, उन्हें वे दण्ड भी देते। धीरे-धीरे काशी नरेश राजा बलवन्त के कानों तक कीनाराम की लोकप्रियता की गाथा पहुँचने लगी। एक दिन वे कीनाराम के पास आये। राजा के नम्र स्वभाव और उनकी भक्ति देखकर कीनाराम ने उन्हें आशीर्वाद दिया। कीनाराम के लाख मना करने पर भी राजा बलवन्त सिंह ने उनका निवास स्थान पक्का बनवा दिया जो आजकल 'कीनाराम स्थल' या 'क्रीमकुण्ड' के नाम से प्रसिद्ध है।
       बाबा कीनाराम का जन्म सन् 1684 में वाराणसी से 150 किलोमीटर दूर #रामगढ़ गांव में हुआ था। बचपन से ही एकान्त में रहना, किसी पेड़ के नीचे ध्यान करते रहना और हर समय केवल राम-राम का जप करते रहना उनका रोज का कार्य हो गया था। परिवार के लोग उनके आध्यात्मिक झुकाव को देखकर डरने लगे कि कहीं कीनाराम बड़े होकर साधू न् बन जाएं। बचपन से ही जो भी वे कह देते, वह हो जाता था। जब कीनाराम बारह वर्ष के हुए तो उनका बाल विवाह कर दिया गया। बाल्यावस्था होने के कारण उन्हें विवाह आदि के बारे में कुछ पता नही था। जब वे पन्द्रह वर्ष के हुए तब भी उनके स्वभाव में कोई अन्तर नहीं आया। तब उनके माता-पिता ने बहू की विदा करा लाने की तिथि तय कर दी। पहले बाल विवाह हो जाया करता था और गौना और बहू की विदा लड़के के वयस्क हो जाने पर होती थी। कीनाराम के माता-पिता कीनाराम के बैरागी  बन जाने के डर से ऐसा करने के लिए विवश हो गए थे। लेकिन एक दिन पहले कीनाराम दूध-भात खाने के लिए ज़िद करने लगे। किसी भी शुभ कार्य में दूध-भात खाना अशुभ माना जाता है। पर कीनाराम की ज़िद के आगे बेबस होकर माँ ने उन्हें दूध-भात खाने को दे दिया। कीनाराम बड़े चाव से दूध-भात खाकर सोने चले गए। दूसरे दिन कन्या के घर से समाचार आया कि रात में कन्या की मृत्यु हो गयी। 
       कुछ दिनों के बाद एक दिन कीनाराम बिना कुछ बतलाए घर छोड़कर चले गए। घूमते-घामते वे बलिया पहुंचे। वहां पर वैष्णव शिवाराम के सान्निध्य में साधना करने लगे। लेकिन वहां भी वे जो कुछ कहते, वह पूरा हो जाता। उन्हें स्वयम् पता नहीं होता कि यह सब कैसे हो जाता है। एक दिन कीनाराम क्या देखते हैं गुरु शिवाराम के पास एक युवती बैठी है। कीनाराम को आश्चर्य हुआ कि सन्यासी गुरु के समीप युवती का क्या काम ! बाबा बड़े स्नेह से उससे वार्ता कर् रहे थे। कीनाराम को देखकर गुरु शिवाराम बोले--कीनाराम ! तुम मेरे परम प्रिय शिष्य हो इसलिए तुमसे कहता हूँ। मैं इस युवती से विवाह करने जा रहा हूँ। अब से यह तुम्हारी गुरुमाता होंगी।
       कीनाराम कुछ नहीं बोले। अपने गुरु को प्रणाम कर वह आश्रम से बाहर चले आये और चुपचाप आश्रम के सामने पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गए। पता नहीं क्यों उन्हें ग्लानि होने लगी। बस, बिना कुछ बोले तत्काल उन्होंने उस आश्रम को छोड़ दिया। भारत के धर्मस्थलों की यात्रा कर गिरिनार चले गए। वहां पर 10 वर्ष तक घोर तपस्या कर पूर्व जन्म की सुप्त सिद्धियों को जाग्रत कर् काशी चले गए। राजा बलवन्त सिंह उनके परम भक्त थे। उनसे दान में मिले कीनाराम स्थल (क्रिमकुण्ड) की स्थापना की और जो अघोरी श्मशान, वृक्ष, नदी तट पर साधना करते थे, उनके लिए विशेष्  साधना-स्थल की व्यवस्था की ताकि अघोरी साधक इधर-उधर भटकने के लिए बाध्य न हों। उनके लिए कुछ कड़े नियम बनाये गए जिनका कोई अघोरी उल्लंघन नहीं कर् सकेगा। अघोरी साधक पूर्ण ब्रह्मचारी रहेगा। नारी-भोग से सदा दूर रहेगा। किसी के घर के भीतर प्रवेश नहीं करेगा। सार्वजनिक स्थलों पर अपनी विद्या का प्रदर्शन नहीं करेगा। अपनी साधना में लीन रहेगा। मदिरा का सेवन साधना की आवश्यकता और मर्यादा में रहकर करेगा, सार्वजनिक स्थलों, श्मशानों, पूजा-स्थलों और मंदिरों पर नहीं। अन्य इसी प्रकार के कठोर नियम अघोर साधकों के लिए बनाये जिनका हर एक अघोरी साधक के पालन के लिए अनिवार्य कर् दिया। जो भी साधक इनका उल्लंघन करता पाया जाता, उसे कठोर दण्ड का भागी बनाया जाता। इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे अघोर साधना और अघोरियों के लिए समाज में फैली भ्रान्त धारणा दूर होने लगी। लोग उन्हें अब बड़े श्रद्धा-भाव से देखने लगे। जब भी समय मिलता, अनेक सिद्ध अघोरी साधक लोक-कल्याण के कार्य भी करते। धीरे-धीरे दूर प्रान्तों के अघोरी साधक बाबा कीनाराम के चमत्कारों और उनके ज्ञान से अभिभूत होकर उनके अनुयायी बनने लगे और गुप्त रूप से उनके साधना नियमों के अनुसार अपनी साधना करने लगे। आज इक्कीसवीं सदी है। चार सदी बीत चुकी हैं। लेकिन बाबा कीनाराम ने जो ज्योति जलाई वह आज भी अनवरत चल रही है। बाबा कीनाराम के अनेक भक्त देश-विदेश में हैं। वे गुरु पूर्णिमा के अवसर पर लाखों की  संख्या में कीनाराम स्थल पर आते हैं और उस महान् साधक से अपने सुखमय जीवन की कामना करते हैं। बाबा ने जो धूनी जलाई, वह आज तक अनवरत जल रही है।


श्री शिवराम तिवारी जी की फेसबुक लेख से आभार

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...