मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

राजेश

तुझे मेने बचपन से देखा था...वही पुरविया बोली में लपेटा हुआ हंसमुख चेहरा..किसी भी नकल उतारने में जेसे तुझे महारथ हासिल थी। साले तू तो मुझसे वर्षो छोटा था...तुझे मेने नंगा घूमता देखा था पर कभी समझ नही पाया तुझे..! तू जितना जमीन के ऊपर था उससे कहि ज्यादा जमीन के नीचे भी था ..!!
तुझे सही से जाना जब तू दिल्ली और में दादरा-नगर हवेली की योजनो दुरी होकर भी घण्टो गप्पे मारा करते थे और मुझे तब पता हुआ की तुझे अपने भौतिक परिवर्तनों के कारण बढ़ते आकर्षण विषयो पर बात करने में बड़ा मजा आता था। में स्वप्न में भी अनुमान नही कर सकता था की मुझसे इतना छोटा होते हुए भी तू इतना मुखर था ...!
लगभग एक वर्ष तक तू मेंरे साथ भी रहा...एक सिगरेट से लेकर तुझे मेरा हर सीक्रेट तक पता था और उन्ही बातो को केंद्र में रखकर तू परिहास ही परिहास में मुझे कितना सुकून देता था....!!
जब बीमार हुआ तू मेरे साथ मेरा तीमारदार था निस्वार्थ प्रेम के वशीभूत तूने अपना वह दिन और रात दोनों मेरी सेवा में गुजार दिए थे ....माथे की पट्टी से लेकर ड्रिप बड़ल्वाने पर तूने जो हॉस्पिटल में हंगामा बरपा दिया था ...कैसे भूलूंगा.......कैसे भूलूंगा की तू डेढ़ पाव हड्डी,एक भोले से लड़के की आँखों में मेने ड्रिप की नली मेंआये खून से कहि सौगुना ज्यादा लहू था ।

कमीने वो तेरा मुझसे हक से पैसे छिनना कैसे भूलूंगा और कैसे भूलूंगा 

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

कुलदेवी योगेश्वरी माता

तोमर/तँवर राजवंस कुलदेवी ऐसाहगढ़ी
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जिला मुरैना(पूर्व का जिला तंवरघार) कभी तंवरघार की सीमाओ निर्धारण चम्बल की धार नहीं बल्कि उसके घनत्व से हुआ करता था। पूर्वी राजस्थान जिला धौलपुर से सटी चम्बल की हरियल धार और मध्यप्रदेश की किनारी पर बसे ऐसाह गाँव से कुछ ही दुरी पर स्तिथि हे 12 वी सदी कालीन महाराज अनंगपाल सिंह द्वितीय द्वारा स्थापित तोमरराज वंस की कुलदेवी माँ योगेश्वरी चिल्लाय माता का मन्दिर जो पुरातन कालीन मन्दिर के भग्नावेशो से थोड़ा पहले हे। 12 वी सदी का मन्दिर और किला चम्बल की अशेष जलराशि में कहि बिलुप्त हो चुका हे किन्तु किनारे कुछ अवशेष आज भी विद्यमान हे जो इसकी भव्यता की दास्ताँ खुद व्यान करते हे ।

इस स्थान को इसकी विशेष आकृति के कारण "भवेश्वरी" भी कहते हे। यंहा चम्बल की बीच धार प्राकतिक रूप से एक हरा-भरा टापू निर्मित करती हे। जिसकी आकृति स्टेलाइट व्यू अथवा वायुयान से देखने पर  स्त्री योनि की आकृति सुस्पष्ट करता हे। जो माँ कामख्या देवी की ही द्वितीय कृति हे ।

लोकश्रुतियो और इतिहास का अध्यन करने पर ज्ञात होता हे की 'ऐसाहगढ़' स्तिथि बट वृक्ष के नीचे ही तोमरवंस के गुम हुए मदनायक (कोहिनूर) हीरे की पुनर्प्राप्ति महाराज अनंगपाल को यही हुई थी। यह वही हीरा हे जो महाभारत काल में उर्वसी अप्सरा द्वारा अर्जुन को भेंट किया गया था और तन्त्र से अभिमन्त्रित महरोली स्तिथि किल्ली को हिलाते ही गायब हो गया था।
 बुजुर्ग कहते हे तोमरो के दिल्लीच्युत होने के बाद। ऐसाह को दूसरे गढ़ के रूप में स्थापित कर शाशन व्यवस्था पुनर्स्थापित की गयी और राव घाटम देव के 84 गाँव राव वीरमदेव के द्वारा 52 और 120 गाँवों की नीव रखकर 'तंवरघार' की नीव रखी गयी। वस्तुतः यह परिहार/प्रतिहार राजाओ का भूभाग था जो प्रतिहार कुमारी धारावती से राव वीरमदेव के विवाह उपलक्ष्य में सप्रेम भेंट स्वरूप प्राप्त हुआ था ।

योगेश्वर श्रीकृष्ण जी बहिन योगमाया के कारण कुलदेवी का नाम योगेश्वरी,भगेश्वर टापू के कारण यह तीर्थ भवेश्वरी और चील पक्षी की सवारी के कारण इन्हें चिल्लाय माता,कंस के समक्ष स्वम को योगमाया उच्चारित करने कारण मंशादेवी व सरुण्ड माता के नाम भी जानते हे ।
मन्दिर से चम्बल तक जाने के लिए पक्की सिंढीया और नीचे माँ गंगा का प्राकृतिक उद्गम कलकल निनादित हे। यंहा महिलाओ के स्नान के प्राकृतिक झरने का एक कक्ष रूप स्नानागार  हे तथा पुरुषो के लिए गोमुख झरना अपनी अलग ही छटा विखेरता हे। यही से आप भवेश्वरी पर्वत को निहार व नोका विहार कर सकते हे। 
जलराशि में तैरते सेकडो घड़ियाल और मगर आपका मन मोह लेंगे तो हजारो प्रवासी पक्षीयो का कलरव यंहा की छटा को और दर्शनीय बना देता हे ।
यु तो यंहा प्रतिदिन उप्र, राज,मप्र से आते सेकडो श्रद्धालुओं द्वारा प्रसादी-भण्डारण होते रहते हे किंतु प्रतिवर्ष 18 जून को हल्दीघाटी के शहीद तोमरकुल की तीन पीढ़ियों की स्मिर्ती में विशेष आयोजन 'तंवरघार एकता मंच' के तत्वाधान में होता हे ।

यंहा की विशेषता हे की चंद्रवंस,तँवर कुल देवी ध्वजा के ऊपर आकाशगंगा में कोई भी तिथि हो कोई भी प्रहर हो 'चन्द्र देव' सदा सर्वदा दर्शन किये जा सकते हे और यंहा स्नानुपरांत भोजन ग्रहण कर व माँ की आराधना करके इच्छित फल की प्राप्ति होती हे ...!

तो आइये आगामी मकर संक्रांति पर्व पर महाप्रयाण हुए पितामह देववृत 'भीष्म' को नमन कर श्रधांजलि अर्पित करने माँ कुल देवी योगेश्वरी चिल्लाय भवानी के सानिध्य में धर्म लाभ अर्जित करे !
जय माँ योगेश्वरी भवानी !!


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~कुं.जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र (स्टेट तंवरघार)

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

गेंदालाल जी दीक्षित

===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
                     भाग-७२
    ★बागी गुरु गेंदालाल जी दीक्षित★

बटेश्वर वाह के 'मई' गाँव को सभी जानते हे,जाने भी क्यों न!चूँकि इसी कालिंदी से घिरे छोटे गाँव में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व.अटलबिहारी बाजपेयी का जन्म स्थान हे। किन्तु इस पावन मारुभूमि की एक नीव की ईंट और हे जो कालांतर में स्मिर्ति से धुँधली होती जा रही हे और हम भूल जाते हे एक ऐसे महान क्रांतिकारी सूत्रधार गोलोक वासी पण्डित जी गेंदालाल दीक्षित जी को ।
इसी भूमि पर चम्बल के बागियों को 'क्रांति का गुरुमन्त्र' देने बाले इस चाणक्य सदृस् आचार्य के शिष्य थे प.रामप्रसाद तोमर 'बिस्मिल',अस्फाख् उल्ला खान,महावीर सिंह राठौर,ठाकुर रोशन सिंह लाहिड़ी,बरकत उल्ला खान,सेठ गयादीन प्रसाद के साथ ख्यात बागी मान सिंह राठौर,ठाकुर पंचम सिंह चौहान,बृह्मांनन्द 'बृह्मचारि जेसे बागी भी थे ।

एक समय था जब चम्बल में स्वम के मरते परिवार डूबते आत्मसम्मान के लिए लोगो बीहड़ का रास्ता अपनाया किन्तु उस रस्ते में बदले की भावना ज्यादा थी और इसी भावना को दीक्षित जी नया पथ दिया क्रांति का और इसी क्रोधक्रान्ति ने सेकडो डाके डाले। ब्रिटिस और सिंधिया फौजे मारी गयी तो ले चलते आपको इसी अद्भुत स्वप्न में जो क्रांति से प्रकट हुआ और क्रांति के लीन हो गया ...! जिस समय देश के लोगों को अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध खड़ा करने की जद्दोज़हद चल रही थी, उस समय इन्होंने डकैतों को इकट्ठा कर अंग्रेज़ी सरकार के खिलाफ़ ‘शिवाजी समिति’ का गठन किया। उनके इस संगठन ने अंग्रेज़ी सरकार की नींद हराम कर दी थी।
पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर 1888 को उत्तर-प्रदेश के आगरा जिले के मई गाँव में हुआ। मात्र 3 वर्ष की आयु में ही अपनी माँ को खो देने वाले गेंदालाल का बचपन बिना किसी वात्सल्य और सुख-सुविधा के बीता। शायद इसी वजह से वे शरीर और मन दोनों से ही मज़बूत बन गए थे।

घर की आर्थिक परिस्थिति ठीक न होते हुए भी गेंदालाल ने किसी तरह दसवीं तक की पढ़ाई पूरी की। आगे पढ़ने की इच्छा तो थी, परन्तु घर के खर्चों में हाथ बंटाने के लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश में औरैया जिले की डीएवी स्कूल में शिक्षक की नौकरी स्वीकार कर ली। इसी दौरान 1905 में हुए बंग-भंग के बाद चले स्वदेशी आन्दोलन का उन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। क्रांति के इस दौर में गेंदालाल को एक ऐसी योजना सूझी, जो शायद ही किसीको सूझती! उस वक़्त डैकेतों का बड़ा प्रहार था। ये डकैत बहादुर तो बहुत थे, पर केवल अपने स्वार्थ के लिए लोगों को लूटते थे। ऐसे में गेंदालाल ने ऐसा उपाय सोचा, जिससे इन डकैतों की बहादुरी और अनुभव का फ़ायदा स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए उठाया जा सकता था।
उन्होंने गुप्त रूप से सभी डकैतों को इकट्ठा कर अपनी ‘शिवाजी समिति’ बनाई और शिवाजी की ही भांति उत्तर-प्रदेश में ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ़ गतिविधियाँ शुरू कर दी। पंडित गेंदालाल भले ही अपनी गतिविधियाँ चोरी-छिपे करते थे पर क्रांतिकारी नेताओं में वे धीरे-धीरे मशहूर होने लगे। उनकी बहादुरी के किस्से जब महान क्रांतिकारी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल तक पहुंचे, तो उन्होंने गेंदालाल से अपने अभियान के लिए मदद मांगी।

गेंदालाल ने भी इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकृति दे दी। और जल्द ही गेंदालाल की शिवाजी समिति के साथ बिस्मिल ने ‘मातृवेदी’ की स्थापना की। इस संस्था के काम करने का मुख्य केंद्र मैनपुरी था। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया था कि इस केंद्र की किसीको कानो-कान ख़बर न हो पर दल के ही एक सदस्य दलपतसिंह अंग्रेज़ों का मुखबीर बन गया। इस गद्दार ने अंग्रेज़ों को यहाँ का पता दे दिया। ख़बर लगते ही अंग्रेज़ अधिकारियों ने इस अड्डे पर छापा मारकर, गेंदालाल और उनके कुछ साथियों को गिरफ़्तार कर लिया।

गेंदालाल को अपने बाकी साथियों से अलग कर, आगरा के किले ले जाकर कड़ी निगरानी में रखा गया। अंग्रेज़ उनसे अन्य लोगों का पता उगलवाने का भरसक प्रयास कर रहे थे।
उधर बिस्मिल ने अपने इस क्रांतिकारी साथी को मुक्त कराने की योजना बनानी शुरू कर दी थी। एक दिन गुप्त रूप से किले में आकर बिस्मिल ने गेंदालाल से मुलाकात की।

इन दोनों ने संस्कृत में बात की ताकि सिपाहियों को कोई शक न हो और गेंदालाल की जेल से फ़रार होने की योजना बनाई। योजना के अनुसार गेंदालाल ने पुलिस को सब कुछ बताने के लिए हामी भर दी। बयान देने के लिए उन्हें आगरा से मैनपुरी भेज दिया गया, जहाँ उनके बाकी साथियों को रखा गया था।
यहाँ पहुँचते ही गेंदालाल ने एकदम से पैंतरा बदला और पुलिस से नाटक करते हुए कहा कि ‘इन लड़कों को क्या पता, मैं इस कांड का सारा भेद जानता हूँ।’ पुलिस उनके झाँसे में आ गयी और उन्हें क्रांतिकारियों के साथ उसी बैरक में बंद कर दिया गया।बाकायदा चार्जशीट तैयार की गयी और मैनपुरी के स्पेशल मैजिस्ट्रेट बी॰एस॰क्रिस की अदालत में गेंदालाल दीक्षित सहित सभी नवयुवकों पर अंग्रेज़ो के विरुद्ध साजिश रचने का मुकदमा दायर किया गया। इस मुकदमे को भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में मैनपुरी षड्यन्त्र के नाम से जाना जाता है।
मुकदमा अभी चल ही रह था कि गेंदालाल ने एक और चाल चली। उन्होंने जेलर को यकीन दिला दिया कि क्रांतिकारियों के ख़िलाफ़ गवाही देने वाला सरकारी गवाह उनका अच्छा दोस्त है और अगर उन्हें इस सरकारी गवाह के साथ एक ही बैरक में रख दिया जाये, तो कुछ और षड्यन्त्रकारी गिरफ़्त में आ सकते हैं।
जेलर ने गेंदालाल की बात का विश्वास करके उन्हें सी॰आई॰डी॰ की देखरेख में सरकारी गवाह के साथ हवालात में भेज दिया। थानेदार ने एहतियात के तौर पर गेंदालाल का एक हाथ और सरकारी गवाह का एक हाथ आपस में एक ही हथकड़ी में कस दिया ताकि रात में वे हवालात से भाग न सकें। लेकिन गेंदालाल को कहाँ कोई जेल और हथकड़ी रोकने वाली थी। वे खुद तो जेल से फ़रार हुए ही साथ में उनके सरकारी गवाह को भी भगा ले गये। पूरी ब्रिटिश सरकार हका-बक्का रह गयी कि कैसे एक मामूली-सा स्कूल का मास्टर उनकी पूरी पुलिस फ़ोर्स को चकमा दे गया। एक निजी शोध अनुसार सबलगढ़ से ग्वालियर आते ब्रिटिस-सिंधिया खजाना लूट के 'प्रद्युमपुर जमीदार'  प्रद्युम्न सिंह और उनके द्वारा की गयी लूट और जेल तोड़ने से भी शोधकर्ता इन्हें जोड़ते हे किन्तु 1857 और 1911 में काफी अंतराल हे तो सबलगढ़ खजाना लूट में दीक्षित जी की सहभागिता शिद्ध नहीं होती हे ।

ब्रिटिश पुलिस ने हर एक हथकंडा आजमाया लेकिन कभी भी गेंदालाल को पकड़ न पाई। इस घटना के बाद, गेंदालाल दिल्ली पहुंचे और वहां अज्ञात नाम से आजीवन क्रांतिकारियों की मदद करते रहे।देश की सेवा में बिना रुके और बिना थके काम करने वाले इस क्रांतिकारी को आख़िर क्षय रोग ने हरा दिया और 21 दिसंबर 1920 को उन्होंने आख़िरी सांस ली।

भारत की आज़ादी की नींव रखने वाले ऐसे न जाने कितने ही क्रांतिकारी हैं, जिनका नाम कभी इतिहास हम तक न पहुंचा पाया। परन्तु देश सदा इन अनसुने, अनदेखे, गुमनाम क्रांतिकारियों का ऋणी रहेगा । नबम्बर में प्रकट हुए दिसम्बर में महाप्रयाण हुए इस महान क्रांति गुरु,एकात्म चिंतक,श्रीमद्भगवद्गीता के मर्मज्ञ और महान नीतिज्ञ को मेरा कोटिस नमन ...🙏
शब्द श्रधांजलि 💐
वन्दे मातरम् 🇮🇳
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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से' 
चम्बल मुरैना मप्र .


मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

भारत में कश्मीर की नींव

भारत की कश्मीर नींव
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सन 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हो रहा था तब मीरपुर भी तत्कालीन कश्मीर रियासत का एक हिस्सा था। इस दौरान पाकिस्तान वाले पंजाब से हजारों की संख्या में हिंदु मीरपुर पहुंचे रहे थे। वहीं मीरपुर के मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे। प्रतिवर्ष 25 नवंबर का दिन बंटवारे के दर्द को हरा कर देता है।जम्मू-कश्मीर सरकार के रिटायर्ड डिप्टी सेक्रेटरी सीपी गुप्ता बताते हैं कि वर्ष 1947 को हुई घटना में मीरपुर निवासियों का केवल इतना ही दोष था कि उन्होंने एक दृढ़ संकल्प कर रखा था कि जब तक उनके पास बंदूक की आखिरी गोली है, तब तक वे पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को मीरपुर शहर के अंदर प्रवेश नहीं करने देंगे, इसी प्रतीज्ञा के वशीभूत मीरपुर निवासियों ने अंतिम सांस तक आक्रमणकारियों का डट कर मुकाबला किया।दुर्भाग्यवश युद्ध खत्म होते ही आक्रमणकारियों ने 25 नवंबर 1947 के हत्याकांड में 18 हजार से भी ज्यादा बूढ़े, युवक-युवतियां तथा अल्प आयु वाले बच्चों को भी क्रूरता से मृत्यु के घाट उतार कर हमेशा की नींद सुला दिया।24 नवंबर 1947 के दिन मीरपुर के 25 हजार लोगों ने उनके पास मौजूद बारुद को खत्म होते देख खुद को असहाय महसूस किया। यह स्थिति इसलिए हुई क्योंकि उस समय की भारत सरकार और रियासत जम्मू व कश्मीर सरकार के बीच मतभेद के कारण फौजों को मीरपुर से दूर रखा।

मीरपुर शहर के अंदर शुरू में रियास्ती सरकार के केवल 800 सिपाही थे, जिन में लगभग आधे अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ पाकिस्तानी आक्रमणकारियों के साथ जा मिले। बाकी लगभग 400 सिपाहियों ने अपने अल्प संख्या में अस्त्रों के साथ चारों ओर से घिरे हुए मीरपुर नगर की चौकसी की।ऐसे मौके पर मीरपुर के लगभग एक हजार युवकों ने रक्षा चौकियों पर सिपाहियों के कंधे से कंधा मिलाकर पूरा सहयोग दिया। 6,10 तथा 11 नवंबर 1947 को शत्रुओं द्वारा किए गए हमलों का डटकर मुकाबला किया और शत्रुओं को बहुत हानि पहुंचाई, किंतु अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित बढ़ती हुई पाकिस्तानी सेना के सामने स्थानीय मदद के अभाव में उनका स्वप्न अधूरा रह गया।17 नवंबर 1947 के दिन मीरपुर के पुलिस कैंप में रखे हुए वायरलेस सेट में अचानक खराबी हो जाने के कारण जम्मू-कश्मीर रियासत तथा भारत सरकार के साथ रेडियो संपर्क पूरी तरह से टूट गया। मौके का फायदा उठाते हुए पाकिस्तानी सेना ने शहर की पूर्वी दिशा की ओर से आक्रमण किया।सात पठान आधी रात को शहर के भीतर प्रवेश करने में सफल हो गए। मीरपुर के आत्मघाती टोलों ने मिलकर पांच पठानों को मार गिराया और दो पठान भागने में सफल हो गए और बाकी शत्रु सेना को खदेड़ने में नगरवासी सफल हो गए।
इस भयानक स्थिति में जिला मीरपुर के वजीर बजारत राव रतन सिंह ने मीरपुर से जम्मू की ओर भागने का फैसला किया। मीरपुर के शासनिक हुक्मरान मीरपुर निवासियों को मौत के मुंह में छोड़कर स्वयं सुबह चार बजे कुछ पुलिस अफसरों के साथ घोड़ों पर बैठकर जम्मू की ओर भाग निकले। चौकियों पर तैनात बचे-खुचे सिपाहियों ने भी पुलिस अधिकारियों के भागने की सूचना पाकर चौकियों को छोड़ दिया।पुलिस के भागने का समाचार मिलते ही शत्रु ने एक भूखे भेड़िए की तरह सुबह आठ बजे शहर के अंदर प्रवेश कर के धावा बोल दिया और घरों को आग लगा दी। उन्होंने नागरिकों को शहर के एक कोने में धकेल दिया।  लोग भगने लगे तो शत्रु ने पैदल चलते हुए लोगों पर अंधा- धुंध गोलियां बरसाई, जिसके कारण लगभग 18 हजार से भी ज्यादा लोग मर गए। कुछ युवतियों ने तो शहर के गहरे कुओं में छलांगे लगाई और कुछ ने अपने पुरुष वर्गों को विवश किया कि वे अपने ही हाथों से उन को मार दें ताकि वे आक्रमणकारियों के हाथों में न पड़ें।

कुछ लोगों को तो जिंदा ही आग में जला दिया गया। लगभग 3500 नागरिक जो कि गंभीर रुप से घायल हो गए थे, उन को बंदी बना लिया गया। शेष लगभग 3500 लोग जीर्ण-हीन अवस्था में ठोकरें खाते हुए सात दिन भूखे और प्यासे पैदल चलते जम्मू पहुंचे, जिन की दर्दनाक कहानी को शब्दों में आज भी वर्णन करना असंभव है। मीरपुर शहर जो 650 सालों तक एखता और शांति का प्रतीक रहा, 25 नवंबर 1947 को कुछ ही घंटों में लाशों का मरघट बन कर रह गया।
उन्हीं सन 1947 के मीरपुर के शहीदों की स्मृति में गवर्नमेंट मेडिकल कालेज के सामने महेशपुरा चौक जम्मू में एक शहीदी स्मारक बनाया गया है। इस स्मारक का उद्घाटन कुमारी सुषमा चौधरी आईएएस एडिशनल चीफ सेक्रेटरी ने 25 नवंबर 1998 को किया था। मीरपुर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उस सड़क का नाम मीरपुर रोड रखा। जंहा प्रतिवर्ष उनके स्मरण स्वरूप प्रशिद्ध मेले का आयोजन किया जाता हे ।
प्रतिवर्ष सभी मीरपुरी, बक्शीनगर, गुड़ा रिहाड़ी, सरवाल, जम्मू शहर, गांधीनगर, शास्त्री नगर, त्रिकुटा नगर और जम्मू के आसपास की अन्य कालोनियों से एकत्रित होकर मीरपुर के उन शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखा....!!
...वन्देमातरम🇮🇳
सन्दर्भ:- 'कश्मीर के तीर१९४७' पुस्तक
दैनिक जागरण समाचारपत्र,बिकिपीड़िया के तुलनात्मक अध्यन से
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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र.

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...