शनिवार, 22 जून 2019

गजल


लगता नही है दिल मेरा उजड़े दयार मे,
किसकी बनी है आलमे नापायदार मे।

उम्रे दराज मांग कर लाए थे चार दिन,
दो आरजू मे कट गए दो इंतजार मे।

बुलबुल को पासबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत मे कैद लिक्खी थी फसले बहार मे।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहां है दिले दागदार मे।

एक शाखे गुल पै बैठ के बुलबुल है शादमा,
कांटे बिछा दिए हैं दिले लालाजार मे।

दिन जिंदगी के खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कंजे मजार मे।

कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए,
दो गज जमीन भी न मिली कू ए यार मे।

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बहादुर शाह जफर

डायरी भाग 1

             ★यादो के कद★
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कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता हे की आपकी यादे आपसे कही आगे चलती हे।आप जिन्हें बारम्बार भूलने का प्रयास करते हे,वह आपके समक्ष आपसे अपना कद बड़ा करते हुए दिख जाती हे। और आप गहरे विसाद की स्तिथि से दो-चार करते हुए स्वम को पाते हे,किन्तु आपकी अविजित पराजय का मूल होती हे वह गलतिया जिन्हें आप बार-बार दोहराते जाते हे ।

मेने भी कुछ गलतिया की,उनको डायरी में अंकित भी किया किन्तु अंकन उपरांत भी चुके होती रही! डेस्टिनी हे की आपका पीछा नहीं छोडती, वह आपके साथ साये की तरह साथ चलती हे ।
एक गलती हुई थी साइंस कॉलेज के दिनों में जिसका भरपाई सम्भवतः कभी नहीं होगी,वहा करियर की ऊँची उड़ान 'धर्म निर्वहन' के चलते स्वाहा हो गयी ।

उसका मेरा सम्बन्ध ही क्या था,वह तो बणिक थी न...! सम्भवतः मेरी  सम्बोधन में अपनत्व बनाने की भावनाये और उसके प्रति निर्वहन की हटता ही थी की एक क्लासमेट  के साथ हुए अभद्र व्यवहार पर वर्षो से सुप्त हुआ 'ठाकुर' जाग गया और ...और  डिग्री से अंतिम कुछ पलो पूर्व सिर में ६टाँके थे........जगह-जगह से कपड़े फ़टे थे किन्तु किये पर तनिक भी मलाल न था ...!सहयोगी मित्रो पर गर्व था....।
हम अपने नजदीकी जनपदों से कुल 18 थे  6 लडकिया .और 12 लड़के, एक परिवार सा ही परिवार वहां भी था।..परस्पर कभी वह भाव न था जो उम्र के उस पड़ाव में प्रायः होता हे।हम एक विद्यालय परिवार के 18 भाई-बहिनो की तरह जो टिपिंन, केन्टीन,ग्रुप स्टडी से लेकर लेव के उस सुर्ख प्रकाश में भी साथ ही रहते थे ।
एक अजीव सा रिस्ता था परस्पर लड़ने से लेकर पढ़ने तक का ,और उन्हें अपना उत्तरदायित्व समझ छात्रावास तक छोड़ने का !
बहुत ही भोली सी थी वह "बड़की दी" जो आयु में मात्र 3 माह बड़ी थी किन्तु 17 लोगो की दीदी नहीं दादी की तरह व्यवहार करती थी।सबको प्रिप्रेसन से लेकर प्रजेंटेसन और खाने से लेकर जागने तक के लिए फटकार दिया करती थी ...!उस के द्वारा  सिर में हल्की चपत लगाने का स्नेह उस समय कितना स्नेहिल हुआ करता था। वह किसी के हल्के बीमार होने पर एक प्रशिक्षित नर्स बन जाती थी फिर चाहे सुभह का कॉलेज मिस हो जाए अथवा कालांस ...उन्हें चिंता थी तो अपने अनुज-अनुजाओ की...!
करुणा नाम था उन दीदी का और यथा नाम तथो गुणः की सूक्ति जैसा स्वभाव ...!

उस दिन वह हम सभी से कुछ सो मिटर की दुरी पर रह गयी....कॉलेज गेट के बाहर स्टेशनरी की दूकान से कुछ नोट्स के लिए रजिस्टर्स जो लेने थे ....किन्तु उस उनके कन्धों से पहली बार मर्यादा का पट नहीं था! वह वस किसी निर्जीव शरीर की भाँती थके-हारे,निष्प्राण कदमो से आती दिखी....हम सब हत प्रभ थे कि सदा समय से आगे चलने बाली करुणा जीजी आज इतनी मन्थर कैसे हो गयी ?

शेलजा के झिझोड़ने पर जेसे करुणा जीजी का कृदन और भावुकता का ठाठे मारता सागर फुट पड़ा....वह जिसे देखती वस रोती और बहुत जोर से रोटी,जेसे कोई बड़ा रहष्य उनकी आत्मा से निकलना चाहता हो किन्तु उसे अंदर ही अंदर पी जाने का असफल प्रयास कर रही हो ...और एक साथ अठारह भाई-बहिनो का दामन अश्रुओं से तर हो गया....उस दिन की कॉलेज का किसी को ध्यान ही कब था,जब कॉलेज का समय बताने बाली दीदी ही कस्ट में थी....!शैलजा,कविता,रोहिणी,अमन, हरिओम सब बार-बार पूछ रहे थे किन्तु मेरी निगाये दीदी का दुपट्टा खोज रही थी। पूर्वाभाष हो रहा था की,वह दुपट्टा सम्भवत किसी के मलिन हाथो से  मैला होकर बंधू के धर्म निर्वहन को पुकार रहा था। उस दुपट्टे का ऋण था जो कितनी ही बार गर्म माथे की पट्टी बन जाया करता था..! उस दुपट्टे का ऋण था जो कितनी बार मेरे माथे का दर्द छीन लिया करता था। उस दुपट्टे का ऋण था जो बिन बहन हुए भी निस्वार्थ अनुज को दुलारता था ...!
आज किसी ने उसी दामन को मलिन करने का प्रयास किया था और उसी भ्रात धर्म निर्वहन में बो हो गया जिसके पूर्वाभाष से करुणा दीदी सिर्फ कृंदन के हलाहल को पि रही थी ।
अमन बो लड़का था जो नजदीकी जनपद का ना होकर बेहद नजदीकी था,उसके शब्द "पवन भिया में जनता हु उस कमीन को जिसने अपनी दीदी को रुलाया हे,भइओ आज आप 12 नहीं 13 भाई हे,चलो सालो के हाथ ही काट देते हे !"
शब्द नहीं बो तलाश थी जिसके लिए हम सब पिछले 2 घण्टो में 2 हजार बार मरे थे और जेसे दीदी की 'सप्तमसुधि' जागृत हुई ।
"छुटकू तू कुछ मत करना,भला तेरे साथ तेरे 18 भाई बहिनो का उत्तरदायित्व भी हे। उन्हें कोन सम्भाल पायेगा!मत जा मेरे वीर !"
जब युद्ध अथवा लड़ाई आवश्यकता बन जाए तब दीदी तब मुँह फेरना,अपनी कुल मर्यादा के बिपरीत हे।यंहा तो धर्म की बात हे,में सुप्त सैनिक नहीं हूँ दीदी.....जितने आपके आसु इस केम्पस में गिरे हे मुझे उतना ही उसका लहू गिराना हे ताकि फिर से किसी करुणा दी की तरफ कोई 'कमीन' नजर भर न देखे ।
फिर बो हुआ जो अपनी मिटटी में रोज होता हे,दोनों तरफ से लात,घूंसे,पत्थर,ब्रेंच के पाये और उसकी निम्न जात को दर्शाते मेरे बीहड़िया शब्दों को किसी ने नोकिया 6600 पर रिकार्ड किया ।
ये कोई फ़िल्मी सीन नहीं जो में बच जाता सर में 6 टाँके,पीठ पे अनगिनत नील निशाँ  मुझे मेरे धर्म निर्वहन में उत्तीर्नांक दे रहे थे जबकि मलिंमुखी धूर्त के पैर को तोड़ चुका था....उसकी फ़टी हुई हथेली और कन्धे से टपकता लहू मुझे असीम सुख दे रहा था। में नहीं समझता उस दिन रक्त को देख दर्द क्यों न महसूस हो रहा था,महसूस तो मात्र उसकी दर्द भरी चीखो में एक लक्ष्यवेदन को कर रहा था ।।

केम्पस से कुछ ही फलांग पर रहने बाले पुलिस जवानो ने बूथ पे बिठा क्रास केस पंजीबद्ध किया,जिसके कुछ समय बाद ही स्वम प्रिंसिपल महोदया ने ...मुझे पुत्रवत स्नेह करती थी ..आवश्यक जमानती पत्र दाखिल कराये ..!

किन्तु नियति को कुछ और मंजूर था .....उसे तो मेरी असफलता की दूसरी कहानी लिखनी थी ....एक कॉलेज टॉपर और उसके सहयोगियों की धर्मनिर्वहन संगत लड़ाई पर 'एस्ट्रोसिटी एक्ट' के मामला पंजीबद्ध हुआ। शायद जीवन में पहली बार भारतीय दण्ड प्रक्रिया में निहित लचक को इतनी नजदीकी से देखा था और सुदूर बीहड़ो में बसी चम्बल मिटटी की सेकड़ो दास्ताने चलचित्र हो चुकी थी ।

पहले कॉलेज एक्जाम्स छूटे फिर छूटा सफल होने का स्वर्णिम सपना जिसमे माँ,पिता,भाई और सम्बन्धियो के सेकड़ो सपने निहित थे।कही न कहि मेरे एक के कारण 18 परिवारो का सपना एक ही दिन में कांच किरचों की तरह बिखर गया।मेरे कॉलेज छूटने के साथ उन सभी कॉलेज छोडा जो कही न कहि उनकी भावनाओ के वस हुआ ।
इस जीवन का वह सबसे बड़ा अपराधबोध था जिसके कारण सेकड़ो लोगो की आश पर मुझ दम्भी ने एक ही क्षण में तुषारापात कर दिया ।
करुणा दीदी अनुजा बहिने जब भी मिलती हे न जाने क्यों मुझे गर्वित नजरो से देखती हे।जबकि में स्वम को उन सबका अपराधी आज भी मानता हूँ ...!
18 बहिन-भाइयो का साझा परिवार कॉलेज पहुचा तो अलग-अलग था किन्तु घर साथ-साथ आया
में आज तक उन 18 परिवारो से नहीं मिला क्योंकि मुझे स्वम से घृणा होने जा रही हे जबकि उन 18 माँ ओ की नजर में 'पवनप्रताप' आज भी एक हीरो हे और उनका पूत हे ।

परछाइयों के कद बढ़ते गए और पवनप्रताप,जितेन्द्र हो गए ......
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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'

गुरुवार, 6 जून 2019

हल्दी घाटी के महावलिदानी

    ===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
                   भाग-56
        ग्वालियर के राजा राम शाह तोमर
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चम्बल की माटी का रंग ही कुछ ऐसा हे की वलिदानो को अगर कलमबद्ध किया जाए तो सम्भवतः मसि और कागद की आपूर्ति की जा सके।जब जब पूर्व से पुरवाई व्यार इस क्षेत्र में वहति हे तो बढ़ता हे चम्बल का स्तर और साथ में बढ़ता क्षेत्रवासियों की रगो में रक्तसंचार....बढ़ते रक्तसंचार की परिणीति जन्म दायक बन जाती हे कर्तव्य और धर्म के प्रति कर्तव्यता की अनुभूति के साथ-साथ प्रवल हो जाता हे कुछ करगुजरने का माद्दा ....और रच जाते हे सुभटता के इतिहास जो समय समय मातृभूमि के प्रति आहूत होने के रूप में पुनः दोहराये जाते रहे हे ....!

आज यह गाथा हे उस तीन पीढ़ी के आत्मवलिदान की जो ग्रीष्म होते हुए जब भगवान भाष्कर के  प्रचण्ड पर होते 'रक्त तलाई' को 'मुगल रक्त' से लवालव करके मानो श्रवण से पूर्ण श्रवण में परिवर्तित कर चुके थे और आज भी 'मेवाड़धरा' में चिरनिद्रा में लीन हे .....।
1526 ई. पानीपत के युद्ध में राजा विक्रमादित्य के वीगतिक हो जाने के समय रामशाह तंवर मात्र 10 वर्ष की आयु के थे| पानीपत युद्ध के बाद पूरा परिवार खानाबदोश  हो गया और इधर उधर भटकता रहा| युवा रामशाह ने अपना पेतृक़  राज्य पाने की दशको कोशिशें की किन्तु नियति ने कुछ अलग ही नियत कर रखा था और स्वराज्य प्राप्य करने के सभी प्रयास असफल होते गए।अंततः कुछ परिवार चम्बल के सुदूर विहडो में  रच बस गए तो कुछ इधर उधर छोटे-छोटे गढ़ो में स्थिर हो गए ....!

वह समय था  1558 ई. का जब नियति ने नियत को बदलना अस्वीकार कर दिया और अपने राज्य की पुनर्प्राप्ति में किया गयाअंतिम  ग्वालियर पाने का आखिरी प्रयास असफल होने के बाद रामशाह चम्बल के बीहड़ छोड़ वीरों के स्वर्ग व शरणस्थली चितौड़ की ओर चल पड़े.....!
मेवाड़ की वीरप्रसूता भूमि जो उस वक्त वीरों की शरणस्थली ही नहीं तीर्थस्थली भी थी।इस भूमि  पर कदम रखते ही रामशाह तोमर का मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने अतिथि परम्परा के अनुरूप  स्वागत सत्कार किया। यही नहीं ....!सम्बन्धो और आत्मीयता देने के लिए महाराणा उदयसिंह ने अपनी एक राजकुमारी का विवाह रामशाह तोमर के पुत्र शालिवाहन तोमर के साथ कर आपसी सम्बन्धों को और प्रगाढ़ता प्रदान की| इन्हीं सम्बन्धों के चलते रामशाह तंवर मेवाड़ में रहे और वहां मिले सम्मान के बदले मेवाड़ के लिए हरदम अपना सब कुछ बलिदान देने को तत्पर रहते थे ।

१८जून 1576 को मेवाड़ और दिल्ली के मुगल आक्रांता अकबर के मध्य घमासान युद्ध चल रहा था ....क्योंकि महाराणा ही ऐसे एक शाशक थे जिन्होंने अकेले दम पर मुगलो की युद्ध चुनोती को स्वीकार कर लिया मातृभूमि की माटी का जीते जी तिल मात्र भाग न देने की सपथ उठा राखी थी।इन्ही के सैना का प्रमुख मारक भाग थे चम्बल सपूत महाराज रामसाह तोमर और उनके पुत्र  जिन्होंने 'हरावल दस्ते' (अग्रिम पंक्ति योद्धा) सदा से उत्तरदायित्व सम्भाला हुआ था .....छापामार और गोरिल्ला युद्ध कलाये इनको विरासत में मिली थी लगभग ३५० रणबांकुरों की लपलपाति तलवारे  निरन्तर मुगलो के रक्त को पान कर रही थी .....हल्दीघाटी उस समय दुसरा 'कुरुक्षेत्र' प्रतीत हो रही थी।और रक्ततलाई रक्त से उफ़न रही थी .....लोथो के ऊपर लोथ जम रहे थे कटे हुये नरमुंड रक्त के ऊपर तैर रहे थे .....!
इस युद्ध में एक वृद्ध वीर अपने तीन पुत्रों व अपने निकट वंशी बन्धु बान्धवो के साथ हरावल (अग्रिम पंक्ति) में दुश्मन के छक्के छुड़ाता नजर आ रहा थे । युद्ध में जिस तल्लीन भाव से यह योद्धा तलवार चलाते हुए दुश्मन के सिपाहियों के सिर कलम करता आगे बढ़ रहा था, उस समय उस बड़ी उम्र में भी उसकी वीरता, शौर्य और चेहरे पर उभरे भाव देखकर लग रहा था कि यह वृद्ध योद्धा शायद आज मेवाड़ का कोई कर्ज चुकाने को इस आराम करने वाली उम्र में भी भयंकर युद्ध कर रहा है ।
इस योद्धा को अपूर्व रण कौशल का परिचय देते हुए मुगल सेना के छक्के छुड़ाते देख अकबर के दरबारी लेखक व योद्धा बदायूंनी ने दांतों तले अंगुली दबा ली| बदायूंनी ने देखा वह योद्धा दाहिनी तरफ हाथियों की लड़ाई को बायें छोड़ते हुए मुग़ल सेना के मुख्य भाग में पहुँच गया और वहां मारकाट मचा दी| अल बदायूंनी लिखता है- “ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा मान के पोते रामशाह ने हमेशा राणा की हरावल (अग्रिम पंक्ति) में रहते ठेको, ऐसी वीरता दिखलाई जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है| उसके तेज हमले के कारण हरावल में वाम पार्श्व में मानसिंह के राजपूतों को भागकर दाहिने पार्श्व के सैयदों की शरण लेनी पड़ी जिससे आसफखां को भी भागना पड़ा| यदि इस समय सैयद लोग टिके नहीं रहते तो हरावल के आगे आये हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार हो जाती |" 

रक्त तलाई,मेवाड़ और राजपूताने की माटी में अन्तिम स्वास तक लड़ते हुए योद्धा और युद्ध के सर्वोच्य पद को प्राप्त करने बाली तीन पीढ़ियों के आत्मोत्सर्ग को चम्बल की कोटि कोटि नमन करती हे और उनकी समृति में आगामी दिनाक १८/०६/२०१९ को कुलदेवी योगेश्वरी माँ के भवन में आप सभी को एक सूत्र में बन्धने की लिए पुनः आह्वान करती हे ।
आइये पूर्वजो के वलिदान को स्मरण करे व उन्हें स्मरण करे ...🙏
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जय माँ योगेस्वरी भवानी
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‌जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...