रविवार, 14 अप्रैल 2019

पूंजी स्नेह की

#पूंजी_स्नेह_की
हमारे गाँवों रिश्ते बड़े आत्मीय होते हे।यहाँ सिर्फ  माँ के लिये बेटा ही नहीं,भावियो के लिए भी देवरो की उम्र कभी नहीं बढ़ती हे ।

अभी कल ही तो में रोज की तरह पेड़ की छाँव में बैठा-बैठा सेलफोन में कुछ मनमाफिक पढ़ने का प्रयास कर रहा था और वही दशको से चिरपरिचित मधुर स्वरों ने आवाज दी ।
"ऐ लाला जरा इस सर्वत कलश को मातारानी के भवन तक लै चलो,आज तुम्हरे हाथ से नारियल भेंट कराएंगे!"

आदेश हुआ हो और में अवहेलना ये असम्भव हे!बस आगे-आगे चल दिया शर्बत लेकर...!
प्राय ऐसा होता हे की जब कोई वर्षो पुरानी स्मृति सहसा पुनः नयनो के समक्ष चलचित्रित होती हे तो मष्तिष्क आपकि वर्षो पुरानी स्मरणता को पुनः सजीव करता हे ।

"शर्वत काँधे पे और स्वाद जिव्हा पर" जेसे कहावत नहीं उस समय समयबिम्ब प्रतीत हो रही थी।कितनी ही बार इसी तरह बचपन में दादी माँ, माँ,बड़ी माँ,चाची जी,भावियो के पाँच रूपये शुल्क की सर्त पर शर्वत पीया करते थे।आज तो उम्र में 'अंगूर' हो गए जो कल तक हर एक नवरात्र में मात्र 'लँगूर' हुआ  करते ।

सम्भवतः इस जीवन के वह सबसे सुखद पल थे जब पांच रूपये की 'पोषकशुल्क' के लिए माँओ के माध्यम से माँ का वह स्नेह तरल भी हमे प्रशन्न और उत्सुक देखने के लिए बड़े दुलार से मिलता था ।
आज तो 'मीलो' भागते हे जिंदगी ताकि जिंदगी का 'मील' अनवरत चलता रहे और 500 देकर टेबलों पे आया  'कडुतरल' की मदहोसी में डूबकर मृदुता प्राप्त करने की उसी तरह अपेक्षा करते हे।जिस तरह कभी बचपन में 'अनारणी फल' को खरबूज की तरह मीठा होना की मृगमरीचका  हो !

विचारो और स्मृतियों के मध्य दोलनगति करता हुआ में कब माँ के दरवार पहुंचा,अहसास ही न होता अगर एक दूसरी भावी अपनी सदाबहार टोन.........
"ओ छिन..रु.. रसिया!मन्दिर तो आ गओ अब लुगाई की धुन में मस्त हो जो कछु न दिख रहो,कलस उतारो और पूजा करबाये में हाथ बटाओ!"

मेरी तन्द्रा खुली तो झेंपना स्वभाविक था क्योंकि इस तरह इन छोटी भावी को मुझे छेड़कर, तानामारने में बड़ा आनन्द आता हे ।

पूजा मध्य उन्ही छोटी भावी के द्वारा  हल्दी और मोली से कलाई का मण्डन किया और मुंह मुंह व्यंगात्मक मुस्कान के साथ "एक ही पटक में नारियल न फूटने पर आगरा  से फुस्स हो आये लाला का व्यंग्वांण भी छोड़ा गया ।
पूजा उपरान्त जब कन्या और लँगूरो को शर्बत पिलाया जा था तब एक बड़ा गिलास मेरी तरफ उन बढ़ते हुए बड़े हांथो में देखा जिन्होंने कितनी बार मुझे अपने हाथो खिलाया था ।
उन बड़ी भावी के आंखो मेंने अपने लिए एक अबोध जैसा स्नेह देखा और कानो से सूना की.....

"लाला माँ के बेटा और भावी के लिए देवर कभी बड़े नहीं होते है वो सदा भोले-भाले,अबोध 'लँगूर' ही होते हे!तुम आज भी मुझे वही 15 वर्ष छोटे बच्चे ही लगते हो जो पांच रूपये की सर्त पर माता मन्दिर पर मेरे हाथो से सरबत पीया करते थे ......!

इस भागदोड और आभासी होते शहरी रिश्तों में जहां देवर-भावी का रिश्ता मात्र सब्जीमण्डी से सब्जी का थैला पकड़ने और अपने पति की कमाई पर ऐशखोर के रूप परिभाषित हो रहे हों वही गाँव की भावियो के लिए उनके देवर गवरु जवान होकर भी बातसलयि बच्चे होना किसी स्वर्गिक सुख से कम नहीं ..!!

माँ के ईन नवरात्रो में माँ की एक अलग ही मूर्ति से साक्षात होने के लिये हे महादेव हम आपके आभारी हे ।
निश्चित ही प्रेम के रिश्ते भी जीवन की अशेष पूंजी हे,संजोते रहिये .....!
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जितेंद्र सिंह तोमर '५२से'

सोमवार, 1 अप्रैल 2019

चम्बल एक सिंह अवलोकन,भाग-४४

  ===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
                      भाग-४४
               ●अपने- अपने भाव ●
कहते हे की मिटटी,जल और उस क्षेत्र में उपजे अन्न का समान प्राणियो पर समान प्रभाव पड़ता हे किन्तु जब मष्तिष्क में चम्बल की उर्वरक खाद की जगह जातीयता की मवाद भरी हो तो दर्द,पीड़ा,खुन्नस,जलन,पूर्वाग्रह का नासूर फूटता हे उर्वरक खाद बालो के ऊपर ....!
कुछ ऐसा ही हुआ था जब मूर्खता में उच्च न्यायालय के आदेस को ठीक तरह समझे बिना आरक्षण कारियों ने 'भारत बन्द' का नाम लेकर भारत भर को 'सीरिया' के समतुल्य बना दिया था !

वह २अप्रैल उसी तरह खूबसूरत थी।व्यापारियो की दुकानों से उठते धुप की महक और मन्दिरो से आती घण्टी-घड़ियालों की मधुर ध्वनियां पृकृति को गुंजायमान कर रही थी।'वेरियल चोराहे' के उन ठेले बालो को किसी 'बन्द' से क्या लेना जिनके साँझ के चूल्हे दिन की 'उदर गुजारूं' से ही होते हे ।
'गन्ना सवील' के उस बुजुर्ग दम्पति को तो उसी सवील से अपने इकलौते पोत्र की शिक्षा शुल्क भी भरणी हे...!उस दिव्यांग जगताप को किसी की राजनीति और विरोध से क्या लेना जिसका जीवन का ताला ही तालो की कुचिया मिलाकर चल रहा हे।उस 'हम्माल' को किसी के आरक्षण से किसी की धारा से क्या मिलना जिसका जीवन तो ओरो के लिए अपनी कमर 'क्विंटलों' के बोझे से तोड़ने के लिए ही बनी थी ।
विद्यालयो में जाते नन्हे नोनिहाल गले में पेयजल और पीठ पर भविष्य का बोझ उठाये कोलाहल करते हुए निकले जा रहे की एकाएक .........!!
कुछ नीलवर्णो के उन्मादी शराव भभको के साथ झुंडों में 'जे बीम' उच्चारण करते हुए मुरैना को 'गदर का लाहोर' बना देते हे ।
गले में २५० ग्राम स्वर्ण लटकाये एक 'नील युवती' वृद्ध बुजुर्ग को भद्दी गालिया देती हुई सवील बाले बुजुर्ग का हॉकी से सर फाड़ देती हे और लकड़ी की गुल्लक सड़क पर 'टूटे अरमानो' कीतरह उदरस्थ आशा को चोराहे पर 'भारत' की तरह बिखेर देती ।

आषाढ़  से पूर्व चैत्र में होती व्यापारियो पर पत्थर और गालियो की उष्ण वर्षा,चेहरों से गिरता रक्त चम्बल की मिटटी को अचेत किया जा रहा हे।किन्तु उन्मादी,दवे-कुचले,सो कॉल्ड दलितों को कमाई लूटने में मजा जो आ रहा हे।पैदल भागती पुलिस स्वम का असितित्व बचाने को प्रयासरत दिख रही थी तो कमजोर बीमवादि युवक के हाथ किसी ऑटो सवार युवती की लज्जा राक्षसी अट्टहासो के साथ खिच रही थी ।
नोनिहालो से सवार रिकसो पर लाठी-डंडे,ईंट-पत्थर वारिस के बोसो की तरह अनवरत गिर रहे थे।शायद इन्ही अबोधो ने ही तो न इनकी धाराओ को मूत कर कमजोर किया था ..!

दवे-कुचले और कतिथ पिछड़े जीवो की इस सुनियोजित उपद्रवी 'बन्द' को क्या हम जातीय हमला नहीं कह सकते हे!इन्ही 'असहाय नीले मूर्खो' ने उस दिन ईंट,पत्थर,लाठी-डंडे छोड़िये आग्नेय अशत्रो से भी तीन युवको भून दिया था कारण बस इतना था की वह सवर्ण थे और उपद्रवियों अपने घर से दूर रहने की बोल रहे थे ।

उस दिन मेने प्रत्क्षय देखा नोनिहालो की 'वाटर बॉटल' और दूध की बॉटलस् सड़को पर पड़ी माँ के आँचल के लिए रो रही थी।सेकड़ो मंगलसूत्र और जंजीरो को तोड़ा गया।यहां तक की नीली युवती ने एक बुजुर्ग महिला को उसकी पहिचान से पुकारा था जो उसका 'आभूषण' भी थी।किन्तु शराब के भभके में धुत्त सेकड़ो युवतियां जेसे 'नारी' का नारीत्व बखान करके जेसे खुद को बुलन्द कर रही थी ।

जब तक जिला प्रशाशन और पुलिस अमला नियंत्रण करता हजारो हड्डिया चटक चुकी थी।दुधमुहे मुखो से दूध छीन चुका था ....!'गतिमान एक्सप्रेस' में भारी लूट हो चुकी थी.....रेलवे स्टेशन क्षत-विक्षत हो चुका था......महिला,बच्चे,पुरुष,बुजुर्ग 6 घण्टो तक बिन अन्न-जल ट्रेन में कैद हो चुके थे और कैद करने बाले वही नीले युवक युवतियां थे,जिन्हें जातीय बन्द को हिंसा और लूटकर प्रासंगिक किया था ।

जब उत्पात और लूट की अति हो गयी तो आखिर में   कुछ नवयुवको के समूहों ने इन 'नीलचारियो' खदेड़ा और 'मुरैना रेलवे स्टेशन पर मातृत्व से भरी माँओ ने नोनिहालो के लिए अपने आँचल का दूध और  पूरी ट्रेन के लिए सुस्वादु खाना बनाया ।
उस दिन गतिमान एक्सप्रेस का हर यात्री आँखों खारा जल लिए एक बात बोल रहा था की अपने-अपने भाव हे ।
"मुरैना में जीवन की आस छोड़ चुके थे जब इन उत्पातियों ने हमे लूटा था ।किन्तु इस निस्वार्थ और निःशुल्क सेवा को हम लूटकर जा रहे जीवन पर्यन्त न भूलेंगे ...."

एक यात्री नवयुवती कह रही थी .....
"भैया हमें जो लूटकर गए उनका भाव क्या था और जो हमे लूटा रहे हे उनका भाव क्या हे .....!"
"अपने-अपने भाव हे कोई लूटकर लूटता हे तो लूटाकर 'लूटता' हे!"

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जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...