बात खुशबुओं की चली और नाम तेरा याद आया,
बो क्या दिन थे जब तूने सुगन्धा बन महकाया !
कांपते लवो पे रिसते गमो पे जानेबाले क्या नमक लगाया,
मीठी चुभन हृदय नमन फिर तूने उन्ही बूंदों में भिगाया !
तूने जो झुकी पलको से कभी कभी मुझे फिर बुलाया,
डोर डोर डरी जीवन नैया कभी कभी तुफानो में सैलाव आया!
पल पल जीवन का हर पल बस तुम्हारा दर्शगीर हे,
क्यों चले गए अकेले पीछे छूटी तुम्हार अश्को में तशवीर हे !
अकेले चलने बाले कहता था की तन्हा घुटन सी होती हे,
यु तन्हा सफर करने की बात न हुई थी तू यादो होती हे!
अब तो बस किस्से हे और अल्फाजो में तुम्हे बुनना आता हे,
शायद तेरी विदाई का अन्तिम पल जिंदगी से चुनना न आता हे!
जब भी कलम से तुझे लिखने की बारी आती जाती हे,
सच कहता हूं तेरे प्रतिरूप में तेरी रूह तू याद आती है!
तू जिस राह से राहगीर बन मुझसे अंतरिम मिली थी,
आज तक उसी राह पर खड़ा हूँ तू नहीं छाया मिली थी!
मेरे बजूद ए अक्स में जब तलक तेरी सादगी घुली रहेगी,
मेरे अक्स में तू और हर अक्सनशीं में खुदाई बनी रहेगी!
बस आखरी पलो में आखिरी कलम मुकाम रह गया,
सिहाई कम कलम में कांपते होंठो पे तेरानाम रह गया!!!!!!
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जितेन्द्र सिंह तोमर'५२से'