मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

देशी कबित्त

कन्धा पे कलेऊ मुडाचे में दँराती, चलो लामणि करो रे साथी ।
झुनझुन बजत श्रवण झुनझुना,रण बजे छपक छप हथिराथी ।

लोक-लुहावनि समुहे लड़े दोनों ,रन बाजे तलवार तो खेत झुझ दरांती।
एक के बाजे उदर भरे तो दूजे रंग केशरिया दुश्मन प्रहार अघाती।

भीनी-भीनी चले पुरविया ज्यो मघासी,किलक- कलेऊ दे वज्रघाति
होय धुंधली फगुआ की घाम,ज्यो सिंह लड़े  'अभिमन्यु' सो साथी।

रंग डारे मझखेतन को केशरिया,बाँधी पञ्च औजार दुस्ट दलघाति,
जब झूझो रन खेत को लाल,मुंड गिरे धरणी लरे "तोमर" कुल ब्रजबासी।

         जितेन्द्र सिंह तोमर

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

===चम्बल एक सिंह अवलोकन ==भाग 16 अंतिम खण्ड गब्बर सिंह

        ===चम्बल एक सिंह अवलोकन===
                   भाग-१६(तृतीय खण्ड)
                        ---गब्बर सिंग----
गब्बर का शौंक जूनुन में बदल गया। अब वो इलाके के इलाके की नाक काटने पर तुल गया। 
यहां तक पुलिस के कई सिपाहियों की नाक भी गब्बर ने काट दी। एक सिपाही तो किसी गांव में वारंट की तामील कराने गया तो वो भी गब्बर सिंह के हत्थे चढ़ गया और गब्बर सिंह ने उसकी भी नाक काट ली। गब्बर सिंह ने एक गांव में एक साथ 11 लोगो की नाक काट ली। और अपनी पूजा अथवा वहशियत पूरी करने में जुट गया। 
गब्बर सिंह को मुखबिरों से सख्त चिढ़ थी। पुलिस से साथ हुई एक मुठभेड़ में उसे चंबल के एक गांव के लोगों पर शक हो गया कि उन्होंने उसके गैंग की मूवमेंट की खबर पुलिस को दी है बस इतना बहुत था गब्बर के लिए बेगुनाह लोगो पर कहर बरपाने के लिए। और एक दिन गब्बर दिन में ही उस गांव में जा पहुंचा। एक के बाद एक 21 लोगों को एक लाईन में खडा कर दिया गया। और डर में कांपते हुए लोग इससे पहले कि कुछ समझे 21 लोगों को गोलियों से भून दिया।गब्बर का आतंक बढ़ रहा था और प्रदेश की राजनीति भी गर्मा गई। 1957 में विपक्षी दलों ने गब्बर सिंह के शिकार दर्जनों लोगों को लेकर भोपाल विधानसभा के बाहर बड़ा प्रर्दशन किया। सरकार की नाक का सवाल बन गया गांव के बेगुनाह लोगो की नाक बचाना। मध्य प्रदेश सरकार ने पुलिस इंस्पेक्टर जनरल को भिंड में कैंप करने का आदेश दिया ताकि गब्बर के गैंग को खत्म किया जा सके। पुलिस अधिकारियों ने जिले के तमाम पुलिस अधिकारियों की मीटिंग्स बुलाकर इस काम के लिए किसी अधिकारी से स्वेच्छा से आगे आने को कहा। और फिर ये जिम्मेदारी दी गई युवा डिप्टी एसपी राजेन्द्र प्रसाद मोदी को ,आर पी मोदी कुछ दिन पहले ही चंबल की दस्यु सुंदरी पुतलीबाई का एनकाउंटर कर चर्चाओं में चुके थे। आर पी मोदी के लिए गब्बर का खात्मा करना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था। क्योंकि गब्बर सिंह का खौंफ इतना हो चुका था कि कोई आदमी गब्बर सिंह के बारे में खबर देना तो दूर की बात है नाम भी जुबां पर नहीं लाना चाहता था। पुलिस के सारे प्रयास लगातार पानी में मिलते जा रहे थे। दो साल का वक्त गुजर चुका था लेकिन पुलिस गब्बर तो दूर की बात है गब्बर के बारे में कोई खबर भी हासिल नहीं कर पा रही थी। गब्बर सिंह पर उस वक्त तीन राज्य इनाम घोषित कर चुके थे। लेकिन चंबल घाटी में किसी को ईनाम का लालच नहीं बल्कि अपनी जान के लाले पड़े हुए थे। और तभी गोहद थाने में बैठे हुए मोदी ने एक ऐसा काम किया कि उनके लिए गब्बर तक पहुंचने का रास्ता मिल गया।गोहद सड़क के सामने घुमपुरा गांव में एक झोपड़ी से आग की लपटे दिखी। मोदी मौका ए वारदात पर पहुंचे। पुलिस ने आग पर काबू पा लिया तभी पता चला कि एक पांच साल का बच्चा दिख नहीं रहा है शायद वो झोंपड़ी में ही फंस गया। इससे पहले कि कोई सोचे मोदी खुद झोंपड़ी में घुसे और उस पांच साल के बच्चें को बाहर निकाल लाएं। बच्चा आग में झुलसा हुआ था। मोदी ने अपनी जीप और कुछ पैसे बच्चें के बाप को देकर फौरन अस्पताल भेज दिया। बच्चे के बाप का नाम था रामचरण।गोहद थाने और डांग गांव के बीच में दूरी बहुत नहीं  है। लेकिन डांग का गब्बर और गोहद में मध्यप्रदेश पुलिस दोनो के बीच इतनी दूरी हो चुकी थी कि गब्बर तक पुलिस की गोली पहुंच ही नहीं पा रही थी। ऐसे में झोंपड़ी के जलने के 25 दिन बाद रामचरण आ र पी मोदी के पास गोहद थाने पहुंचा और उसने मोदी को कहा कि वो मोदी की वर्दी पर मैडल सजा कर अहसान उतारना चाहता है। मोदी  हैरान थे कि रामचरण क्या करना चाहता है इस पर रामचरण ने कहा कि वो गब्बर का पता देंगा। 
रामचरण ने मोदी से कहा कि पहले वो रात में उसके साथ डांग गांव चले। रात में मोदी और रामचरण डांग पहुंचे फिर रामचरण मोदी को लेकर हाईवे और वहां से घूम का पुरा जिसे तालाब भी कहा जाता था पहुंचे। रामचरण ने वो भिंड हाईवे के इस तरफ डांग और दूसरी तरफ घूमकापुरा के बीच की वो जगह दिखा दी जहां गब्बर सिंह अक्सर रहा करता था। मोदी अपने दिमाग में नक्शा बना चुके थे , और जाल तैयार हो चुका था। बस अब शिकार का इतंजार था। 
गोहद थाने में 13 नवंबर 1959 का दिन। अभी सूरज सही से निकला भी नहीं था कि आर पी मोदी को एक मेहमान ने चौंका दिया। रामचरण पहुंच चुका था और उसने पुलिस वालों के बीच में चुपचाप मोदी को इशारा कर दिया कि पूरा गैंग ठिकाने पर पहुंच चुका है।  मोदी उसको अलग ले गए और डिटेल्स पूछी। रामचरण ने कहा कि पूरा गैंग पहुंच चुका है, पूरे गैंग को खत्म कर दो। क्योंकि चंबल में अगर गैंग का एक आदमी भी बचता है तो फिर वो मुखबिर के पूरे परिवार को खत्म करता है।सुबह 10 बजे तक गोहद थाने में तीन सौ हथियारबंद पुलिस वाले पहुंच चुके थे। प्लान बना तीन तरफ से घेराबंदी कर चौथी तरफ से सर्च पार्टी को आगे भेजा जाएं। मोदी ने किसी पुलिस वाले को ये पता नहीं दिया कि आखिर जाना कहां है और निशाना कौन है
मोदी और तीस आदमी सर्च पार्टी के तौर पर हाईवे की और से मौके की तरफ गए। दूसरी और से डिप्टी एसपी माधौं सिंह ने अपनी पार्टी लगा दी थी। पार्टी आगे बढ़ी तो देखा कि गैंग के लोग जमीन पर रैंगकर दूसरी तरफ से निकलने की कोशिश में है लेकिन वहां भी पुलिस मौजूद थी। लिहाजा गैंग ने फायरिंग शुरू कर दी।  
11 लोगों का गैंग पूरी ताकत से फायरिंग कर रहा था। मुठभेड़ सुबह दस बजे से शुरू हो चुकी थी। गैंग के साथ कुछ अपह्त लोग भी। दोनो तरफ से फायरिंग हो रही थी। दिन का समय था आसपास के गांवों के लोग मौके पर पहुंच चुके थे। डकैत फायरिंग कर जिस तरफ से भी बच निकलने की कोशिश करते उसी तरफ से पुलिस की हैवी फायरिंग शुरू हो जाती। अब डाकुओं ने एक गड्डे मे पोजीशन ले ली और पुलिस के साथ आखिरी फायरिंग शुरू कर दी। सुबह से चल रही मुठभेड़ शाम तक जारी थी। धीरे-धीरे अंधेरा छा रहा था और अंधेरे का लाभ उठा सकते है। लेकिन मोदी गब्बर को खत्म करने का ये आखिरी मौका खोना नहीं चाहते थे लिहाजा उन्होंने एक बड़ा फैसला ले लिया। 
मोदी ने अपने पुलिस वालों से कहा कि वो सीधा हमाल करने जा रहे है अगर कोई उनके साथ इच्छा से जाना चाहे तो चले। इस पर 11 गोरखा सिपाही जो पुतलीबाई के एनकाउंटर में भी साथ थे आगे निकल आए। मोदी गड्डे की तरफ बढ़े लेकिन डाकुओं की ओर से हैवी फायरिंग शुरू हुआ। मोदी ने हैंड ग्रेनेड से गड्डे में हमला किया। कुछ डाकुओं के मरने से फायरिंग कम हो गई लेकिन तब भी जैसे ही पुलिस ने आगे बढ़ना शुरू किया फिर एक डाकू की मार्कथ्री गरज उठी। इस पर मोदी ने फिर से दो हैंड ग्रेनेड गड़्डे में फेंके और फिर घायल डाकुओं पर लाईटमशीनगन से हमला बोल दिया। 
कुछ देर में जब पुलिस पार्टी गड़्े पर पहुंची तो देखा कि ग्रेनेड्र से मारे गए डाकुओं के बीच में गब्बर सिंह अपनी आखिरी सांसें गिन रहा था। उसका निचला जबड़ा ग्रेनेड से उड़ चुका था। कुछ ही देर में जब तलाशी पूरी हुई तो 11 डाकुओं का पूरा गैंग खत्म हो चुका था लेकिन इस ऑपरेशन में चार पकड़ में से दो पकड़ भी गोलियों की जद में आकर दम तोड़ चुकी थी। उधर गब्बर की मौत की खबर पक्की होने के साथ ही हाईवे पर खड़ी हजारों की भीड़ ने गब्बर सिंह की मौत की खुशी मनानी शुरू कर दी थी। ये चंबल के सबसे खूंखार डाकू का अंत था लेकिन आखिरी डाकू का नहीं। 
यही खुशखबरी प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू को उनके जन्म दिवस के दो दिन पूर्व मप्र.सरकार ने बतोर जन्म दिवस उपहार स्वरूप भेंट की थी ।

विशेष- ये वारूदी श्रंखला ने अब थका दिया अब प्रयास रहेगा चम्बल के कण-कण में बसे उन लाखो वीर शहीदों को लिखने का जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध हे कारगिल तक मिटटी की गरिमा को हिमालय पर स्थापित किया ।
कुछ परिचित लोक कथानक कुछ प्रशिद्धतम ऊँचे नाम और कुछ शामे गुमनाम सबका उल्लेख और श्रंखला में विविद प्रसंग भी ।
लगातार पढ़ते रहने के लिए #शी_फर्स्ट अथवा क्लोज लिस्टेड कर सकते हे ।

              आपका
      जितेन्द्र सिंह तोमर '५२से'               

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

ममता और कर्तव्य(फौज देवरे आई)

“बारात चल पड़ी है। गाँव समीप आ गया है इसलिए घुड़सवार घोड़ों को दौड़ाने लगे हैं। ऊँट दौड़ कर रथ से आगे निकल गए हैं । गाँव में ढोल और नक्कारे बज रहे हैं –
दुल्हा-दुल्हिन एक विमान पर बैठे हैं । दुल्हे के हाथ में दुल्हिन का हाथ है । हाथ का गुदगुदा स्पर्श अत्यन्त ही मधुर है। दासी पूछ रही है -“सुहागरात के लिए सेज किस महल में सजाऊँ? इतने में विमान ऊपर उड़ पड़ा।।’

विमान के ऊपर उड़ने से एक झटका-सा अनुभव हुआ और सुजाणसिंह की नीद खुल गई । मधुर स्वप्न भंग हुआ । उसने लेटे ही लेटे देखा, पास में रथ ज्यों का त्यों खड़ा था । ऊँट एक ओर बैठे जुगाली कर रहे थे । कुछ आदमी सो रहे थे|
और कुछ बैठे हुए हुक्का पी रहे थे । अभी धूप काफी थी । बड़ के पत्तों से छन-छन कर आ रही धूप से अपना मुँह बचाने के लिए उसने करवट बदली ।
‘‘आज रात को तो चार-पाँच कोस पर ही ठहर जायेंगे । कल प्रात:काल गाँव पहुँचेंगे । संध्या समय बरात का गाँव में जाना ठीक भी नहीं है ।’
लेटे ही लेटे सुजाणसिंह ने सोचा और फिर करवट बदली । इस समय रथ सामने था । दासी जल की झारी अन्दर दे रही थी । सुजाणसिंह ने अनुमान लगाया – ‘‘वह सो नहीं रही है, अवश्य ही मेरी ओर देख रही होगी ।’

दुल्हिन का अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए उसने बनावटी ढंग से खाँसा । उसने देखा – रथ की बाहरी झालर के नीचे फटे हुए कपड़े में से दो भाव-पूर्ण नैन उस ओर टकटकी लगाए देख रहे थे । उनमें संदेश, निमंत्रण, जिज्ञासा, कौतूहल और सरलता सब कुछ को उसने एक साथ ही अनुभव कर लिया । उसका उन नेत्रों में नेत्र गड़ाने का साहस न हुआ । दूसरी ओर करवट बदल कर वह फिर सोने का उपक्रम करने लगा । लम्बी यात्रा की थकावट और पिछली रातों की अपूर्ण निद्रा के कारण उसकी फिर आँख लगी अवश्य, पर दिन को एक बार निद्रा भंग हो जाने पर दूसरी बार वह गहरी नहीं आती । इसलिए सुजाणसिंह की कभी आँख लग जाती और कभी खुल जाती । अर्द्ध निद्रा, अर्द्ध स्वप्न और अर्द्ध जागृति की अवस्था थी वह । निद्रा उसके साथ ऑख-मिचौनी सी खेल रही थी । इस बार वह जगा ही था कि उसे सुनाई दिया

“कुल मे है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई।’
“राजपूत का किसने आह्वान किया है ? किसकी फौज और किस देवरे पर आई है ?”
सहसा सुजाणसिंह के मन में यह प्रश्न उठ खड़े हुए । वह उठना ही चाहता था कि उसे फिर सुनाई पड़ा –
‘‘झिरमिर झिरमिर मेवा बरसै, मोरां छतरी छाई।’’
कुल में है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई।”

‘‘यहाँ हल्ला मत करो ? भाग जाओ यहाँ से ?‘‘ एक सरदार को हाथ में घोड़े की चाबुक लेकर ग्वालों के पीछे दौड़ते हुए उन्हें फटकारते हुए सुजाणसिंह ने देखा ।
“ठहरों जी ठहरो । ये ग्वाले क्या कह रहे हैं ? इन्हें वापिस मेरे पास बुलाओ ।’ सुजाणसिंह ने कहा –
“कुछ नहीं महाराज ! लड़के हैं,यों ही बकते हैं । … ने हल्ला मचा कर नीद खराब कर दी |” …… एक लच्छेदार गाली ग्वालों को सरदार ने दे डाली ।
“नहीं ! मैं उनकी बात सुनना चाहता हूँ ।’
“महाराज ! बच्चे हैं वे तो । उनकी क्या बात सुनोगे ?’
“उन्होंने जो गीत गाया, उसका अर्थ पूछना चाहता हूँ ।’
“गंवार छोकरे हैं । यों ही कुछ बक दिया है। आप तो घड़ी भर विश्राम कर लीजिए फिर रवाना होंगे ।’’
“पहले मैं उस गीत का अर्थ समझुंगा और फिर यहाँ से चलना होगा ।’
‘‘उस गीत का अर्थ. ।’’ कहते हुए सरदार ने गहरा निःश्वास छोड़ा और फिर वह रुक गया |

“हाँ हाँ कहों, रुकते क्यों हो बाबाजी?”
“पहले बरात को घर पहुँचने दो फिर
इसका अर्थ बताऊँगा ।।’
“मैं अभी जानना चाहता हूँ ।’
‘‘आप अभी बच्चे हैं । विवाह के मांगलिक कार्य में कहीं विघ्न पड़ जायगा ।’’
“मैं किसी भी विघ्न से नहीं डरता ।
आप तो मुझे उसका अर्थ…… I’
‘‘मन्दिर को तोड़ने के लिए पातशाह की फौज आई है । यही अर्थ है उस का।’’
“कौनसा मन्दिर ?’
“खण्डेले का मोहनजी का मन्दिर।’
‘‘मन्दिर की रक्षा के लिए कौन तैयार हो रहे हैं ?’
‘‘कोई नहीं।’’ ‘‘क्यों ?’
‘‘किसमें इतना साहस है जो पातशाह की फौज से टक्कर ले सके । हरिद्वार, काशी, वृन्दावन, मथुरा आदि के हजारों मन्दिर तुड़वा दिए हैं, किसी ने चूँ तक नहीं की ‘‘ “पर यहाँ तो राजपूत बसते हैं।’’
“मौत के मुँह में हाथ देने का किसी में साहस नहीं है ।

“मुझ में साहस है । मैं मौत के मुँह में हाथ दूँगा । सुजाणसिंह के जीते जी तुर्क की मन्दिर पर छाया भी नहीं पड़ सकती । भूमि निर्बीज नहीं हुई, भारत माता की पवित्र गोद से क्षत्रियत्व कभी भी निःशेष नहीं हो सकता । यदि गौ, ब्राह्मण और मन्दिरों की रक्षा के लिए यह शरीर काम आ जाय तो इससे बढ़कर सौभाग्य होगा ही क्या ? शीघ्र घोड़ों पर जीन किए जाएँ ?’ कहते हुए सुजाणसिंह उठ खड़ा हुआ ।


परन्तु आपके तो अभी काँकण डोरे (विवाह-कंगन) भी नहीं खुले हैं ।
“कंकण-डोरडे अब मोहनजी कचरणों में ही खुलेंगे ।।’
बात की बात में पचास घोड़े सजकर तैयार हो गए । एक बरात का कार्य पूरा हुआ, अब दूसरी बरात की तैयारी होने लगी । सुजाणसिंह ने घोड़े पर सवार होते हुए रथ की ओर देखा – कोई मेहन्दी लगा हुआ सुकुमार हाथ रथ से बाहर निकाल कर अपना चूड़ा बतला रहा था । सुजाणसिंह मन ही मन उस मूक भाषा को समझ गया।

“अन्य लोग जल्दी से जल्दी घर पहुँच जाओ ।’ कहते हुए सुजाणसिंह ने घोड़े का मुँह खण्डेला की ओर किया और एड़ लगा दी । वन के मोरों ने पीऊ-पीऊ पुकार कर विदाई दी ।
मार्ग के गाँवों ने देखा कोई बरात जा रही थी । गुलाबी रंग का पायजामा, केसरिया बाना, केसरिया पगड़ी और तुर्रा-कलंगी लगाए हुए दूल्हा सबसे आगे था और पीछे केसरिया-कसूमल पार्गे बाँधे पचास सवार थे । सबके हाथों में तलवारें और भाले थे । बड़ी ही विचित्र बरात थी वह । घोड़ों को तेजी से दौड़ाये जा रहे थे, न किसी के पास कुछ सामान था और न अवकास ।

दूसरे गाँव वालों ने दूर से ही देखा – कोई बरात आ रही थी । मारू नगाड़ा बज रहा था; खन्मायच राग गाई जा रही थी, केसरिया-कसूमल बाने चमक रहे थे, घोड़े पसीने से तर और सवार उन्मत्त थे । मतवाले होकर झूम रहे थे ।

खण्डेले के समीप पथरीली भूमि पर बड़गड़ बड़गड़ घोड़ों की टापें सुनाई दीं । नगर निवासी भयभीत होकर इधर-उधर दौड़ने लगे । औरते घरों में जा छिपी । पुरूषों ने अन्दर से किंवाड़ बन्द कर लिए । बाजार की दुकानें बन्द हो गई । जिधर देखो उधर भगदड़ ही भगदड़ थी ।

“तुर्क आ गये, तुर्क आ गये “ की आवाज नगर के एक कोने से उठी और बात की बात में दूसरे कोने तक पहुँच गई । पानी लाती हुई पनिहारी, दुकान बन्द करता हुआ महाजन और दौड़ते हुए बच्चों के मुँह से केवल यही आवाज निकल रही थी- “तुर्क आ गये हैं, तुर्क आ गये हैं “ मोहनजी के पुजारी ने मन्दिर के पट बन्द कर लिए । हाथ में माला लेकर वह नारायण कवच का जाप करने लगा, तुर्क को भगाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगा ।

इतने में नगर में एक ओर से पचास घुड़सवार घुसे । घोड़े पसीने से तर और सवार मतवाले थे । लोगों ने सोचा – ‘‘यह तो किसी की बरात है, अभी चली जाएगी ।’ घोड़े नगर का चक्कर काट कर मोहनजी के मन्दिर के सामने आकर रुक गए । दूल्हा ने घोड़े से उतर कर भगवान की मोहिनी मूर्ति को साष्टांग प्रणाम किया और पुजारी से पूछा – “तुर्क कब आ रहे हैं ?’
“कल प्रातः आकर मन्दिर तोड़ने की सूचना है ।’

“अब मन्दिर नहीं टूटने पाएगा । नगर में सूचना कर दो कि छापोली का सुजाणसिंह शेखावत आ गया है; उसके जीते जी मन्दिर की ओर कोई ऑख उठा कर भी नहीं देख सकता । डरने-घबराने की कोई बात नहीं है ।’

पुजारी ने कृतज्ञतापूर्ण वाणी से आशीर्वाद दिया । बात की बात में नगर में यह बात फैल गई कि छापोली ठाकुर सुजाणसिंह जी मन्दिर की रक्षा करने आ गए हैं । लोगों की वहाँ भीड़ लग गई । सबने आकर देखा, एक बीस-बाईस वर्षीय दूल्हा और छोटी सी बरात वहाँ खड़ी थी । उनके चेहरों पर झलक रही तेजस्विता,दृढ़ता और वीरता को देख कर किसी को यह पूछने का साहस नहीं हुआ कि वे मुट्टी भर लोग मन्दिर की रक्षा किस प्रकार कर सकेंगे । लोग भयमुक्त हुए । भक्त लोग इसे भगवान मोहनजी का चमत्कार बता कर लोगों को समझाने लगे –
“इनके रूप में स्वयं भगवान मोहनजी ही तुकों से लड़ने के लिए आए है । छापोली ठाकुर तो यहाँ हैं भी नहीं- वे तो बहुत दूर ब्याहने के लिए गए है,- जन्माष्टमी का तो विवाह ही था, इतने जल्दी थोड़े ही आ सकते हैं ।
यह बात भी नगर में हवा के साथ ही फैल गई । किसी ने यदि शंका की तो उत्तर मिल गया –

‘‘मोती बाबा कह रहे थे ।’’
मोती बाबा का नाम सुन कर सब लोग चुप हो जाते ।

मोती बाबा वास्तव में पहुँचे हुए महात्मा हैं । वे रोज ही भगवान का दर्शन करते हैं, उनके साथ खेलते, खाते-पीते लोहागिरी के जंगलों में रास किया करते हैं । मोती बाबा ने पहचान की है तो बिल्कुल सच है । फिर क्या था, भीड़ साक्षात् मोहनजी के दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी । भजन मण्डलियाँ आ गई । भजन-गायन प्रारम्भ हो गया । स्त्रियाँ भगवान का दर्शन कर अपने को कृतकृत्य समझने लगी । सुजाणसिंह और उनके साथियों ने इस भीड़ के आने के वास्तविक रहस्य को नहीं समझा । वे यही सोचते रहे कि सब लोग भगवान की मूर्ति के दर्शन करने ही आए हैं । रात भर जागरण होता रहा, भजन गाये जाते रहे और सुजाणसिंह भी घोड़ों पर जीन कसे ही रख कर उसी वेश में रात भर श्रवण-कीर्तन में योग देते रहे ।

प्रात:काल होते-होते तुर्क की फौज ने आकर मोहनजी के मन्दिर को घेर लिया । सुजाणसिंह पहले से ही अपने साथियों सहित आकर मन्दिर के मुख्य द्वार के आगे घोड़े पर चढ़ कर खड़ा हो गया । सिपहसालार ने एक नवयुवक को दूल्हा वेश में देख कर अधिकारपूर्ण ढंग से पूछा –
“तुम कौन हो और क्यों यहाँ खड़े हो?’
“तुम कौन हो और यहाँ क्यों आए हो ?’
“जानते नहीं, मैं बादशाही फौज का सिपहसालार हूँ।’
“तुम भी जानते नहीं, मैं सिपहसालारों का भी सिपहसालार हूँ ।’
‘‘ज्यादा गाल मत बजाओ और रास्ते से हट जाओ नहीं तो अभी. ”
“तुम भी थूक मत उछालो और चुपचाप यहाँ से लौट जाओ नहीं तो अभी ….।”
“तुम्हें भी मालूम है, तुम किसके सामने खड़े हो?’
“शंहशाह आलमगीर ने मुझे बुतपरस्तों को सजा देने और इस मन्दिर की बुत को तोड़ने के लिए भेजा है। शहंशाह आलमगीर की हुक्म-उदूली का नतीजा क्या होगा, यह तुम्हें अभी मालूम नहीं है। तुम्हारी छोटी उम्र देख करे मुझे रहम आता है, लिहाजा मैं तुम्हें एक बार फिर हुक्म देता हूँ कि यहाँ से हट जाओ ।।’

“मुझे शहंशाह के शहंशाह मोहनजी ने तुकों को सजा देने के लिए यहाँ भेजा है पर तुम्हारी बिखरी हुई बकरानुमा दाढ़ी और अजीब सूरत को देख कर मुझे दया आती है, इसलिए मैं एक बार तुम्हें फिर चेतावनी देता हूँ कि यहाँ से लौट जाओ।’
इस बार सिपहसालार ने कुछ नम्रता से पूछा – “तुम्हारा नाम क्या है ?’
“मेरा नाम सुजाणसिंह शेखावत है ।’
“मैं तुम्हारी बहादूरी से खुश हूँ।
मैं सिर्फ मन्दिर के चबूतरे का एक कोना तोड़ कर ही यहाँ से हट जाऊँगा । मन्दिर और बुत के हाथ भी न लगाऊँगा । तुम रास्ते से हट जाओ ।’’

“मन्दिर का कोना टूटने से पहले मेरा सिर टूटेगा और मेरा सिर टूटने से पहले कई तुकों के सिर टूटेंगे ।
सिपहसालार ने घोड़े को आगे बढ़ाते हुए नारा लगाया –
‘‘अल्ला हो। अकबर |”
“जय जय भवानी ।’ कह कर सुजाणसिंह अपने साथियों सहित तुकों पर टूट पड़ा |
लोगों ने देखा उसकी काली दाढ़ी का प्रत्येक बाल कुशांकुर की भाँति खड़ा हो गया। तुर्रा -कलंगी के सामने से शीघ्रतापूर्वक घूम रही रक्तरंजित तलवार की छटा अत्यन्त ही मनोहारी दिखाई से रही थी| बात की बात में उस अकेले ने बत्तीस कब्रे खोद दी थी ।

रात्रि के चतुर्थ प्रहर में जब ऊँटों पर सामान लाद कर और रथ में बैलों को जोत कर बराती छापोली की ओर रवाना होने लगे कि दासी ने आकर कहा –
“बाईसा ने कहलाया है कि बिना दुल्हा के दुल्हिन को घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए ।।’
“तो क्या करें ?’ एक वृद्ध सरदार ने उत्तर दिया ।
“वे कहती हैं, मैं भी अभी खण्डेला जाऊँगी ।
“खण्डेला जाकर क्या करेंगी ? वहाँ तो मारकाट मच रही होगी ।’
“ वे कहती हैं कि आपको मारकाट से डर लगता है क्या ?’
“मुझे तो डर नहीं लगता पर औरत को मैं आग के बीच कैसे ले जाऊँ ।’
“वे कहती हैं कि औरतें तो आग में खेलने से ही राजी होती हैं ।
मन ही मन – ‘‘दोनों ही कितने हठी हैं ।
प्रकट में – “मुझे ठाकुर साहब का हुक्म छापोली ले जाने का है ।
“बाईसा कहती हैं कि मैं आपसे खण्डेला ले जाने के लिए प्रार्थना करती हूँ ।’
‘‘अच्छा तो बाईं जैसी इनकी इच्छा ।।’ और रथ का मुँह खण्डेला की ओर कर दिया । बराती सब रथ के पीछे हो गए । रथ के आगे का पद हटा दिया गया ।

खण्डेला जब एक कोस रह गया तब वृक्षों की झुरमुट में से एक घोड़ी आती हुई दिखाई दी ।
“यह तो उनकी घोड़ी है ।“ दुल्हिन ने मन में कहा । इतने में पिण्डलियों के ऊपर हवा से फहराता हुआ केसरिया बाना भी दिखाई पड़ा ।
“ओह! वे तो स्वयं आ रहे हैं । क्या लड़ाई में जीत हो गई? पर दूसरे साथी कहाँ हैं ? कहीं भाग कर तो नहीं आ रहे हैं ?’
इतने में घोड़ी के दोनों ओर और पीछे दौड़ते हुए बालक और खेतों के किसान भी दिखाई दिए ।

‘‘यह हल्ला किसका है ? ये गंवार लोग इनके पीछे क्यों दौड़ते हैं ? भाग कर आने के कारण इनको कहीं चिढ़ा तो नहीं रहे हैं ?’
दुल्हिन ने फिर रथ में बैठे ही नीचे झुक कर देखा, वृक्षों के झुरमुट में से दाहिने हाथ में रक्त-रंजित तलवार दिखाई दी ।
“जरूर जीत कर आ रहे हैं, इसीलिए खुशी में तलवार म्यान करना भी भूल गए । घोड़ी की धीमी चाल भी यही बतला रही है ।’’
इतने में रथ से लगभग एक सौ हाथ दूर एक छोटे से टीले पर घोड़ी चढ़ी । वृक्षावली यहाँ आते-आते समाप्त हो गई थी । दुल्हिन ने उन्हें ध्यान से देखा । क्षण भर में उसके मुख-मण्डल पर अद्भुत भावभंगी छा गई और वह सबके सामने रथ से कूद कर मार्ग के बीच में जा खड़ी हुई । अब न उसके मुख पर घूंघट था और न लज्जा और विस्मय का कोई भाव ।

“नाथ ! आप कितने भोले हो, कोई अपना सिर भी इस प्रकार रणभूमि में भूल कर आता है।” कहते हुए उसने आगे बढ़ कर अपने मेंहदी लगे हाथ से कमध ले जाती हुई घोड़ी की लगाम पकड़ ली।

और उसी स्थान पर खण्डेला से उत्तर में भग्नावस्था में छत्री खड़ी हुई है, जिसकी देवली पर सती और झुंझार की दो मूर्तियाँ अंकित हैं । वह उधर से आते-जाते पथिकों को आज भी अपनी मूक वाणी में यह कहानी सुनाती है और न मालूम भविष्य में भी कब तक सुनाती रहेगी ।

लेखक : कुँवर आयुवान सिंह जी हुडील, ‘ममता और कर्तव्य’ पुस्तक से साभार

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...