शुक्रवार, 17 मई 2024

अखातीज

अखातीज (अक्षय तृतीया)

अखातीज निकले अभी सप्ताह भी नही हुआ है,यह लोक  -उस लोक के उस पावन पर्व को लगभग बिसरा ही चुका है। अब मिट्टी के चार ढलो के ऊपर,मिट्टी का कलश स्थापित करके बरखा होने के पूर्व अनुमान की शकुन अथवा युक्ति ज्ञात ही किस स्त्री को है?

अब इस लोक की संस्कृति सनै-सनै संस्कारी मातृशक्ति के अभाव में संक्षारित जो हो रही है।अब कनिक की खीखडी मूँझ की सींक में पिरोकर रखना पसंद ही कौन करता है ?
अब न वृषभों की जोड़ियां रही हैं और ना ही हरायतो के लिये पाग बांधते किसान!हल-जुअट,बखर-पटेला जैसे किबदन्ति सी प्रतीत होते हैं।बस बचा है वृद्धा होती माताओं के द्वारा एक अमिट संस्कृति को कुछ और साँसे देकर,मंगलगान करके अपनी दिवंगत माँ-सासुमाँ के सिखाये हुये गीतों में पल्लवित भारत की यशोगाथा को स्मरण करना !

पुनः तीज आई थी...भुरारे से माँओ के पल्लू सिरपर क्या आधे माथे तक थे।घी में कनक भुनाती माँ पुनः भगवान बलराम व माँ कात्यायनी को गुनगुनाकर प्रसन्नचित थी। पुत्रबधुओं को अपनी सास के किस्से से मनोरंजित करती...ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे..महीनों से शुष्क पड़ी पीली माटी में बरखा की चंद बूंदों ने सम्पूर्ण आभामण्डल को पल्लवित कर दिया हो ।
एक कोने में संजोकर रखे हल को अर्घ देकर,गुलगुले उसकी फाल में पिरोकर पुनः धन्य-धान्य भण्डार अक्षत रहने की कामना की गई।
माँ बताती हैं कि प्रातःकाल किसी भी स्त्री का खुला सिर व पुरुष का सूर्योदय उपरांत जागते देखना भारी अपशकुन होता है!अब तो हर स्त्री के सिर पर पल्लू क्या बेटी के कांधे से दुपट्टा तक उड़ गया है !!
सत्यता में भोली माँ को पता ही नही कि उनका सतयुगी समय निकलकर कलियुगी समय कुण्डली बनाके सबके सिर पर बिराजमान हो चुका है ।

टिटहरी ने अबकी उच्च स्थान पर अपने अन्डजो को जना है,अबकी बरखा भरपूर होने का यह पूर्वानुमान जो है। ऐसी मान्यता है कि टिटहरी को वरदान मिला था।जहां वह अण्डे जनेगी वह स्थान बरखाजल भराव से दूर रहेगी। टिटहरी के चार अण्डे देख हर कृषक प्रसन्नता से आषाडी 'हरायतो' की प्रतीक्षा कर रहा है। यह किसानी भी आश्चर्य चकिताओं से परिपूर्ण कर्म है। उसी टिटहरी के चार अण्डज देख प्रसन्न हो रहा है,जिसके गांव में बोलने पर बिन थूके-अपशकुन मिटाये नही रहता !
इन सबसे दूर टिटहरी अपनी कल्पनाओं में लम्बी-लम्बी टांगे ऊपर करके चित्त लेटकर गगन (आसमान)को गिरने से रोकने को किसी ऊसड धरा पर सोयी होगी।(जैसी कि लोक क़िबदन्ती है)

और!!

इधर भीषण ग्रीष्म की तप्तता में पुनः कोई स्वाभाविक आद्र हो उठा होगा !!!
पुनः बरखा आएगी,पुरवाई चलेगी और जितने भी घाव लगे हैं.. पुनः रिसकर कसक उठेंगे ...!!!!!

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जितेन्द्र सिंह तौमर '५२से'
  चम्बल मुरैना मप्र.

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...