बुधवार, 18 जनवरी 2023

चम्बल एक सिंह अवलोकन भाग 108

अम्बाह कस्बे के पूठ गांव से करीब 100 मीटर पहले ही एक लगभग 500 वर्ष या उससे पुरानी जग्गा (शैवमत की उपमठ) है। यह जग्गा अपने-आप में ऐतिहासिक-प्रागेतिहासिक महत्वों के साथ-साथ श्रद्धा व सनातन साधकों जीवंत प्रमाण भी है ।
प्रथम दृष्टि में देखने पर वास्तुशिल्प व निर्मित ढांचे के अनुसार यह स्थान,लोक प्रचलित स्थापना से कंही हटकर ८०० अथवा इससे कहीं अधिक वर्ष पूर्व का प्रतीत होता है। क्योंकि इसमें और प्रतिहार कालीन ग्वालियरगढ़ वास्तुकला,वास्तुशिल्प व वास्तु शिल्प सामग्री सेंकडो समानताएं मिल जाएंगी  ।
अस्तु!
करीब 25 एकड़ जगह पर अडिग खड़े हुए इस तपोमढ़ मे सैकड़ों कक्ष व दक्षिण-पश्चिमी भाग के मध्य में श्रीराम-जानकी-लक्ष्मण जी की संयुक्त मूर्तियां है।जिनपर पुरातन समयातीत  कई ऐतिहासिक महत्व के उल्लेखित ताम्रपत्र महंत श्री नारायण दास जी के पास सुरक्षित हैं।
कभी शैव साधकों से लेकर क्रान्तिकारियों व सिंधियाओं की अगाध श्रद्धा केंद्र रहा मठ आज उपेक्षित सा खड़ा है। लोग आते हैं और 500 वर्षों से सतत धुनित अखण्ड धूनी आभा की परिक्रमा कर मनोती करते हैं और अतिशीघ्र लाभ प्राप्तकर विस्मरण कर देते हैं ।
एक प्रचलित जनश्रुति व बुजुर्गों के अनुसार सिंधिया सामन्त से रियासतदारी तक दत्तक सन्तान  मुक्ति का प्रमाणिक किस्सा बड़ा रोचक है।इसको जानने-समझने हेतु थोड़ा संक्षिप्त सा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उल्लेख करना मुझे आवश्यक लगता है ।

ग्वालियर का सिंधिया 'राजवंश' राणोजी सिंधिया द्वारा स्थापित किया गया था।यह महाराष्ट्र स्थिति सतारा जनपद में कान्हेरखेड़ गांव के जानकोजीराव  के पुत्र थे । सिंधिया 'शिंदे' का ही   ब्रिटिशों की वाक शैली द्वारा उतपन्न अपभ्रंसित 'सरनेम' है। सन 1818 के तीसरे मराठा युद्ध मे ब्रिटिश भारतीय शाशन के गवर्नर-जनरल लाडहेगेन्स्टिन द्वारा मराठाशक्ति पूरी तरह तहस-नहस कर दीया था,और सिंधियाओं कि बागडोर दौलतराव सिंधिया के हाथ आ गयी।दौलतराव  बिट्रिशो के समक्ष घुटने टेके व भारत के भीतर अंग्रेजी रियासत के रूप रहने को तैयार हो गए।मराठा सरदारों में दौलतराव सिंधिया ने अंग्रेजों के साथ मिलकर,उज्जैन से लश्कर होते हुए ग्वालियर पर आधिपत्य करते हुए,राजधानी बना लिया गया ।
दौलतराव सिंधिया की मृत्यु उपरांत उनकी बिधवा रानी बैजाबाई ने साम्राज्य चलाया और बिट्रिश सत्ता  हस्तांतरण से बची रही। 
एक बड़ी रौचक बात हैं की वाडियार वंश की तरह ही सिंधिया वंश भी सन्तानोतपत्ति से वंचित था।बैजाबाई के दत्तकपुत्र जानकोजीराव ने सत्ता संभाली,1843 जानकोजीराव की मृत्युपरांत पुनः एक दत्तक पुत्र लिया गया।जयाजीराव द्वारा कुल 4 विवाह कृमशः1848 चिमनाराजे,1852 लक्ष्मीबाई राजे,1873 बायूबीबाई राजे, व मृत्यु से कुछ दिन पूर्व ही रानी साक्याराजे के साथ...जिन्ही से एक सन्तान बाबा श्री मंगलाचार्य जी की आशीषभरी गालियों से प्राप्त हुआ।

किस्सा यह की श्रीटीलाद्वारपीठनामक,श्रीरामन्दमहापीठाचार्य श्री श्री ११०८ मंगलचार्य जी ख्याति उस समय इतनी हुआ करती थी,की लोग दूर-दूर से -उनके द्वारा प्रकट की अग्नि से उतपन्न धूनी की धोक लगाने आया करते थे। चंहुओर से हताश सिंधिया जब अपनी चौथी पत्नी से विवाह कर चुके तो उनको भी किसी ने महाराज जी द्वारा धुनि व उसकी परिकृमा का वक्तव्य कह सुनाया। राजा-रानी हाथी आदि फ़ौज के साथ आये तो बाबा जी ने 'कायर' व दुष्ट-पापी जैसे कटुशब्दो से नबाजकर भगा दिया।
ग्रामीणों के अनुसार पुनः सिंधिया दम्पत्ति दण्डबत करते हुए करीब 500 मीटर की दूरी तह करके आये तब मन्दिर में प्रवेश करने दिया था। पग-पखारन व आजन्म ईश्वरभक्ति में तल्लीन रहने के उपरांत महाराज ने उपहार स्वरूप एक गाली दी 'जा निपूत जाई,अब कभी अपना भोंडा(मुंह) मत दिखाना!'
कहते हैं कि इस वाकये के कुछ समय उपरांत रानी गर्भिणी तो हुई किन्तु राजा चल बसे। साकयाराजे से सिंधिया परिवार पहली उतपन्न सन्तान मिली और लगातार दत्तक पुत्रो का सिलसिला टूटा,आगे चलकर इसी सन्तान का नाम 'जीवाजी राव' रखा गया।

इस समस्त क्षेत्र में महाराज मङ्गलाचार्य जी से हजारों किस्से-किबदन्ति व जनश्रुतियां है।किंतु उनकी आयु ठीक से किसी को ज्ञात नही है।
महाराज जी द्वारा प्रकट की गई अखण्ड धूनी आज भी करीब 500 वर्षों से रमी हुई है,वंही पास में उनका चीमटा,त्रिशूल भी स्थापित है। जिससे हजारों लोगों की मंशाएं पूर्ण हो चुकी है ।
सनद रहे यह वही उपमठ है ,जिसमे विनोद खन्ना-कबीर बेदी अभिनीत 'कच्चे धागे' फ़िल्म व डाकू पुतली बाई से लेकर कई दस्यु आधारित फिल्म फिल्माई जा चुकी है। इसी मठ पर विनोदखन्ना कभी घण्टो भजन करके नृत्य भी कर चुके थे।

इस मठ के कुछ भागो का अधूरा निर्माण से पुनर्निर्माण व जीर्णोद्धार भी किया गया था,मन्दिर न्यास से करीब 51 बीघे पुख्ता जमीन जुड़ी हुई है। यह मंदिर न्यास्ट्रस्ट अंतर्गत आता है,जो कि जिलाधाकारी द्वारा संरक्षित है।
सन 1999 में इस मठ को पुरातत्व संरक्षित स्थान भी घोसित किया जा चुका है,...किन्तु यह हताश करने बाली बात है कि जगह-जगह उखड़ती हुई मन्दिर विशाल प्रवेश द्वार की ककैया ईंटें व पुरातन समय का मसाला अपनी बुनियादों से लगातार चूना छडा रँहा है। 

लोग आते हैं,चले जांते है..अखण्डधूनी से मनोकामना भी रखते हैं और पूर्ण होने पर आभार व्यक्त करने भी आते हैं,किन्तु नही आता कोई इस तपोस्थल,ऐतिहासिक स्थान व 'मङ्गलाचार्य जी महाराज ' तपोस्थल की सुधि लेने ...!!

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जितेंद्र सिंह तौमर '५२से'
चम्बल मुरैना मप्र

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...