मंगलवार, 25 मई 2021

खूबसूरत अहसास

अरे सुनो!!
शायद तुम्हे सुनने या पढने में आ जाये..पर मुझे लगता है कि यह सब ग्रहण करने शक्ति अब तुमसे बहुत दूर जा चुकी है,ठीक बेसे ही जैसे पतझड़ में वृक्ष अपने तृणों से रहित होकर बड़े ही अनासक्त से लगते है...और उनके तल में एकत्रित हो जाता है उन्ही के तृणों का बहुत बड़ा झुरमुट। जिसमे किसी की भी पदचाप उन तृणों के असितित्व को चकनाचूर करते हुए निकल जाती है,असितित्व तुम्हारे अप्राप्य तृणों का होता है और उनकी करुण कृदंन कि एक पीड़ा को में अपने अंतस में महसूस करता हूं ।
जरा इधर चितवन करिए...!
तुम्हारे मुरझाए हुए चेहरे को जब भी देखता हूं,मुझे भय होता है कि तुम इतने समीप कैसे हो,कैसे कभी -कभी तुम्हारी उपस्थिति मुझे इतनी सुस्पष्ट आभासित रहती है?
जबकि आभास-बास्तविक्ता,प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष,सच-झूठ,स्पर्श-अश्पर्स,दृश्य-अदृश्य इन सब सजीव-निर्जीव अनुभवों का आलम्बन कहि दूर अनन्त में ओझल हो चुका है ।

देखो! बिल्कुल तुम्हारी पसंद की छोटी चिड़िया जैसी आज कैसे भोर से बाल सँवार के निकली है,उसका एक पैर खड़े होकर दाना चुगना और दोनों पैरों पर नाचना मुझे बार-बार उस गोरैया की याद दिलाती है,जिसके पंखे से पर क्षतिग्रस्त हो गए थे,तुम बहुत रोये थे जैसे चिड़िया के रूप में तुमने स्वयं कुतरे हुए खुद के पंखों की पीड़ा महसूस की हो !

तुम्हे पता है?
अब हमारे यंहा अब ओस के मोती नही झड़ते है और उसपर गिरती किरणों से भुवन भास्कर की रश्मिका का परावर्तित आनन्द का दृश्य जैसे किसी ने अपहृत कर लिया है।फिर भी जाता हूं की कंही कोई शबनम न गिरी हो और में उस आभास में विश्वास के धनी दृश्य से अछूता न रह जाऊ ।
वो ठंड से मेरा काँपना और जुड़ी के ज्वर से कराहना ...तुम्हारा दोस्तो के साथ मेरा ख्याल रखना कितना सुखद था...ऐ काश!वह ज्वर सदा के लिए बना रहता ।
मुझे याद है ...मेरा सर्द लहर में भीगकर हॉस्टल तक पहुँचना और तुम्हारा बस से बीच राह में साथ देने के लिए कूदना..कितना कुछ तुम अपना हिस्सा अपने आप बाट लेते थे ।
अब न साथ है,न हिस्सा है और न ही वह बारिस है बस बाकी है अन्तस् का भीगना और खुशनुमा वक्त की स्मर्णीकाये। जिनमे व्यक्त करने पर अनुभवी होने का भय....वह भय ही तो है जो हृदय के भाव भरे स्पंदन को महसूस ही नही होने देता है। रक्त वाहिकाएं रक्तसंचरण तो करती है पर अब उसमें पूर्व की भावनाओ का सागर ठाटे नही मारता है,वहः तो वक्त के साथ अरमानो की तरह सूख चला है। उसमे जो कहि नमी बाकी है न उसमे 'समझदारी' का ताप सनै-सनै सब झुलसा के दरारे निकाल चुका है। उन दरारों से उठती भावुकता की नमी बाष्प बनकर कभी कभी निकलती है और साथ ही निकलता खूबसूरत अहसासों का जनाना जिसमे लाश भी खुद है और जनाजेगीर भी खुद है ..!!!


राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...