मंगलवार, 27 जून 2017

==चम्बल एक सिंह अवलोकन भाग २==

=====चम्बल एक सिंह अवलोकन=====
            ●भाग -२ बागी मान सिंह राठौर●
ताजमहल के कारण प्रशिद्ध हुए उप्र के महानगर आगरा से लगबग ५०किमी की दुरी तय करने पर एक चौराहा आता हे जिससे कुछ ही दुरी तय करने पर मन्दिर पर दृष्टि जाती हे ।
मन्दिर किसी पौराणिक देवता अथवा स्थानीय लोकदेवता का न होकर चम्बल के महाराज की उपाधि प्राप्त मशहूर बागी मान सिंह राठौर का हे ....

यहाँ आज भी विधिवत घण्टे घड़ियालों की मधुर ध्वनि के मध्य एक प्रश्न मष्तिष्क में कोतूहल प्रकट करता हे की अगर मानसिंह एक दुर्दांत डकेत थे फिर इनका इतना सम्मान क्यों ...?

आखिर बो क्या कारण रहे की गाव के एक सीधे साढ़े लांगुरियो(नवदुर्गा के समय गाया जाने बाले लोकगीत ) के प्रेमी ,अखाड़े में लड़ने बाले मान सिंह को रायफल उठानी पडी ?

क्या कहानी थी इन के पीछे जो मप्र०राज०और उप्र० की अंग्रेजी पुलिस से लेकर आजाद भारत की पुलिस महकमे में "मान सिंह " नाम सुनते ही सिहरन दौड़ जाया करती थी ।

बात 1939 के पराधीन हिन्दुस्तान के उप्र राज्य में चम्बल किनारे मप्र की सीमा से सटे गाव खेड़ा राठौर  से प्रारम्भ करते हे ।
एक सीधा ,साधा गवरु ,छरहरा १७ वर्षीय नव युवा जिसने हाल ही में ११वि तात्कालिक हायर सेकेण्डरी परीक्षा में कीर्तिमान स्थापित किया ८३प्रतिशत अंक लाना एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी उस समय  .....
किन्तु समय को शायद इस जवान की बहिर्मुखी प्रतिभा को चम्बल के बीहड़ो में प्रशिद्धि की बजाय कुख्याति देना रुचिकर लगा ।
जब बात स्वम के स्वाभिमान गरिमा पर आ पहुचती तो फिर इंसान सहज ही आत्मसम्मान के लिए स्वम शश्त्र उठाता रहा हे ....अन्याय के खिलाफ !!

ऐसी ही कहानी ठाकुर मान सिंह की हे जब स्वम की पुस्तैनी ३७२ बीघे जमीन पर अंग्रेजी हुकूमत के साहूकार की कुदृष्टि पड़ी क्या कोई देख सकेगा की कल जिस माँ को सम्मानपूर्वज पूजता रहा उस पर किसी गुलाम की आमद हो चले .....!

ठिकाने के तत्कालिक साहूकार के द्वारा जबरदस्ती कब्जे को लेकर एक वृहद पंचायत रखी गयी किन्तु अंग्रेजी सरकार में न्याय कैसा...? और नकली खसरे खतौनी को दिखाकर साहूकार को जमीन कब्जे करने को कहा गया ।

अधिकतर चम्बल में बागी बनाएं जाने में पटवारी और ,पुलिस का हाथ रहा जिन्होंने न सिर्फ पक्षय् पात किया बल्कि जुल्म की भी सीमाये तोड़ दी थी ।
फिर चाहे बो अंग्रेजी शाशन हो या आजाद भारत का लोकतन्त्र ,इंसान को रोद्र रूप में लाने के तीन कारण जड़,जोरू,जमीन में यहां जमीन ने मुख्य आधार रहा ।
अपनी पुस्तैनी जमीन को जाते देख परिवारी जनो पर हुए जुल्मो से तंग आकर ,चम्बल की सुरमयी वादियो में एक बागी ने बगावत कर दी और नाम हुआ बागी मानसिंह राठौर जिन्होंने बागियों की मर्यादामय रीती को जीवित रखा ।

गिरोह में स्त्री का प्रवेश वर्जित,
माँ बहिनो का सम्मान
,बच्चों महिलाओ को शपर्ष तक करने की सजा सिर्फ म्रत्यु जेसे कठोर नियम बनाये गए ।

साहूकार को अंग्रेजी हुकूमत का संरक्षण प्राप्त था किन्तु फिर भी जमीन और परिवार का बदला लेनेसे  न रोक पाया कोई .....एक अंग्रेज अधिकारी wc खोब तो आगरा छोड़कर भाग निकला था जब उसको त्रिदिवशीय अल्टीमेटम दिया गया ।

मान सिंह गैंग के प्रारम्भिक दिनों में १८बागी हुआ करते थे जिनमे उनके भतीजे तहसीलदार,रुपा पण्डित,लोकमन दीक्षित उर्फ़ लुक्का महाराज और एक गाव का मुस्लिम सुल्ताना  प्रमुख सक्रिय  भूमिका  में थे ।

एक मुस्लिम बागी सुल्ताना एक एक नर्तकी महिला को ले आया जो गिरोह के नियमो के विरुद्ध हुआ
ततक्षण उसको फटकार और दंड देने उद्दृत मानसिंह को नर्तकी महिला ने स्वम की मर्जी से आना गिरोह में शामिल होने की मंशा जारीर की किन्तु नियमो के पावंद मानसिंह ने मृत्यु न देकर सुल्ताना को गिरोह से निष्कासित किया ।
जीनका बाद में अलग गिरोह पुतली बाई प्रथम महिला दस्यु सुंदरी और सुल्ताना के नाम से कुख्यात हुआ ।

एक ् नियमो के पालन की कट्टर प्रतिबद्धता पर किस्सा हे ।
बहुत कुछ अध्यन करने पर विदित होता हे की उस समय स्वतन्त्र भारत की क्रांतिकारी गतिविधिया जोरो पर थी जिसके लिए धन की आवश्यकता पड़ी और क्रान्तिकारियो के सहयोगी बागी मानसिंग को सुचना दी गयी मई आगरा के अंग्रेजी पिट्ठू सेठ के यहाँ डकैती की जाय ।

जिसकी परिणीति में , आगरा के एक सेठ को पत्रिका के माध्यम से सुचना दी गयी।
अंग्रेजी फौजो को साहूकार किहवेलि में उलझाकर बाकी गिरोह सेठ के घर में दाखिल हुआ लूट की गयी ।
किन्तु किसी मनचले डकेत ने सेठ की लड़की को छेड़ दिया ,हो हल्ला होने पर समस्त गिरोह को बही एकत्रित किया गया और सेठ की लड़की से पहिचान कराकर दोसी डाकू को बही तत्क्षण गोली मार दी गयी ...।

बाद में दस्यु मान सिंन्ह ने स्वम इस कृत्य के लिए क्षमा मांगी और स्वम लड़की के पाँव पड कर सारा धन यह बोलकर लोटा दिया की हम धन लूटते हे किसी की अस्मिता नहीं ।

एक बात भी प्रचलित हे मानसिंह के बारे में की

न कभी गरीब सताओ ,न सताई कोई आडी जात
लूटो जो बाँट दियो बेटियो के विह किये खूब भराए भात !!    (मामेला)!!

1123 लूट करीब 200 हत्याए (जिसमे 147 बिटिश सेनिक व् अधिकारी शामिल ।) की बजह से स्वतन्त्र भारत की प्रशाशन की नजर में एनिमी 1(a1) लिस्टेड गिरोह अपना विशाल रूप ले चुका था लगबग 400 बागियों का गिरोह 100 से ज्यादा पुलिस मुठभेडे झेल चुका गिरोह धीरे कमजोर हुआ ।

मान सिंह की सलाह पर तहसीलदार सिंह,रूपा,लुक्का पण्डित इत्यादि आत्म समर्पण कर चुके थे ,जबकि स्वम ने न किया ......

एक बार उनको एक पंचायत में बोलते देखकर sn सुब्बाराव इतने प्रभावित हुए की #रोविनहुड की संज्ञा दे दी ।और बोले की आजतक जो समाचार पत्रो ,पत्रिकाओ में पढ़ा सब मिथ्या नजर आता हे ।
मानसिंह डाकू न होकर समाजसेवक ,जनसेवक जेसी छवि हे ।

आखिर कोई कितनी भी अच्छी छवि बनाये समाज में किन्तु गोलियों से प्रारंभ हुई कहानी गोली खाने पर ही समाप्त होती हे ।
२३जुलाई १९५५ को भिंड जिले की बरोही की तिवरिया नामक स्थान पर गोरखा ट्रुप के द्वारा बिछाये गए व्यूह में मानसिंह भी अंतोतगत्वा गति को प्राप्त हुए ।
चम्बल के बीहड़ो के बेताज बादशाह की कहानी पर १९७१ में दारा सिंह द्वारा अभिनीत फ़िल्म "मुझे जीने दो"भी बन चुकी हे ।
और लोककथाओं गीतों में नोटंकियो में इनका चरित्र आज भी सहज दिखाई पड जाता हे ।
                         क्रमशः
            🙏जय भवानी ,जय चम्बल 🙏

===चम्बल एक सिंह अवलोकन===

====चम्बल एक सिंह अवलोकन====
                       भाग ३
         ●बागी माधो सिंह भदोरिया ●
                      

चंबल नदी का पानी जितना शांत और ठहरा हुआ है दिखता है उसके उलट चंबल के बीहड़ों में जिंदगी उतनी ही उलटफेर से भरी दिखती है।
बीहड़ों ,खारो ,झरनो से बहता हुआ पानी चंबल में मिलता है उसी तरह बागियों ओं के किस्से कही से शुरू हो चंबल में आ जुड़ते है। किन्तु हमने इस बार चंबल के एक ऐसे बागी के विषय जाना  जिसकी उंगलियां एसएलआर या राईफल पर जितनी तेजी से चलती थी उससे भी तेज चलता था उनका दिमाग।

चंबल के बागी की कहानी पांच दशक बाद भी लोगो के जेहन में आज भी ताजा है.....माधौं सिह भदोरिया "भगरैना"!
एकफौंजी, एक चिकित्सक, जादूगर, या अभिनेता माधौं सिंह ने अपनी जिंदगी में इन सब किरदारों को निबाहा और हर किरदार में एक अलग छाप बीहड़ी इतिहास में छोड़ी ।
चंबल में कहावत है कि बागपन किये बागी दिमाग से नहीं दिल से काम लेते है,प्रस्तुत लेख में इस मिथक से परेह  माधौं सिंह की कहानी सामने आती हे ।

जो एक बदले की कहानी से शुरू हुई और हाथों में बंदूक थामने तक पहुंची।
चंबल से कूदने से पहले इंसान के जख़्मों पर मरहम रखने वाले माधौं सिंह ने जमीर पर जख्म खाएं तो फिर खून की बारिश करने वाला माधौं सिंह बन गया "चंबल सरकार माधौं सिंह"
माधो सिंह ने दुश्मनी का खात्मा करने के कत्ल किया और फिर चंबल में आतंक और खौंफ का ऐसा साम्राज्य खडा़ कर दिया कि तीन तीन राज्यों की पुलिस की नींद हराम हो गयी ।

11साल के बीहड़ों के जीवन में दर्ज सैकड़ों मुकदमें माधौं सिंह और उसके गैंग पर दर्ज हुए। औरपुलिस मुठभेड़ों से बार बार बच निकलने वाले माधौंसिंह ने जब समर्पण किया तो अकेले नहीं लगभग ५४७ बागियों ने उसके साथ बंदूके रख दी। लेकिन माधौं सिंह ने इस बार भी एक नए रूप में जनता के सामने आ गया। और ये था  दुनियाका सबसे बड़ा जादूगर माधौं सिंह। और बन गया असली जादूगर जिसकी कलाकारी देखने के लिए इलाकों में भीड़ लग जाया करती थी।
आज ऐसे ही जादूगर की कहानी के सच तक आपको ले कर चलते है। देखते है माधौं सिंहका सफर कहां से शुरू हुआ।

ये चंबल का इस पार का इलाका है। इस पार यानि उत्तरप्रदेश का हिस्सा। आगरा जिले का पिनाहट थाना। इसी थाने के का गांव गढ़ी बघरैना।
चंबल के बीहड़ों में बसे दूसरे छोटे से गांव जैसा। गांव से सटा हुआ बीहड़।
माधौं सिंह बड़े किसान परिवार में पैदा हुए थे । माधौं सिंह के परिवार के पास बहुत अच्छी पुश्तैनी खेती की जमीन होने कारण  परिवार की गांव में काफी ईज्जत थी।
गांवमें बचपन सही से बीत रहा था। माधौं सिंह के पुराने साथी बताते है कि बचपन से ही माधौं सिंह को एक धुन थी कि उसको कोई बड़ा काम करना है। माधौंसिंह ने बड़ा़ काम करने के लिए कोई उल्टा रास्ता नहीं पकड़ा बल्कि मेहनत के रास्ते का चुनाव  किया। गांव की शुरूआती पढ़ाई के बीच खेलकूद में अच्छा होने के चलते माधौं सिंह को फौंज में नौकरीमिल गई......राजपूताना रेजिमेंट की मेडिकल कोर में माधौं सिंह नर्सिंग असिस्टेंट के तौर पर भर्ती हो गये । यहां तक सब कुछ ठीक चल रहा था। गांव में कच्चे मकान में पकी हुई ईंटे लगने लगी,किन्तु समय बड़ा बलवान  गांव में परिवार के ही कुछ लोगो को इस कदर बढ़ना अच्छा नहीं लगा।
माधौं सिंहको नौकरी करते -करते सात साल के करीब का समय हुआ था और गांव में दुश्मनी का दायरा बढ़ता जा रहा था।इसी बीच माधौं सिंह एक लंबी छुट्टी लेकर गांव आ पहुंचे।
गांव में आकर भी माधौं सिंह ने सेना की मेडीकल कोर में सीखी हुई चिकित्सा का काम आसपास के गांव में शुरू कर दिया। माधौं सिंह की व्यहारकुशलता ने यहां भी सफलता के रास्तें उसके लिए खोल दिये।
जो विरोधियो को बेहद नागवार गुजरी ,इससे गांव की दुश्मनी और बढ़ गई और फिर एक दिन गाव  के ही दुश्मनों ने माधौं सिंह पर चोरी का इल्जाम धर दिया।
माधौं सिंह ने गांव में सफाई दी लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। चंबल के इन इलाकों में पुलिस और कानून को लेकर हमेशा से लोगो की एक ही धारणा रही है कि वो चांदी के जूते के हिसाब से चलते है। माधौं सिंह को समझ नहीं आ रहा था कि उसकी हाथों कीरेखाएं किस और उसे खींच कर ले जा रही है। उसकी सफाई मानी नहीं जा रही थी पहले इल्जाम और फिर गांव में घेर कर मारने की साजिश। और फिर एक दिन माधौं सिंह के सब्र का प्याला भर गया। माधौं सिंह ने बंदूक उठाई और जा पहुंचा अपनेदुश्मन के दरवाजे।
गांव में हुई फायरिंग की आवाजों ने चंबल को इशारा कर दिया था कि फिर से किसी ने अपनी दुश्मनी को आग को बुझाने के लिए अपने गुस्से के बादलों से इंसानी खून की बारिश करदी है।
गांव में दुश्मनी, उबलता हुआ खून, किस्सों में बहादुरी और चंबल का पानी माधौं सिंह को बीहड़ में ले आया।
माधौं सिंह भी अब कानून तोड़ चुके थे और उसको चंबल की शरण चाहिए थी।
चंबल में उस समय कई गैंग सक्रीय किन्तु  माधौं सिंह को शऱण मिली जंगा यानि जंगजीत सिंह के गैंग में।
माधौं सिंह ने कुछ दिन तक इसी गैंग में काम किया। और जल्दी ही अपना रास्ता भी तलाश करना शुरू कर दिया।
सेना में भले ही माधौं सिंह मेडीकलकोर में थे , लेकिन  सेना के हथियारों की ट्रैनिंग ली थी।
फौंज का अनुशासन उसको यहां भी काम आ रहा था। जल्दी ही माधौं सिंह ने कुछ आदमियों को अपने साथ लिया और एक नया गैंग खडा कर लिया। इस गैंग को माधौं सिंह के दिमाग ने एक बड़े गैंग में तब्दील कर दिया।
चंबल में पचास के आखिरी दशक में एक के बाद एक हुए बड़े एनकाउंटर्स ने बागियों की एक पूरी खेप का सफाया कर दिया था। मानसिंह, रूपा, पुतली, सुल्ताना जैसे बागियों को ठिकाने लगाया जा चुका था, ऐसे में माधौं सिंह ने तय कर लिया कि वो अब सिर्फ एक गैंग का नहीं चंबल का सरदार बनेगा।
गैंग ने नए ऩए हथियार इकट्ठा करना शुरू कर दिया। इस दुश्मनी में आठलोगों का कत्ल हो चुका था।
पहले उत्तरप्रदेश के इलाके को और फिर चंबल पार कर मध्यप्रदेश और उसके बाद राजस्थान के इलाकों में भी अपने पैर जमा लिए।
माधौं सिंह जानते थे कि जितनी बार अपनी पनाहगाह से वारदात करने गैंग बाहर निकलेगा उतनी बार पुलिसकी निगाह उन पर होगी। इसके सुरक्षित रहने के लिए  माधौं सिंह ने एक दूसरा आसान रास्ता पकड़ा। पकड यानि अपहरण का धंधा।
ये पकड़ का काम माधौं सिंह को रास आ गया।
चंबल में माधौं सिंह ने पकड़ को एक उद्योग में बदल दिया। पैसा कमाने का आसान तरीका ....चंबल में माधौं सिंह का सिक्का चल रहा था। पुलिस के पास सिर्फ ईनाम बढ़ाने से ज्यादा कुछ भी नहीं रह गया था। हजार की रकम के जमाने में लाखों का ईनाम। चंबल में माधौं सिंह डेढ़ लाख का ईनामी डाकू जिंदा या मुर्दा।
पकड़ करने के बाद फिरौंती की रकम हासिल करने के नए ऩए तकीरे इस्तेमाल करना शुरू किया। कत्ल और डकैती की वारदात करने की बजाय माधौं सिंहने पकड़ करने के लिए ्साहस दिखाना शुरू कर दिया। एक एक दो की बजाय सामूहिक पकड़ करने के तरीके ने पुलिस फोर्स को सकते में ला दिया।
माधौंसिंह ने पकड़ करने के लिए एक से एक तरीके ईजाद कर लिये थे। यहां तक पिकनिक करने आएं हुए लोगो का सामूहिक अपरण करने से गुरेज नहीं किया।माधौं सिंह ने पुलिस के अधिकारी की वर्दी पहनी और झील पर पिकनिक कर रहे लोगो को ही उठा लिया  किन्तु समस्या ....इतने लोगो को साथ कैसे ले जाया जाएं। तब माधौं सिंह ने असली पुलिस को वेवकूफ बना  मदद ली।माधो सिंह ने कहा कि इन लोगों को सेंटर पर ले जाकर पूछताछ करनी होगी।
अबइतने लोगो को एक जीप में नहीं ले जाया जा सकता है इसीलिए पुलिस के अधिकारी से माधौं सिंह ने पुलिस का ट्रक मांगा. अधिकारी ने आनाकानी की तो माधौं सिंह ने उसको अपने सेना में सीखे गए अधिकारियों के बातचीत के तरीके से विश्वास दिला दिया कि वो एक उच्चाधिकारी है औऱ फिर पुलिस का ट्रक लिया उसमें बैठाकर साथ ले कर चल दिए।और  पुलिस के वर्दी में डाकू दर्जनों लोगो को लेकर निकल गए।
पुलिस में हड़कंप मच गया। लेकिन माधौं सिह तो पकड़ लेकर फरार हो चुके  थे । अब सिर्फ पकड़ का पैसा जाना था सो वो माधौं सिंह के पास चला गया।
शिवपुरी के अजय मित्तल जी अब लगभग 80 साल के है लेकििन उनको आज भी याद है कि किस तरह से उनको माधों सिंह ने दो महीने तक जंगलों में रखा। अजय जी को याद है कि जिस भी इलाके में माधों सिंह का गैंग पहुंचता था उस इलाके तमाम गैंग आकर माधो सिंह से मिलकर उसका सम्मान करते थे। माधों सिंह से मिलने आने वाले डाकू अपनी हैसियत के हिसाब से कई खेत पहले जूते उतार कर ही माधों सिंह से मिलने पहुंचते थे और मुलाकात के बाद माधों सिंह से उसकानिशाना दिखाने के जिद भी करते थे।
माधों सिंह आंखपर पट्टी बांध कर फिर तीन आदमियों के बीच में रखे हुए किसी एक बीजूके पर निशाना लगाते थे
उनके अनुसार कई बार ये अपनी आंखों से देखा और एक बार बी माधों सिंह का निशाना नहीं चूका था। अजय सिंह दस हजार रूपए के पहुंचने तक माधों सिंह के साथ घूमते रहे। उनके मुताबिक गांव वालों का माधों सिंह को बहुत सपोर्ट था ।
‌उस वक्त तीन लाख रूपए की फिरौती कुख्यात मूर्ति तशकर मोहनलाल से वसूली गई थी। पुलिस ने इस मामले में भागदौड बहुत की लेकिन वो माधौं सिंह के गैंग तक नहीं पहुंचे।माधौं सिंह गैंग्स पांच सौ से ज्यादा पकड़ कर चुका था।
‌ इस बड़ी पकड़ के बाद  पुलिस के मुखबिर माधौं सिंह की तलाश में जंगल जंगल की खाक छानने लगे। इस पर माधौं सिंह ने भी अपनी योजना में तब्दीली करने कीसोची। किन्तु  उससे पहले ही एक बड़ी मुठभेड़ उसकी पुलिस से हो गई। और मुठभेड़ भी ऐसी की दिन में अंधेरा छा गया। गोलियां ही गोलियों। लगभग तीस घंटें चली इस मुठभेड़ में गैंग में से सिर्फ माधौंसिंह और उसका एक साथी ही निकल पाएं बाकि सभीपुलिस की गोलियों का निशाना बन गए।-घंटों की इस मुठभेड़ में अखबारों में लिखा गया कि माधों सिंह को पुलिस की गोलियों ने छलनी कर दिया है। लेकििन अगले ही दिन माधों सिंह गैंग का एक आदमी परिवार के पास पहुंचा और बताया कि पुलिस की गोलियों से इसब बार भी मास्टर बच निकले ।
इस वक्त तक चंबल सरकार बन चुके  माधौं सिंह का एक खत भी किसी भी संपन्न आदमी की रीढ़ कंपा देता था। माधौंसिंह को नए -नए हथियारों की कमी नहीं थी। पुलिस को जो हथियार 1971 के बाद मिले वो पहले से ही माधौं सिंह के पास थे।लेकिन 11 साल के चंबल के बीहड़ों के सफर ने माधौंसिंह को थका दिया था।

एक के बाद एक मुठभेड़ में डाकू मारे जा रहे थे तो दूसरी और पुलिस डाकुओं का मुखबिर तंत्र तोड़ने में कामयाब हो चुकी थी। गैंग के अंदर पुलिस के मुखबिर धंस चुके थे।
एक दिन क्या हुआ जब चंबल के इतिहास में दर्ज एक बड़ी मुठभेड़ की तैयारी की गई।13 मार्च 1971 की इस मुठभेड़ में पुलिस ने माधौं सिंह के गैंग के सबसेभरोसे के आदमी कल्याण उर्फ कल्ला, गर सिंह , चिंतामण, बाबू, और विशंबर सिंह जैसे 13 डकैतों को व्यूह बना घेर लगा कर मार दिया गया ।
आकाशवाणी से ये समाचार सुन इस एनकाउंटर ने माधौं सिंह की कमर तोड़़ कर रख दी।
माधौं सिंह की छठी इंद्री ने उसे बता दिया कि चंबल में अब उसकी जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है। और तब उसने एक फैसला कर लिया। ये फैसला था बागी जीवन से रिश्ता तोड़ देने का,किन्तु ये काम इतना आसान नहीं। चंबल की सबसे मशहूर कहावतों में से एक कहावत है चंबल में कूदने की तारीख के बाद किसी बागी की जिंदगी में दूसरी तारीख नीम के पत्तों में लिपट कर शहर आने की ही होती है।( मुठभेड़ में मारे गए बागियों की लाशों को नीम के पत्तों में लपेट कर ही रखा जाता था)

माधौं सिंह को मालूम था कि नीम के पत्तों में लिपटने से बचना है तो योजना कोई शानदार ही होनी चाहिए। और कुछ दिन में ये योजना भी तैयार हो गई।माधौं सिंह ने सरेंडर करने की सोच ली। चंबल का सबसे बड़ा बागी अब कानून के हाथों में जाना चाहताथा।
लेकिन पुलिस और कानून तो उसकी तलाश में थे ... ऐसे में फिर माधौं सिंह के उत्कृष्ट दिमाग ने ऐसी चाल चली कि एक दो दस नहीं बल्कि पांच सौ से ज्यादा बागियों को कानून के सामने ला खड़ा किया।
हिंदुस्तान के सबसे बड़े समर्पण की पटकथा लिखने में माधौं सिंह ने फिल्मी उतार-चढ़ाव को भी मात दे दी।
माधौं सिंह को याद था कि संत विनोबा भावे चंबल में डाकुओं को समर्पण करा चुके थे। मानसिंह के गैंग के लोकमन दीक्षित और दूसरे डाकुओं ने विनोबा जी के सामने हथियार डाले थे और वो अपनी सामान्य जिंदगी जी रहे थे। और फिर एक दिन संत विनोबा भावे के सामने रामसिेह नाम का शख्स जा पहुंचा और उसने कहा कि चंबल के खूंखार डाकू बंदूकें रखना चाहते है।

बिनोबा जी ने कहा कि अब उनका शरीर साथ नहीं दे रहा है लिहाजा वो जे पी को एक खत लिख रहे है चाहे तो वो वहां जासकते है।रामसिंह जेपी यानि जय प्रकाश नारायण जी के पास पटना जा पहुंचे। यहां भी तीन दिन तक माधो सिंह ने अपना परिचय राम सिंह ठेकेदार के तौर पर ही दिया किन्तु जब उन्होंने देखा कि जयप्रकाश जी ज्यादा बात नहीं कर रहे है तो उन्होंने  खुद खड़ा होकर कहा कि वही कुख्यात बागी माधों सिंह है ।
जयप्रकाश जी ये सुनकर चौंक उठे कि ये सामने खड़ा हुआ शख्स और कोई नहीं बल्कि चंबल का सबसे बडा ईनामी बागी माधौं सिंह है।वो शख्स बेखौंफ उनके सामने खड़ा है.......!!
जे पी इस पर तैयार हो गए। लेकिन शर्त रख दी कि ज्यादा से ज्यादा समर्पण हो सिर्फ माधौं सिंह का गैंग नहीं। इस नामुमकिन से काम को भी माधौं सिंह ने अपने हाथ में ले लिया।सबसे बडा़ रोड़ा था मोहर सिंह।
कत्ल की इतनी वारदात के बाद मोहर सिंह को लग रहा था कि शायद फांसी का फंदा या फिर पुलिस की गोली ही उसकी नियति है किन्तु मोहर का माधौं सिंह के प्रति सम्मान और आयु बड़ा होने के लिहाज ने जिन्हें सहज ही मना लिया ।

मुरैना के पगारा डैम पर इस समर्पण की तैयारी हुई।हजारों की भीड़ डाकुओं को देखने पहुंची। माधौं सिंह और मोहर सिंह सहित ५४७ डाकुओं ने हथियार डाले। डाकुओं के लिए शर्तों मनवाने के बाद माधौं सिंह ने डाकुओं के शिकार लोगो के लिए भी मुआवजे और मदद की मांग की थी जिसने उसके खिलाफ ज्यादातर लोगों की नफरत खत्म हो गई।

माधौं सिंह को जेल हुई और उसने मुंगावली खुली जेलमें अपनी सजा काटी। लेकिन माधौं सिंह हमेशा कुछ नया करने की धुन में रहते थे तो यहां भी उन्होंने  एक नया काम सीख लिया।
लोगो को जादू दिखाने का..........चंबल सरकार जो कभी लोगों में खौंफ जगाता था अब वो उनको हैरान कर रहा था अपने जादू की कला से.......

माधौं सिंह की कहानी चंबल की हैरंतअगेंज हकीकतों में से एक है। एक सीधे-साधे इंसान के डाकू बनने औरफिर डाकू से वापस अकेले नहीं सैकड़ों लोगो को वापस इंसान बनाने की कहानी। पुलिस अधिकारी भी मानते है कि चंबल के उस ऐतिहासिक समर्पण में माधौं सिंह की भूमिका अहम थी।

1991 में एक सैना का चिकित्सीयसैनिक ,गाव के डाक्टर,टीलो पर बच्चों को तिपाहि लगा पढ़ाने वाले मास्टर,तो चम्बल की वादियो की सनसनी सरदार ,और जेल से बने जादूगर माधों सिंह कितनी किरदारों को जी कर अंतोतगत्वा गति को प्राप्त हुए।
कृमशः
#नॉट लेख अध्यन एवम् बुजुर्गो से सुनी बातो के आधार पर
~जितेंद्र सिंह तोमर
२६/०६/२०१७

राजा भलभद्र सिंह 'चहलारी'

यथोचित प्रणाम।  जो शहीद हुये है उनकी...... 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में,  अंग्रेजों के खिलाफ बहराइच जिले में रेठ नदी के तट पर एक निर...